अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 2

संबलपुर से पैंतीस किलोमीटर दूर रायपुर रोड पर घेंस गाँव। 

इस अनोखी यात्रा में दूसरे दिन आनंद, अरुण के साथ उनके दो विशिष्ट मित्र डॉ. हरिशचंद्र शर्मा और वीरेंद्र कुमार सिंह साथ हो गए। दोपहर के समय वे घेंस गाँव पहुँचे। कच्ची सड़कें, खपरैल टिन की चद्दरों वाले कच्चे घरों वाला गाँव था वह। संबलपुर से घेंस गाँव के बीच कहीं जगह बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ भी दिखाई दी थीं। 

घेंस गाँव की संकीर्ण गलियों से पार होते हुए उनकी गाड़ी एक बूढ़े बरगद के पास जाकर खड़ी हो गई। यह वही बूढ़ा बरगद था, जिस पर कभी कवि हलधर नाग ने अपनी पहली कविता लिखी थी। हलधर नाग के लिए बरगद का यह पेड़ किसी बोधिवृक्ष से कम नहीं था; वह उनकी साहित्यिक चेतना का प्रारंभिक बिंदु। गाड़ी से नीचे उतरकर आनंद ने हलधर के घर का पता पूछा तो उत्तर मिला, “इस समय कवि अपने ‘कवि कुटीर’ में होंगे। आपको थोड़ा-सा आगे जाकर बायीं ओर घूमने पर सामने नज़र आएगा, कवि कुटीर।” 

‘कवि कुटीर’ शब्द में कितना माधुर्य था। आनंद ने सोचा था साधु-संतों की झोंपड़ी की तरह होगा ‘कवि कुटीर’। मगर वह तो एक घर था, ईंट-गारों से बना हुआ, ऊपर लोहें की चद्दर, नीचे सीमेंट का आँगन। घर के दरवाज़े और खिड़कियाँ भी लोहे की बनी हुई थीं। 

ज़मीन पर एक तरफ़ किताबों के दो-तीन थोक पड़े हुए थे और दूसरी तरफ़ प्लास्टिक की दरी बिछी हुई थी। दुबले-पतले कृष्ण काया वाले धोती बनियान पहने सादगी की प्रतिमूर्ति हलधर नाग को उन चारों ने ‘नमस्कार हलधर जी!’ कहकर अभिवादन कर चरण-स्पर्श किए। उनके कंधे तक लटक रहे बालों में सफ़ेद लटें साफ़ नज़र आ रही थीं और उनकी काली मूँछों के ऊपरी हिस्से में सफ़ेदी भी। 

पद्मश्री सम्मान से सम्मानित कवि का यह कुटीर? इतनी सादगी? कुटीर के एक कोने में एक बाल्टी और कुछ बरतन धोकर उलटे रखे हुए थे, शायद कवि ने अभी-अभी धोए होंगे। 

पुष्पगुच्छ और शाल ओढ़ाकर डॉ. हरिशचंद्र शर्मा ने उनका फिर से सम्मान किया और आनंद की तरफ़ इशारा करते हुए कहने लगे, “आप आनंद है श्रेष्ठ अनुवादक। आपने ही आप की संबलपुरी काव्य-कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। आपको अपना अनुवाद सुनाना चाहते हैं।” 

हलधर नाग का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा। नीचे बैठने की इजाज़त देते हुए कहने लगे, “इस कवि कुटीर में बैठने के लिए केवल दरी की व्यवस्था है। कुर्सी टेबल नहीं है यहाँ पर। जो भी आता है, नीचे ही बैठता है। न चाय, न नाश्ता। कृपया बुरा मत मानिएगा।” 

