अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 5

अगले दो दिनों तक आनंद अपने अध्ययन कक्ष में नहीं गया। भीम भोई की जीवनी उसे काफ़ी प्रभावित कर रही थी। उसके जीवन की हर-मोटी घटनाओं में वह विप्लव की भाषा पढ़ रहा था। यद्यपि उसे संत के चमत्कारों से कोई लेना-देना नहीं था, मगर समाज में क्रांतिकारी आंदोलन की जड़ में कवि और कविता की भूमिका पर वह लगातार विचार कर रहा था। तीसरे दिन अनायास उसके क़दम अपने अध्ययन कक्ष की ओर बढ़े और हाथ अलमारी पर रखी लाल पोटली की तरफ़। टेबल लैंप जलाकर तीसरा अध्याय खोला। इस अध्याय में तालपत्र पर लिखे अक्षर धूमिल नज़र आ रहे थे। मोटा चश्मा पहनने के बावजूद भी अक्षर स्पष्ट पढ़ने में नज़र नहीं आ रहे थे, अंतः में उसने अपने टेबल के ड्रॉर में से रीडिंग लैंस निकालकर पढ़ने का प्रयास किया। स्थानीय भाषा में प्रयुक्त शब्द ऐसे थे कि उनका अर्थ उसे समझ में नहीं आ रहा था। अंत में उसने अपनी डायरी में नोटकर महिमा धर्म में दीक्षित शोधार्थी क्षीरोद परिड़ा से पूछने का निश्चय किया। 

इसके अतिरिक्त, क्लिष्ट आध्यात्मिक भाषा की गहराई में जाने के लिए ‘भीम भोई साहित्य-शोध संस्थान’ के प्रोफ़ेसर असीम पाढी ने उनकी जटिल कविताओं के गूढ़ार्थ समझाने में बहुत मदद की। दोनों की मदद पाकर वह कृत-कृत्य हो गया। इस कार्य में उसे एक सप्ताह लग गया था। वह समझ गया था, पाँचवें अध्याय में भीम भोई के आध्यात्मिक गुरु महिमा स्वामी, जिसे महिमा गोसांई भी कहते हैं, की जीवनी का संक्षिप्त वर्णन था। आनंद पूर्ववत अध्ययन कक्ष में पांडुलिपि खोलकर पाँचवाँ अध्याय फिर से सावधानीपूर्वक पढ़ने लगा। जल्दी से सही-सही समझने की दृष्टि से यह ज़ोर-ज़ोर से बोलकर पढ़ रहा था। यह अध्याय इस प्रकार से था:

मेरे गुरु की जन्म तारीख़ तो उन्हें ख़ुद मालूम नहीं थी, तो मुझे क्या मालूम होगी? वे इस काल-चक्र से परे थे, अनादि और अनंत। उन्हें किसी कालखंड में समेटना आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सही नहीं होगा। फिर भी मुझे लगता है, मुझसे चालीस-पचास साल बड़े होंगे। 

उन्होंने एक बार कहा था उनका जन्म ओड़िशा राज्य (वर्तमान में) के बौद्ध ज़िले के बलासिंहा गाँव में हुआ था। इतिहास भी इस बात की पुष्टि करता है। 

अपने धर्म-परायण स्वभाव के कारण यथार्थ आध्यात्मिकता की खोज में वे सन् 1826 में पूरी चले आए। पूरी में उन्हें न तो जगन्नाथ की पूजा रास आई और न ही अन्यान्य देवी-देवताओं की। उनकी धारणा थी, ऐसी पूजा-पद्धति लोगों को सही रास्ते से भटका रही थी। 

पूरी में वे अपने शरीर पर हमेशा धूल लगाकर रहते थे, इस वजह से लोग उन्हें ‘धूलिया बाबा’ कहते थे। ब्रह्मचारी परिव्राजक होने की वजह से वे पूरी के आस-पास के इलाक़ों में खंडगिरि, धउलिगिरि, नीलगिरि, खुर्दा, बाँकी, ढेंकानाल और भुवनेश्वर के इलाक़ों का परिभ्रमण करने लगे। इसी दौरान, शायद वे बौद्ध भिक्षुओं ने संपर्क में भी आए। यही वजह रही होगी कि उनकी विचारधारा में अधिकांश जगहों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है। 

वे अध्यात्म क्षेत्र में कुछ नया सार-तत्त्व खोजना चाहते थे। ऐसा अटूट सत्य, जिससे आने वाली पीढ़ी भवसागर में गोते खाते-खाते डूब न जाए। ऐसा सत्य, जो लोगों को पथ-भ्रष्ट होने से रोके। इस सत्य के अन्वेषण में वे सन्‌ 1850 में वैशाख पूर्णिमा के दिन ढेंकानाल के नज़दीक कपिल मुनि के नाम पर रखे गए कपिलास अरण्य को पहली बार आए और उसे हमेशा के लिए अपनी तपोभूमि बना लिया। यहाँ पर अपनी ध्यान-धारणा के लिए शिव मंदिर के पास अपना छोटा-सा आश्रम बनाया। 

पहले बारह साल तक वे केवल फलों का आहार लेते रहे, इसलिए फलाहारी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। धीरे-धीरे श्रद्धालुओं का उनकी दिव्य-शक्ति में विश्वास बढ़ता गया और उनके आश्रम में भक्तों की भीड़ जमना शुरू हो गई। उनकी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर ढेंकानाल के राजा भागीरथी महेन्द्र बहादुर उनके शिष्य बन गए। 

अगले बारह साल तक उन्हें राजमाता दूध और पानी भेजती रही, उनके भोजन हेतु। इसलिए उन्हें खीर-नीराहारी बाबा भी कहा जाने लगा। और अंत में कुछ साल वे केवल पवन को आहार के रूप में लेते रहे, जिससे वे पवनाहारी बाबा कहलाने लगे। 

पच्चीस-छब्बीस साल की उनकी दीर्घ तपस्या के बाद उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ अर्थात् ईश्वर से सीधा साक्षात्कार। ईश्वरीय तत्त्व की प्राप्ति के बाद वे एक नए धर्म की वकालत करने लगे। सृष्टि को जीवित रखने के लिए हर धर्म का नए विचारों के साथ अभ्युदय हुआ था। लोगों ने उनके नाम पर ही इस धर्म का नाम ‘महिमा धर्म’ रख दिया। 

इस धर्म के अनुसार ईश्वर निराकार और निर्गुण हैं। उसका कोई नाम नहीं है और न ही वह अपना नाम रखवाना चाहता है। उसके नाम को कोई लिख भी नहीं सकता तो अभिव्यक्त करना तो बहुत दूर की बात। बाबा इस वजह से उसे ‘अलेख’ कहते थे। यही परम-सत्ता है, यही ब्रह्म हैं। यही शाश्वत हैं, अनादि हैं, अनंत हैं, निरंजन हैं और उनकी महिमा ही सर्वापरि है। लक्षण रहित होने के कारण वह परम शून्य हैं। यद्यपि यह विचारधारा हिन्दू धर्म में उनसे पूर्व में भी व्याप्त थी, कबीर, नानक ने निराकार भगवान की कल्पना की। उनके समकालीन स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी ईश्वर को निराकार ही माना। 

