अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 6

    

अरुण ने उस दिन अपने ऑफ़िस से छुट्टी ली और आनंद को लेकर भीम भोई के समाधि-स्थल खलियापाली चले गए। खलियापाली का समाधि-स्थल अत्यंत ही भव्य बना हुआ था। उनकी समाधि के पास ही उनकी पत्नी अन्नपूर्णा, पुत्र कपिलेश्वर और पुत्री लावण्यवती की भी समाधियाँ बनी हुई थी। वहाँ के एक निवासी ने बताया कि कपिलेश्वर का जन्म सन्‌ 1892 में हुआ था, वह मूक, बधिर और अंधा था, जबकि लावण्यवती बहुत सुंदर थी। वह आजीवन संन्यासिन बनी रही और सन्‌ 1935 में उनकी मृत्यु हुई। उसने यह भी बताया कि सोनपुर के बिनिका क़स्बे के रासपाली गाँव में भीम भोई की अन्य पत्नियों सुमेधा, सरस्वती और रोहिणी की समाधियाँ हैं। इन सभी समाधि-स्थलों को देखने के बाद आनंद और अरुण के मन में भीम भोई के गृहस्थ जीवन पर विचार आने लगे। ताल-पत्रों पर इस अध्याय की लेखन-शैली कुछ अलग ही थी, बिल्कुल अलग। अचानक भाषा-शैली में परिवर्तन क्यों आया, पता नहीं। इसमें भाषा एकदम जीवंत हो उठी थी और उपदेशात्मक भी नहीं थी। वाक्य छोटे-छोटे थे, मगर बिम्ब प्रभावी थे, इस वजह से भाषा बोझिल नहीं हो रही थी। आनंद ने महसूस किया जैसे भीम भोई अपने परिवार समेत उसके सामने आकर खड़े हो गए हो और वे परिवार के हर सदस्य का परिचय दे रहे हो। यह अध्याय भी पृष्ठों की संख्या की दृष्टि से काफ़ी बड़ा था, इसका शब्दानुवाद इस उपन्यास के कलेवर को बहुत ज़्यादा बड़ा कर देगा—यह सोचकर आनंद ने अनुवाद के बारे में अपने भाई अरुण से सलाह ली। अरुण का भी मानना था कि इस अध्याय का भावानुवाद ज़्यादा सार्थक रहेगा और वह भी ज़्यादा विस्तार से नहीं, वरन्‌ संक्षिप्तीकरण के रूप में प्रस्तुत करना पठनीयता में अवरोध पैदा नहीं करेगा। भाई की सलाह मानकर आनंद ने पांडुलिपि के छठे अध्याय का सारांश ही लिखना उचित समझा, जो निम्न है:

जैसे कि मैंने चौथे अध्याय में अन्नपूर्णा का ज़िक्र किया, जिसने मुझे और मेरे दल को कंकणपड़ा आश्रम से अंग नदी होते हुए सोनपुर के सुबल्या को पार करते हुए गुड़पाली के नारायण दास के घर भोजन-ग्रहण करवाया। उसके बाद बिनिका में हमारा दल कुछ समय रुककर गुलन्दा चला गया। वहाँ तीन महीने ठहरकर हम खालियापाली चले गए। हमारी मार्गदर्शक यह वही अन्नपूर्णा थी, जो जोरन्दा (मढ़ी) की रहने वाली थी और मेरे गुरु महिमा स्वामी ने हमारी सहायता के लिए भेजा था। यह महिमा स्वामी की दीक्षित शिष्या भी थी, इस वजह से यह मेरी गुरु भगिनी हुई। 

हिंदु धर्म के पाखंडों पर कुठाराघात करने और जातिवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के कारण रेढाखोल के राजा ने हमें कंकणपड़ा के डिहा आश्रम से निर्वासित कर दिया था। हमारे अनुयायियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए थे, हमारा आश्रम तक जला डाला था। ऐसे दुर्दिन में अन्नपूर्णा हमारी रक्षक बनकर उभरी। 

वह हमें अंग नदी के दूसरे किनारे से मुड़ी एक पतली पगडंडी से होते हुए किसी सघन वन की ओर ल जा रही थी। हमें मार्ग में जंगली जानवरों की आवाज़ें साफ़ सुनाई दे रही थी। कभी हाथियों की चिंघाड़, शेरों की दहाड़ तो कहीं-कहीं पर सियारों की हुंकार। ख़तरों से गुज़रते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। 

बारह-पन्द्रह घंटों की थकाने वाली यात्रा के बाद हम खालियापाली गाँव पहुँचे थे। यह गाँव सोनपुर के पास महानदी तट पर बसा हुआ था। खालियापाली का ज़मींदार बहुत दयालु था। उसे हमारे गतिविधियों की पूर्व जानकारी थी, इसलिए तुरंत ही उसने हमारे आगमन की जानकारी महाराजा प्रताप रुद्र सिंह देव को दी, जिन्होंने हमें खालियापाली गाँव के किनारे अपने खेत की ज़मीन पर आश्रम खोलने की इजाज़त दे दी, मगर यह बात सोनपुर के राजा नीलाधर सिंहदेव को नागवार गुज़री। उसने दरबार में मुझे पेश होने का आदेश दिया, मगर मैंने जाने से इन्कार कर दिया। मैं स्वयं तो नहीं गया, मगर मेरी तरफ़ से मेरे लेखक शिष्यों में से हरिपंडा और वसुपंडा को उनके दरबार में भेज दिया। राजा नीलाधर सिंहदेव ने गरजकर कहा, “वसुपंडा और हरिपंडा, तुम्हारा अंधा गुरु क्यों नहीं आया? तुम दोनों ऊँचे ख़ानदान में पैदा हुए हो। ब्राह्मण होकर भी एक अंधे कंध की पाद-सेवा कर रहे हो। क्या तुम लोगों को शर्म नहीं आती? दुनिया में ऐसा कौन-सा धर्म है, जिसमें ब्राह्मण लोग शूद्रों की चरणों की सेवा करें और उन्हें अपना गुरु मानें। ऐसा अधर्म, मैं अपनी रियासत में कभी भी नहीं होने दूँगा।” 

