अस्सी घाट की वो मेरी आख़िरी शाम
अजयवीर सिंह वर्मा ’क़फ़स’
उस शाम हम मिल रहे थे, उस को आना था, लेकिन वो नहीं आयी, ऐसा पहली बार हुआ था। गंगा की आरती भी समाप्त हो गई थी, मैं देर तक बैठा रहा और सोचता रहा।
कईं बार कोशिशों के बाद फोन लगा था, या, उस ने कॉल लिया और बस इतना कहा, “मैं नहीं आ सकूँगी” मैं कुछ बोल ही नहीं पाया।
मुझ को न जाने क्यूँ लग रहा था कुछ है जो हमेशा के लिये गुज़र गया। फिर, आने वाले दिनों मेरी कॉल कभी नहीं लगी। एक बार उस को देखा था वो सर झुकाये चली गई, उस ने मुझे दूर से ही देख लिया था, शायद।
एक दिन अचानक सामना हो गया, मैंने उस को रोका और कुछ बोलना चाहता था लेकिन रुक गया, उसने अपनी सूनी आँखों से मुझे किसी अजनबी की तरह देखा था।
मैं बहुत मुश्किल से कुछ वक़्त और बनारस में रहा फिर एक नई कंपनी जॉइन की और बनारस छोड़ दिया। ट्रेन में बैठ कर उस के साथ बिताये वो चार साल याद आने लगे। मुझे लगा, मैंने ग़लती कर दी, जाते जाते उस को बता देना था, “मैं जा रहा हूँ, लौटूँगा नहीं।” और आख़िर ट्रेन चल पड़ी,
मेरे ज़ेहन में उस के साथ बिताया हुआ वो वक़्त याद आने लगा और बहुत सारे सवालों ने मेरा मन कड़वाहट से भर दिया।
मुझे इस ट्रेन से किसी स्टेशन पर उतरकर दूसरी ट्रेन लेनी थी और फिर वहाँ से तीसरी ट्रेन लेकर गंतव्य पहुँचना था। पता नहीं क्यों मगर मैं चाहता था कि यह सफ़र कभी ख़त्म ही न हो, वैसे भी मुझ को ख़ास जल्दी नहीं थी। क़रीब डेढ़ दिन का सफ़र था और मैं अंतिम स्टेशन पहुँच ही गया। नया शहर, नई नौकरी और हाँ नये लोग सब आकर्षणहीन सा लग रहा था।
आज, बनारस से आये एक साल हो गया। यह साल मेरे अब तक के जीवन का सबसे लंबा साल रहा, और इस दौरान मैं ने बहुत महसूस किया जैसे मेरे अन्दर कुछ था जो बनारस छूट गया था या यूँ कहूँ कि सब ख़त्म हो गया था।
मेरे जीवन को एक ही शख़्स ने दो बार पूरी तरह से बदल दिया था और इस शहर के नये हालात ने कभी मुझे ख़ास प्रभावित नहीं किया। अब बस नीरसता, उदासीनता और नकारात्मकता का भाव एकाकी जीवन का अभिन्न अंग बन चुका था। सच कहूँ मुझे यह सब अच्छा भी लगने लगा था जैसे जीवन में कुछ है जो अब निर्धारित है।
आज, मुझे बनारस से आये लगभग दो साल हो गये थे और यह शहर और मैं एक दूसरे से और भी अनजान हो गये थे।
एक रोज़, देर रात मेरे फोन पर उस की सहेली का मैसेज आया, ‘वो ठीक नहीं है, मिल लो आकर’। मैंने पास के शहर से उड़ान ली और दोपहर तक बनारस पहुँच गया, फिर हॉस्पिटल के उस कमरे में जहाँ वो थी। उस ने बहुत गहरी निगाहों से मुझ को देखा, उसके होंठों पर वही चिरपरिचित मुस्कुराहट आई, जो आख़री बार मैं ने तब देखी थी जब हम पहली बार मिले थे, जैसे वो कह रही थी कि आज उस को जीवन में सब कुछ मिल गया हो। मैं कुछ बोलना चाहता था मगर वो मुस्कुराहट चली गई और उसका चेहरा शिथिल होकर भाव शून्य हो गया। मैं ने पहले कमरे के फ़र्श की तरफ़ फिर छत की तरफ़ देखा और बाहर निकल आया।
सामने उसके पापा ने मुझ से कहा, “डेढ़ साल से” . . . मैंने बीच में कहा, “अब अच्छी है वो।” उस के परिवार ने मुझे कभी पसंद नहीं किया था।
मैं वहाँ से बस भाग जाना चाहता था, बहुत तेज़।
उस शाम अस्सी घाट पर गंगा की आरती बस शुरू हुई थी और मैं उस सीढ़ी पर बैठ गया जहाँ हम पहली बार मिले थे। मेरे आँसू बहने शुरू हो गये और मैं दहाड़े मार-मार कर, उसका नाम चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। मेरा रुदन आरती के शोर में कहीं खो गया। मुझे लग रहा था वो दो सीढ़ी ऊपर बैठ कर मुझे देख रही है हमेशा की तरह, मैं शायद उस की आत्मा से जुड़ गया।
मैं अस्सी घाट पर बहुत देर तक था और बाद में स्टेशन पहुँचकर सामने खड़ी ट्रेन में बैठ गया, पता नहीं वो ट्रेन कहाँ जा रही थी लेकिन जब मन होता उतर जाता, फिर कोई और ट्रेन, फिर कोई और। आज भी मुझ को जल्दी नहीं थी शायद अब कहीं पहुँचना ज़रूरी नहीं था, मैं जीते जी मर चुका था।
1 टिप्पणियाँ
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संवेदनशील कहानी। विशुद्ध प्रेम का आदान-प्रदान...चाहे कुछ ही समय के लिए ही...केवल भाग्यशाली लोग ही अनुभव कर पाते हैं।