अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 10   

 

अब मैं थक चुका था। मेरा शरीर जर्जर होने लगा था। सोलह साल की उम्र से ही मैंने अपनी काव्य-कृतियों की रचना शुरू कर दी थी और मेरे पैंतालीस साल होते-होते विपुल साहित्यिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सामग्री मेरे पास उपलब्ध थी। एक विशाल विराट फलक पर मैंने अपने भजनों, कविताओं और स्तुतियों को उकेरा था, जो दलित-शोषित-पीड़ित लोगों की आवाज़ बनकर नए रूप में सामाजिक क्रांति का आह्वान कर रही थी। 

मुझे भीतर ही भीतर लगने लगा था, इस धरती पर अब मेरा काम पूरा हो गया। जिनको जगाना था, मैंने जगा दिया और जिनको जागना था, वे लोग जाग भी गए। सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए मैंने कई अभिनव प्रयोग किए थे, आध्यात्मिक और सामाजिक क्षेत्र-दोनों में। परिणाम भी हमारे सामने था। वल्कलधारी संन्यासी अपने अहम् के कारण मुझ पर अपना ग़ुस्सा उतारते थे, मगर मेरी शांत निश्छल प्रकृति उन्हें इस बात का अहसास दिलाती थी कि मेरा पथ और मार्ग दर्शन किसी भी तरीक़े से ग़लत नहीं था। 

गुरु को शून्य-धाम सिधारे एक-डेढ़ दशक बीत चुका था। सारी ज़िम्मेदारियाँ मेरे कंधों पर थीं, मगर ईर्ष्यावश गुरु भाई मुझे सहयोग नहीं कर रहे थे। कोई भी अवसर मिलने पर वे मुझे नीचा दिखाने से बाज़ नहीं आते थे। 

हमारा देश कहने के लिए भले ही, उच्च कोटि का आध्यात्मिक देश है, जहाँ हर प्राणी में ईश्वर की उपस्थिति देखी जाती है, मगर यथार्थ में यह सही नहीं था। पुरुष और महिलाओं को लेकर तरह-तरह के विभेद थे। मैं महिलाओं को भी अध्यात्म-क्षेत्र में समान दर्जा देना चाहता था, मगर रूढ़ीवादी विचारधारा ग्रस्त होने के कारण वे मुझे ग़लत समझने लगे। लेकिन मैं जानता था कि आज नहीं तो कल ही सही, ज़रूर, शून्य पुरुष मेरी बात सुनेगा और महिलाओं को भी अपने मानव जीवन के मुख्य उद्देश्य से वंचित नहीं करेगा। मेरी हार्दिक ख़्वाहिश थी कि महिमा धर्म पूरी दुनिया में व्याप्त हो जाए और पूरे विश्व में समानता के भाव पैदा हो। किसी भी प्रकार भेदभाव न हो। न धर्म को लेकर, न जाति को लेकर, न किसी श्रेणी को लेकर, न लिंगभेद के आधार पर। धरती पर अवतरित हर प्राणी का मुख्य उद्देश्य है, अपने जन्म के उद्देश्य को सार्थक करने का। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा? इन प्रश्नों के समाधान के साथ-साथ दूसरे लोगों का इस पथ पर चलने में मदद करेगा। 

सोचते-सोचते मुझे नींद आने लगी। पता नहीं, कब से नींद के आग़ोश में समा गया। नींद में एक बुरा सपना भी देखा, कुछ सफ़ेद दाढ़ी वाले महापुरुष मेरे शयन-कक्ष की छत पर लटककर सफ़ेद-सफ़ेद धागे मेरे हृदय की ओर फेंक रहे हैं। जिस तरह काँटे से मछली पकड़ी जाती है, उसी तरह वे मेरे हृदय से आत्मा रूपी मछली को पकड़कर बाहर निकालना चाहते थे। शुरू-शुरू में मैं डर गया। मेरा शरीर पसीना-पसीना हो गया। समझ नहीं पा रहा था, मेरे साथ यह क्या हो रहा है? कुछ समय के बाद वह दुस्वप्न समाप्त हो गया। मैं चौंककर जागकर अपनी दरी पर बैठ गया। 

