इश्क़ को इश्क़ अब कहो कैसे
अजयवीर सिंह वर्मा ’क़फ़स’
बहर: ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ मक़तू
अरकान: फ़ाएलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
तक़्तीअ: 2122 1212 22
इश्क़ को इश्क़ अब कहो कैसे
जिस्म की कोई भूख हो जैसे
चलते चलते रुका अचानक मैं
आ गया मेरे आगे वो जैसे
रात भर था मुझे ये अंदेशा
मिलने मुझसे तू आया हो जैसे
हक़ दरख़्तों का भी है धरती पर
आदमी चाहे तुम रहो जैसे
काट ली थी कलाई फिर उसने
दर्द-ओ-ग़म भी वबाल हो जैसे
लगता है क्यूँ के अब ‘क़फ़स’ तू भी
झूठ को सच बनाता हो जैसे
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