अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 9

 

आठवें अध्याय में आनंद की भीम भोई से कवि के रूप में पहचान हुई। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ कविताओं को भी पढ़ने का सुअवसर मिला। किस तरह एक कवि अचिंत्य विषयों पर चिंतन-मनन कर गहन दर्शन तत्वों से ओत-प्रोत कविताओं की रचना करता है। किस तरह समाज में व्याप्त कुरीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है? मूर्ति-पूजा, जातिवाद, धर्म के नाम पर किए जाने वाले तरह-तरह के ढकोसले महँगी शादी, सामाजिक वैषम्य के विरोध में अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से वह अपनी आवाज़ बुलंद करता है। सुबह-सुबह आनंद अरुण के कमरे में गया तो वह अभी सो रहा था। उसे हिलाकर उठाते हुए कहने लगा, “जानते हो, आज मैंने क्या पढ़ा? भीम भोई समाज सुधारक हैं। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में जिस तरह एक अंधा सूरदास अपनी झोंपड़ी के सामने खड़े होकर अँग्रेज़ों की गोली का इंतज़ार करता है और आख़िरकार मौत का शिकार हो जाता है। वैसा ही चरित्र मुझे भीम भोई में नज़र आता है। एक-दो अध्याय अभी बचे हुए हैं। आगे मालूम पड़ जाएगा कि वह अपने मौत की पृष्ठ भूमि अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से तैयार कर रहा है।” 

“अरे आनंद! मेरी नींद पूरी तरह से खुली भी नहीं है और तुम तो भीम भोई से इतने ज़्यादा प्रभावित हो गए हो कि हर पल तुम्हारी नज़रों के सामने उसका चेहरा नज़र आता है। हमारे देश में ऐसे कितने सारे भीम भोई पैदा हुए होंगे। मगर वे समाज के संघर्ष को झेल नहीं पाए, इसलिए गुमनामी में विलीन हो गए। ऐसे भी दुनिया में जितने अंधे हुए हैं वे आधिदैविक शक्ति पॉवर वाले थे। चाहे मिल्टन को देखो, ‘पैराडइज़ लॉस्ट’ जैसे महाकाव्य की रचना कोई हँसी-मज़ाक का काम नहीं रहा होगा? तुमने राजस्थान के सिरोही ज़िले में संत अनोप दास के बारे में सुना है। वे भी अंधे ही थे। भीम भोई के समकालीन ही रहे होंगे। राजस्थानी भाषा में उन्होंने भी अपनी कविताओं का संग्रह ‘जगतहितकारिणी’ अपने मित्र सोनी हरिचंद से लिखवाया था। महिमा स्वामी की तरह उनका चरित्र भी चमत्कारिक था। समय-समय पर भगवान ऐसी विशिष्ट हस्तियों को धरती पर अवतरित करते हैं।” 

अरुण ने अपने बेड पर से चद्दर हटाते हुए एक लंबा-सा दार्शनिक व्यक्तव्य प्रस्तुत किया। 

आनंद अरुण की प्रतिभा से भी अत्यंत प्रभावित था। अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य में अरुण के ज्ञान को देखकर वह मंत्र-मुग्ध था। कहने लगा, “हमें विश्व की हर भाषा के ऐसे अंधे कवियों को एक मंच पर लाकर उनका तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। चाहे भीम भोई हो, चाहे मिल्टन ही क्यों न हो। यह बात तो ज़ाहिर है कि उन पर ईश्वरीय अनुकंपा अवश्य रही होगी, अन्यथा कोई भी क्या ऐसी रचना कर सकते हैं? छोटी-छोटी कविताएँ लिखने में अथवा एक-दो पेज का गद्य लिखने में साधारण व्यक्ति तो क्या बड़े-बड़े प्रोफेसरों की हालत ख़राब हो जाती है, फिर शून्य जैसे आध्यात्मिक विषय पर भीम भोई जैसा बिरला कवि ही लिख सकता है।” 

दो-तीन दिन बाद अपने अध्ययन कक्ष की टेबल पर पहले की तरह नौंवा अध्याय खोलकर आनंद पढ़ने लगा। 

वैदिक धर्म में बढ़ती कुरीतियाँ और पाखंडों को देखकर मैंने सनातन हिन्दू धर्म में कई परिवर्तन कर नए नियम बनाना शुरू किया। 

तन-मन को कठोर अनुशासन में रखने के लिए शाकाहारी भोजन तथा जातिविहीनता पर बल दिया। ऐसे भी भौगोलिक स्थिति और जंगलों के आधिक्य के कारण ओड़िशा प्रांत में मांसाहारियों की संख्या कुछ ज़्यादा ही थी। नए धर्म में शाकाहारी भोजन पर बल देने से न केवल जीव-हत्या कम हुई, बल्कि लोगों की तामसिक विचारधारा में भी अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। 

मैं मानता हूँ, महिमा धर्म कोई नया धर्म नहीं था, हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा है। मेरे गुरु पहले वैष्णव थे, फिर शैव बने, मगर जब उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासों का समाधान इन दोनों संप्रदायों में नहीं हुआ तो उन्होंने शून्य पुरुष को अपना ईष्ट माना, तब उनकी सारी समस्याओं का हल मिलता गया। अंतः में, उन्होंने हिन्दू धर्म की कुरीतियों के उन्मूलन प्रथा नई वैचारिक धार्मिक पद्धति की स्थापना के लिए ‘महिमा’ धर्म की स्थापना की। 