इस तरह धूलिया बाबा, फलाहारी बाबा, नीर-क्षीराहारी बाबा, पवनाहारी बाबा का लौकिक नाम मुकंद दास था। उन्होंने घोर कुरीतियों से व्याप्त हिन्दू धर्म से अलग अपने नए धर्म को चलाने का संकल्प लिया। वही धर्म आगे जाकर महिमा धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ और मैं बना उस धर्म का मुख्य-प्रवक्ता, अपनी कविताओं के ज़रिए। 

बुद्धत्व प्राप्ति के बाद पहली बार महिमा गोसाईं अपने जन्म-स्थान बौद्ध के बलासिंहा गाँव लौटे और वहाँ उन्होंने गोविंद दास को अपना पहला शिष्य बनाया। उस समय मेरी उम्र बारह साल रही होगी। 

यह वह समय था, जब मैं कंकणपड़ा में अपने डिहा आश्रम में सत्संग किया करता था। मेरी कीर्ति पार्श्ववर्ती इलाक़ों में फैल चुकी थी। कंकणपड़ा बलासिंहा से ज़्यादा दूर नहीं था। केवल दस-पंद्रह कोस का फ़ासला। 

एक रात महिमा स्वामी अपने शिष्य गोविंद दास के साथ कंकणपड़ा में मेरे आश्रम में आए और आधी रात को मेरे कुटीर का दरवाज़ा खटखटाने लगे। पूरी घटना का वर्णन मैं पूर्व अध्याय में दे चुका हूँ। महिमा स्वामी ने मेरे मस्तिष्क पर ‘भीम! भीम! भीम! अलेख! अलेख! अलेख!’ कहकर हल्के हाथों से थाप मारी तो अचानक मेरे भीतर कवित्व का स्फुरण होने लगा। मैंने उनके दिव्य-दर्शन किए। आध्यात्मिक भाषा में, उन्होंने मेरे भीतर कवित्व प्रतिभा का शक्तिपात किया था। मुझे लगा, यह ठीक वैसा ही प्रयोग था जैसा काली पूजक रामकृष्ण परमहंस ने अपनी रिद्धि-सिद्धियों का अपने परमशिष्य विवेकानन्द के भीतर शक्तिपात कर उर्जस्वित किया था। 

आध्यात्मिक क्षेत्र में इस तरह के अनेक क़िस्से आपको सुनने को मिल जाएँगे, मगर मैंने यहाँ अपने साथ घटित हुए सारे वृतांत्तों को ज्यों-का-त्यों पाठकों के सम्मुख रखा है। हो सकता है, आपके जीवन में भी अपने प्रारब्ध के अनुसार इस तरह की घटनाओं की कभी पुनरावृत्ति हो जाए। 

मेरे गुरु की महिमा का वर्णन शब्दातीत है। मेरी लेखनी वहाँ तक पहुँच भी नहीं पाती है। गुरु के आशीर्वाद में बहुत बड़ा चमत्कार होता है। कहते हैं, गुरु के आशीर्वाद से पंगु पहाड़ लाँघ सकते हैं, मूक बोलने लगा जाता है, बहरा सुनने लग जाता है। इस जीवन में असम्भव से सम्भव हो जाता है, गुरु के आशीर्वाद से। मेरे जैसे असाक्षर, अनपढ़, अंधे, अनाभिजात्य व्यक्ति के भीतर स्फूर्तः काव्य-प्रतिभा का पैदा होना हर किसी की कल्पना से परे था। अपने प्रारब्ध और पुण्य कर्मों से मैं कवि बन गया। गुरु के आशीर्वाद से मैंने अपने जीवन में संकल्प लिया कि मैं सत्य से ही तरूँगा और सत्य के लिए ही मरूँगा। यश-अपयश सभी तो धरती पर ऐसे ही रह जाएँगे। गुरु की यही मेरे लिए आज्ञा भी थी। 

गुरु ने मुझे अपने श्रीमुख से महिमा धुनि की स्थापना का आदेश दिया था और मैंने इसे शिरोधार्य भी किया। मगर लोगों का विरोध देखकर मैं डरकर निराश हो गया। मुझे लग रहा था, गुरु ने मुझे ऊपर चढ़ाकर नीचे से टाँग खींच ली। जगत को सँभालने और मेरा ध्यान रखने का काम गुरु का था। क्या मैं अपने दुखों का वज़न ख़ुद उठा सकता था? बिल्कुल नहीं। मेरे पास अंतहीन दुख हैं, उन्हें बाँधकर पोटली बनाकर गुरु को ढोना है, न कि मुझे। 

संपत्ति-विपत्ति, मुक्ति-दुर्गति-दोनों जुड़वाँ भाइयों का निर्माण गुरु ने ही किया है। मेरे पापों का बोझ कौन ढो पाएगा? ये बोझ अपने पाँवों में ही रहने दो। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि मैं कहीं भाग नहीं सकता। सारे भक्तजन इस धरती पर तुम्हारी शरण पाने के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। उनके पापों को माफ़ कर उन्हें अपनी शरण में ले लो। मैं जानता हूँ, जीवन में दुखों की कोई सीमा नहीं है। अपरिमित दुख है। कौन उसे सहन कर पाएगा? कौन उसे देख पाएगा? मुझे भले ही नरक में भेज दो, मगर जगत का उद्धार कर दो। गुरु ही मेरे लिए भगवान हैं। मन ही मन सांसारिक दुखों और इन झंझटों से मुक्ति पाने के लिए गुरु के सम्मुख प्रार्थना करता हूँ। 

“हे अनित्य अनंत ईश्वर! तीनों ब्रह्माण्ड के सारे जीव तुम्हारे भक्त हैं। नौ लाख तारें सुराट, विराट, ध्रुवलोक सभी तुम्हारे चरणों के ठूल-शून्य में विश्राम करते हैं। ठूल-शून्य के उस पार कुछ भी दिखाई नहीं देता है। अविकारी ब्रह्म अनाम अरूप सिंधु के रूप में चारों तरफ़ विद्यमान हैं। चाहे वे संत हो या दुष्ट, सेवक हो या सामंत या हो कीट-पतंग-सभी तुम्हारे घर में समान रूप से व्याप्त हैं। पृथ्वी के पत्थर, पाषाण, लकड़ी, तरू-तृण आदि जैसे निर्जीव में कौन रहता है? जितनी मुझे जानकारी है, इन सभी के भीतर भी शब्द ब्रह्म ही है। तुम्हारी कृपा से मैं मूर्ख कवि गुप्त मार्ग का अनुकरण करता हूँ। मुझे तो सभी में समानता नज़र आती है। किसी में कोई अंतर नहीं है। गुरु द्वारा प्रतिपादित सत्य-धर्म इसका साक्षी है। 

