ख़ैरात

प्रवीण कुमार शर्मा  (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

दीनू से उसकी माँ ने पूछा, “डीलर के पास मिलने गया था; वहाँ कुछ मिला कि नहीं ?

"नहीं मिला माँ,” दीनू ने सिर ना में हिला दिया और उदास होकर बैठ गया।

"क्या कहा उसने?" माँ ने पूछा।

“कह रहा था कि हमारा बीपीएल से नाम हट गया है।”

"क्यों?" माँ अचानक ग़ुस्से में चिल्लायी।।”

“कह रहा था कि नया सरपंच बना है; उसने हटवा दिया है।”

"ऐसे कैसे हटवा सकता है," माँ तिलमिला उठी। 

"दूसरे मोहल्ले का सरपंच भले ही हो लेकिन है तो अपनी बिरादरी का। मैं ख़ुद उससे मिलने जाऊँगी पिछले कुछ समय से ये डीलर सड़ा-गला अनाज दे रहा था, तब भी हमने कुछ नहीं कहा, अब इसने नाम भी हटा दिया और हमारे सरपंच के ऊपर रख दिया। ये ऊँची बिरादरी के लोग न जाने कब तक हमारा ख़ून चूसेंगे?” माँ ने कहा।

माँ अपनी बैसाखी के सहारे उस डीलर के पास पहुँची और बोली, "क्यों बे डीलर तू समझता क्या है अपने आपको? इतने दिन से हम चुप थे, सड़ा-गला खा के काम चला रहे थे लेकिन अब बहुत सहन कर लिया।"

थोड़ी देर बाद दीनू भी वहाँ आ पहुँचा, "मुझे अभी-अभी पता चला है कि ये काम डीलर का नहीं है; डीलर का लड़का लखन अपने कानों से सुन कर आया है इसमें सरपंच का ही हाथ है; इसलिए अब चुप कर माँ! अब तो सरपंच को ही देखना है," दीनू ने लाठी ऊपर की ओर लहराते और तिलमिलाते हुए चेहरे से कहा।

"तू नहीं जानता इन ऊँची बिरादरी वालों को ये बहुत ही चालाक और शातिर होते हैं। इसी ने उस भोले-भाले सरपंच को बहला-फुसला कर बातों में लेकर हमारा नाम अलग करवा दिया है,” माँ ने डीलर की ओर घूरते हुए कहा।

"इसने मुझसे पिछले महीने की खुन्नस निकाली है। पिछले महीने इसने सड़े चावल दे दिए थे तो मैंने कुछ महिलाओं को इकट्ठा करके पूरी बस्ती के सामने इसकी पोल खोल दी थी; उसी का बदला लिया है इसने आज,” माँ ने रुँधे गले से कहा, “हम बदनसीबों का कोई सहारा नहीं होता। हमारा खोट इतना ही है कि हम अछूतों में पैदा हुए हैं बस।"

तभी वहाँ लखन आ पहुँचा, "ऐसा कुछ नहीं है काकी मेरे दादा ने ना तो तुम्हारा नाम अलग करवाया और न ही सड़ा अनाज अपनी इच्छा से दिया है; सरपंच के दवाब में आकर ही मेरे दादा को ना चाहते हुए ये सब करना पड़ा। काकी ऊँचा वो नहीं है जो ऊँचे कुल में पैदा हुआ हो आज तो जिसकी लाठी है तो भैंस भी उसी के ही पास रहती है।”

"मैं कुछ समझी नहीं, बेटा!" माँ कुछ अचरज भरे स्वर में बोली ।

"अपने मोहल्ले के वोट लेने के चक्कर में उसने वहाँ के रहीसों का भी नाम हम पर जबरन जुड़वा लिया और तुम जैसे ग़रीबों का नाम हटवा दिया और उसगने ही तुम्हारे मोहल्ले वालों के लिए सड़ा-गला अनाज बाँटने को बाध्य किया था। वह अपने वोट ख़राब नहीं करना चाहता क्यूँकि पहले उसी मोहल्ले ने उसे जितवाया था इसलिए उसने फर्जीवाड़ा करवाकर लिस्ट को अपडेट करवाकर उसमें उसने अपनी बिरादरी के रहीसों का नाम जुड़वा दिया और कई ऊँची बिरादरी के लोगों के, जिन्होंने उसके लिए पिछली बार वोट नहीं दिए; नाम हटवा दिए; इसलिए जात-पाँत को इस पचड़े में शामिल ना ही करें तो बेहतर होगा, काकी!"

