अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 1

आनंद को वह दिन अच्छी तरह याद है, जब तालचेर से संबलपुर जाते समय रास्ते में पड़ने वाले रेढ़ाखोल स्टेशन पर चाय की चुस्की लेते हुए उसके बड़े भाई अरुण ने पूछा था, “आनंद, सामने देखो, यह मूर्ति किसकी है?” 

आनंद निरुत्तर था। 

चाय की दुकान से थोड़ी दूर एक गोल चौराहे पर किसी अंधे व्यक्ति की आदम-क़द मूर्ति बनी हुई थी, दोनों हाथ जोड़े मानो शून्य की तरफ़ मुँह उठाए प्रार्थना करने की मुद्रा में। होंठों पर दिव्य स्मित। चौराहे के चारों तरफ़ संगमरमर की पट्टिकाओं पर गहरे काले अक्षरों में ओड़िया लिपि में कुछ पंक्तियाँ लिखी हुई थी, जिसका हिन्दी अनुवाद था: 

“एक बूँद रुधिर और एक हड्डी से निर्मित यह जीव
मेरा जन्म भले ही नरक में जाए, मगर जगतोद्धार हो।”

बाद में आनंद को किसी मित्र ने बताया कि ये पंक्तियाँ अमेरिका के किसी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में अंकित है। विश्व-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत ये पंक्तियाँ थीं। दुनिया में प्राणियों का दुख अपरिमित है और कवि कहता है, मेरा जीवन चाहे नरक में जाए, जगत का उद्धार हो। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ के मुख्य पात्र रैक्वमुनि को उनके गुरु की पत्नी तप की तुलना में दुनिया के दुखी लोगों की सहायता करने को श्रेष्ठ मानती है। 

मूर्ति वाला भक्त अंध कवि भी यही कहता है—मेरे जन्म से अगर किसी को थोड़ा-बहुत सुकून मिल जाए तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा। ऐसी निःस्वार्थ भीष्म घोषणा करने वाला शायद यह अंधा कवि दुनिया का पहला इंसान रहा होगा। 

आनंद सोचने लगा, यह कवि सही मायने में अंधा नहीं था। वह तो दुनिया को अपनी भीतरी आँखों से अच्छी तरह देख रहा था, तभी तो परोपकार की भावना उसके मन में बलवती हुई होगी। 

तभी चाय की दुकान पर खड़े एक अपरिचित व्यक्ति ने मानो आनंद और उसके बड़े भाई अरुण के मन की बातों को अच्छी तरह पढ़ लिया हो। पास में आकर वह कहने लगा, “सर, आप दोनों जिस मूर्ति को अपलक निहार रहे हैं। जानते हो, वह किसकी मूर्ति है?” 

“नहीं, हमें मालूम नहीं हैं,” आनंद ने उत्तर दिया। 

“यह कोई नेता नहीं है, कोई क्रांतिकारी नहीं है, कोई योद्धा नहीं है, कोई राजा नहीं है। यह और कोई नहीं, वरन् ओड़िशा का बहुत बड़ा कवि है, भक्त कवि भीम भोई। आँखों से अंधा, मगर ज्ञान में जीती जागती ज्योत। उनकी कविताओं ने, उनके भजनों ने, दो सौ साल पहले ओड़िशा के इस अँचल में हलचल पैदा की थी, धार्मिक आंदोलन खड़ा कर दिया था। पौराणिक ब्राह्मण धर्म और वैदिक धर्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की, जातिवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष किया और जातिविहीन नए महिमा धर्म की स्थापना में अहम् भूमिका अदा की। ‘महिमा धर्म’ का शायद आपने नाम नहीं सुना होगा। आज भी ओड़िशा के कुछ ज़िलों में इस धर्म के बहुत सारे अनुयायी मिलते हैं। यह दूसरी बात है, महिमा धर्म देश में ज़्यादा नहीं फैल पाया, मगर सनातन हिन्दू धर्म को चीर-फाड़कर नई मानवीय विचारधारा को अवश्य जन्म दिया था।” 

