मुझको मोहब्बत अब भी है शायद
अजयवीर सिंह वर्मा ’क़फ़स’
बहर: मुतकारिब मुरब्बा असलम सालिम मुज़ाफ़
अरकान: फ़ेलुन फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ऊलुन
तक़्तीअ: 22 122 22 122
मुझ को मोहब्बत अब भी है शायद
उम्मीद-ओ-हसरत अब भी है शायद
आ जाता ख़्वाबों में आज भी वो
मुझसे उसे रग़बत अब भी है शायद
रहते हैं दर्द - ओ - ग़म साथ मेरे
ये ही रवायत अब भी है शायद
सब करते हैं दुनिया में ‘क़फ़स’ याँ
ये इश्क़ इशारत अब भी है शायद
मुद्दत हुई पर भूला नहीं मैं
दिल पे इबारत अब भी है शायद
इशारत= आनंद, चैन, आराम
रग़बत= अभिलाषा, आकांक्षा, अभिरुचि, दिलचस्पी
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