“महाराज! वह अंधा कंध नहीं है। वे हमारे गुरु हैं। अंधे वे नहीं है अंधे तो आप हैं। आपको आगे की सूझ नहीं रही है। आपकी बुद्धि पर अज्ञान का आवरण पड़ा हुआ है, आपको सूझेगा भी कैसे? ईश्वर के राज्य में कोई ऊँचा-नीचा नहीं होता। कोई ब्राह्मण और कोई कंध नहीं होता। सभी बराबर होते हैं। अपने स्वार्थ के ख़ातिर यह वर्गीकरण तो धूर्त आदमियों ने किया है। आप उससे ऊपर उठो, मेरे गुरु की शरण में आओ, आपको भी भव-बंधन से मुक्ति मिल जाएगी। हमारे गुरु कोई साधारण आदमी नहीं है, वे तो ‘अलेख’ हैं, ‘अलेख’, शून्य ब्रह्म के पुत्र। उन पर ज़रा भी संदेह मत करो। अपनी सारी आशंकाओं और रूढ़िवादी विचारों को यहीं पर त्याग दो।” हरिपंडा ने दृढ़-स्वर में उत्तर दिया। 

राजा नीलाधर सिंहदेव ग़ुस्से से तमतमा उठे और कहने लगे, “अगर तुम ब्राह्मण लोगों की एक अंधे कंध के प्रति इतनी श्रद्धा है और उसके द्वारा किए जा रहे कलंकित धर्म में इतनी अगाध आस्था है तो तुम दोनों को सभी के सामने अग्नि-परीक्षा देनी पड़ेगी ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए।” 

राजा ने उन दोनों को क़ैद कर लिया और राजकीय भंडारगृह से चिता बनाने के लिए लकड़ियाँ मँगवाने हेतु बैलगाड़ियाँ रवाना कर दीं। अभी तक लकड़ियाँ मैदान में पहुँची नहीं थी कि राजा नीलाधर सिंहदेव की छाती में तेज़ दर्द होने लगा और देखते-देखते वह हृदयाघात से वहीं धरती पर तुरंत लुढ़क गया। राज वैद्य भी राजा को बचा नहीं पाए। प्राण निकलने से पूर्व राजा नीलाधर सिंहदेव ने हमें छोड़ देने के निर्देश दे दिए। 

राजा की इस अपघटन मृत्यु के बाद मेरी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगने लगे। 

ज़मींदार की खेतीहर ज़मीन पर खलियापाली में हमने अपना आश्रम खोला। अन्नपूर्णा आश्रम में खाने-पीने की व्यवस्था देखती थी और मेरे चारों लेखकों ने आश्रम का सुचारु रूप से संचालन सँभाला। पहले की तरह ही आश्रम में गुरु की असीम कृपा से मेरी बोलियाँ अलग-अलग राग में गाए जाने वाले भजनों में रूपांतरित होने लगी। जब इन भजनों को गिन्नी और खंजनी की ताल पर गाया जाता था तो चारों तरफ़ की प्रकृति जैसे निस्तब्ध हो जाती थी। खालियापाली में भी मेरे स्वभाव के कारण दुश्मनों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। मैं मूर्ति-पूजा का खुले आम विरोध करता था, मैं वेदों की आलोचना करता था और लोगों को निर्वेद साधना की ओर प्रेरित करता था। कंकणपड़ा की तरह यहाँ भी ब्राह्मणों के एक दल ने मेरे ख़िलाफ़ षडयंत्र रचना शुरू की। ढेंकानाल के जोरन्दा के पास मढ़ी ग्राम की रहने वाली अन्नपूर्णा मेरी गुरु-भगिनी थी। वह स्वेच्छा से हमें बचाने के लिए अंग नदी तक आई थी, मगर षडयंत्रकारियों ने मेरे ऊपर उसके अपहरण का आरोप लगाया और मुझे ख़ूब पीटा। पीटते-पीटते वे लोग चिल्ला रहे थे, “नीच आदिवासी! तुमने हमारी जाति की भोली-भाली लड़की का अपहरण किया है और उस पर मोहिनी जादू कर अपना रखैल बनाया है।” 

यह कहकर उन लोगों ने मेरे ऊपर धावा बोल दिया। 

“स्साले अंधे कंध को नंगा कर इसका लिंग काट दो।” 

उनकी भीड़ ने मेरी लँगोट खोलकर नंगा कर दिया। उन्होंने देखा मेरा लिंग ही नहीं था। वे हतप्रभ थे। सोचने लगे, अन्नपूर्णा के साथ मेरा कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं है, हमारे बीच केवल आध्यात्मिक सम्बन्ध ही जीवित है। कुछ लोग सोचने लगे कि निर्गुण में मेरी प्रगल्भ भक्ति होने के कारण मुझे सिद्धियाँ प्राप्त हुई थीं और उन सिद्धियों के बल पर मैंने उन्हें सम्मोहित किया है। शायद इस वजह मैं लिंगधारी होने के बावजूद निर्लिंग लग रहा हूँ। 

यद्यपि अन्नपूर्णा भक्तिन थी, गुरु भगिनी थी, फिर भी उसके मन में भी कहीं न कहीं किसी कोने में एक स्त्री छुपी हुई थी। उसकी बातों से, स्पर्श से, सेवा-सुश्रुषा से, भाव-प्रवणता से मेरे प्रति उसमें अगाध प्रेम झलकता था। धीरे-धीरे मेरे मन में भी प्रेम के अंकुर फूटने लगे। मगर कभी भी हमारा यह प्रेम शारीरिक सम्बन्ध में तब्दील नहीं हो सका। वह हमेशा के लिए खलियापाली में आश्रम की सेविका बनी रही। उसका यह सेवा-भाव देखते हुए सोनपुर शहर के बिनिका गाँव के निवासियों ने मुझे और अन्नपूर्णा को एक भव्य आयोजन में आमंत्रित कर फूल-मालाओं, अंगवस्त्रों और कुछ धन-राशि देकर सम्मानित किया था। 