लखन के लाख समझाने के बाद भी काकी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था उसे तो अपने छोटे से परिवार के पेट भरने की ही पड़ रही थी। दीनू के बापू तभी चल बसे जब वह सिर्फ़ पाँच साल का था; माँ ने ही उसका पालन पोषण किया और कभी भी उसे बाप की कमी महसूस नहीं होने दी चाहे ख़ुद ने लाखों कष्ट उठाए पर अपने बच्चे का पेट ज़रूर भरा। वैसे उनके परिवार में उन दो के अलावा था ही कौन? जो वह इतना कष्ट ले; पर दो हों या चार पापी पेट को तो भूख लगती ही है ना। इसीलिए ही तो आज उसे इस डीलर के पास आना पड़ा था। ख़राब अनाज से तो भूखा रहना बेहतर है कम से कम सब्र तो रहता है कि घर में कुछ खाने को नहीं है तो चलो भूखे ही सो जाएँ, पर घर में अनाज हो और पशुओं के खाने के लायक़ भी ना हो तो नींद भी नहीं आती और ख़ून जले सो अलग।

पाँच साल पहले तक तो सब ठीक चल रहा था जब वह टोकरियाँ बना कर न केवल जीविका चला रही थी बल्कि दीनू को सोलह दर्जा पढ़ा भी दिया। पर जब से उसे लकवा मारा है तब से सब ख़त्म सा हो गया पेट भरने के भी लाले पड़ने लगे हैं। दीनू ने लाख कोशिश कर ली पर जीविका चलाने का उसे कुछ सूझा ही नहीं; अभी तक। कोई भी उसे काम ही नहीं देता; वो गाँव-शहर सब जगह भटक लिया और माँ पर अब कुछ होता नहीं; रोटियाँ तो मुश्किल से ही बना पाती है। उसकी एक बग़ल बिल्कुल काम नहीं करती; वैसाखी के सहारे ही चलकर अपनी बची-कुची ज़िंदगी जी रही है . . . बेचारी!

दीनू के साथ ही शुरू से सरपंच का लड़का पढ़ता आया है और उसने अभी-अभी लखन से सुना था कि वह कोई अफ़सर बन गया है तभी तो उसके ख़ून में पहले से लगी आग में और आग लग गयी थी। वह वहाँ से चुपके से खिसक गया और सरपंच के घर जा धमका उसके तो सीने में आग धधक रही थी।

"ऐ रे सरपंच! असली माँ का दूध पिया हो तो बाहर निकल तुझे आज सिखाता हूँ कि भूखों की जठराग्नि में कितनी लपटें उठती हैं। आज तुझे इन लपटों में ही जला देना है; तेरे कई एहसान चुकता करने हैं अभी तो मुझे"।

सरपंच तो वहाँ नहीं मिला पर उसका लड़का माणिक्या बाहर निकला और दीनू को देखते ही उसका मुँह कसैला हो गया क्योंकि दीनू ने उसे एक भी दर्जे में अपने से आगे नहीं जाने दिया। आज वह अफ़सर बन गया था परन्तु वह ख़ुद की औक़ात जानता था।

"और भाई दीनू कैसा है तू; पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है तेरी? कहीं रोज़गार मिला कि नहीं?” झुकी हुई नज़रों से उसने पूछा।

"पहले मुझे ये बता तेरा दादा कहाँ है? उसी से बात करनी है मुझे," दीनू ने उसकी बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए पूछा।

“क्यों क्या काम है उनसे; मुझे ही बता दे!” माणिक्या ने पूछा।

“नहीं, तेरे दादा से ही बात करनी थी,” दीनू ने लगभग उसे घूरते हुए कहा।

तभी सरपंच की गाड़ी वहाँ आकर रुकी।

जैसे ही सरपंच गाड़ी से उतरा तो दीनू उस पर झपट पड़ा और उसकी गिरेबान पकड़ लिया, "बोल तूने हमारा नाम बीपीएल से क्यूँ हटवाया? क्यूँ हमें सड़ा अनाज दिलाया? क्यूँ हमें दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर किया?"