बात भी सही थी। कुछ समय के लिए ज़रूर ख़राब लगा था। हलधर नाग आजकल किसी सेलिब्रेटी से कम नहीं हैं। सैकड़ों लोग उन्हें प्रतिदिन मिलना चाहते हैं और हलधर अगर उन्हें चाय-नाश्ता करवाने लगेंगे तो सरकार की तरफ़ से मिलने वाली हज़ार-दो हज़ार की सहायता राशि उसी में ख़र्च हो जाएगी और उनके पास घर चलाने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। बहुत सारे अतिथि तो केवल उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए आते हैं। ऐसे भी देखा जाए तो हलधर का जीवन भीम भोई और तुलसीदास के कष्टपूर्ण जीवन से मेल खाता है। क्रूर सत्य है, शायद कष्ट ही कवि का निर्माण करता है। जितना ज़्यादा दुख उतना ही ज़्यादा कवित्व। सरस्वती का निवास वहीं होता है, जहाँ लक्ष्मी हुई वहाँ कवित्व ग़ायब। आभिजात्य कवियों की कविताएँ तो पूरी तरह खोखली होती हैं। जिस आदमी ने आज तक कभी पाँवों में चप्पलें नहीं पहनी हों, जिस आदमी ने कभी अपने तन को वस्त्रों से ढका नहीं हो। हाडकंपाती सर्दी में जिसके शरीर पर केवल बनियान और धोती हो। जिसने अपने शरीर को सजाने के लिए कुछ भी ख़र्च नहीं किया हो। भोग-विलास तो बहुत दूर की बात, केवल साधारण जीवन-यापन करना ही जिसका ध्येय रहा हो। आधुनिक युग में इतना साधारण व्यक्तित्व हर किसी की कल्पना से परे होता है। ऐसे अपूर्व व्यक्तित्व के धनी कवि से मिलना आनंद के लिए अविस्मरणीय अनुभव था। 

पहले आनंद ने उन्हें ‘श्री समलेई’ खंड-काव्य तथा उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद सुनाने के बाद भीम भोई के जीवन के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की। हलधर नाग की आँखों में एक चमक उभर आई और अधरों पर मधुर मुस्कान। 

अनुवाद की प्रशंसा करने के बाद उन्होंने कहना शुरू किया “मैं ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। न तो मैंने कोई इतिहास पढ़ा है, न ही भूगोल या भाषा विज्ञान, न ही साहित्य और न ही संस्कृति। फिर मैंने इस अँचल में प्रभावित लोक-कथाओं को आधार बनाकर संत कवि भीम भोई के जीवन पर खंड-काव्य लिखा है, मेरी मातृभाषा संबलपुरी में। कौन था भीम भोई? कैसा था उसका रंग-रोगन? क्या वह अंधा था? क्या वह समाज सुधारक था या धर्म-योद्धा? इन सारी बातों को मैंने अपने खंड-काव्य में स्पर्श किया है, मेरे इस अँचल की लोक संस्कृति को आत्मसात कर। संक्षेप में भीम भोई की कहानी आपको सुनाता हूँ। 

“जटासिंहा गाँव में भीम भोई का जन्म हुआ था। वह दनार और गुरु बारी का बेटा था। यह वास्तव में निस्संतान दंपती थी, उन्हें किसी जंगल में तालाब के किनारे कमल के फूल पर सोते हुए नवजात शिशु के रूप में मिला था। जैसे साँई के बारे में कहा जाता है, ऐसी ही किवदंती भीम भोई के जन्म के बारे में प्रचलित है। उसके माता-पिता बहुत ग़रीब थे। जब वह चार साल का हुआ तो उसके पिता की मृत्यु हो गई और माँ ने अपने देवर धनेश्वर के साथ शादी कर ली। धनेश्वर के पहले से ही तीन चार बच्चे थे अतः भीम भोई का लालन-पालन करना भारी पड़ रहा था। छोटी-मोटी ग़लती पर उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। पेट भरने के लिए वह कटोरा लेकर भीख माँगने लगा। एक दिन आँधी-तूफ़ान के समय रास्ता भटककर कंकणपड़ा पहुँच गया और वही जगह उसके लिए तपोस्थली बनी। भीम भोई को भीख माँगते देखकर गाँव के किसी साहूकार चैतन्य प्रधान को उस पर दया आ गई और वह उसे खेतों में काम करने तथा मवेशियों की देखभाल करने के लिए अपने घर ले आया। भीम भोई की आध्यात्मिकता और भोलेपन से वह बहुत प्रभावित हुआ। भीम भोई की याददाश्त इतनी तेज़ थी कि जो भी वह सुनता था, उसे तुरंत याद हो जाता था। वह इतना मेधावी था कि एक बार दिमाग़ में जो बात घुस गई, वह हमेशा के लिए स्मृति-पटल पर छाई रहती थी। विवेकानंद की भाँति उसकी भी याददाश्त ज़बरदस्त थी। शायद चैतन्य प्रधान को पहले से ही इस बात का आभास हो गया था कि वह आगे जाकर अवश्य कोई दिव्य पुरुष बनेगा, इसलिए उसने गाँव वालों की सहायता से कंकणपड़ा के बाहर एक ख़ाली मैदान ‘ग्रामडिहा’ में झोंपड़ी बना दी, जहाँ वह अपनी तपस्या कर सके। इस तरह ‘ग्रामडिहा’ भी ऐतिहासिक जगह बन गई।” 

