एक दीप जलाना चाहूँ

15-09-2022

एक दीप जलाना चाहूँ

मनोज शाह 'मानस' (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मन की बग़िया सजाना चाहूँ। 
मैं एक दीप . . . जलाना चाहूँ॥
 
एक दीप . . . जीवन के गगन में, 
एक दीप अंतर्मन के आँगन में। 
एक दीप अनास्था के आँगन में, 
एक दीप पिपासा के प्रांगण में॥
 
जलकर . . . 
दीप का अस्तित्व बनना चाहूँ, 
मैं एक . . . दीप जलाना चाहूँ। 
मन की बग़िया सजाना चाहूँ॥
 
एक दीप . . . उलझन के आले में, 
एक दीप भरम के चौथे माले में। 
एक दीप तन उजले मन काले में, 
एक दीप शंकर के शिवालय में॥
 
एक सार्थक . . . 
जीवन अपनाना चाहूँ, 
मैं एक . . . दीप जलाना चाहूँ। 
मन की बग़िया सजाना चाहूँ॥
 
एक दीप . . . अंह की ऊँची अटारी पर, 
एक दीप बिखरे सपनों की क्यारी पर। 
एक दीप सफल जीवन की तैयारी पर, 
एक दीप आसमां में उड़ती सवारी पर॥
 
दीया बाती . . . 
जीवनसाथी बनाना चाहूँ, 
मैं एक . . . दीप जलाना चाहूँ।
मन की बग़िया सजाना चाहता हूँ॥
 
एक दीप कसक के कोट कँगूरे, 
एक दीप ललक की लहरों तीरे। 
एक दीप झिरमिरे झूठ झरोखे, 
एक दीप ख़ाम ख़्याली के खोखे॥
 
धरती पर . . . 
अमृत बरसाना चाहूँ, 
मैं एक . . . दीप जलाना चाहूँ।
मन की बग़िया सजाना चाहता हूँ॥
 
एक दीप दुविधा की दो राहों पर, 
एक दीप चोर मन के चौराहों पर। 
एक दीप त्रिकाल की त्रिराहों पर, 
एक मंज़िल की ओर बढ़ती राहों पर॥
 
नफ़रत के . . . 
अंधकार को मिटाना चाहूँ, 
मैं एक दीप . . . जलाना चाहूँ। 
मन की बग़िया सजाना चाहूँ॥

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