भले ही, त्रिपुर जगत के जीवों के नाम अलग-अलग क्यों न हों, पहचान अलग-अलग क्यों न हो मगर सभी में एक ही आत्मा निवास करती है। जैसे धातु या लकड़ी के बरतन में रखा पानी एक ही होता है, उसी तरह मुझे भी सभी प्राणियों में एक ही आत्मा नज़र आती है। 

जब दोष, लाभ-हानि, गाली-गलौच, द्वन्द्व, वाद-विवाद जैसे शब्द मेरे सामने आते हैं तो मुझे लगता है कि ये चीज़ें मेरी त्वचा के रोमकूपों को भेदते हुए जीवन को दिन-प्रतिदिन कातर बना रही है। चूल्हे की आग पर रखे बरतन में जिस तरह चावल पकते हैं, वैसे ही मेरे हृदय में पंचभूत पकने लगते हैं। 

सच में, गुरु, जीवन की क्या परिभाषा है? हड्डी के टुकड़े, रुधिर की बूँदें और मांस के लोथड़े से बनी हुई वस्तु मात्र? मैं अपनी बात कह सकता हूँ कि मैं प्राणियों की विकलता सहन नहीं कर पाता हूँ। जैसे महाभारत के युद्ध में तलवार के एक प्रहार में पाँच-दस सिर एक साथ कट जाते थे, वैसे ही अगर तुम मेरे पैरों पर प्रहार करते हो तो मेरे दूसरे अंग भी पीड़ा से कराह उठते हैं। अगर मेरी आत्मा ने तुम्हारी भक्ति में कोई त्रुटि रख दी हो तो मेरे सिर पर अभी वज्राघात हो जाए। मैं चाहता हूँ कि मेरे इस शरीर को ब्रह्मशाप देकर भस्मीभूत कर दो। 

मेरी नज़रों में गुरु और शिष्य में कोई फ़र्क़ नहीं है। जो उन्हें अलग-अलग समझता है, उसका हृदय फट जाएगा, उसका मुँह जल जाएगा, जीभ जल जाएगी। ऐसा समझने वाला न तो गुरु हो सकता है और न ही शिष्य। न वह मालिक है और न नौकर। न गुरु और शिष्य न ब्राह्मण है, न चांडाल। न पुरुष है, न स्त्री। न भाई, न बहिन। न पिता, न पुत्र। न नीर, न क्षीर। न कड़वा, न तीखा। यहाँ तक कि वह सुंदर भी नहीं है। उसकी न जाति है, न गोत्र। आत्मा और मन दोनों में एकत्व है। कोई अंतर नहीं है, दोनों इसी दुनिया में रहते हैं। न जल है, न पवन। न रूप है, न अरूप। न ज्ञान, न अज्ञान। और न ही वे वेदों की धारणाएँ हैं। न पाप, न पुण्य। न सेवा, न भक्ति। न काम, न क्रोध। न मति, न सति। न ही काल है, न मृत्यु। न शुभ है, न अशुभ। पति-पत्नी न होकर भी एक शरीर में वे सब कुछ भोगते हैं। न दास है, न दासी। न माया, न प्रकृति। न सत्य है, न झूठ। एक ही रूप में वे दोनों है। न काला, न सफ़ेद। न पति, न पत्नी। न लाभ, न हानि। सुख-दुख में एक समान। प्रभु और भगत के शरीर में एक ही जीव रूप। श्री गुरु के चरणों को शिष्य भजता है। जिस प्रकार आत्मा शरीर के अस्थि-पंजर में रहती है, वैसे ही गुरु शिष्य के भीतर रहता है। पंचभूत और मन जिस प्रकार शरीर में मिल जाते हैं, वैसे ही इस ब्रह्माण्ड में गुरु शिष्य से दूर नहीं रह सकते हैं। 

जिस तरह पाँच मनों में पच्चीस प्रकृतियाँ लताओं के झुरमुट की तरह घिरी रहती हैं, उसी तरह गुरु शिष्य का सम्बन्ध होता है। जिस तरह अस्थियों की सुरक्षा के लिए चारों तरफ़ मांस लिपटा रहता है, वैसे ही गुरु और शिष्य ज्ञान-सिंधु के जल में एक-दूसरे से लिपटे रहते हैं। जिस तरह मांस को रुधिर से दूर नहीं किया जा सकता है, वैसे ही गुरु शिष्य को भी पृथक नहीं कर सकते हैं। जिस तरह अस्थि-पंजर सिर से मज़बूती से जुड़ा रहता है, वैसे ही गुरु शिष्य एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। जिस तरह देह पर त्वचा का आवरण होता है, और त्वचा पर बालों की सतह, उसी तरह गुरु और शिष्य चारों युगों से एक ही साथ रहते हैं। देह का ब्रह्म से मिलना स्त्री-पुरुष के एक होने की तरह है, मेरे जैसे पामर, हीन, अज्ञानी पुरुष के लिए गुणों का निर्गुणों में समा जाने के सदृश हैं। 

मेरा मानना है कि जिस तरह शरीर में जीव और परम अलग-अलग नहीं होते हैं, उसी प्रकार गुरु और शिष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस तरह किसी भी रूप में शब्द ब्रह्म समान रहता है, उसी तरह तन, मन से आज्ञाकारी बनकर शिष्य गुरु की सेवा करता है। सही कहूँ तो शिष्य का शरीर श्री गुरु के लिए भूषण की तरह है जैसे आँखों में धवल डोरा। जिस तरह धवल डोरे में काली पुतली होती है, उसी तरह भीतर से गुरु अपने शिष्य पर अनुकंपा बरसाता है, उसकी भक्ति और सेवा से ख़ुश होकर। 

भक्ति-भाव, सत्य-स्नेह, गुरु-शिष्य के सम्बन्धों का आधार है। जिस तरह दस अंगुलियाँ जुड़ी हुई रहती हैं, उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता है, उसी रूप में गुरु में शिष्य की भक्ति भावनालिप्त होती है। गुरु दया करना चाहता है और शिष्य को चाहिए दया। इसलिए दोनों की आत्मा एक ही है, इसमें कोई माया नहीं है। जिस तरह प्यासे को पानी नहीं मिलने से मुख सूख जाता है और पानी पीते ही सुख-शांति और तृप्ति मिलती है, वैसे ही गुरु के मिलते ही शिष्य को तृप्ति मिलती है। 

जिस तरह पानी पर गार खींचकर अलग नहीं किया जा सकता है, वैसे ही युगों-युगों से तीनों लोकों में गुरु शिष्य का यही सम्बन्ध है। शिष्य अगर धूल के कण के तुल्य है, तब भी गुरु के शरीर का आभूषण है। वह गुरु ही है, जो शिष्य के सारे दोष अपने सिर पर ले लेता है। 