एक साथ कई प्रश्न दीनू ने उस सरपंच पर दाग़ दिए और जब तक वह कुछ बोल पाता उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया; सरपंच देखता ही रह गया।

यह दृश्य देखकर इकट्ठी भीड़ भौंचक्की रह गयी; इस फटेहाल लड़के ने ये क्या कर दिया? दिन भर उस मोहल्ले में यही चर्चा का विषय बना रहा। सरपंच को उस दिन ग़ुस्सा तो बहुत आया पर राजनितिक कारण की वजह से चुप रहा। अगले दिन उसने उसे बुलावा भेजा लेकिन दीनू नहीं आया। दीनू की माँ अपने बेटे की हरकत सुन कर बहुत उदास हुई। उसे बहुत ही दुःख हुआ यह सुनकर कि उसके लड़के ने बीते दिन सरपंच के तमाचा जड़ दिया।

उसकी माँ ने डीलर के लड़के को ख़ूब गलियाँ दीं, "ये ऊँची बिरादरी के लोग न जाने कब तक हमारा खून चूसेंगे ? सदियों से चूसते आये हैं पर न जाने कब इनकी प्यास बुझेगी ? बड़े चालाक और शातिर होते हैं ये लोग! मेरा लड़का अपने झाँसे में ले लिया और हमें आपस में ही लड़वा रहे हैं," माँ ने रोते हुए लम्बा-चौड़ा भाषण दीनू को सुना दिया ।

दीनू को भी अपनी करनी पर बड़ा पछतावा हुआ और उसने सोचा कहीं लखन ने कोई जाल तो नहीं फेंका? अब सरपंच से मुझे माफ़ी माँगने जाना चाहिए। हमें आपस में ही नहीं लड़ना चाहिए नहीं तो ये ऊँची बिरादरी वाले हम पर ऐसे ही अपनी हुकूमत चलाते रहेंगे और हमारा शोषण करते रहेंगे। नहीं-नहीं, हम भूखे मर जायेंगे पर अब इन ऊँची बिरादरी वालों की एक न सुनेंगे और ना ही इनकी बातों में आएँगे। 

ये सब बातें सोचते हुए दीनू घर से निकल गया और सरपंच के घर की ओर भारी मन से चल दिया। पैर तो आगे बढ़ रहे थे पर उसका मन उसे पीछे की ओर धकेल रहा था। सोचता जा रहा था कि अब मैं किस मुँह से उससे माफ़ी माँगूगा। मुझे अपने बापू की उमर वाले के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था। उसके लड़के से भी मुझे नहीं जलना चाहिए; उसकी नौकरी लग गयी तो ये उसकी क़िस्मत; मेरी नहीं लगी तो ये मेरी क़िस्मत। तभी उधर से भीखू आता दिखाई दिया जो सरपंच के यहाँ से ही आ रहा था। भीखू भी उसके साथ ही पढ़ा था। पढ़ने में वह दीनू की बराबर ही होशियार था और उसे भी कोई रोज़गार नहीं मिला था।

दीनू ने भीखू से उसका हाल-चाल पूछा तो उसने बताया कि हाल-चाल तो पहले जैसे ही हैं; कुछ भी नहीं बदला है। अभी तक रोज़गार के लिए ही भटक रहे हैं। "तुझे तो मिल गयी होगी नौकरी तू तो हम सबसे होशियार था, दीनू!," भीखू ने उत्सुकतापूर्वक पूछा ।

"अभी तो नहीं मिली यार, भीखू!," दीनू ने उदास मन से कहा।

"मैंने सुना हम नीची बिरादरी वालों को छूट मिलती है नौकरी में," भीखू ने कहा।

"तुझसे कौन कह रहा था?" दीनू ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा ।

"लखन कह रहा था मुझसे," भीखू ने उत्साह से कहा।

"वही लखन जो ऊँची बिरादरी का है, डीलर का बेटा!" दीनू ने तुनक कर पूछा।

"हाँ-हाँ वही कह रहा था, उसका नाम सुन कर तू इतना क्यों तुनक रहा है?" भीखू ने अचंभित होकर पूछा ।

"उसी लखन के बच्चे ने ही तो मुझे सरपंच के ख़िलाफ़ भड़काया है, ना जाने कितनी उलटी-सीधी बातें भर दी थीं मेरे मन में और कह रहा था की सरपंच ने अपने लड़के को जालसाज़ी से लगवाया है जबकि ये तो अपनी-अपनी क़िस्मत है; है न भीखू!," दीनू ने भोलेपन में कहा।

"तू भी कितना भोला है, दीनू! तू जिस अपराध बोध से पीड़ित हो रहा है उसकी तुझे कोई ज़रूरत नहीं है," भीखू ने उसके भोलेपन पर तरस खाते हुए कहा।"