कुछ देर रुककर चाय की चुस्की लेते हुए फिर से कहने लगा, “यह वह ज़माना था जब बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म की विकृतियाँ उभर कर सामने आ रहीं थीं और दूसरी तरफ़, देश में मुसलमानों और अँग्रेज़ों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। ऐसे दुर्दिनों में भगवान ने इस अंधे को धरती पर भेजा, जिसमें अपनी कविताओं के बल पर नए धर्म की स्थापना के लिए अथक प्रयास किया, मगर पूरी तरह सफल नहीं हो सका, क्योंकि वह नीची जाति का आदमी था।” 

    “नीची जाति?” अरुण ने प्रश्न किया। 

“हाँ, और नहीं तो क्या? कोई आदिवासी कवि ब्राह्मणों के समतुल्य सम्मान पा सकता है, इस देश में? कभी नहीं,” धीमे-स्वर में उस अपरिचित व्यक्ति ने उत्तर दिया, जैसे वह किसी अपराध-बोध से ग्रस्त हो। 

“आदिवासी कंध था यह अंधा। आज जब समाज में जातिवाद का घोर प्रचलन है तो ज़रा सोचिए, दो सौ साल पहले का समाज कैसा रहा होगा? आज जब आदिवासी शूद्र लोगों की बात कोई नहीं सुनता है, तो ग़ुलामी की ज़ंजीरों से जकड़े उस ज़माने में उनकी कौन सुनता होगा?” 

“हाँ, यह बात तो है। हमारे देश को जातिवाद ने जर्जर कर दिया है,” आनंद ने अपने मन की बात स्पष्ट की। 

“इस अंधे कवि का चुंबकीय व्यक्तित्व था, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। फिर भी आप इसके बारे में कुछ ज़्यादा जानना चाहते हैं तो मेरे पास ओड़िया लिपि में लिखी तालपत्रों पर लिखी सवा सौ साल पुरानी एक पांडुलिपि है, जिसमें उनके व्यक्तित्व कृतित्व और जीवन के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी हुई हैं। मैं अब बुज़ुर्ग हो गया हूँ। निःसंतान हूँ। पत्नी स्वर्ग सिधारे दस साल हो गए। सेवानिवृत्त शिक्षक हूँ। मन में बहुत इच्छा थी कि इस पांडुलिपि को प्रकाशित करवाऊँ? मगर न तो मेरे पास पैसे हैं और न ही मुझे इस बारे में कोई ज्ञान है,” अपनी असमर्थता जताते हुए वह व्यक्ति दीर्घ श्वास लेने लगा। 

आनंद की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। इतना बड़ा धार्मिक विप्लवी व्यक्तित्व! मगर ओड़िशा के गिने-चुने प्रांतों में ही ख्याति-लब्ध। मन ही मन आनंद सोचने लगा। काश! यह पांडुलिपि उसे मिल जाती तो वह उसे अवश्य पढ़ता और उसकी आत्मकथा को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की तरह प्रकाशित करवाता। 

उस व्यक्ति ने मानो आनंद के मन की बात सुन ली हो। मुस्कुराते हुए वह कहने लगा, “सर, आपकी जानकारी के लिए कहना चाहूँगा कि भीम भोई के व्यक्तित्व और कृतित्व से भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत ओड़िया कवि सीताकांत महापात्र भी काफ़ी प्रभावित थे। साहित्य अकादमी से उनकी भीम भोई पर पुस्तक प्रकाशित हुई थी। देश-विदेश के कई लोग आज भी उनके धर्म-दर्शन पर अनुसंधान करने के लिए रेढ़ाखोल, खालियापाली, कपिलास, जोरन्दा, कटक, खोर्द्धा, भुवनेश्वर का चक्कर काटते हैं। फिर भी उनके जीवन के गूढ़ रहस्य अभी भी अनसुलझे हुए हैं।” 

अज्ञात व्यक्ति के इस कथन ने आनंद के हृदय को इस क़द्र छू लिया कि वह पांडुलिपि को रहस्यमयी ख़जाने की तरह मानने लगा। उस पांडुलिपि के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए अरुण भी काफ़ी अधीर हो रहे थे। एक मूर्ति के पीछे इतना बड़ा ऐहित्य, इतनी विशाल धार्मिक परंपरा छुपी हुई थी! दुर्भाग्य की बात यह है कि बहुलभाषी देश में आज भी हमारे जैसे बहुत सारे लोग भीम भोई जैसे महान व्यक्तित्व से अनभिज्ञ होंगे। 