जब शिष्य गुरु को पहचान लेता है तो तन-मन से उसकी सेवा करता है, मगर गुरु के हृदय कमल से निकलने वाली दया धर्म की भावना की तुलना कौन कर सकता है? अगर गुरु सामंत बनकर बैठ जाए और शिष्य को ज्ञान नहीं दे तो उसका चेहरा काला पड़ जाए। अगर कोई गुरु के सुख-दुख में सेवा करता है और गुरु के मन में उसके प्रति दया भाव नहीं है तो वह गुरु किस काम का? धिक्कार है उसके ज्ञान को, धिक्कार है उसके धर्म को, उसकी सेवा करने से क्या फ़ायदा, जिसके कोई फल नहीं मिलता। 

मैं हमेशा गुरु से प्रार्थना करता हूँ कि नितदिन तुम्हारी सेवा करने वाले शिष्य को भूल मत जाना। उसे योग-भोग, धन-संपदा देने के साथ-साथ मुक्ति का मार्ग भी दिखलाना। उसे अपने प्राणों से भी ज़्यादा समझना, उसे अपने गले का हार समझना, उसके साथ किसी भी प्रकार का छल-कपट मत करना, भले ही, वह तुम्हारे शरीर का मांस ही क्यों नोंच न ले। 

ऐसे शिष्य को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उसे पास बैठाकर उसके गुणों की तारीफ़ करनी चाहिए, उसे अपनी आत्मा का जीव और हृदय का चंदन समझना चाहिए। गुरु और शिष्य अलग-अलग नहीं होते हैं वे एक ही होते हैं। अगर गुरु के शरीर में कोई पीड़ा और व्यथा होती है तो भक्त को चिंता होने लगती है और अगर भक्त दुख के जाल में फँसता है तो गुरु वेदना से तड़प उठता है। 

अगर शिष्य होकर गुरु को नहीं मानते हो तो दीक्षा लेना बेकार है, तब धर्म, ध्यान, विधि-व्यवहार का पालन कौन करेगा? अगर कवि और पंडित स्वाध्याय नहीं करेंगे तो शुभ-अशुभ की जानकारी कैसे होगी? अगर कोई योगी विषयों के पीछे भागता है और अपनी योग-साधना की तरफ़ ध्यान नहीं देता, प्राणायाम नहीं साधता है तो उसका आध्यात्मिक विकास कैसे होगा? अगर कोई द्विज कर्मकांड नहीं करता है, वेदों का पठन-पाठन नहीं करता है, मंत्रोच्चारण नहीं करता है, त्रिकाल संध्या नहीं करता है, तर्पण नहीं करता है तो फिर उसके जीवित रहने का कोई अर्थ है? अगर कोई नौकर अपने मालिक की सेवा नहीं करता है तो उसकी बदनामी होगी और अगर उसकी सेवाओं को मालिक नज़र अंदाज़ करता है तो मालिक की ग़लती है। अगर किसी का धन, पुत्र, पुत्री, पत्नी, परिवार, मित्रों में प्रेम नहीं है तो तुम्हारा प्रेम कैसे बढ़ेगा? जब तक कि प्रारब्ध में अच्छे कर्म नहीं लिखे हों? अगर ब्रह्म तीनों गुणों वाली काया का निर्माण नहीं करते हैं, अगर वे जन्म-जातक की परवाह नहीं करते हैं तो कौन उन्हें स्रष्टा कहेगा? अगर विष्णु छप्पन कोटि प्राणियों का लालन-पालन नहीं करते हैं, अगर वे आत्माओं की सही पहचान नहीं कर सकते है और धर्म की रक्षा नहीं करते है तो उनका भगवान होना न्यायसंगत नहीं है। 

मैं हमेशा गुरु के सामने इस प्रकार की दलीलें देता था। कभी-कभी गुरु नाराज़ भी हो जाते थे, मगर उनके मन में मेरे प्रति दया के भाव थे। मैं उनसे अनुनय विनय करता था कि वे अपने दया के जल से मेरे दुखों को ख़त्म करें। 

श्रद्धालुओं का मानना था कि कलयुग में जब धरती माता भयंकर पीड़ा से तड़प रही थी और चारों तरफ़ त्राहि-त्राहि मची हुई थी, उस समय धरती माता ने ‘परम शून्य’ से अवतार लेने की प्रार्थना की। तब ‘परम शून्य’ महिमा गोसांई के रूप में हिमालय पर अवतरित हुए और फिर वहाँ से कपिलास आ गए। 

महिमा गोसांई कपिलास में हिन्दुओं द्वारा शिवलिंग तथा अन्य मूर्तियों की पूजा को पत्थर और लकड़ी की पूजा मानते थे, जो पूरी तरह से व्यर्थ थी। धीरे-धीरे वे कपिलास में विद्रोही संत के रूप में प्रख्यात हो गए। उसके बाद वे कपिलास से पूरी लौटे और लोकनाथ महादेव मंदिर के पास रुके। उसके बाद खुर्दा और दारूठेंगा जगह पर चले गए। इस तरह अपने सत्य-धर्म के प्रचार के लिए नए-नए स्थान खोजे। 

उसके बाद अपनी धर्म-यात्रा जारी रखी। देखते-देखते गढ़जात के अनेक प्रांतों में जैसे गंजाम, कोरापुट, फूलबाणी, बाँकी, सोनपुर, संबलपुर, छत्तीसगढ़, सुंदरगढ़, केंदूझर, रेढ़ाखोल, सुकिंदा तालचेर, अंगुल, हिंदोल, ढेंकानाल, बलांगीर, सिंहपुर, मेदनीपुर, बाकुँडा, बालेश्वर और मुगलबंदी वाली रियासतों की यात्रा उन्होंने पूरी की। हर समय उन्हें देखने के लिए लोगों का मजमा जमा रहता था और ग़रीब तबक़े के लोग उनके धर्म की ओर आकर्षित हुए। उन इलाक़ों में उनके चमत्कारों की कहानियाँ भी प्रचलित होने लगीं। पानी और हवा में चलने, मुर्दों को ज़िन्दा करने, बाँझ औरतों को गर्भवती होने की भस्म देने, गोमूत्र और गोबर के प्रयोग से बीमार लोगों को ठीक करने के चमत्कारिक क़िस्से—तत्कालीन समाज में चर्चा के विषय बने। 

एक बार ढेंकानाल में मेला लगा और वहाँ से कुछ श्रद्धालुओं ने उन्हें महँगे कपड़े और चाँदी के आभूषण ख़रीदकर उपहार स्वरूप प्रदान किए, जिसे वे ढेंकानाल के राजा को भेंट करना चाहते थे। मगर राजा ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया तो उन्होंने उन सामानों को धुनि की पवित्र आग में झोंक दिया। इस तरह से मनमौजी स्वभाव के थे वे। 