मगर रोहिणी के साथ संसर्ग होने से वह गर्भवती हो गई। यह वही रोहिणी है, जिसका अन्नपूर्णा ने स्वयं मेरे साथ पाणि-ग्रहण संस्कार करवाया था। 

नौ महीनों के बाद हमारी सुंदर कन्या लावण्यवती पैदा हुई। रोहिणी के गर्भवती होने की चर्चा भक्तों में आलोचना का विषय न बने और उनकी मेरे प्रति श्रद्धा कम न हो जाए, सोचकर मैंने अफ़वाह फैलवा दी कि रोहिणी ने अपनी दिव्य-शक्ति के बल पर माँ दुर्गा के अंश के रूप में लावण्यवती को जन्म दिया है। इस घोषणा के बावजूद कुछ लोग हमारा आश्रम छोड़कर चले गए। कुछ लोग मुझे चांडाल, हरामज़ादा, औरतख़ोर, व्यभिचारी आदि भद्दी-भद्दी गालियों देकर बदनाम करने लगे। कुछ परम भक्त भी थे, जो मेरी चमत्कारिक सिद्धियों से प्रभावित थे। वे मेरी घोषणा को सही मान रहे थे और लावण्यवती को भी उसकी माँ अन्नपूर्णा की तरह आदि शक्ति का अवतार मानते थे। 

देखते-देखते लावण्यवती सुंदर युवती में बदल गई। दूर-दूर तक उसकी सुंदरता के क़िस्से चारों तरफ़ फैल गए। 

राजा-प्रजा कहने लगे कि दूसरों की बहू-बेटियों और पत्नियों को मैं झूठे मंत्र सिखाकर अपने धर्म की ओर आकर्षित कर रहा हूँ। मैंने उन्हें अपनी कुलीन जाति से बहिष्कृत करवा दिया। 

गृहस्थ होकर मैं अपने आपको गुरु कह रहा हूँ। सारे दुनिया के ब्राह्मण और पंडित कहने लगे कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ, फिर भी अपने आपको गुरु मान रहा हूँ। यह सरासर धोखा-धड़ी है। 

कंध जाति का होने के बाद भी ब्राह्मण मुझे साष्टांग दंडवत कर रहे है। क्या यह अधर्म, अविष्णुता नहीं है? 

पतित, पामर, म्लेच्छ, अधम, मूढ़, दैत्य, दानव, असुर, हड्डी खाने वाले लोग सभी मेरी सभा में इकट्ठे हुए हैं। हमें मद्यप, मांसाहारी, घमंडी, हीन, पापी, गुमानी, गालुआ, मूर्ख, चांडाल जैसे कठोर शब्दों से आघात करते हैं। मैं जानता हूँ उन्हें धन, इज़्ज़त, स्त्री और माया का नशा चढ़ा हुआ है, इसलिए वे पाप और पुण्य में फ़र्क़ महसूस नहीं कर सकते हैं। सही में, वे सभी नरकगामी, अल्पायु, वंश डुबाने वाले, ग़ुलाम, ब्रह्मराक्षस हैं। इसके बावजूद भी वे लोग हमारी निंदा कर रहे हैं। उन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान की जानकारी नहीं है, व्यर्थ में हमारे ऊपर दोषारोपण कर रहे हैं। मुझे पत्नी और संतति का सुख मिला, यह मेरी क़िस्मत में लिखा था। मुझे अपने पूर्व जन्मों का फल मिला तो उन्हें क्या दिक़्क़त है? सत्य-धर्म धारण करने से मुझे तत्वों की जानकारी हुई। निस्संदेह हमारी निधि हमारे हाथों में आई। 

जो मेरे भाग्य में भात और वित्त लिखा था, वही मुझे मिला। धर्म सभा में इस पर चर्चा की जा सकती है, दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए। 

मैंने अपने प्रारब्ध से अर्जित धन-रत्न का भोग किया। अगर यह मेरे कर्मों में नहीं लिखा होता तो क्या ऐसा संयोग बनता? बिना पूर्व जन्म की कमाई और क़िस्मत के क्या कोई फल नसीब हो सकता है? इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर पंडित सज्जन किस तरह पागल हो रहे हैं? 

अलेख पुरुष ही वह सत्ता है और वही मेरी आत्मा की गुरु है। मुझे जो कुछ मिला, वह उसकी अनुकंपा है। यह सब-कुछ पूर्व निर्धारित होता है। सभी चीज़ों की रचना अलेख पुरुष ने की है। किसी और की क्या बिसात? यह कोई महज़ संयोग नहीं हो सकता है। 

पंडितों! ज़रा सोचो। निरुद्देश्य कोई सब-कुछ व्यवस्थित कर सकता है? कौन से वेद-शास्त्रों में यह लिखा हुआ है? आगत और अनागत में अंतर समझे बिना ही ज्ञानी लोग व्यर्थ पागल हो रहे हैं। जिसे शून्य पुरुष का आशीर्वाद मिलेगा, उसके लिए ये सारी चीज़ें सहज उपलब्ध हो जाएगी। उस शून्य पुरुष का न तो कोई रूप-रंग देख सकता है और न ही उसे कोई जान सकता है। किसी को भी संशयरहित हृदय से ये सब समझना चाहिए। 

इस कलियुग में भगवान ने मुझे नंगे आकाश के नीचे पैदा किया। मुझ जैसे दिगम्बर साधु को घर-परिवार क्या नसीब हो पाता, अगर वह पूर्व निर्धारित नहीं होता तो? महिमा धर्म में दीक्षित होने के बावजूद मैं गृहस्थ बन गया। ये उस गुरु की ही देन है। सही कहूँ तो मेरे मन में कभी पत्नी-पुत्र का ख़्याल तक नहीं आया था। निष्काम भाव से गुरु की सेवा करते-करते ब्रह्म-ज्ञान का मंत्र मुझे मिल गया। किस वेद-शास्त्र में लिखा है कि हम अपना घर-संसार बसाएँगे? कोई दिगम्बर अगर घर बसाता है तो लोग उसे पतित कहते हैं और उसकी गिनती तीनों लोकों में मृतकों के रूप में की जाती है। 

