इन्हीं ख़्वाहिशों से . . .
मनोज शाह 'मानस'
ये नदियाँ . . . ये सागर . . .
मद्धिम मद्धिम बह रहे हैं।
ये बादल भी . . .
ग़ुस्से में कुछ कह रहे हैं॥
बरसात की झड़ी भी
आहिस्ता आहिस्ता
गुनगुना रही है . . .
वास्तव में . . .
ये दर्द . . . ये पीड़ा . . .
मुझसे ज़्यादा उन्हें हो रही है
कहीं दिल टूटने जैसा
भूस्खलन हो रहा है।
कहीं आँसुओं की सुनामी में
सपनों का शहर बह रहा है॥
कोई होता . . .!
कुछ मिल जाता . . .!!
कोई मिल जाता . . .!!!
इन्हीं ख़्वाहिशों से . . .
मुझे सिर्फ़ मारा नहीं है . . .।
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