मैंने सोलह साल की उम्र में टूटी-फूटी बांग्ला में अपने पहले काव्य-संग्रह ‘महिमा विनोद’ में उस दिव्यात्मा की दीर्घ धर्म-यात्रा का ज़िक्र किया है, जो हिमालय से शुरू होकर कपिलास में ख़त्म होती है। इस यात्रा के दौरान मेरे गुरु ने बद्रिकाश्रम, नेमिषारण्य, द्वारिका, प्रयाग, काशी, वृन्दावन, मथुरा, पूरी और नवद्वीप जैसे स्थलों की यात्रा की। 

पूरी को छोड़कर मेरे गुरु को हर जगह मान-सम्मान मिला क्योंकि उन्होंने पूरी में सामान्य आदमी को आस्था के नाम पर पाप-पुण्य के नाम पर लूटे जाने का खुला विरोध किया था। 

यह बात भी सत्य है कि मेरे गुरु को संभ्रांत वर्ग के लोग ‘गाँव का बाबा’ मानते थे, जो साधारण जनता या असभ्य आदिवासी लोगों को प्रभावित करना जानते थे। जगन्नाथ मंदिर के दारू ब्रह्म अर्थात् जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की लकड़ी से बनी मूर्तियों की पूजा का घोर विरोध करते थे। सन्‌ 1881 में एक अनहोनी घटना घटी। हमारे भक्तों की टोली ने ‘अलेख’, ‘अलेख’ चिल्लाते हुए जगन्नाथ मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश किया। शायद वे उन मूर्तियों को उतारकर जलाना चाहते थे। जब यह ख़बर मेरे कानों पड़ी तो मैंने उन्हें संदेश दिया, जगन्नाथ जी पूरी छोड़कर अन्यत्र चले गए हैं, तब जाकर वे लोग शांत हुए। जगन्नाथ मंदिर में मेरे परम भक्त दासाराम की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। पूरी की इस घटना को तत्कालीन अख़बारों में जैसे उत्कल दीपिका, संवाद वाहिका, संबलपुर हितैषणी आदि ने मुख्य पृष्ठ पर छापा, जिस वजह हमारे महिमा धर्म के अनुयायी लोक-लोचन में आए। 

मैं मेरे गुरु महिमा गोसांई को जगन्नाथ भगवान से बढ़कर मानता हूँ। श्रद्धालु उन्हें ‘प्रबुद्ध स्वामी’ कहते हैं। जगन्नाथ तो पहले शबर देवता थे बाद में जब उन्हें कोई राजा ले गया तो वे राष्ट्र देवता बन गए। 

मेरे गुरु पूरी तरह फक्कड़ मिज़ाज के थे। कुंभी पेड़ की छाल को कमर पर बाँधकर घूमते थे और खुले आसमान में गाँव की सड़क पर या धूल में सो जाते थे तो कभी झोंपड़ी में बिना किसी चादर को बिछाकर। पथरीले पहाड़ों पर सघन वनों में नँगे पाँव चलते थे, एक दो कोस नहीं, कई कोसों तक। जंगली खूँखार जानवर शेर-चीता आदि भी उनके सामने भीगी बिल्ली बनकर बैठ जाते थे। गुरु का जीवन पूरी तरह रहस्यमयी तथा चमत्कारिक था। 

राजाओं और रजवाड़ों का समय था। गाँव की नई-नवेली दुलहनों को सुहागरात के दिन उनके घर भेजना पड़ता था। सामंतवादी शासन्‌ था। मौली प्रथा का प्रचलन था अर्थात् किसी भी परिवार में निस्संतान मुखिया के मरने पर उसकी सारी जायदाद अपने आप राजा की हो जाती थी। राजाओं द्वारा जनता पर किए जा रहे अत्याचारों से अँग्रेज़ वाक़िफ़ थे, मगर कर-वसूली की ख़ातिर वे सदैव राजाओं का ही पक्ष लेते थे। केंदुझर, नयागड़, दशपल्ला, घुमुसर और संबलपुर की जनता ने इस शोषण का घोर विरोध किया, मगर उपनिवेशवादी सरकार से उन्हें कभी भी न्याय नहीं मिला। मेरे गुरु महिमा स्वामी जनता के इस दर्द से बहुत दुखी थे। 

मेरी आत्मा भी तड़प उठती थी और गुरु से गुहार करती थी, 

“प्रभु मेरे बंधु!, प्रभु मेरे ईष्टदाता!!, प्रभु मेरे शरणदाता मेरे संबल!!! 

“कौन मेरे और समाज के संकटों और दुर्भाग्य को कम करता है, सिवाय गुरु के? श्री गुरु मेरे लिए सब-कुछ है वे मुझे समझेंगे। अंतर्यामी प्रभु मेरा अहंकार तोड़कर मुझे संताप-विपत्ति से बचा सकते हैं। इस माया-संसार में जितना कुछ मैंने अपने विवेक के अनुसार सोचा, मैंने पाया, सारे उपाय ग़लत हैं, उनसे कुछ भी फल मिलने वाला नहीं है। मैं अपनी ध्यानावस्था में सातों ब्रह्माण्ड और इक्कीस पुरों में घूमकर आ गया हूँ, मैंने देखा सत्य धर्म के सिवाय इस दुनिया में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। इसलिए मैंने अपने सुख-दुख का बोझ मेरे गुरु के पादारविंद में छोड़कर ब्रह्म को सार मानकर निर्बाधरूप से उसे पकड़ लिया है। अब तुम्हारी इच्छा है, तुम चाहो तो मुझे मार दो या फिर तार दो। समाज की दुर्दशा देखकर दिन-रात मेरे संतृप्त मन से आँखों से आँसू बह रहे है। इस घर के भेद की कहानी तुम्हारे सिवाय और कौन जानता है? अब यह तुम पर निर्भर है कि क्षीर-नीर का मिश्रण सही बना है या नहीं। कौन गुरु, कौन शिष्य, दोनों में कोई अंतर नहीं है। भक्त और भगवान एक ही शरीर है और वे अपना भोजन एक साथ ग्रहण करते हैं। इन दोनों में अंतर समझने वाले प्राणी का नाश हो जाता है। मैं गुरु के अभय पंजर में वास करते हुए अपनी आत्मा से ये बातें कह रहा हूँ।” 

खालियापाली आश्रम के एक प्रवचन में मैंने इस पर प्रकाश डाला: 

“उपस्थित भक्तजनो! 

