समय-सांप्रदायिक 

21-02-2019

समय-सांप्रदायिक 

शैलेन्द्र चौहान

यदि बड़ी उर्वर ज़मीन थी वह
युगों तक
तब आज रेगिस्तान यह
रेंगता सा
कहाँ से आया ?
 
कुएँ का पानी
नालियों में बहता
पहुँचता खेत गेहूँ के,
होली के रंग 
पकी बालियों के संग
महक भुने दानों की
 
होरी आई, होरी आई, होरी आई रे
खचाखच भर गई चौपाल
मन का मृदंग बजता मद भरा
कबिरा ने छेड़ी फागुन में
बिरहा की तान
झूम उठा विहान
कितना विस्तृत मन का मान
 
भूल गए सब
मेहनत, मार और लगान
दूर हुआ शैतान
पर आज हर घर में
हाँडी के चावल
फुदक-फुदक फैले
मन भी रेगिस्तान हुआ
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
यात्रा-संस्मरण
स्मृति लेख
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
कहानी
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें