आकाश तुम्हारा है . . .
मनोज शाह 'मानस'
कमरे में बैठे-बैठे
ताकता रहता हूँ
खूँटी पर लटके दुख . . .
फड़फड़ाते कैलेंडर में
कर्मों का हिसाब किताब . . .
दोनों किवाड़ों के बीच से
सनसनाती हुई अँधेरों को
चीरती हुई आती हवाएँ . . .
जैसे अपनी ही संतान द्वारा
दी गई यातनाएँ . . .
अपनी ही निधानी में
सँजोकर रखी पीड़ाएँ
मन तलछट की तरह
अवसाद के सागर में
बैठकर समेटते हुए आशाएँ! . . .
फिर खिड़की से झाँकता
आसमान का एक टुकड़ा
हाथ बढ़ाकर . . .
कानों में बुदबुदाता है
रख हौसला, देख रंग
बदलते आसमान का
आँख खोल बाहर आ
कि तेरे हिस्से का
यह आकाश तुम्हारा है!! . . .
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