मुक्तिबोध कि प्रसिद्ध कविता “चाँद का मुँह टेढ़ा है” की अमर पंक्तियाँ हैं –
“लिया बहुत-बहुत अधिक, दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे! जीवित रह गये तुम”
इन्हीं पंक्तियों को समर्पित है यह कविता:
ओ मुक्तिबोध की अमर आत्मा!, देश अभी यह मरा नहीं है।
पर लेने वालों का स्वार्थी, मन भी अब तक भरा नहीं है।
अब भी गाज़ी, नादिरशाही, तौर-तरीके चले हुए हैं,
अब भी नफ़रत के चूल्हे-पूले, हर नुक्कड़ पर जले हुए हैं।
अब भी ’मेरा-तेरा’ का चाकू, काँट-बाँट में लगा हुआ है,
अब भी मेरे घर चोरों का, आना-जाना लगा हुआ है।
अब भी धर्म, राजनीति के हाथों, कौड़ी दामों बिका हुआ है,
अब भी वोटर बोतल – कम्बल पर, दायित्त्व भूल कर बिका हुआ है।
अब भी दिन गिन-गिन कर जीवन, जैसे-तैसे मुश्किल से चलता,
अब भी रामू रिक्शा खींचे, गोपू गंदी बस्ती में पलता।
अब भी कमला बर्तन माँजे, सरला वही झींकती रहती,
अब भी वहीं ज़िन्दगी किच-किच, बिना दूध की चाय सी लगती।
फिर भी कहती हूँ मुक्तिबोध ओ, देश अभी यह मरा नहीं है,
संघर्षों से टकराने का, साहस अब भी चुका नहीं है।
उस अतीत की गौरवगाथा, अब तक देखो भूल ना पाये,
कहीं रहे पर भारत के ही, महागीत हमने हैं गाये।
अर्थ, काम में, विश्व-कथा में, हमने भी पन्ने जोड़े हैं,
नए काल में, उज्जवल भविष्य के, बीज सार्थक कुछ बोए हैं।
अंतरिक्ष – प्रक्षेपास्त्रों में, हमने भी नव नाम कमाया,
और विश्व पुनः कुछ पाने, द्वार हमारे फिर से आया।
देह पुरानी, साँस नई पर, रुक-रुक ही चाहे चलती है,
पर भारत की मान-कहानी, आगे ही आगे बढ़ती है।
पर भारत की मान-कहानी, आगे ही आगे बढ़ती है।