कहानी सुनाते-सुनाते हलधर नाग दीर्घ श्वास लेने लगे और फिर कुछ समय रुककर विषय से हटकर कुछ दार्शनिक लहजे में कहने लगे, “जैसा कि आप जानते हैं, हज़ारों दीये जलते हैं मगर सब में रोशनी तो एक ही है, इसी तरह सभी प्राणियों में ‘महिमा अलेख’ है जिसे आप भगवान कहो, अल्लाह कहो, सद्गुरू कहो, माँ-बाप कहो, दाता कहो कुछ भी कहो। क्या फ़र्क़ पड़ता है, कोई भी उसे किसी भी नाम से पुकारे? क्या किसी ने भी ‘महिमा अलेख’ को अपनी आँखों से देखा है? नहीं इसी महिमा अलेख की असीम अनुकंपा थी भीम भोई पर। वे अपने पिता को अनादि ठाकुर कहते थे और आदि शक्ति को अपनी माँ। मगर सामान्य लोग उसे दनार और गुरु बारी का पुत्र मानते थे इसलिए उनकी नज़रों में वह आदिवासी कंध था।” 

एक संत की तरह हलधर नाग भी धारा प्रवाह अपने उपदेश दिए जा रहे थे। डॉ. हरिशचंद्र शर्मा ने यहाँ अपने संदेह के निवारणार्थ उन्हें रोकते हुए पूछा, “क्या भीम भोई जन्मांध थे या फिर . . .? 

हलधर नाग ने अपनी किताबों में से एक फोटो निकालकर आनंद और उसके साथियों को दिखाते हुए कहने लगे, “यह भीम भोई की फोटो है। इसमें इन्हें अंधा दिखाया गया है, मगर वास्तव में वे अंधे नहीं थे। उनकी धारणा थी, जिन आँखों ने भगवान के दर्शन नहीं किए, वे आँखें अंधी नहीं तो और क्या है? वे अपने भजनों में कहते भी हैं कि दो साल की उम्र से ही मेरी आँखों में रूप, गुण, वर्ण, काया, यौवन, शोभा, सुंदर द्रव्य, परिधान, अच्छा-बुरा, काला-गोरा, पिंगल-श्यामल सब कुछ देखा, फिर पाप के कोहरे में ये आँखें ढकती चली गईं और मैं क्षमा माँगने के लिए निराकार ब्रह्म की शरण में चला गया। क्या उनके भजन की ये पंक्तियाँ झूठी हैं? अब आप ही बताइए कि क्या वे सच में अंधे थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों, अंधविश्वासों और जातिवाद की बेड़ियों को तोड़ने के लिए ही उनका जन्म हुआ था।” 

भीम भोई के जन्म की पृष्ठभूमि पर कवि हलधर नाग के दार्शनिक विचार सुनकर अरुण अभिभूत हो गए और अपने भीतर उठ रहे प्रश्न को उनके सम्मुख रखा, “हलधर जी, इसका मतलब यह हुआ कि आप कहना चाहते हैं कि भीम भोई अंधे नहीं थे। दिव्यता के सूक्ष्म अन्वेषण के कारण उन्होंने अपने आप को दुनिया की नज़रों में अंधा घोषित कर दिया?” 

हलधर नाग ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बिलकुल सही कह रहे हैं आप। वह दिव्यात्मा थी, अंधी कैसे हो सकती है? इतिहास साक्षी है कि कोई भी महापुरुष अपने पीछे ऐसा साहित्य छोड़ जाते हैं, जो उन्हें चमत्कारिक बनाता है और लोगों की नज़रों में देवता। यहाँ मैं उलटा आपको मेरा सवाल पूछना चाहूँगा कि भीम भोई बचपन में भेड़-बकरी चराने के लिए खेतों में जाते थे, अपना पेट भरने के लिए, क्या कोई अंधा यह काम कर सकता है? मुझे लगता है ‘अंधा’ शब्द यहाँ लक्षणा या व्यंजना के रूप में प्रयुक्त में लाया गया होगा। सही कहूँ मैं तो उनकी आत्मा में राधा की तड़प देखता हूँ, जो कृष्ण जैसे भगवत-तत्व को पाने के लिए लालायित थी।” 

राधा का नाम सुनते ही कृष्ण भक्त वीरेन्द्र कुमार सिंह से नहीं रहा गया और हलधर नाग से पूछने लगा, “राधा तो स्त्री थी—कृष्ण की अनन्य प्रेमिका, फिर भीम भोई जैसे आदिवासी के शरीर मैं कैसे आ सकती है?” 

हलधर नाग यह सवाल सुनकर थोड़ा तुनक गए। कहने लगे, “यह बात मैं अपने मन से नहीं कह रहा हूँ। यह शास्त्र-सम्मत है। पाँच सौ साल पहले कवि अच्युतानन्द ने अपनी रचनाओं ‘कल्प-संगीत’ और आदि-संगीत’ में राधा के भीम भोई कंध के रूप में जन्म लेने की भविष्यवाणी की थी।” 

फिर कुछ देर रुककर दीर्घ-श्वास लेते हुए कहने लगे, “आप सभी सम्भ्रांत परिवार के पढ़े-लिखे लोग हो। आप नहीं समझ पाते हैं कि आध्यात्मिकता के क्षेत्र में क्या स्त्री क्या पुरुष, क्या राजा, क्या रंक, क्या आदिवासी, क्या ब्राह्मण—सभी तो समान होते हैं। आत्मा के लिए न तो जाति प्रभावी है और न ही पद-प्रतिष्ठा।” 

वीरेन्द्र कुमार सिंह झेंप-सा गया। आनंद ने उसकी अवस्था को सँभालते हुए बात को दूसरी तरफ़ मोड़ दिया, “हलधर भाई, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। वैश्विक चिंतन है आपका। बहुत अच्छा लगा आपके दार्शनिक विचार सुनकर। परन्तु फिर भी मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि द्वापर की राधा को अगर जन्म लेना ही था तो भीम भोई की काया ही उन्हें उपयुक्त मिली या फिर इसके पीछे भी कोई मिथकीय कहानी है।” 

“भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धान्त प्रभावी है। राधा के कुछ ऐसे कर्म अवश्य रहे होंगे कि उसे पुरुष के शरीर में प्रविष्ट होकर अपना प्रारब्ध भुगतना पड़ा होगा। निस्संदेह मैंने अपने खंड काव्य में यही दर्शाने का प्रयास किया है, मगर इसकी रचना के पूर्व मैंने ‘महिमा अलेख’ से क्षमा याचना भी की है, कहीं ऐसा न हो मैं अपने कवित्व की कल्पना शक्ति की उड़ान में कहीं ऐसा लिख दूँ, जो आने वाली पीढ़ियों को गुमराह करे अथवा उनमें अंधविश्वास पैदा करे।” बहुत ही सुलझे ढंग से हलधर नाग ने आनंद के मन में प्रश्नों की ज्वाला को शांत कर दिया और कहना जारी रखा। 

“मैंने अपने खंड काव्य में इसके पीछे एक मिथकीय कहानी की रचना की है। जब कुंजबिहारी गोपपुर में अपनी लीला समाप्त कर द्वारिका चले गए थे। इधर महाभारत का युद्ध भी समाप्त हो गया था, तो उन्हें राधा की याद सताने लगी। उनका मन पूरी तरह अस्थिर हो उठा। लोग जंगल की आग देख सकते हैं, मगर भीतर के अरण्य की अग्नि विभीषिका किसे दिखाई देती है! अपनी मानसिक शान्ति के लिए उन्होंने यज्ञ करना चाहा। आप जानते ही हैं, ऐसी ख़बरें नारद मुनि को तत्काल मिल जाती हैं।