"लखन ने जो कुछ बताया है; सब सच बताया है। माणिक्या की जिसमें नौकरी लगी है उसमें छूट थी। तभी तो उसका नंबर आसानी से आ गया जबकि हमें तो पता भी नहीं चला। तभी हम रह गए, इसमें क़िस्मत का कोई दोष नहीं है। सरपंच को मालूम था इसलिए उसने अपने लड़के के छूट मिलने के काग़ज़ बनवा लिए और आसानी से उसकी नौकरी लग गयी। जात-पाँत के चक्कर में हमें नहीं पड़ना चाहिए। अगर ऐसा ही डीलर के मन में कोई जात-पाँत को लेकर कपट होता तो वह ऊँची बिरादरी वाले ग़रीबों का नाम बीपीएल में से क्यूँ हटने देता? दीनू ! ग़रीब की कोई जात-पाँत नहीं होती। अमीर तो ग़रीबों का ख़ून सदियों से चूसते आये हैं और ये सब आगे भी चलता रहेगा। कार्ल मार्क्स ने कहा तो है यह अमीरी–ग़रीबी की खाई समय के साथ और चौड़ी होती चली जाएगी और आज जो हो रहा है कल भी यही होता रहेगा, भीखू ने दीनू को समझाया। 

"मैं अभी अभी सरपंच के ही पास से तो आ रहा हूँ," भीखू ने कहा।

"सरपंच से तुझे क्या काम पड़ गया?" दीनू ने बेरुखी से पूछा।

"माणिक्या कह रहा था कि उसका दादा यानी सरपंच कुछ पैसे लेकर नौकरी के काग़ज़ बनवा सकता है जिससे छूट मिल जाएगी और आसानी से नंबर आ जायेगा। पर ये बड़े लोग किसी के भी सगे नहीं होते। मैंने उस सरपंच को पैसे भी दे दिए फिर भी मेरे काग़ज़ नहीं बने और हमारे पास जो दो-चार बकरियाँ थीं वो भी इन पैसों की ख़ातिर बेच दीं। अब पेट भरने के भी लाले पड़ गए हैं। अब गया तो कह रहा था कि अभी कुछ काग़ज़ रह गए हैं और उन्हें बनवाने के लिए कुछ और पैसों की ज़रूरत है इसलिए नौकरी चाहिए तो और पैसों का इंतज़ाम कर ले। अब कहाँ से पैसे लाऊँ? जबकि लखन का कोई जानकार कह रहा था, जो पेशे से वकील है, कि नौकरी में छूट तो हमारा अधिकार है। इतनी पढ़ाई करने के बाद तो हमारी बिरादरी में कोई भी बिना नौकरी के नहीं रह सकता। सरपंच नहीं चाहता कि हमारी बिरादरी में और किसी की नौकरी लगे तथा उसकी बराबरी करे। वह हमारी बिरादरी वालों में सब पर हुकूमत चलाना चाहता है। इसलिए नौकरी की आस तो अब छूटी हुई सी मान। मैं सरपंच को धमकी दे आया हूँ कि मैं और दीनू, लखन के साथ मिलकर उस वकील के पास जा रहे हैं। हमें नौकरी का झाँसा देकर जो पैसे हमसे लिए हैं और हमको गुमराह जो किया है उस सब की रिपोर्ट लिखवानी है," भीखू ने रुँधे गले से कहा।  

भीखू और दीनू बात कर ही रहे थे कि अचानक एक गाड़ी उनके सामने आकर रुकी। सर्दी की शाम थी दिन भी ढलने को आ गया था और कुछ कोहरे की धुँध भी छाने लगी थी। इसलिए गाड़ी में कौन था; ये स्पष्ट दिख नहीं रहा था तभी माणिक्या तेज़ आवाज़ में बोला, “पकड़ लो इन दोनों को और ले चलो दादा के पास।” तभी उसके और साथी बोले, “पहले इनकी धुलाई तो कर लें तेरे दादा को जिसने मारा पहले उसको बता, फिर दूसरे को देखेंगे।” तभी माणिक्या ने दीनू की गिरेबान पकड़ लिया और एक थप्पड़ रसीद कर दिया। उसके बाद उस पर लात-घूँसों की बरसात होने लग गयी जैसे ही भीखू उसे बचाने आया तो उसका भी स्वागत लात-घूँसों से हुआ इतने में माणिक्या लाठी निकाल लाया और दीनू की तब तक धुनाई की जब तक कि उसके मुँह से खून नहीं निकलने लग गया। दीनू के शरीर पर ताबड़तोड़ लाठी, लात-घूँसे पड़ रहे थे और उसकी आँखों के सामने अन्धेरा सा छा गया। उन दोनों को घायल अवस्था में छोड़ कर वो लोग नौ दो ग्यारह हो गए।