सिवाय गुरु के मैं किसी की भी आज्ञा को नहीं मानता हूँ। मैं गुरु के सिवाय किसी के अधीन नहीं हूँ। न तो मैं राजा की प्रजा हूँ और न ही किसी साहूकार का लेनदार। मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ गुरु ले जाता है। इस कार्य को कोई रोक नहीं सकता। किसी भी मनुष्य की सारी आवश्यकताएँ पूरी नहीं की जा सकती हैं, मगर अलेख अपने अनुयायियों को ख़ुशी से सब-कुछ दे देता है। अलेख ब्रह्म हमारे ईष्ट देवता हैं और उसके सिवाय कोई दूसरा सहारा नहीं है। हम हमेशा सत्य धर्म में खोए रहते हैं और हमेशा वही खाते हैं जो वह देता है। हम अलेख ब्रह्म के पालतू जीव हैं, उनके सेवक हैं और उनके चरणों की तन-मन-धन से सेवा करते हैं। श्रीगुरु का नाम लेना ही हमारा व्यवसाय है। दूसरा और कोई रोज़गार हमारे पास नहीं है। जो भी हम चाहते हैं, वह हमें मिल जाता है। हमारे लिए हमेशा उनका भंडार खुला है। सौ पीढ़ियों से वह हमारा भरण-पोषण करता आ रहा है। 

एक बार सोनपुर के राजा नीलाधर सिंहदेव का पुत्र राजकुमार सोहन देव मेरी बेटी लावण्यवती की सुंदरता पर मंत्र-मुग्ध हो गया। उससे शादी करने के लिए उसने मेरे पास संदेश भेजा। 

मैंने लावण्यवती को मेरे पास बुलाकर कहा, “बेटी! सोनपुर का राजकुमार तुमसे शादी करना चाहता है। क्या तुम राज़ी हो?” 

प्रत्युत्तर में उसने कहा, “जो मुझसे शादी करना चाहता है, पहले उसे मेरे पास भेजो। मैं उसे देखना चाहती हूँ।” 

मैंने यह संदेश राजकुमार के पास भिजवा दिया। दूसरे ही दिन राजकुमार लावण्यवती के पास हाज़िर हो गया। लावण्यवती ने उससे पूछा, “क्या आप सचमुच में मुझसे शादी करना चाहते हो?” 

“हाँ! तभी तो यहाँ आया हूँ,” राजकुमार ने उत्तर दिया। 

“और अगर मैं शादी करने से इंकार कर दूँ तो?” 

उलटा उसने प्रश्न किया। 

“मैं तुम्हें उठाकर ले जाऊँगा और ज़बरदस्ती शादी करूँगा,” राजकुमार की आवाज़ में धमकी भरे स्वर साफ़ सुनाई दे रहे थे। 

ये कठोर शब्द सुनते ही लावण्यवती ने अपनी पहनी हुई साड़ी ऊपर की ओर खींच दी। राजकुमार ने जो दृश्य देखा, देखकर विस्मित रह गया। उसकी योनि वाली जगह पर आग जल रही थी और आग के बीचों-बीच भगवान शिव तांडव नृत्य कर रहे थे। 

राजकुमार कुछ भी समझ नहीं पाया। वह घबराकर अचेत हो गया। जब उसे होश आया तो वह लावण्यवती के क़दमों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा। कुछ ही महीनों बाद उसकी मृत्यु भी हो गई। 

लावण्यवती कहने लगी, “वह अपनी माँ से शादी करना चाहता था, इसलिए अकाल मृत्यु का शिकार हुआ। क्या उसे पता नहीं था कि मैं आदि शक्ति माँ पार्वती हूँ, शिव की अर्द्धांगिनी।” 

ऐसी ही घटना एक बार और हुई। 

बलाँगिर के एक दुस्साहसी युवक ने लावण्यवती के साथ शादी करने की इच्छा ज़ाहिर की थी, तब भी उसने ऐसा ही चमत्कार दिखाया था। पास के किसी उपवन से हरी-भरी टहनी लाकर अपनी योनि के सामने रखा तो कुछ ही क्षणों में वह टहनी राख के ढेर में तब्दील हो गई थी। यह देखकर वह युवक नौ-दो ग्यारह हो गया। 

लावण्यवती को रिद्धि-सिद्धि प्राप्त थी। अनेक अलौकिक शक्तियों की भी मालकिन थी। सामान्यतः वह इन शक्तियों का दुरूपयोग नहीं करती थी। माँ अन्नपूर्णा की कोख से जन्म लेने वाली पुत्री क्या किसी दैवीय शक्ति से कम होगी? 

मेरे आश्रम का सारा कामकाज लावण्यवती हो देखती थी। उसकी माँ खाने-पीने का प्रबंध करती थी तो वह भजन-कीर्तन, सत्संग, धुनी रमाने इत्यादि कामों को बख़ूबी सँभाल लेती थी। 

अन्नपूर्णा से यद्यपि मैंने शादी नहीं की थी, मगर वह मेरी प्रेमिका भी थी और पत्नी भी। जब द्वापर में मैं राधा थी तो अन्नपूर्णा मेरी ख़ास सहेली विशाखा थी। कलियुग में हम दोनों यहाँ पर आकर मिले थे। 

मैंने देखा कि भारत देवी-देवताओं की भूमि है, मगर क्या त्रेता, क्या द्वापर, क्या कलियुग-किसी आदमी या औरत को अगर बदनाम करना हो तो उसका किसी दूसरी औरत या दूसरे मर्द के साथ कुछ कहानी-क़िस्से जोड़ दो, बस उसकी प्रतिष्ठा उसी समय धूल-धूसरित हो जाएगी। जब मैं पूर्व जन्म में राधा थी, तब भी लोगों ने मेरे प्रेमी कृष्ण को बदनाम किया था और मैं थी जो कृष्ण के प्यार में किसी भी तरह की बदनामी झेलने के लिए तैयार थी। और आज भी मेरी रुपांतरित भीम भोई की इस काया में वही तड़प है। जब मेरी आत्मा कृष्ण के शरीर में समा गई थी, तब भी कुछ अंश तक मेरी लौकिक कामना अधूरी बची हुई थी, उसे पूरा करने के लिए ही मैंने यह जन्म लिया था। 