“‘नारायण-नारायण’ कहते हुए नारद मुनि वृंदावन में यमुना तट पर बायाँ हाथ दाहिने गाल में रखकर कदम्ब के झुरमुटों की ओर देखती हुई राधा के पास पहुँच गए। उसके गालों में गड्ढे पड़ गए थे और आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। कदंब के पेड़ मुरझा गए थे उनकी डालियाँ नीचे झुक गई थीं। चिड़ियों ने चहकना बंद कर दिया था। फागुन महीने में भी तेज़ गर्म हवाएँ चलने लगीं थीं। कृष्ण की कमी से गोपपुर पूरी तरह नीरव हो गया था। राधा के प्रति सहानुभूति जताने के लिए नारद आकाश-पथ से नीचे उतरे और राधा के सम्मुख प्रकट होकर कहने लगे, ‘अरे राई! विनोदिनी कैसी हो? क्या हाल-चाल है? न चेहरे पर चमक है और न होंठों पर मुस्कराहट। क्या हो गया ऐसा तुम्हें?’ 

“राधा ने आँखें नीचे करके कहा, ‘नारद जी, क्या आप मेरा दुख नहीं जानते हैं? जब से कान्हा द्वारिका चले गए हैं तो मैं फिर किसके लिए शृंगार करूँ? मैं हर पल आत्महत्या करने के बारे में सोचती हूँ, मगर मेरे मन में ख़्याल आता है कि कान्हा तो मेरी आत्मा में बसते हैं। जब मैं मर जाऊँगी तो मेरे साथ मेरे कान्हा भी मर जाएँगे। बहुत बड़ा अधर्म हो जाएगा? यही सोचकर आत्महत्या करने का विचार मन से निकाल देती हूँ। कान्हा के पास तो मेरे से हज़ार गुणा सुन्दर रानियाँ सत्यभामा, जाम्बवती और रुक्मिणी हैं। सोने के बिस्तर इत्र की ख़ुश्बू, स्वर्ण आभूषणों से शृंगारित उनकी काया मेरे कान्हा को मंत्र-मुग्ध कर देती होगी।’ 

“विरहावस्था में भी राधा के मुख से कृष्ण की प्रशंसा सुनकर नारद से नहीं रह गया और व्यंग्य-भाव से पूछने लगे, ‘राधा! क्या गोपपुर के लोगों को तुम्हारे कान्हा ने यज्ञ में आमंत्रित किया है? क्या तुम भी उस यज्ञ में शामिल होगी?’ 

‘नहीं, कान्हा ने किसी को भी आमंत्रित नहीं किया है। फिर भी हम सभी उस यज्ञ अनुष्ठान में अवश्य आएँगे,’ दुखी मन से राधा ने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ उत्तर दिया। 

“राधा ने गोपपुर जाकर सभी ग्वालों को इसकी सूचना दी और वे सभी निर्धारित समय पर राधा के साथ द्वारिका के सिंहद्वार तक पहुँच गए। वहाँ सुरक्षा प्रहरियों ने उन्हें रोक दिया। 

‘आप और आगे नहीं जा सकते हैं। पटराणी रुक्मिणी का आदेश है कि गोपपुर के निवासियों को यज्ञ में शामिल नहीं होने दिया जाए। अगर फिर भी वे कहना नहीं मानते हैं तो उन्हें वहाँ से मार-मारकर बाहर भगा दिया जाए या क़ैद कर लिया जाए।” सुरक्षा प्रहरी ने अपनी मूँछों पर ताव देते हुए उन्हें सचेत किया। मगर राधा कहाँ मानने वाली थी! 

“उसने सुरक्षा प्रहरी का मुँह तोड़ जवाब दिया, ‘आप कान्हा को संदेश भिजवा दीजिए कि उनसे मिलने के लिए गोपपुर से नंद राजा यशोदा मैया, ग्वाल सखा और उनकी सहेली राधा आई है। अगर वे मिलने से मना कर देते हैं तो हम वापस लौट जाएँगे नहीं तो हम सभी सिंहद्वार पर धरने पर बैठे रहेंगे।’ 

“रुक्मिणी को जब यह ख़बर मिली तो वह ग़ुस्से से तिलमिला उठी। सिंहद्वार पर पहुँचकर धमकी भरे लहजे से चिल्लाने लगी, ‘कहाँ है वह राधा, जिसने मेरे पति को मुझसे दूर किया है? अपनी प्रेम-डोर में बाँधकर रखा है। मैं उस मायावीनी को कभी नहीं छोडूँगी।’ 
“सुरक्षा प्रहरी के हाथ से चाबुक खींचकर अपने दाएँ हाथ में लेकर छड़ाक-छड़ाक ज़मीन पर पटकते हुए कहने लगी, ‘कौन है राधा? है हिम्मत तो सामने आओ।’ 