अचानक संबलपुर जाने का विचार बदल गया। हमारी गाड़ी संबलपुर की तरफ़ न जाकर फूलवाणी के रास्ते की तरफ़ मुड़ी। रेढ़ाखोल से लगभग बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जटासिंहा गाँव, भीम भोई की जन्म-स्थली सोनपुर के सुबलया के नज़दीक। सड़क के दोनों तरफ़ प्राकृतिक सुषमा देखकर मन हर्षित हो रहा था। हमारे मार्गदर्शन के लिए हमने अपनी गाड़ी में उस अपरिचित इंसान को भी बिठा लिया था। दिव्य-गुणों से सम्पन्न कवि भीम भोई की जन्म-स्थली के दर्शन के लिए भगवान ने शायद उस व्यक्ति को हमारे पास भेजा था। 

जटासिंहा के रास्ते घना जंगल था। कहीं-कहीं मोड़ पर ‘हाथी चलापथ’ के बोर्ड ओड़िया भाषा में लिखे हुए थे, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता था कि आस-पास से हाथियों का झुंड इस रास्ते भोजन-पानी की तलाश में गुज़रता होगा। बीच-बीच में सुनसान वीरान सड़कें आ रही थीं। सड़क के दोनों तरफ़ धान के खेत। जहाँ तक नज़रें जा रही थी, वहाँ तक हरीतिमा ही हरीतिमा। नदी, झरने, पुल, कच्ची-पक्की सड़कों को पार करते हुए आनंद की गाड़ी एक जगह जाकर खड़ी हो गई। 

लोहे के तिकोने बोर्ड पर एक तरफ़ चिह्न बना हुआ था—जटासिंहा गाँव जाने का रास्ता। 

गंतव्य तक पहुँचने में लगभग 5 किलोमीटर शेष बचे होंगे। 

यह गाँव कभी रेढाखोल राजा के अधीन था। चबूतरे के पास जाकर गाड़ी रुक गई। जटासिंहा गाँव की चौपाल थी यह। गाड़ी से उतरकर चबूतरे पर बैठे व्यक्ति से आनंद ने भीम भोई के जन्म-स्थान का पता पूछा। जन्म स्थान से उसका मतलब था, जिस घर में भीम भोई का जन्म हुआ था। आनंद के प्रश्न का उत्तर न पाकर अपरिचित व्यक्ति ने ओड़िया भाषा में यह सवाल दोहराया तो उसने ओड़िया भाषा में उत्तर दिया, “यहाँ से थोड़ी दूर महिमा धर्म वालों का आश्रम है। उस स्थान पर भक्त का जन्म हुआ था।” 

आनंद और उसका बाद भाई अरुण उस अपरिचित व्यक्ति के साथ उसके उत्तर पर ध्यान दिए बग़ैर सीधे चलते गए। 

जटासिंहा गाँव। 

अभी भी छोटा-सा गाँव। बाज़ार में सब्ज़ियों और फलों के ठेले लगे हुए हैं। उनके पीछे दो-चार परचूनी सामान की दुकानें तथा उससे आगे बरगद के पेड़ के पास ज़मीन पर शृंगार सामग्री और कपड़ों की दुकानें लगी हुई हैं। यहाँ के अधिवासी पारंपरिक ओड़िया वेशभूषा में है, जिसमें भारतीय संस्कृति की झलक साफ़ नज़र आ रही है। यहाँ के लोगों को धर्म भीरू तो नहीं कहा जा सकता, मगर आध्यात्मिक चेतना से ओत-प्रोत सादगी उनके चेहरों पर साफ़ झलकती नज़र आ रही है। 

बरगद के पेड़ के दूसरी तरफ़ प्राथमिक विद्यालय है, उसके प्रांगण में कुछ कुर्सियाँ बिछी हुई हैं, सामने प्रधानाचार्य का कार्यालय है। आनंद के मन में आया कि प्रधानाचार्य शिक्षित हैं, अतः भीम भोई के बारे में अवश्य ही कुछ जानकारी दे सकते हैं। 

प्रधानाचार्य के कार्यालय में एक वयोवृद्ध आदमी नीचे सिर झुकाए कुछ लिख रहा था। आनंद और अरुण के क़दमों की आहट सुनकर सिर ऊपर उठाते हुए अन्यमनस्क भाव से कहने लगा, “भाई, क्या कुछ काम है? आप किसे खोज रहे हो?” 