कुछ अलग-अलग सा लग रहा था मुझे। सुबह-सुबह के तीन-चार बजने का समय हो गया होगा। मुर्गे की कुक्डूकूँ सुनकर मुझे रात के अंतिम पहर का अहसास हो रहा था। कहते हैं, अंतिम पहर में आने वाला सपना सत्य साबित होता है। यह सोचकर मुझे धरती पर मेरे दिन पूरे होने का अहसास हो रहा था। कोई शक्ति मेरे हृदय में विराजमान आत्मा को बाहर निकालने का प्रयास कर रही थी आज नहीं तो कल वह अदृश्य शक्ति फिर से अवश्य अपनी घटना को अंजाम देगी। 

दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर मैं अपने चारों लेखक शिष्यों वासुदेव पंडा, हरिपंडा, मार्कंड दास, धर्मानंद दास के साथ मैं अपनी निर्धारित साधना-पीठ पर पहुँचा। आज ध्यान नहीं लग रहा था। आत्मा में कविताएँ भी जन्म नहीं ले रही थी। आँखों के सामने केवल रात के सपने वाला दृश्य बार-बार उभर कर आ रहा था। मैंने मन ही मन अलेख महिमा को प्रणाम किया और उनसे अंतिम बार ध्यानस्थ होने हेतु विनती की। कुछ ही समय बाद मेरा ध्यान लगा। एक असीम विराट शून्य मेरी आँखों के सामने था, आज्ञा चक्र पर उसके तेज को सहन नहीं कर पाने के कारण मेरे प्राण सहस्रार की ओर गमन कर रहे थे। धीरे-धीरे वह तेज अग्नि की लपटों में बदल गया और शांत हो गया। शून्य से आकाशवाणी होने लगी, “धरती पर तुम्हारा समय पूरा हुआ। अब तुम्हें अलेख-साम्राज्य में प्रवेश करना होगा। जो तुम्हें करना था, कर दिया। शीघ्र ही लौट आओ। महिमा स्वामी तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।” 

आकाशवाणी समाप्त होते ही कुछ समय के लिए मेरे प्राण सुषुम्ना, इडा और पिंगला के त्रिवेणी संगम पर रुक गए। आनंद ही आनंद। मेरी कुंडलिनी शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र को पारकर सहस्रार में डोलने लगी थी। जैसा मेरे पिंड में हो रहा था, वैसा ही ब्रह्मांड में हो रहा था। यथा पिंड, तथा ब्राह्मण्ड। कुंडलिनी शक्ति और कुछ नहीं थी, परम शून्य का निलय था। परम शून्य के भीतर वृहद्शून्य, उसके भीतर क्षुद्र शून्य ब्राह्मण्ड में अणु-परमाणुओं की तरह लग रहे थे। आज मुझसे कविता बिल्कुल नहीं निकल रही थी। कोई शब्द भी सुनाई नहीं दे रहा था, केवल आनंद की अनुभूति हो रही थी, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। 

दो-तीन घंटे की इस ध्यानावस्था में मैंने कई लोकों की सैर की, मेरे गुरु महिमा स्वामी के दर्शन किए और उन्होंने मुझे अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद भी दिया। धीरे-धीरे मेरा ध्यान क्षीण से क्षीणतर होने लगा। मैं अपनी प्रकृतावस्था में लौट आया। 

मेरी यह अवस्था देखकर मेरे चारों लेखक शिष्य अचंभित थे। कहने लगे, “गुरु जी, क्या हो गया? आपका चेहरा पसीने से तर-बतर है। आपका स्वास्थ्य तो ठीक है? आज आपके मुख से कविता की एक भी पंक्ति नहीं उच्चरित हुई।” 

मैं क्या कहता? 