“मौत की परवाह किए बग़ैर रुक्मिणी की चुनौती स्वीकार करते हुए राधा आगे बढ़ी, ‘मैं हूँ राधा। अपने कान्हा से मिलने आई हूँ। जो सज़ा देना चाहती हो, भुगतने के लिए तैयार हूँ।’ 

‘ओह! तो तुम हो राधा। जादूगरनी! मेरे कान्हा पर वशीकरण का काला जादू किया है। आज सूद समेत सारा ऋण चुका दूँगी, तब जाकर तुम्हें समझ में आएगा कि प्यार-व्यार क्या होता है। पता नहीं, इस जादूगरनी पर द्वारिकाधीश क्यों इतने मोहित हैं? सारी रात ‘राधे-राधे’ की रट लगाते रहते हैं। तुम्हारी कोई इज़्ज़त-आबरू है? गाँव-गाँव घूम-घूमकर दूध-दही बेचती हो। ग्वालिन कहीं की! अब तुम्हारा समय ख़त्म हो गया। पीठ पर जब कोड़ें पड़ेंगे तो सब भूल जाओगी। इस चाबुक से आज तुम्हारी चमड़ी उधेडूँगी,’ क्रोधित रुक्मिणी राधा को अनाप-शनाप बके जा रही थी। 

राधा का धीरज अभी भी टूटा नहीं था। शांत लहजे में कहने लगी, ‘महारानी! कैसे आपको समझाऊँ? जो सज़ देना चाहती हो, दे देना, मुझे सब मंज़ूर है। भले ही मुझे जान से मार देना, मगर एक बार कन्हाई के दर्शन तो कर लेने दो।’ 

कन्हाई का नाम सुनते ही रुक्मिणी का पारा सातवें आसमान छूने लगा। तड़ातड़ कोड़ों का राधा के शरीर पर प्रहार करते हुए कहने लगी, ‘रुको! इतना अधीर क्यों हो रही हो? कोड़ों की मार पड़ते ही “कान्हा, कान्हा”, “कन्हाई, कन्हाई” कहना भूल जाओगी।’ 

“नंद राजा, यशोदा मैया और गोपपुर के ग्वालों ने उसे बचाने का प्रयास किया, मगर सब निरर्थक। राधा मन ही मन कान्हा से प्रार्थना करने लगी, ‘हे कान्हा! अपनी राधा को बचा दो। मरने से पहले केवल एक ही इच्छा बची है, जी भरकर तुम्हारे दर्शन हो जाएँ। हे वेणुपाणि! तुमने तो गोपपुर के लोगों की रक्षा की है तो क्या अपनी राधा को नहीं बचाओगे? हे राधा माधव! सिर्फ़ एक बार मेरी आँखों के सामने आ जाओ।’ 

“इधर कृष्ण और बलराम यज्ञ में कर्त्ता बनकर बैठे हुए थे, उधर राधा के शरीर पर चाबुक बरस रहे थे। जैसे-जैसे राधा के शरीर पर चाबुक का प्रहार हो रहा था, वैसे-वैसे कृष्ण के शरीर पर चोट के निशान उभर रहे थे। ख़ून से लथ-पथ हो रहा था उनका शरीर। कुछ समय बाद चोटों के दर्द को सहन नहीं कर पाने की वजह से दामोदर कृष्ण अपनी जगह से उठ गए। यज्ञ भंग न हो जाए, सोचकर बलराम ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की, मगर वे नहीं रुके। क्षत-विक्षत हालत में हाँफते-दौड़ते सिंहद्वार पहुँचे तो रुक्मिणी उनकी यह अवस्था देखकर चौंक उठी। कहने लगी, ‘प्रभु! आपकी यह हालत किसने की है? जिसने भी यह हालत की है, उसे मैं नहीं छोड़ूँगी।’ 