“आपसे ही कुछ काम था। हम खोज रहे हैं भीम भोई को। क्या आप उनके बारे में कुछ जानते हैं?” आनंद ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। 

“भीम भोई नामक कोई विद्यार्थी हमारी स्कूल में नहीं है,” उस व्यक्ति ने खीझते हुए उत्तर दिया। 

“हम आधुनिक भीम भोई की बात नहीं कर रहे हैं। सवा सौ, डेढ़ सौ साल पहले इस गाँव में प्रसिद्ध कवि भीम भोई रहते थे, उनके सम्बन्ध में कुछ तथ्य प्राप्त करने आए हैं।” 

“ओह! तो आप हमारे संत कवि भीम भोई की बात कर रहे हैं। आइए, बैठिए, उनके बारे में मुझे जितनी जानकारी है, आपको बता देता हूँ।” 

यह कहकर उस वयोवृद्ध व्यक्ति ने एक लड़के को आवाज़ लगाई और बाहर होटल से चार कप चाय लाने का आदेश दिया। 

आदेश पाते ही लड़का तुरन्त चाय लेने के लिए बाहर चला गया। 

वयोवृद्ध व्यक्ति उस स्कूल का प्रधानाध्यापक नहीं था, मगर कोई विद्वान शिक्षक अवश्य था। अपना परिचय देने के बाद वह कहने लगा, “महाशय! आप जिस भीम भोई की तलाश कर रहे है, वह कोई साधारण इंसान नहीं है। बहुत बड़े संत कवि थे। यहाँ के लोग उन्हें राधा का दूसरा रूप मानते हैं। लोगों की धारणा है कि वे जन्मान्ध थे, मगर मेरा ऐसा मानना नहीं है। क्या कोई अन्ध दुनिया को दिशा दिखा सकता है? कुछ लोग कहते है कि वे ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ थे। मगर क्या कोई निरक्षर व्यक्ति असंख्य कविताओं की रचना कर सकता है? उनके मुख से स्तुति चिंतामणि, ब्रह्म निरूपण गीता, आदि अंत गीता, अष्टक बिहारी गीता, चौतीसा मधुचक्र, निर्वेद साधना, श्रुतिनिषेध गीता, चौतीसा रसरकेलि, महिमा विनोद जैसे गंभीर दार्शनिक साहित्य निःसृत हो पाते? शायद नहीं। भगवान की असीम कृपा थी उन पर। यद्यपि हमारे पास कोई भी ऐतिहासिक रिकार्ड उपलब्ध नहीं है, मगर उनके बारे में इस अँचल में अनगिनत किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।” 

यह सुनकर आनंद को लगा कि उसकी खोज पूरी हो गई है। वह सही जगह आ गया है। तभी चाय वाला लड़का वहाँ केटली में चाय लेकर आ पहुँचा। चार कपों में चाय डालकर सभी के सामने रखकर चला गया। चाय पीते हुए वयोवृद्ध आदमी ने हमारे साथ आए अपरिचित व्यक्ति का परिचय देते हुए कहा “आपके साथ जो महाशय आए हुए हैं। क्या आप उनके बारे में जानते हैं?” 