अपने आप को सँभालते हुए अंत में मुझे कहना पड़ा, “मुझे जाना होगा। अलेख प्रभु का आदेश है। मेरा इस धरती पर समय पूरा हो गया। अब मैं अपना काम आप लोगों के कंधों पर सौंप रहा हूँ। जल्दी ही आप सभी भक्तों की बैठक बुला दीजिए, ताकि मैं उन सभी पुनीत आत्माओं को अपना अंतिम प्रणाम कर सकूँ।” 

यह सुनकर चारों शिष्यों के चेहरों पर दुख के भाव उभर आए। सोच नहीं पा रहे थे, क्या कहें या क्या न कहें। अनमने भाव से उन्होंने हामी भरी। 

दूसरे दिन उन्होंने सभी भक्तों की बैठकर बुलाई। गाँव-गाँव से लोग आश्रम में पहुँचे। कोई-कोई अपने इलाज के लिए तो कोई अपनी पारिवारिक समस्याओं से नजात पाने के लिए। जितना बन सका, मैंने अपनी दिव्य-शक्ति से उनकी सेवा करने की कोशिश की। मेरे आश्रम में आया हुआ कोई भी भक्त ख़ाली हाथ नहीं लौटना चाहिए, बस मेरी इतनी इच्छा बची थी। पहले भी मैं कह आया था, भले ही, मुझे नर्क मिले, मगर जगत का उद्धार हो। 

मैं अपनी शिष्या प्रेयसी अन्नपूर्णा, सुमेधा, रोहिणी, सरस्वती सभी को भी अपना अंतिम प्रणाम किया और जाने के बाद उन्हें आश्रम के लिए क्या-क्या करना चाहिए, विषय पर भी लंबी-चर्चा की। 

अंत में, सभी शिष्यों के सामने मैंने घोषणा की, कि आगामी फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मैं अलेख धाम सिधारूँगा। अतः मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार करें। 

ये मेरे अंतिम वाक्य हैं इस पांडुलिपि के। जिस किसी भाग्यशाली पुरुष को यह पांडुलिपि मिलेगी, वह ज़रूर पूरे विश्व में अलेख द्वारा प्रतिपादित संदेशों का अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद कर उनका प्रचार-प्रसार करेगा, ताकि विश्व में सत्य-धर्म की स्थापना हो सके और हर प्राणी बिना किसी भेदभाव के सुखपूर्वक अपना जीवन यापन कर सकें। 

मैंने अपने जीवन के पैंतालीस साल की आयु के दौरान किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दुख पहुँचाया हो तो उनसे भी हाथ जोड़कर क्षमा याचना करता हूँ। 

और आशा है, वे मुझे अवश्य क्षमा करेंगे। 

फिर से आप सभी को मेरा अंतिम अभिवादन। 

मेरे माता-पिता अनादि पुरुष, आदि शक्ति और मेरे गुरु महिमा स्वामी को शत-शत नमन करते हुए। 

अपरिमित दुखी 
अरक्षित भीम भोई

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पांडुलिपि का अंतिम अध्याय पढ़कर आनंद की आँखों में आँसू आ गए। उसे लगा जैसे वह कोई सूसाइड नोट पढ़ रहा हो, जबकि वह जानता था कि भीम भोई को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था, अन्यथा अंत में योग साधना के द्वारा प्राण त्यागना किसी छोटे-मोटे व्यक्ति के वश की बात नहीं थी। एक सच्चा योगी ही हठ योग की परंपरा पर अपने प्राण त्याग सकता है। अभी भी कई गुत्थियाँ अनसुलझी थी, उसकी आत्मा में समय पाकर अपने भाई अरुण के पास जाकर पांडुलिपि के अंतिम अध्याय में उल्लेखित सन्‌ 1895 में भीम भोई के तिरोधान का सारा वृत्तांत सुना दिया। अरुण का भी मन भर आया था। अपने आप को सँभालते हुए कहने लगा, “आनंद, एक बात ध्यानपूर्वक सुनो। जितने भी महान पुरुष हुए हैं, यह देखा गया है कि वे भगवान के अतिप्रिय होते हैं और भगवान उन्हें जल्दी ही अपने पास बुला लेते हैं। प्रायः वे अल्पायु होते हैं। अब विवेकानंद को ही देख लो, बयालीस-तैतालीस साल की उम्र में स्वर्ग सिधार गए। विश्व विख्यात गणितज्ञ रामानुजम् भी धरती पर ज़्यादा दिन नहीं टिक सके तो भीम भोई जैसा महान संत कवि कब तक टिक सकता था?” 

