ज़िन्दगी क्या . . .?
मनोज शाह 'मानस'
सात बार लिखता हूँ
नौ बार मिटाता हूँ
अर्थ कुछ आता ही नहीं
ये अक्षर . . . ये अल्फ़ाज़ . . .
शायद . . ., रूठ गए हैं . . .!
कभी काल अचंभा लगता है
लिखना . . . पढ़ना . . . भी
जानता हूँ या . . .?
ऐसा लगता है . . .!
उँगलियाँ शिथिल हो जाती हैं
विचार बोझिल हो जाते हैं
बेसुरा हो जाता हूँ
लुप्त हो जाता हूँ
ख़ुद खो जाता हूँ . . .!
अंधकार की सुरंग के भीतर
बेख़बर . . . बेमुरव्वत . . .
ये अक्षर . . . ये अल्फ़ाज़ . . .
क़रीब आना ही नहीं चाहते . . .!
जगत में मेरा कहना
ये अक्षर . . . ये अल्फ़ाज़ . . . ही हैं
यही नहीं रहा तो . . .
जीवन क्या . . .?
ज़िन्दगी क्या . . .??
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