जिस तरह कृष्ण की मधुर बाँसुरी पर गोपियाँ अपना सब-कुछ भूलकर, अपने पतियों को छोड़कर दौड़ आती थीं, ठीक उसी तरह मेरे भजनों में अलेख के स्पर्श से प्राप्त मोहिनी शक्ति से प्रभावित होकर मेरे दो ब्राह्मण भक्तों ने अपनी पुत्रियों को मुझे समर्पित करना चाहा। ये बोलाँगिर के वीरमहाराजपुर के रहने वाले भक्त थे—मोहनदास और उनका छोटा भाई नारायण दास, जो अपनी पुत्रियों सुमेधा और रोहिणी को लेकर मेरे पास आए थे। अन्नपूर्णा उनके मन की बात भाँप गई और जब मैं सोने जा रहा था तो वह उन चारों को लेकर मेरे कमरे में चली आई, “आप मुझे वचन दो कि आप मेरी बात नहीं काटोगे।” 

मैंने आजीवन कभी अन्नपूर्णा की बात नहीं काटी थी। बिना सोचे-समझे मैंने हामी भर दी। यह ठीक उसी तरह की कहानी थी जब पाँचों पांडव द्रौपदी को लेकर माँ कुंती के पास पहुँचे और कुंती ने बिना सोचे-समझे कह दिया था, “जो कुछ चीज़ लाए हो पाँचों भाइयों में बाँट लो।” माँ का आदेश था, पाँचों पांडवों ने मान भी लिया था। 

मैं कुछ बोलता, उससे पहले ही अन्नपूर्णा ने उनके एक-एक हाथ पकड़कर मेरे दाएँ हाथ पर रख दिए और कहने लगी, “अलेख! अलेख! अलेख! इन दोनों लड़कियों सुमेधा और रोहिणी को पत्नी के रूप में स्वीकार करो।” 

अन्नपूर्णा का आदेश था, पांडवों की तरह मैं भी इन्कार नहीं कर पाया। आख़िर, वह मेरे सुख-दुख की साथी थी। मैं उसकी बात नहीं टाल सका और उन दोनों को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। 

यद्यपि मैं उनसे कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाना चाहता था, मगर दोनों के पिता एक-दो साल बीतने के बाद मेरे पास आए और विनती करने लगे, “हमने अपनी पुत्रियाँ आपको सौंपी है ताकि उन्हें दिव्य-संतान प्राप्त हो। मगर अभी तक ऐसी कोई ख़ुशख़बरी सुनने को नहीं मिली।” 

‘आपकी इच्छा पूर्ण हो’—कहकर मैंने उन्हें आशीर्वाद दिया और मैंने शून्य में हाथ घूमाकर भस्म की प्रसाद प्राप्त की और दोनों सुमेधा और रोहिणी नी के माथे पर लेप दी। 

नौ महीने के बाद सुमेधा को पुत्र ‘कपिलेश्वर’ प्राप्ति हुई और रोहिणी को मिला पुत्री-रत्न, लावण्यवती। 

आश्रम में मेरे लड़का-लड़की पैदा होने की ख़बर सुनकर कुछ भक्तों ने घोर विरोध किया। मेरे चरित्र पर उन्हें संदेह होने लगा, वे मुझे चरित्रहीनों और लम्पटों में गिनने लगे। मुझे शयन-कक्ष में अकेले सोते देखकर उग्र भक्तों ने धावा बोल दिया और मुझे लात-घूँसों से मारने लगे। मारते-मारते उन्होंने मुझे नंगा कर दिया। पहले की तरह, उन्होंने भी देखा कि मेरा लिंग ही नहीं था। यह देखकर उन्हें विश्वास हुआ कि कपिलेश्वर और लावण्यवती भी दिव्य संतानें हैं। सच कहूँ तो मैं सिद्धियों के बल पर अंधा होने के बावजूद भी अपनी इच्छानुसार किसी को भी सम्मोहित करने की शक्ति रखता था। मेरी नज़रों में भगवान के लिए आदमी और औरत दोनों समान होते हैं। 

आदमी ही भगवान की साधना कर सकता है, मगर औरत नहीं। ऐसा क्यों? दूसरा मुझे यह भी सामाजिक संदेश देना था कि ऊँची जाति की औरतें मुझ जैसे आदिवासी शूद्र से शादी क्यों नहीं कर सकती थीं? समाज में मुझे जातिविहीनता का संदेश देना था। आज नहीं तो कल अवश्य ही मेरा यह संदेश आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचेगा। यही सोचकर मैंने सुमेधा और रोहिणी से भी शादी की थी। मैं अपनी नई नवेली दुलहनों के साथ गुरु के पास जाकर आशीर्वाद लेना चाहता था। उस समय मेरे गुरु मालबिहारपुर में अपने शिष्य गोविंद दास के साथ महिमा धर्म के प्रचार के लिए डेरा डाले हुए थे। 

जैसे ही मैं अपने परिवार के साथ उनके पास आशीर्वाद लेने के लिए गया तो वे मुझे औरतों के साथ देखकर भड़क उठे और फटकारते हुए कहने लगे, “मैंने तुम्हें हीरा समझा था। मगर तुम तो काँच के टुकड़े निकले। महिमा-धर्म के प्रचार के लिए ब्रह्मचर्य का उपदेश दिया था, मगर तुम कृष्ण-कन्हैया निकले। अपने घर में गोपियों का ताँता लगा दिया है। तुम योग-भ्रष्ट हो गए। तुम अपने पथ से विचलित हो गए। तुम्हारा जीवन पूरी तरह बर्बाद हो गया। तुम्हें तो नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी। तुरंत मेरी नज़रों से दूर हो जाओ, वरना तुम्हें भस्मीभूत कर दूँगा। भविष्य में कभी इस जोरन्दा अंचल में अपना काला मुँह मत दिखाना।” अत्यंत ही कड़े शब्दों में गुरु ने मेरा तिरस्कार कर दिया। 