“रुक्मिणी इस रहस्य को कहाँ जान पाती! वह तो ईर्ष्या, अहंकार, यश, धन-दौलत में नशे के चूर-चूर थी। 
उसे क्या पता कि राधा और कृष्ण दोनों अलग-अलग नहीं हैं? वे दोनों एक ही पेड़ की दो शाखाएँ हैं। एक नाक के दो नथुने हैं। दो जिस्म, एक जान है। घावों के असहनीय दर्द से कराहते हुए कृष्ण कहने लगे, ‘महारानी रुक्मिणी! अगर तुम सोच रही हो कि कृष्ण केवल तुम्हारा पति हैं तो तुम धोखे में हो। तुम्हें ग़लतफ़हमी है। तुम तो केवल मेरी छाया से खेल रही हो, न कि असली कृष्ण से। असली कृष्ण तो तुमसे कोसों दूर है। ईर्ष्या, घमंड, अहंकार, यश, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा ने तुम्हें अंधा बना दिया है। असली कृष्ण तो राधा के प्रेम में डूबा है।’ 

“यह कहकर सिंहद्वार के उस पार दौड़ते हुए कृष्ण चले गए और भूमि पर अचेत पड़ी राधा को अपने सीने से लगाते हुए कहने लगे, ‘राधिका! आँखें खोलो। देखो, मैं तुम्हारा कान्हा। मेरी तरफ़ देखो, उठो, राधा उठो। मैं तुम्हारा गिरिधर गोपाल। मैं तुम्हारा कान्हा। मुझे अपने आलिंगन में भर दो। मेरी बाँहों में समा जाओ। जब तुम्हारा शरीर मेरे भीतर समा जाएगा तभी मुझे असीम शान्ति मिलेगी।’ 

“कृष्ण की आवाज़ सुनते ही अर्द्ध-मूर्च्छित राधा ने आँखें खोलीं और कृष्ण के गालों पर हाथ फेरते हुए कहने लगी, ‘तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानती।’ 

“कृष्ण हतप्रभ। 

“चौंककर कहने लगे, ‘अरे राधा! क्या सच में तुम मुझे नहीं पहचान रही हो। क्या मैं तुम्हारा कृष्ण नहीं हूँ? राधा का कृष्ण। कृष्ण की राधा। एक आत्मा, दो शरीर।’ 

“मरणासन्न राधा कराहते हुए कहने लगी, ‘तुम राधा के कृष्ण नहीं हो। राधा के कृष्ण कभी गहने नहीं पहनते थे। उनके सिर पर मुकुट नहीं मोरपंख होता था। गले में सोने का हार नहीं, फूलों की माला होती थी। तुम तो कोई राजा हो। द्वारिकाधीश हो! मेरा कान्हा कदंब पेड़ के नीचे त्रिभंगी मुद्रा में खड़ा होकर जब बाँसुरी बजाता था तो गोपपुर की सारी गोपियाँ अपने घरों के काम-काज छोड़कर यमुना के तट पर पहुँच जातीं थीं। मेरा कृष्ण तो नटवर था और तुम . . .?’ 

“राधा ने जैसे ही अपने प्रेमी कान्हा की विशेषताएँ बताई तो कृष्ण ने अपनी माया से तुरंत ही वह रूप धारण कर राधा को अपने सीने से लगा दिया। देखते-देखते राधा की काया कृष्ण के भीतर समा गई और वातावरण में गूँजने लगे ‘राधा-कृष्ण की जय’, ‘राधा-कृष्ण की जय’ वाली धुन।” 

मीरा की तरह राधा भले ही सदेह कृष्ण की काया में प्रवेश कर गई, मगर लौकिक इच्छाएँ तो बची हुई थीं। उन सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए ही राधा फिर से इस धरती पर अवतरित हुई, मगर इस बार स्त्री बनकर नहीं बल्कि पुरुष के रूप में। वह पुरुष और कोई नहीं था, भीम भोई के सिवाय। भीम भोई ही राधा का अपररूप है। 

हलधर नाग की इस मिथकीय कहानी ने सभी को इस क़द्र प्रभावित किया कि सभी की आँखें नम थीं। हलधर नाग की अभिव्यक्ति इतनी सजीव थी कि आनंद जैसा नास्तिक व्यक्ति भी भीम भोई का राधा का अवतार मानने लगा। 

हलधर नाग को सभी हाथ जोड़कर विदा लेने के लिए उठ खड़े हुए। 

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