मैं मुहब्बत को हवस क्यों ना कहूँ
इरफ़ान अलाउद्दीनबहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
२१२२ २१२२ २१२
मैं मुहब्बत को हवस क्यों ना कहूँ
जिस्म को तेरे क़फ़स क्यों ना कहूँ
हुस्न तेरा ज़हन में यूँ बस गया
ज़हन को मैं अब नफ़स क्यों ना कहूँ
वस्ल की चाहत ने अंधा कर दिया
वस्ल को मैं अब चरस क्यों ना कहूँ
दो घड़ी का है मज़ा बस और क्या
इस मज़े को मैं हवस क्यों ना कहूँ
ये ज़माना हवस से ही है भरा
इस ज़माने को क़फ़स क्यों ना कहूँ