फिर मेरे गुरु कहने लगे, “अगर कोई महिमा का भजन करता है तो उसे किसी भी स्त्री को अपनी माता के तुल्य समझना चाहिए। माता कहने से वह मोह-माया में नहीं फँसेगा। महिमा भजन करने वालों के लिए सुख-दुख दोनों बराबर होते हैं। उन्हें पाप-पुण्य की परवाह नहीं होती है। अलेख उनकी रक्षा करता है। महिमा भजने वालों को कभी भी स्त्री-संग के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। यह कुंभी का नर्क कुंड है, जो इसमें एक बार डूबा तो हमेशा के लिए डूब जाएगा। चारों युगों में जीवन चेतना खोकर निचले स्तर पर गिर जाता है। महिमा भजनी भी योनि शक्ति से अछूता नहीं रह जाता है। वह शक्ति उसे निगल जाती है, उसे ढक देती है। वह ज़िन्दा लाश बनकर रह जाता है। भव-नदी में उतरने पर इस शरीर को भवरोग हो जाते हैं, वह तरह-तरह के दुख पाता है और अंत में यम के कालदंड का शिकार हो जाता है। 

“तुम कान लगाकर सुनो। तुम बधिर या निर्जीव नहीं हो। मैं तुम से ही कह रहा हूँ। मैं भव-नदी की बात कर रहा हूँ। तुम न तो बधिर हो और न ही निर्जीव! 

“ध्यान से सुनो! चारों युगों में असंख्य जीव जन्म लेते हैं और फिर वे मर जाते हैं। यह भव-नदी क्रूर है। सभी को निगल जाती है। चारों युगों में इसमें गोता लगाने वाला प्राणी शान्ति से नहीं रह पाया। यह मायावी कल्पमूल है, जो पाँच भूतों को अपनी पच्चीस प्रकृतियों सहित आकर्षित करती है। जब भी तुम इसके बारे में सोचते हो, तुम्हारा मन पिघलने लगता है। तुम इन चीज़ों के बारे में ज़रा सोचो, जो अकल्पनीय हैं, उस पर ध्यान लगाओ। अनादि के पैर पकड़कर दिन-रात यह कर्म करो। मैं तुम्हें ब्रह्मवेता समझता था! तुम्हें तो समय रहते-रहते इस स्थिति और अवस्था को प्राप्त कर लेना चाहिए। ख़ैर, जो हो गया सो हो गया। अभी वक़्त है, चेत जाओ, सुधर जाओ . . .” 

गुरु की डाँट सुनने के बाद मुझसे भी नहीं रहा गया। मैंने प्रत्युत्तर में कहा, “गुरु! मैं तुम्हारी दया को बहुत समय से पा रहा हूँ, वह सत्य और निष्काम है। रूप, गुण और ज्ञान से परे निर्वेद में तुम्हारे शब्द सुनाई देते हैं। अगर तुम चारों युगों में विद्यमान हो तो तुम अवश्य जानते होगे कि मैंने कितना त्याग किया है, मेरा जीवन, तन, मन सब-कुछ अलेख को अर्पित कर दिया है। 

“मैंने अनुभव किया कि जब मैं निराकार शून्य में भजन करता हूँ तो मेरी आँखों से झर-झर आँसू बहते रहते हैं। घोर दुखों से बचाने के लिए मेरे पास कोई मित्र नहीं है और भाई भी नहीं, कोई शुभ-चिंतक भी नहीं है, माता-पिता भी नहीं है। मैं अनाथ प्राणी हूँ। जो कुछ मेरे भाग्य में लिखा है, उसे मानकर भुगत रहा हूँ। खाने का एक कोर भी मुश्किल से मिल रहा है। चारों तरफ़ दुर्भाग्य ही दुर्भाग्य छाया हुआ है, जो मेरे लिए हर समय मृत्यु आमंत्रित करता है। फिर भी मैं दुनियावी इच्छाओं से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ। मेरे सुख-दुख की बातें मेरे मन में रखकर तुम्हें शत-शत नमन करता हूँ और तुम्हारी शरण लेता हूँ।” 

मेरी विनती सुनने के बाद भी गुरु टस से मस नहीं हुए। मैंने कहना जारी रखा, “ज्वार-भाटा, ज्वाला-ज्योति, ब्रह्म कला सभी आपके अंग से निकले हैं आग, पानी और हवा बनकर। युग-युगांतर, कल्प-कल्पांतरों से श्वेत-शुक्लाम्बर रूप आपकी नासिका से उनचास पवन निकल रहे हैं, सूर्य-चंद्र पैदा हो रहे हैं जैसे मिट्टी के दीये जल रहे हों। चारों वेद आपके लिए चार सीढ़ियाँ हैं और अष्टादश सिद्धियों के मालिक हो तुम। अपने अष्टांगों को समेटकर दशांग योग की समाधि में रत रहो। आपकी निराकार साधना का तेज तीनों लोकों में व्याप्त है। आपकी आज्ञा से प्रकाश में बारह रंग खिलते हैं। आपका सिर ठूल शून्य है, पृथ्वी लोक आपका उदर, पाताल आपके पैर आपके रोमकूपों में सहस्र पृथ्वियाँ, बड़े-बड़े पर्वत उदय और अस्त हो रहे हैं। 

“हे निराकार प्रभु! मुझे इतनी भयंकर सजा क्यों दे रहे हो? जैसे भार के ऊपर भार लादा जाता है, वैसे ही मेरे कंधों पर भार बढ़ता जा रहा है। 

“मैं नहीं जानता था कि यह संसार, यह प्रकृति तिमिर अंधकार की छाया से ढकी हुई है। ये बात अगर मुझे पहले पता होती तो शायद ये दुर्घटनाएँ मेरे साथ नहीं घटतीं। 

“हे गुणनिधि गुरु! मैं अपनी अंतहीन चिंताओं को तुम्हारे सामने कैसे कहूँ? दिन-रात मेरे मन में उठ रही यातनाओं को कैसे बताऊँ? मैंने जो गठरी खोली, वह झूठ से भरी पड़ी थी इसमें कोई रत्न-धन नहीं था। अब मुझे इस झूठ की जानकारी हुई। मेरी आँखें आँसुओं से भर गई हैं। जो-जो मैं अपने हृदय-पद्म में विचार करता हूँ, महसूस करता हूँ। आपके सामने रख रहा हूँ। इस महाघोर कलियुग में पच्चीस प्रकृतियों ने प्रबलता से मेरे इस शरीर पर आधिपत्य जमा लिया था। ऐसे समय में मैं क्या कर सकता था? आप बताओ मुझे ऐसे समय में क्या करना चाहिए ताकि इस युग से मुक्ति मिल जाए? 

“इस बार मुझे बख़्श दो। मैं आपके सामने हाथ जोड़ता हूँ। आपको मेरे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। आप सारी दुनिया के जागीरदार हो। आपकी सम्पत्ति अक्षय है। आपके पास अटूट सम्पत्ति है। मैं आप पर निर्भर करता हूँ। मेरी सौ पुश्तों तक यह धन चलता रहेगा। जब साहूकार का हृदय गंगाजल की तरह निर्मल हो तब ही उधार लेने वाले को फ़ायदा है। अगर खाताधारी साहूकार का धन लौटा देता है तो हमेशा के लिए प्रेम-संबंध बने रहेंगे। छप्पन करोड़ प्राणी आपका दाना-पानी खा रहे हैं। किसको कैसे दे रहे हो, यह तो आपको ही पता है। अब मैं आपके वैभव के सामने नतमस्तक हूँ, कृपया मुझे माफ़ कर दो।” 

मैं और कहाँ चुप रहने वाला था। हृदय में अपने दुख छिपाकर मुख पर मुस्कराहट बिखेरते हुए कहने लगा, “गुरु देव! प्राणियों का अपरिमित आर्त्त दुख देखकर कैसे सहन करूँ? भले ही, मुझे नर्क मिले, मगर जगत का उद्धार हो।” 

गुरु ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। यह देखकर मैंने वह जगह तुरंत छोड़ने का निर्णय लिया। फिर भी मैंने अपनी शंकाएँ गुरु के सम्मुख रखीं। अभी भी मेरा मानना है कि क्या नारी को ईश्वर प्राप्ति का अधिकार नहीं है? क्या उनके भीतर ईश्वर प्रदत्त आत्माएँ नहीं हैं? क्या वे कृच्छ-साधना नहीं कर सकती हैं? क्या गृहस्थ जीवन तपस्वियों से कमतर है? क्या संतान पैदा करना कोई घोर अपराध है? क्या शादी-शुदा आदमी साधु-संत या भक्त नहीं बन सकता है? 

बहुत सारे सवाल किए थे मैंने गुरु के सामने, परन्तु गुरु ने किसी का भी उत्तर देना उचित नहीं समझा, अपितु ग़ुस्से भरी निगाहों से दाएँ हाथ की तर्जनी अंगुली दिखाते हुए मालबिहारपुर छोड़कर जाने का संकेत किया। 

उसी पल मैंने अपने मन में संकल्प लिया कि और जीवन में कभी भी जोरन्दा नहीं जाऊँगा, बल्कि मैं अपना आश्रम अलग से खालियापाली में बनाऊँगा, गुरु के शून्य धाम में प्रवेश के बाद भी मैं उनके जोरन्दा आश्रम में कदापि क़दम नहीं रखूँगा। 

मैंने अपना वचन निभाया। उस दिन से मैं आज तक जोरन्दा नहीं गया। केवल एक ही बार जोरन्दा गया था, वह भी गुरु के शून्य धाम सिधारने के बाद, मगर उलझनें ज्यों-की-त्यों बनी रहीं। आज तक में नहीं समझ पाया कि अगर आत्मा का परमात्मा से मिलन हो भी गया तो क्या हो जाएगा? क्या ऐसा भी कोई क्षण होता है, जब परमात्मा आत्मा से बिछुड़ जाता है? आत्मा होती भी है या नहीं? क्या परमात्मा का अस्तित्व हाड-माँस में सम्भव है? जिस पर कभी भी कोई कुछ भी नहीं लिख सकता है, उस अलेख के बारे में कुछ लेख लिखना चाहता हूँ। जो महिमातीत है, उसकी महिमा का बखान कर रहा हूँ। गुरु में ईश्वर के दर्शन करता हूँ, मगर गुरु है कि नारियों को निकृष्ट समझते हैं, उन्हें नरक की खान मानते हैं। नर-नारी में कितना अंतर है, उन दोनों की काया में थोड़ा-बहुत अंतर है, वह भी संरचनात्मक। जबकि दोनों के हृदय एक हैं, ख़ून समान है, मस्तिष्क समान है, आत्मा एक है, सुख-दुख एक हैं, फिर गुरु को औरतों के प्रति इतनी नफ़रत क्यों है? 

अन्नपूर्णा भी तो नारी है, गुरु ने ख़ुद ही उसे मेरे पास भेजा था। वह ख़ुद तो महिमा स्वामी की परम शिष्या थी। उसने ही तो मुझे सुमेधा और रोहिणी के हाथ थमाए थे। शारीरिक सम्बन्ध बनाना अगर आध्यात्मिक पथ से विचलन है, तो मैं पथ-विचलित हूँ और मुझे पथ-भ्रष्ट होने का फ़ख़्र भी है। मुझे न तो गुरु बनने की चाह है और न ही कोई आवश्यकता। मैंने प्राणियों के आर्त्त दुख महसूस किए हैं, उनकी निस्संगता, असहायता और एकाकीपन को अपने भीतर अनुभव किया है। अगर मेरा यह सुगठित शरीर उन्हें थोड़ी-बहुत ख़ुशी दे सकता है तो फिर मुझे क्या आपत्ति है? आख़िर यह पचास-साठ सेर का शरीर जलने के बाद एक दो सेर राख में बदल जाएगा। जीवन के सारे सुख-दुख, व्यथा-पीड़ा, विचार-निर्विचार, अनुभव-अनुभूति सभी तो राख-राख हो जाएगी। क्या उन्हें फिर से अर्जित किया जा सकता है राख खंगालकर? 