इस धर्म में भगवान की प्राप्ति ध्यान-धारणा, सादा-सरल जीवन अग्नि-पूजा और प्रार्थना से हो सकती है। मैंने पूर्व अध्याय में इस पर मेरे आध्यात्मिक कृतियों में विस्तार से प्रकाश डाला है। महिमा स्वामी ने हमारे धर्म में अग्नि से संबंधित तीन प्रकार के रीति-रिवाज़ रखे। पहला, घीपूरा, दूसरा चतुर्दशी और तीसरा जगिया। 

घीपूरा (घृत-दहन) में आग पर घी डाला जाता है। किसी बच्चे के एकोशिया अर्थात् उसके जन्म के इक्कीसवें दिन पर सूतक शुद्धिकरण हेतु, ग़ैर इरादतन गो हत्या, बाँझ औरत के पुत्र होने का आशीर्वाद देने अथवा घर में किसी भी प्रकार का आनंदोत्सव मनाने के समय ‘घीपूरा’ का आयोजन किया जाता है। 

शुक्लपक्ष चतुर्दशी के दिन सारे मिथकीय तीर्थ स्थानों की आराधना के लिए अग्नि जलाकर देवताओं का आह्वान किया जाता है। 

जगिया (यज्ञ) जोरन्दा की परंपरा है न कि खालियापाली की। माघ चतुर्दशी अथवा माघ पूर्णिमा के दिन से शुरू होकर सात दिनों तक अग्नि जलाने की परंपरा चलती है। 

जगिया शुरू होने से पहले शंख बजाए जाते हैं तथा सभी उपस्थित श्रद्धालु भक्त जन ‘अलेख महिमा, अलेख’ गिन्नियों की ताल पर समवेत सुर निकालते हुए शून्य मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। फिर आकाश की तरफ़ देखते हुए अपने दोनों हाथ पीछे ले जाकर अग्निवेदी के सामने साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हैं, जो अलेख के प्रति उनकी श्रद्धा-आस्था और विश्वास दर्शाते हैं। आग जलाने के बाद घी डाला जाता है, फिर तुरंत उसके बाद ‘सप्तामृत’ अर्पित किया जाता है। पीतल के बरतन में घी, दूध, दही, नड़िया, केला, गुड़, शहद, चावल की भूसी, चंदन और कपूर मिश्रित कर अग्नि पर डाला जाता है। अलेख की याद में आज भी अखंड बत्ती जोरन्दा के शून्य मंदिर में जल रही है। 

बस, ये तीनों ही हमारे धर्म की आराधना विधियाँ हैं। 

इन परंपराओं के निर्वहन के दौरान श्रद्धालुगण मेरे भजनों को खंजणी, गिन्नी आदि बजाकर मधुर स्वर में गाने लगते हैं, जिससे उस स्थल पर आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होने लगता है। 

हमारे धर्म की ‘बाल लीला’ भी दूसरे ढंग से होती है। हमारे श्रद्धालु भोर-भोर तीन बजे उठते हैं, सूर्योदय के बाद सात बार सुबह की प्रार्थना करते हैं फिर महिमा अलेख के आराधना भजन गाते हुए परिक्रमा लगाते हैं। ‘बाल लीला’ आयोजन के एक दिन पहले मिट्टी की हाँडी में सप्तामृत रखा जाता है, उस हाँडी को आकाश की ओर दिखाकर ज़मीन पर रखकर अलेख नाम का जप करते हुए वे हाँडी के समक्ष साष्टांग दंडवत हो जाते हैं। फिर उस हाँडी से सप्तामृत को निकालकर पीतल की कटोरी में डालकर कूटे हुए चावल के दानों के साथ मिलाया जाता है और फिर गाँव के बच्चों में बाँटा जाता है। यह हमारी ‘बाल लीला’ है। 

‘बाललीला’ रस्म की समाप्ति के बाद उपस्थित श्रद्धालुओं को पीने के लिए नींबू पानी दिया जाता है और जाति निरपेक्ष भाव से सभी को खाने के लिए सब्जी-भात दिया जाता है। गाँव वालों के लिए यह एक प्रकार का उत्सव होता है। 

वैदिक धर्म में देवी-देवताओं के आह्वान के लिए आग जलाकर हवन किया जाता है। कभी-कभी तो निरीह जानवरों और यहाँ तक कि आदमियों को भी आग में ज़िन्दा भून लिया जाता है। अश्वमेध, नरमेध यज्ञ इस परंपरा के उदाहरण हैं। मगर ‘महिमा धर्म’ जीव-हत्या को बहुत बड़ा अपराध मानता है और ऐसी दुर्दांत वैदिक परंपराओं का विरोध करता है। हमारे धर्म में आग जलाकर केवल अलेख को सीधे तौर पर दिखा दी जाती है। हवन जैसे वैदिक कुरीति को हमने हटा दिया है। इसके अतिरिक्त, धार्मिक आयोजनों के दौरान भारी-भरकम वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं करके, स्थानीय जन भाषा में रचे हुए मेरे भजनों का गायन किया जाता है। 

वैदिक ऋषि सोमरस का पान करते थे, जोकि नशीला द्रव्य है जबकि हमारे धर्म में केवल नींबू पानी पीने और पिलाने की परंपरा है। पूजा आराधना शुरू करने से पूर्व वैदिक ऋषि शंख बजाते थे और हम भी अपने अलेख को जगाने के लिए शंखों का प्रयोग करते हैं। 

जोत जगाने के बाद हमारे धर्म में दर्शन की परंपरा है। सूर्योदय के पूर्व हमारे अनुयायी सात बार धरती पर साष्टांग नत मसस्तक होते हैं और सूर्यास्त के बाद पाँच बार। हमारी प्रार्थना की इस विधि में प्रार्थना के साथ-साथ शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है। इस प्रकार दर्शन की यह पद्धति अत्यंत ही ‘दिव्य’ है। 

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