वो बहुत सख़्त रवाँ गुज़री है
अजयवीर सिंह वर्मा ’क़फ़स’
बहर: रमल मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ मस्कन
अरकान: फ़ाएलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
तक़्तीअ : 2122 1122 22
वो बहुत सख़्त रवाँ गुज़री है
ज़िन्दगी मेरी गराँ गुज़री है
ज़िन्दगी किसकी रवाँ गुज़री है
जिस्म याँ गुज़रा है जाँ गुज़री है
इतना है ख़्वाबों का क़िस्सा यारों
मेरी हर आस जवाँ गुज़री है
एक ही बात बुरी गुज़री है
जैसी चाही थी कहाँ गुज़री है
वो बिछड़ तो गया मुझसे लेकिन
अब भी वो शाम कहाँ गुज़री है
जीस्त हो धार किसी ख़ंजर की
साँस जाँ दोनों कराँ गुज़री है
हाल है शब की सियाही में यूँ
मैं जहाँ लेटा वहाँ गुज़री है
वो झिड़क देना ‘क़फ़स’ बातों में
बेरुख़ी तेरी सराँ गुज़री है
तीज त्यौहार ‘क़फ़स’ सब मेरे
हर ख़ुशी उसके वराँ गुज़री है
सख़्त रवाँ=मुश्किल से बहना; गराँ=अप्रिय, असह्य, भारी; कराँ=किनारा, छोर, हद; सराँ=जानलेवा, घातक; वराँ=बगै़र, सिवा, बिना
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