दावे के साथ मैं लिखता हूँ, नारी नरक की खान नहीं हो सकती है। चाहे कबीर कहे या महिमा स्वामी। क्या मैं लीक से हटकर नहीं सोच सकता हूँ? जब गुरु ख़ुद पारंपरिक विचारधाराओं से अलग हटकर सोचते हैं, मूर्ति-पूजा को पसंद नहीं करते है, प्राणियों में ईश्वर के दर्शन करते हैं तो मैं भी तो ठहरा आख़िर उनका ही शिष्य। स्वतंत्र तरीक़े से सोचना मेरे जीवन का परम उद्देश्य है। 

मैंने भी अपनी बंद आँखों के भीतर से देखा, परखा और शून्य के बारे में सोचा। जब बुद्ध ख़ुद वेश्या के भीतर ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं, जब बुद्ध ख़ुद महिलाओं को भिक्षुणी बनने का अधिकार दे सकते हैं तो क्या सुमेधा, रोहिणी, सरस्वती, सुवर्णा, अन्नपूर्णा को जीवन के इस परम उद्देश्य से वंचित रखना सही रहेगा? 

भगवान ने सार और असार एक समान बनाए हैं। किसे छोड़ेंगे? हृदय में सद्बुद्धि से विचार कर विवेकपूर्ण हर कार्य को करना चाहिए। योग-भोग दोनों बराबर हैं, देखो, आपका झुकाव किधर होता है, यह आप पर निर्भर करता है? उसने तो दोनों चीज़ें बनाई हैं, एक अमृत और दूसरा विष। किसका चयन करोगे, यह आपको सोचना है? अपने-अपने गुणों के कारण साधु ज्ञानी-जन इन्हें एक-दूसरे का संपूरक मानते हैं। दोनों का वज़न मैं तोल नहीं पाया और दोनों की संधि में फँसकर रह गया। 

गुरु के तिरस्कार से पीड़ित होकर मैं कई रातों तक सो नहीं पाया था, मगर हर वक़्त मेरी बंद आँखों के सामने सुमेधा, रोहिणी और अन्नपूर्णा की तस्वीरें उभरती थीं और मुझसे प्रश्न करती थी, “जब किसी पशु योनि वाले जीव को मुक्ति मिल सकती है तो हम तो उनसे बढ़कर जीव हैं, पुरुषों के सदृश ही है तो हमें आपके गुरु क्यों धिक्कार रहे हैं? क्या मुक्ति पर हमारा अधिकार नहीं हैं? जब विष्णु भगवान गजराज को मुक्ति दे सकते हैं तो हम तो कम से कम उनसे बढ़कर हैं। हमें निकृष्ट न समझे और हमारे अधिकारों को भी हमसे नहीं छीने।” 

ये सारे प्रश्न मेरे लिए अनुत्तरित थे। मैंने उसी पल तय कर लिया कि मुझे अपनी शर्तों पर ही जीना होगा। 

॥इति अलेखायः नमः॥

 

आनंद ने इस अध्याय का पूरा वृत्तांत अरुण को सुनाया तो उसे महिमा धर्म में बौद्ध-धर्म का प्रभाव नज़र आया और गुरु महिमा स्वामी और शिष्य भीम भोई के सम्बन्ध आध्यात्मिक हो या व्यावहारिक, धीरे-धीरे वे प्रगाढ़ सम्बन्ध क्षीणतर होते नज़र आने लगे। वह आनंद से कहने लगा, “भारतीय-दर्शन में तंत्र-विद्या भी अध्यात्म का हिस्सा है। कहीं ऐसा तो नहीं, भीम भोई शून्य साधना से कन्या साधना की ओर प्रवृत्त हो रहे हों, जिसे देखकर उनके गुरु को ख़राब लगा हो। अन्यथा जिस गुरु ने उन्हें दिव्य-चक्षु दिए थे, उसी गुरु उन्हें आश्रम से बाहर खदेड़ दिया। जो गुरु उन्हें हीरा समझता है, वह उन्हें बाद में काँच का टुकड़ा कहता है। मुझे इस हिसाब से देखा जाए तो महिमा स्वामी का पक्ष मज़बूत नज़र आ रहा है।” 

आनंद अपने भाई की बातों से सहमत नहीं था। कहने लगा, “जब तक यह पांडुलिपि पूरी नहीं हो जाती है, किसी भी निष्कर्ष पर जल्दबाज़ी से पहुँचना अनुचित है। मुझे भीम भोई की यह दलील बहुत अच्छी लग रही है कि नर-नारी दोनों को ईश्वर साधना के लिए समान समझता है। दोनों में कोई अंतर नज़र नहीं आता है। भेदभाव रहित होकर वह नारियों को उचित सम्मान देता है। यहाँ नारीवादिता के पहलुओं पर अन्वेषण किया जा सकता है। मगर मुझे भीम भोई की कुछ बातों में मिथकीय दृष्टिकोण की झलक मिलती है, उदाहरण के तौर पर भस्म लगाकर बच्चे पैदा करना, सम्मोहन शक्ति की मान्यता इत्यादि। पूरा निष्कर्ष तो मैं पांडुलिपि पढ़ने के बाद ही बता पाऊँगा।” 

अगले दिन आनंद सातवाँ अध्याय पढ़ने लगा। 

<< पीछे : अध्याय 5 आगे : अध्याय 7  >>

लेखक की कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
साहित्यिक आलेख
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में