वहाँ के आसपास के लोग तमाशाबीन बने रहे लेकिन कोई डर के मारे उनकी सहायता करने नहीं आया। दीनू अचेत पड़ा हुआ था जबकि भीखू होश में था पर खड़े होने की स्थिति में नहीं था।

शाम और गहराती जा रही थी। ठण्ड बढ़ती जा रही थी दीनू की माँ को चिंता होने लगी तो उसने वैशाखी का सहारा लिया और बाहर निकल गयी। दरवाज़े पर खड़े होकर उसने दीनू को आवाज़ दी सोचा लखन के घर होगा पर लखन ने मना कर दिया।

लखन दीनू की माँ के पास आया और पूछा, "कहाँ गया दीनू, कुछ बता के नहीं गया, काकी?"

"नहीं, बता के इतना गया था कि बाहर जा रहा हूँ; थोड़ी देर में आता हूँ। अभी तक तो आया नहीं। रात होने को आयी," माँ ने उदास होकर कहा।

लखन और दीनू की माँ दीनू की खोज में बाहर निकल गए।

तभी माणिक्या की आवाज़ आयी, "सुन री बुढ़िया! तेरे बेटे का इंतज़ाम कर दिया है और साथ में उस रिपोर्ट के लिए जाने वाले भीखू का भी।

"जा उठा ला उसे और इस चमचे को भी साथ में ले जा; इस का भी इंतज़ाम करना पड़ेगा," माणिक्या ने लखन की ओर घूरते हुए कहा और गाड़ी धूल उड़ाती हुई वहाँ से चली गयी।

लखन और दीनू की माँ दोनों भीखू के घर की ओर चल दिए क्योंकि वह गाड़ी उधर से ही आके रुकी थी और माणिक्या भी उधर ही इशारा कर रहा था; इसके अलावा लोगों की भीड़ भी उधर ही जा रही थी। थोड़ी देर बाद वे दोनों वहाँ पहुँच गए। दीनू को अभी होश नहीं आया था। भीखू थोड़ा लखन का सहारा लेके उठा और दीनू की माँ के पास आ गया और फूट-फूट कर रोने लगा। अब रात और गहराने लगी, धुँध और बढ़ती जा रही थी और साथ में लोग भी।

भीखू दीनू की माँ से बार-बार माफ़ी माँग रहा था और कह रहा था, "काकी! काश आज मैं उस सरपंच को रिपोर्ट करने की धमकी नहीं देता और दीनू रास्ते में नहीं मिलता तो दीनू का ये हाल न हुआ होता।"

ठण्ड और बढ़ती जा रही थी साथ में ओस बढ़ती जा रही थी और लोगों के आँसू भी। तभी थोड़ी देर बाद गाँव का हकीम वहाँ आ पहुँचा और दीनू की नब्ज़ टटोलने लगा लेकिन उसकी नब्ज़ भी ठंडी पड़ गयी।

दीनू की माँ पथरीली आँखों में आस लिए हकीम की ओर देखने लगी लेकिन हकीम ने अपनी आँख झुका दीं।

दीनू की माँ ज़ोर से चीख़ने लगी, "अरे ज़माने के आलाकमानो! काश मेरा बेटा आज पढ़ा-लिखा नहीं होता तो मुझे आज ये दिन ना देखना पड़ता। आज कल के पढ़े-लिखे होने से तो अनपढ़ होना अच्छा। अनपढ़ कैसे भी अपना पेट भर लेता; मेरे साथ टोकरी बनाना ही सीख जाता तो आज ऐसे नहीं पड़ा होता"।

"सरकार! नहीं चाहिए मुझे तेरा दाना पानी और न ही चाहिए मेरे बेटे को अब नौकरी . . . नहीं चाहिए तुम्हारी ख़ैरात! . . .”  कहते-कहते दीनू की माँ हमेशा के लिए अपने बेटे की बग़ल में निढाल होकर गिर पड़ी। 

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