“अगर वे ज़्यादा जीते तो अपनी आँखों के सामने महिमा धर्म को फलते-फूलते देखते। विश्व को आध्यात्मिक क्षेत्र में एक नई क्रांति का सूत्रपात कर अद्वितीय योगदान दे पाते हैं। यह भारत की मिट्टी की महिमा है कि वहाँ बडे़-बड़े ऋषि-मुनि ज्ञानी, कवि, समाज सुधारक पैदा होकर अखिल विश्व को नई दिशा देते हैं।” आनंद की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण कहने लगे, “यह सत्य है कि जब भारतीय समाज तरह-तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं के अंधकार को झेल रहा होता है तो कोई-कोई महापुरुष गौतम बुद्ध, महावीर जैन, स्वामी दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महिमा स्वामी, भीम भोई और आधुनिक युग में हलधर नाग जैसे विख्यात हस्तियों का प्रादुर्भाव होता है।” 

आनंद के मानस-पटल पर हमेशा के लिए पांडुलिपि का हर पत्ता एक अविस्मरणीय स्मृति बनकर रह गया। उसकी साहित्यिक महत्वाकांक्षा ने एक श्रेष्ठ कवि की खोज की और प्रेरित किया, जिसने उसके जीवन की संपूर्ण दिशा बदल दी। उसे पहली बार महसूस किया, कविता लिखने के लिए पढ़ाई की नहीं, साधना की और ईश्वर की अनुकंपा की आवश्यकता होती है। उसे इस बात का भी अहसास हुआ कि जिस किसी को जितना ज़्यादा दुख देखना पड़ता है, उतना ही ज़्यादा कवित्व उसके भीतर से जाग उठता है। कविता की उत्पत्ति दुख से होती है। दुख की अवस्था में ही तो भाव प्रवणता विकसित होती है और आदमी ज़्यादा से ज़्यादा संवेदनशील बनता जाता है। अरुण को प्रणाम कर अपनी आँखें पोंछते हुए आनंद किसी अनजाने अज्ञात की तलाश में निकल पड़ा। आज से उसने भीम भोई को न केवल आध्यात्मिक गुरु, बल्कि साहित्यिक गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। पांडुलिपि का मध्ययुगीन ओड़िया भाषा का वर्तमान की हिंदी भाषा में अनुवाद करते समय अपने भीतर संत कवि भीम भोई की आत्मा की उपस्थिति का अनुभव कर रहा था। उसकी आत्मा पांडुलिपि के गूढ़ार्थों का रहस्य खोलती हुई हाथ पकड़कर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नवीन अर्थों का रूपांतरण करवा रही थी। यह ठीक वैसा ही अनुभव था, जब मधुसूदन सरस्वती गीता पर अपनी टीका लिखते समय अपने इर्द-गिर्द कृष्ण भगवान की उपस्थिति महसूस करते हैं। यह ठीक वैसा ही अनुभव था, जब तुलसीदास अपनी रामचरित मानस की रचना के दौरान हनुमान को अपनी आत्मा के भीतर अनुभव करते हैं। देखते-देखते आनंद की संत कवि भीम भोई की जीवनी के बहाने साहित्य, अध्यात्म, मिथक, चमत्कार, योगसाधना, तंत्र साधना और हिन्दू धर्म से पृथक होकर नए महिमा धर्म की रूपरेखा की अत्यंत ही रहस्यमयी विचित्र यात्रा से होकर गुज़रने का अनुभव है। 

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