बहुत अन्याय के कारण, ब्रह्माण्ड में चारों तरफ़ पाप भर गया है। नवखंड धरती से चारों धर्म आकाश में उड़ गए हैं। इस सृष्टि में दुष्कर्म देखकर किसी के हाथ का पूजा-भोग स्वीकार नहीं करने के कारण सारे देवी-देवता, जो जहाँ पर थे-शून्य की ओर चले गए हैं। श्री परुषोत्तम (पूरी) और कपिलास की तरह सारे पवित्र जगहों से धर्म विलुप्त हो गया है। सारे तीर्थ-स्थल भ्रष्ट हो गए हैं, कहीं पर भी ब्रह्म नहीं रहे। गंगा, गया, काशी, प्रयाग, रामेश्वरम्, सेतुबंध, सभी तीर्थों में भी अधर्म और असत्य का बोलबाला है। गोदावरी, गोमती, वृंदावन, द्वारिका, हरिद्वार आदि में भी धर्म की धारा सूख गई है। ये स्थल भी निष्फल हो गए हैं। मानसरोवर, बद्रीनाथ, वैतरणी, यमुना, सरस्वती चतुर्थ धाम समेट भ्रष्ट हो गई है। मेड-मंडप, देवल-देवालय, महल-अट्टालिकाएँ—कहीं पर भी सत्य-धर्म नहीं दिखाई दे रहा है। वेद विद्या, औषधि, महौषधि, यंत्र, मंत्र, जप, सभी व्यर्थ हो गए हैं, ये सब हमने अपनी ख़ुद की आँखों से देखा है। काष्ठ प्रतिमा, प्रस्तर मूर्ति, पाषाण-सभी ने अपनी शक्ति खो दी है, अब और उनका कोई प्रभाव नहीं बचा। जो थोड़ा-बहुत बचा भी है, कुछ ही दिनों में वह भी ख़त्म हो जाएगा। छप्पन करोड़ प्राणियों के शरीर और आत्मा के लिए अनादि पुरुष साक्षी रहेंगे। कुछ ही दिनों में वैद्य नारायण भी शास्त्रों की पोथियाँ त्याग देंगे। कर्म के अनुसार जो थोड़ा-बहुत बचा है, बाक़ी सब चला गया। लोग मूर्खतावश देवताओं की पूजा कर रहे हैं, उन्हें साष्टांग दंडवत हो रहे हैं, यह कहते हुए

“हमारी रक्षा करो। हम तुम्हें खीर, पूरी, खाजा खिलाएँगे। 

“अरे मूर्खों! ये केवल मूर्तियाँ हैं। उनमें जीवात्मा नहीं है। कहाँ से और कैसे वरदान देंगे? विष्णु का मायाजाल समझ में नहीं आ रहा है तभी तो मूढ़ता और अज्ञानता में फँसे हुए हैं। दुख की बात है, जिसने हमें जीवन दिया, उसके प्रति समर्पण नहीं, जबकि काष्ठ प्रतिमा, पत्थर की मूर्ति के सामने हमें बचाओ की गुहार लगाना कहाँ तक युक्ति संगत है। मनुष्य होकर निर्जीव के साथ भावनाओं का सम्बन्ध अज्ञान नहीं तो और क्या है। शून्य से जिसने हमारी काया गढ़ी, उसकी तरफ़ कोई ध्यान नहीं। परमेश्वर का सही स्वरूप नहीं पहचानते, पर इस दुर्लभ जन्म का अर्थ क्या है? अज्ञानतावश मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार सभी की पूजा करता है, उसके मन में जो कुछ भी विचार आते हैं, वैसा ही काम करने लग जाता है। अपना सच्चा धर्म नहीं जानकर-आलतू-फालतू कर्मकांडों में फँस जाता है। साधुओ! तुम लोग तो अविवेकी नहीं हो, अपने धर्म का अनुसरण करो, अपने आपको समर्पित कर दो, शून्य नाम में शरण लो, सारी कठिनाइयाँ स्वतः पार हो जाएँगी। अवहेलना मत करना, नाव डूब जाएगी, समय हो गया है। अभी से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करो। नाम ब्रह्म में कोई दोष नहीं है। मुझे ग़लत मत समझो, परेशान भी मत होओ। यह तुम्हारे देह और देही के लिए हितकर है। यह कहकर मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ।” 

मेरे गुरु का मानना था कि भक्ति भावना के द्वारा ही किसी को भी निराकार ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। समकालीन समाज सुधारक राजा राम मोहन राय की एकेश्वरवाद की परिकल्पना भी मेरे गुरु की विचारधारा से मिलती-जुलती थी। कभी-कभी मुझे सुनने में आता था—हमारे धर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कारण ईसाई मिशनरियाँ भी आकर्षित हो रही थीं। 

कभी-कभी दूसरे धर्म वाले मेरे गुरु को सूर्य का उपासक मानते थे, जो सत्य, उर्जा, समानता और धर्म का प्रतीक है। इसके पीछे की वजह महिमा धर्म में सूर्योदय और सूर्यास्त को साष्टांग दंडवत होकर प्रणाम करने तथा रात को भोजन नहीं करने का प्रचलित नियम है। यही वजह रही होगी, लोग महिमा धर्म की जुरथुस्ट्रीयन धर्म से तुलना करते होंगे। 

ऐसे भी देखा जाए तो मेरे गुरु का मूर्ति-पूजा में बिल्कुल विश्वास नहीं था तो फिर हमारे धर्म में मंदिर बनाने की परंपरा का तो सवाल ही नहीं था। फिर भी मेरे गुरु ने हिन्दू धर्म की कुछ विचारधाराओं को अपने धर्म में भी अपनाया। उदाहरण के तौर पर जोरन्दा में बिना मूर्ति का मंदिर बनाना, जिसे आप शून्य मंदिर भी कह सकते हैं, इसका परिणाम है। इसी तरह श्रीमद्भागवत पुराण का सम्मान करना, गाय तथा अग्नि को पवित्र मानना आदि-आदि हिन्दू धर्म से लिए गए रीति-रिवाज़ हैं। इसके बावजूद भी महिमा गोसाईं राजा, ब्राह्मण, वैश्य और धोबी को निम्न दर्जे का मानते थे, क्योंकि ये सभी सामान्य आदमियों का धर्म, आस्था, विश्वास और भावना के नाम पर शोषण करते थे। फिर भी कुछ राजाओं ने महिमा धर्म के ब्रह्माग्नि वाले स्थलों की स्थापना में बहुत मदद की, जिसमें दारूठेंगा, मालबिहारपुर, टाँगी, खूँटणी, जोरन्दा और खालियापाली प्रमुख हैं। 

एक बार विद्वेष की भावना से ईष्यालु ब्राह्मणों ने उनकी बढ़ती लोकप्रियता को कम करने के उद्देश्य से उनकी सभा में अफ़रा-तफ़री मचाने का षडयंत्र किया। दस हज़ार से ज़्यादा भक्त पूनम की रात को वार्षिकोत्सव में वहाँ जमा हुए थे और उनके खाने हेतु प्रसाद के लिए एक लाख से ज़्यादा की हांडिया रखी हुई थीं किसी ने ‘आण’, ‘आण’ (ओड़िया में जिसका अर्थ ‘लाना’, “लाना’ होता है) कहा तो उन्होंने ‘हाण’, ‘हाण ’ (ओड़िया में गर्दन काट दो) के उच्चारण में बदल दिया तो लोगों ने एक दूसरे की गर्दन काटना शुरू कर दिया, जिसमें कई लोगों की मौतें हुईं। 