“नहीं।” आनंद और अरुण ने एक साथ समवेत स्वर में उत्तर दिया। 

“ये और कोई नहीं है। ये यहाँ के प्रधानाचार्य लक्ष्मी नारायण पाणिग्राही है। दिखने में भले ही सामान्य पुरुष नज़र आ रहे हों, मगर कोई छोटे-मोटे इंसान नहीं है। उन्होंने अपने आवास का नाम भीम भोई की श्रेष्ठ कविता ‘दुख अप्रमित’ के नाम पर अपने घर का नाम रखा है। भीम भोई के जीवन पर उन्होंने बहुत शोध किया है। इनसे ज़्यादा आपको इस अँचल में कोई बड़ा विद्वान नहीं मिलेगा। मुझे आश्चर्य है कि अभी तक उन्होंने आपको अपना परिचय क्यों नहीं दिया? सच में, बहुत रहस्यमयी इंसान है। अपने स्कूल में भी आए तो दबे पाँव और मुझे देखते ही चुप रहने का संकेत कर दिया, शायद आपकी खोजी-प्रवृत्ति की परीक्षा ले रहे हो। ख़ैर, जो भी हों, आपको भगवान ने सही इंसान से मिला दिया है।” 

दीर्घश्वास लेते हुए एक बार तिर्यक दृष्टि से अपने प्रधानाचार्य लक्ष्मी नारायण पाणिग्राही की ओर देखा, फिर कहना जारी रखा, “आपको शायद मालूम नहीं होगा कि उनके दादाजी उत्पन्न पाणिग्राही ने हिन्दू धर्म की विद्रूपताओं और विसंगतियों से तंग आकर महिमा धर्म स्वीकार कर लिया था। ऐसा माना जाता है कि भीम भोई के ख़ास शिष्य थे। उनके साथ ‘भागवत टुँगी’ में महिमा के भजन-कीर्तन करते थे। जहाँ-जहाँ भीम भोई जाते थे, वे भी उनके साथ जाते थे। दोनों में बहुत बंधुता थी।” 

आनंद ने सिर हिलाकर हामी भरी। उसे लग रहा था जैसे इस गाँव के हर बाशिन्दे में भीम भोई की आत्मा निवास करती है, केवल रूप बदल-बदलकर अपने अस्तित्व का परिचय देती है। यहाँ की धरती के हर रजकण में भीम भोई की सुगंध बिखरी हुई है। कुछ समय चुप रहने के बाद पाणिग्राही जी ने कहा, “स्कूल के पीछे ही हमारा घर है। वहाँ मेरे पास जो पांडुलिपि पड़ी हुई है, आपको सुपुर्द कर देता हूँ, आपकी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए।” 

यह कहते हुए अपने मकान की तरफ़ हाथ से इशारा किया। आनंद और अरुण ने उनके घर की तरफ़ प्रस्थान किया। घर जाते-जाते अपरिचित व्यक्ति बने प्रधानाचार्य लक्ष्मी नारायण पाणिग्राही कहने लगे, “इस गाँव से थोड़ी दूर घेंस गाँव हैं, वहाँ इस सदी के प्रसिद्ध संबलपुरी कवि हलधर नाग रहते हैं, उन्होंने ‘भीम भोई’ पर खंड काव्य लिखा है, वे आपको और ज़्यादा जानकारी दे पाएँगे।” 

छोटा-सा घर, मध्यम वर्गीय परिवार, सामने दीवार के पास रखी लोहे की बड़ी पेटी में से कुछ पुराने तालपत्रों की लाल कपड़े में बँधी पोटली आनंद के सामने रखते हुए कहने लगे, “यह हमारे दादाजी की हस्तलिखित पांडुलिपि है, जो आजीवन भीम भोई के शिष्य बनकर उनके साथ रहे उन्होंने घर त्याग दिया था। भीम भोई अंधे थे और अनपढ़ भी। बिल्कुल निरक्षर थे, मगर जब उन्हें दिव्य-दौरा पड़ता था तो मेरे परदादा अपने दोस्तों के साथ बैठकर उनके मुख से निकलने वाली वाणी को लिपिबद्ध करना शुरू कर देते थे। उनकी वाणी में कभी भजन होते थे, कभी स्तुतियाँ, कभी उनके आत्म-संस्मरण तो कभी उपदेश।” 