इसी तरह बाँकी के पास मालबिहारपुर के नज़दीक गाँव शठील में मेरे गुरु भाई बाबा अच्युतानंद ने पागल की हालत में अपने घर वालों को मार डाला, जिससे उन्हें आजीवन कारावास हुआ। ऐसे ही नरसिंह बाबा को मालाबिहार आश्रम में कुछ आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण कटक जेल में एक साल की जेल हुई। 

ओड़िशा के कमिश्नर टी.ई. रेवेंसा के सामने कुछ लोगों ने मेरे गुरु के ख़िलाफ़ संभ्रांत महिलाओं को महिमा धर्म अपनाने के लिए बाध्य करने की शिकायतें की। 

आज भी मुझे अच्छी तरह वह घटना याद है, जब मैं एक बार दिहा के आश्रम में राजा के सैनिकों के आक्रमण से पहले अपने भजनों में वर्ण-प्रथा अर्थात् जातिवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा था तो अचानक सैकड़ों ब्राह्मणों ने मेरे ऊपर आक्रमण कर दिया, मुझे बहुत पीटा और बाँधकर एक कुएँ में फेंक दिया। जैसे-तैसे भक्तों के सहयोग से मेरी जान बची। मैंने उसी दिन कंकणपड़ा छोड़ने का तय किया था। ‘जान बची तो लाखों पाए’ उक्ति चरितार्थ हो रही थी। कौपीन का भी मैंने परित्याग कर दिया था। सफ़ेद कुर्ता और धोती पहनकर जोरन्दा का तरफ़ गुरु की शरण में जाने लगा, तभी कपिलास के आस-पास मेरे गुरु महिमा स्वामी और गुरु भाइयों से मुलाक़ात हो गई। मुझे जोरन्दा जाने का कारण पूछा तो मैंने उन्हें सारी घटना बता दी, इस पर झल्लाकर गुरु ने कहा

“तुम्हारी अभी तक सिद्धि नहीं हुई है, फिर किसी के द्वारा पत्थरबाज़ी या मार खाने से दुखी होकर अपना आश्रम छोड़कर चले आए?” 

यह कहकर उन्होंने मुझे एक रस्सी से बाँधकर अपने साथ जोरन्दा आश्रम ले गए और वहाँ एक कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया और कहने लगे, “अगर तुम सिद्ध पुरुष हो गए हो तो मैं तीन बार ताली बजाऊँगा, उसी दौरान इस बंद कमरे में से अगर बाहर निकलकर मेरे पास आ गए तो मैं समझूँगा कि आज से तुम सिद्ध पुरुष हो?” 

यह कहकर उन्होंने तीन बार कर ताली बजाई और मैं अपनी सिद्धि के बल पर बंद कमरे से निकलकर उनके पास पहुँच गया तो वे काफ़ी ख़ुश हो गए और कहने लगे, “इधर-उधर घूमना तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हारा काम है-एक जगह पर टिककर रहते हुए अपनी काव्य-प्रतिभा के माध्यम से संसांर में महिमा धर्म का प्रचार करना।” 

गुरु का आदेश मानकर मैं फिर से अपने डिहा आश्रम लौट आया था। 

मगर रास्ते में आते-जाते गुरु से मेरी शिकायतें करना नहीं भूला। आख़िर गुरु को मेरे कष्टों के बारे में जानना भी तो ज़रूरी था। 

“मैंने तुम्हारे चरणों में गिरकर अपने बारे में बताया था। और तुमने मुझे सुख शान्ति से रहने का आश्वासन्‌ भी दिया था। 

“जबसे मैंने ‘महिमा’, ‘महिमा’ कहना शुरू किया तो तुमने मेरा गर्व चूर-चूर कर दिया। लोग मुझे ईसाई कहकर गाली देते हैं, मेरी निंदा-भर्त्सना करते हैं। जब मैं ‘अलेख’, ‘अलेख’ पुकारता हूँ तो तुम मुझे प्रचंड दुख देते हो। वे लोग अपना तन पाप और कलंक की छाल से ढकते हैं और जब मैं ‘सत्य धर्म’, ‘सत्य धर्म’ पर चर्चा करने लगता हूँ तो वे लोग मेरी मज़ाक उड़ाते हैं। जगत हित में हृदय से मैं अपने गीतों की रचना करता हूँ और जब मैं तुम्हें ‘अवधूत’, ‘अवधूत’ कहकर आवाज़ देता हूँ तो वे मुझे बावनाभूत कहते हैं। दिग-दीपांतरों में भक्ति से मुक्ति की बात करता हूँ और जब तुम्हें ‘निराकार’, ‘निराकार’ नाम से संबोधित करता हूँ तो मेरी तरफ़ कोई देखता भी नहीं है। उनके दिमाग़ों में अज्ञान और उत्पात का भूसा भरा है। देखो तो, जब मैं तुम्हें ‘निष्काम’, ‘निष्काम’ कहकर पुकारता हूँ तो वे लोग अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हैं। सच में, वे मुझे नहीं, अपने आपको गालियाँ देते हैं और अपराधियों की तरह अपने आपको साँकल में बाँध रहे हैं। ‘निर्गुण’, ‘निर्गुण’ की जब रट लगाता हूँ तो वे मुझे अपने गाँव से बाहर निकाल देते हैं। न तो उन्हें अपनी मूल जाति का ज्ञान है और न ही उनके पास कोई मौलिक विचार है और जब मैं ‘निर्वेद’, ‘निर्वेद’ जपता हूँ तो वे मुझसे लड़ते हैं। वे केवल पोथी पढ़ते है तो उनके ज्ञान की गति कैसे होगी? जब मैं ‘एक ब्रह्म’, ‘एक ब्रह्म’ का नारा लगाता हूँ तो वे उसे भ्रम-माया कहते हैं। गुरु की आज्ञा मानने से तो ब्रह्म ज्ञानी बनोंगे। जब मैं उन्हें झूठे झगड़े छोड़कर ‘नाम’ भजने का उपदेश देता हूँ तो वे लोग सभी वहाँ से खिसक जाते हैं। संसार-सागर के इस कलियुग में गुरु ने धुनि की स्थापना की और जब मैं ‘धुनिदेव’, ‘धुनिदेव’ कहता हूँ तो वे लोग दूर से भाग जाते हैं। वे पूछने लगते हैं, “कैसा धर्म है यह? सुनने में तो नहीं आया।” 

“जब मैं उत्तर देता हूँ ‘महिमा धर्म’, ‘महिमा धर्म’ तो उन्हें लगता है कि किसी ने उनके कानों में ज़हर उँडेल दिया। 

“जब मैं कहता हूँ ‘तेज के मूरत’ की पूजा करो तो वे पूछते हैं, “तुम्हारा गुरु कौन है?” 

“जब मैं उत्तर देता हूँ, ‘अरूप’, ‘अरूप’ ही मेरा गुरु है तो वे मुझे गाली देना शुरू करते हैं, कहते हैं, “तब तो तुम्हें तेरा बाप बचाएगा” और उलटा कहने लगते हैं, “इसे खदेड़ो यहाँ से, देखते हैं, इसका गुरु कैसे इसे बचाता है?” जब मैं ‘अजपा’, ‘अजपा’ की सलाह देता हूँ तो मुझे ‘अछूत’, ‘अछूत’ कहना शुरू कर देते हैं। 

“वे मुझे पूछते हैं, ‘अभी तक कहाँ थे? तुम यहाँ आए हो क्योंकि तुम्हें भोजन नसीब नहीं होता है। जब मैं उनके सामने एकांगी भक्ति की धारणा रखता हूँ तो वे मुझे ‘अधम-अछूत-अनपढ़’ कहकर संबोधित करते हैं। वे कहते हैं—‘कलियुग में हम अपने दिन धोखाधड़ी में काटते हैं।’

“जब मैं ईश्वर आराधना की बात करता हूँ तो वे मुझे काला जादूगर कहते हैं। लोग पूछते है, ‘ये सब तुम्हें करने के लिए कौनसा शास्त्र या वेद इजाज़त देता है? लगता है तुम्हारा गुरु खपरे में खाने वाला कोई मुसलमान है?’ हमें देखकर वे चिल्लाने लगते है, ‘इन पापियों और मूढ़ों को शरण मत दो। देखते ही उन्हें भगा दो।’ 

“जब मैं ‘राम दीक्षा’, ‘राम दीक्षा’ की गुहार लगाता हूँ तो वे मुझे कुत्ता कहते हैं। ये सब-कुछ सुनकर मेरी फिर से डिहा आश्रम लौटने की इच्छा नहीं हो रही थी। हम जैसे भी है, वे हमें प्रताड़ित करने वाले कौन होते हैं? ऐसी अवस्था में हम जाएँ तो जाएँ कहाँ? अज्ञानियों के लिए मेरा ज्ञान ज़हर, भगतों के लिए रस और सज्जनों के लिए हृदय-वेधक है। हे शून्य गुरु। अपने कंध भीम के दुख-दर्द को सुनों। यही मेरी आराधना है।” 

गुरु मेरी पुकार अवश्य सुनते थे और मेरी आध्यात्मिक अलझनों को सुलझाने में मदद भी करते थे। 

सन् 1876 में फागुन शुक्ल दशमी सोमवार के लिद ढेंकानाल के मढ़ी (वर्तमान में कामाख्यानगर) में मेरे गुरु ने महाप्रयाण किया। यह सुनकर भक्त ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे, तभी शून्य से आकाशवाणी हुई, “तुम लोग रो क्यों रहे हो? क्या आत्मा का जन्म होता है? क्या आत्मा मरती है? जैसे पुराने वस्त्र त्यागकर मुनष्य नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा भी पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करती है। ब्रह्म नित्य है, प्रकृति अनित्य और परिवर्तनशील है। इसलिए शोक करना अनुचित है। केवल परमात्मा के साथ शाश्वत आनंदमय ज्योति में जीव का मिल जाना ही मुक्ति, शान्ति और निर्वाण कहा जाता है।” 

गुरु की आलौकिक घटनाओं का जितना भी मैं वर्णन करूँ, उतना कम है। पाठकों को मेरे कम लिखे हुए शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ खोजना चाहिए। ‘अलेख महिमा शरणम्’ कहकर मैं अपनी लेखनी को यहाँ विराम देता हूँ। 

इस तरह कवि भीम भोई ने अपनी आत्मकथा का पांचवाँ अध्याय समाप्त किया। आनंद के मन में गुरु की सिद्धियों, गुरु का महत्त्व और साथ ही साथ उनकी अवधारणाओं के बारे में सैकड़ों प्रश्नों के झंझावात पैदा हो रहे थे। आनंद ‘भीम भोई की आत्मकथा’ के हर अध्याय पर अपने बडे़ भाई अरुण से चर्चा करता था। अरुण को भी इस पांडुलिपि का महत्त्व समझ में आ रहा था। दोनों के लिए वह पांडुलिपि समुद्र-मंथन के दौरान महासागर के गर्भ से निकले अमूल्य हीरे-मोतियों से कम नहीं थी। भीम भोई का एक-एक शब्द आनंद के लिए अनमोल था और अरुण के लिए भी। वे अपने आपको भाग्यशाली मानते थे कि यह पांडुलिपि उन्हें मिली, ताकि वे लोग इक्कीसवीं सदी के इस युग में अठारहवीं सदी के लोगों में पनपती धार्मिक चेतना के यथार्थ स्वरूप को समझ सकें, क्योंकि इस चेतना का मूल तत्त्व अपरिवर्तनशील है और कालजयी भी। सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलय तक यह ज्ञान सदैव सार्वभौमिक रहेगा, जो महिमा स्वामी ने अपने भीतर अनुभव किया और भीम भोई के माध्यम से अखिल उत्कल प्रांत में जिसका परचम फहराया। चूँकि यह ज्ञान स्थानीय भाषा में लिपिबद्ध था, इस वजह से ओड़िशा राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सका, केवल ओड़िशा के कुछ अंचलों में क्षुद्र धार्मिक आंदोलन बन कर रह गया। अरुण सोचता था कि अनुवादकों और लेखकों ने भी इस पांडुलिपि को विवादास्पद समझकर हाथ नहीं लगाया होगा। कहीं ऐसा तो न हो, कि जातिवाद की बेड़ियों को तोड़ने, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले संत कवि भीम भोई और उनके गुरु महिमा गोसांई की ब्रह्माग्नि धुनि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर जमने लगे, तो वे ब्राह्मणवादी पौराणिक संस्थाओं के आँखों की किरकिरी बन जाएँगे और उन्हें उन लोगों के तरह-तरह के षडयंत्र झेलने होंगे। आनंद की क़लम पहली बार इस दिशा की ओर प्रवृत्त होने का प्रयास कर रही थी। नौकरी के दौरान ओड़िशा की इस धरती के अनमोल हीरे से वह प्रभावित हुआ था तो उसकी चमक-दीप्ति को देश के कोने-कोने तक पहुँचाना उसका परम कर्त्तव्य था। अगर आनंद तालचेर से स्थानांतरित होकर कहीं और चला जाता तो यह पुनीत कार्य शायद उसके लिए सम्भव नहीं हो पाता। उसने पांडुलिपि के पाँचवें अध्याय को यही सोचकर यहाँ विराम दिया और छठवाँ अध्याय शुरू करने से पूर्व अपने भाई अरुण के साथ खालियापाली जाने का निश्चय किया।

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