तालपत्रों की पोटली को खोलकर दिखाते हुए वे कहने लगे, “इस पांडुलिपि में भीम भोई के जीवन का संघर्ष और चरम आध्यात्मिक उपलब्धि का वर्णन है। पैसों के अभाव के कारण न मेरे परदादा, न मेरे दादा, न मेरे पिता और न ही मैं इसे प्रकाशित करवा पाया। चार पीढ़ियाँ बीत गईं, इस धरोहर को सँभाले हुए। कई बार प्रकाशकों से भी मिला, इस बारे में बात करने के लिए, मगर सभी ने ठुकरा दिया। सभी ने पैसों की माँग की। किसी ने दस हज़ार तो किसी ने बीस हज़ार, वे भी अग्रिम। बस काम रुक गया। हमारे जैसे ग़रीब लोगों के पास कभी पैसा रहा है? ये तो अच्छा है थोड़ा बहुत पढ़-लिख लेते हैं और छोटी-मोटी नौकरी हाथ में है, जिससे गुज़र बसर हो जाती है, अन्यथा आज भी इस अँचल के लोग आदिम पुरुष की तरह प्रागैतिहासिक काल में रह रहे होते। 

“मैंने कभी सपना देखा था कि कोई दो स्वर्ण आभा वाले पुरुष भीम भोई की मूर्ति के पास जाकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए वहाँ रुककर ध्यान-चिंतन-मनन करेंगे तो वे इस पांडुलिपि पाने के सच्चे अधिकारी होंगे। उस दिन से मैं हर दिन उस मूर्ति के पास दो आदमियों की तलाश में जाता हूँ और आज वह दिन आ गया, मेरी तलाश ख़त्म हो गई। आप दोनों ही इस पांडुलिपि पाने के सच्चे अधिकारी हैं। आज यह पोटली आप लोगों को सुपुर्द करता हूँ और मुझे उम्मीद ही नहीं, वरन् पूर्ण विश्वास है आप इसका अध्ययन कर मर्म को समझकर इसके भीतर संचित ज्ञान को, गुमनाम दिव्य आत्मा के जीवन के बारे में आधुनिक समाज को परिचित करवाएँगे।” 

यह कहकर अनमोल धरोहर की तरह वह पोटली उन्होंने उनके हाथों में सौंप दी। घटना पूरी तरह कल्पनातीत थी। आनंद और अरुण ने आश्वस्त होकर उस पोटली को स्वीकार कर लिया, “लक्ष्मी नारायण जी, आप चिंता न करें। इस पांडुलिपि के ज्ञान को अवश्य जन-जन तक पहुँचाएँगे। एक दिन अवश्य यह ज्ञान विश्व-व्यापी होगा। हमारे देश के ही नहीं, वरन् विश्व के वरेण्य लोगों का ध्यान भीम भोई जैसे महान कवि की तरफ़ जाएगा, जो सदियों में एक बार पैदा होता है। उनकी वाणी आप्त-वचनों का स्थान प्राप्त करेगी।” 

आनंद के चेहरे पर विश्वास की अद्भुत झलक साफ़ नज़र आ रही थी और उसका प्रतिबिम्ब अरुण के चेहरे पर। 

पोटली को ध्यानपूर्वक गाड़ी में रखने के बाद प्रधानाचार्य ने उन्हें आश्रम का परिदर्शन करवाया, जहाँ कभी भीम भोई का जन्म हुआ था और वहाँ आत्म-धुन में लीन दो-चार महिमा धर्म के संन्यासियों से भी परिचय करवाया। वे लोग उनसे ज़्यादा चर्चा नहीं कर सके, क्योंकि उन्हें संबलपुर एक ख़ास बैठक में भाग लेने जाना था। अरुण और आनंद ने मन ही मन तय किया कि महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड के संबलपुर कार्यालय में बैठक में भाग लेने के बाद दूसरे दिन वहाँ से तीस-पैंतीस किलोमीटर दूर घेंस गाँव में रह रहे इस सदी के प्रख्यात कवि हलधर नाग से मुलाक़ात कर उनके खंड-काव्य संत कवि भीम भोई पर चर्चा करेंगे और उसके बाद तालचेर पहुँचकर किसी विद्वान भाषाविद से मिलकर पांडुलिपि का अध्ययन। 

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