सूर्य का उत्तरायण और मकर संक्रांति
संजय श्रीवास्तवसूर्य हमारे सौरमंडल के केंद्र में स्थित होकर हमें ऊर्जा और जीवन प्रदान करते हैं। सूर्य के चारों ओर सभी ग्रह परिक्रमा करते हैं। और सौरमंडल के ये समस्त आकाशीय पिंड सूर्य से ही ऊर्जा प्राप्त करते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में किसी भी वस्तु विशेष का अपनी एक स्थिति से निकलकर दूसरी स्थिति में प्रवेश संक्रांति माना जाता है। वही ज्योतिष में किसी भी ग्रह का एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश संक्रांति कहलाता है। इस प्रकार जब सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रविष्ट होते हैं तो उसे मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति का अर्थ है वह समय जब सूर्य मकर रेखा को पार करते हैं। यह दिन सभी के लिए विशेष महत्त्व रखता है विशेषकर जो लोग आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं। उपनिषदों और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों में इससे नए काल की शुरूआत का उल्लेख किया गया है। सूर्य की उत्तर की ओर गति के समय वह जहाँ होता है और जिस भी चीज़ पर वह अपना प्रकाश डालता है समस्त जीवन को ऊर्जावान और स्फूर्तिदायक बना देता है। सूर्य को मनुष्य के आत्म का अधिपति देवता माना जाता है, जबकि चंद्रमा मनुष्य के मन का अधिपति देवता है। स्वयं या आत्मा मन से भिन्न है; आत्मा और मानस क्रमशः उनकी आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं द्वारा विभेदित हैं। मनुष्य के आत्म का स्वामी सूर्य हैं। सूर्य को आत्मकारक के रूप में नामित किया गया है। समस्त चर अचर जगत और अकार्बनिक और कार्बनिक जगत के लिए सौर सिद्धांत ही वह धुरी है जिसके चारों ओर सभी व्यक्तिगत ऊर्जाएँ घूमती हैं। सूर्य के संक्रांति पर विस्तृत चर्चा के पूर्व यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारतीय धर्म ग्रंथो और शास्त्रों में सूर्य को कितना महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। चारों वेदों में सूर्य को ऊर्जा का विशाल स्त्रोत माना गया है।
“सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च”
—ऋग्वेद (1.112.1), यजुर्वेद (7.42) और अथर्ववेद (13.2.35) क्रमशः सूर्य को ऊर्जा मानने की पुष्टि करते हैं।
विज्ञान से पहले हमारे वेदों में यह वर्णित था कि सूर्य के चारों ओर विशाल गैस का भंडार है। यह बात ऋग्वेद के एक मंत्र:
“शकमयं धूमम् आराद् अपश्यम्,
विषुवता पर एनावरेण।”
—ऋग्वेद (1.164.43) में निहित है। अर्थात् सूर्य के चारों और दूर-दूर तक शक्तिशाली गैसें फैली हुई हैं। यहाँ गैस के लिए धूम शब्द का प्रयोग किया गया है।
सूर्य प्रदूषण नाशक भी है, इस बात का उल्लेख अथर्ववेद (3.7) में मिलता है। इसे मंत्र:
“उत पुरस्तात् सूर्य एत,
दुष्टान् च ध्नन् अदृष्टान् च,
सर्वान् च प्रमृणन् कृमीन्।”
में उल्लेखित किया गया है। इसका अर्थ है सूर्य का प्रकाश दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले सभी प्रकार के प्रदूषित जीवाणुओं और रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है। सूर्य चंद्रमा को प्रकाश देता है। यह बात सदियों पहले हमें इन्हीं वेदों से मिलती है। यजुर्वेद (18। 40) में श्लोक है:
“सुषुम्णः सूर्य रश्मिः चंद्रमा गरन्धर्व,
अस्यैको रश्मिः चंद्रमसं प्रति दीप्तयते।”
अर्थात् सूर्य की सुषुम्ण नामक किरणें चंद्रमा को प्रकाश देती हैं। निरुक्त (2.6) “आदित्यतोअस्य दीप्तिर्भवति।” इसी तरह सामवेद में उल्लेखित है कि सूर्य संसार का धारक और पालक है। इसे मंत्र, सामवेद (1845) “धर्ता दिवो भुवनस्य विश्पति:” में बताया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूर्य की महत्ता का वर्णन हमारे प्राचीन धर्मशास्त्र में भी बख़ूबी किया गया है। शनै: शनै: विज्ञान में उत्तरोत्तर प्रगति भी इस बात की ओर इंगित करती है कि जो बातें हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में उल्लेखित हैं वे वैज्ञानिक रूप से सामने भी आती जा रही हैं। इसी प्रकार से समय-समय पर सूर्य पर होने वाली विभिन्न प्रकार की नाभिकीय घटनाओं का सीधा-सीधा प्रभाव सौरमंडल के अन्य ग्रहों के साथ-साथ हमारी पृथ्वी पर भी पड़ता है और हमारी पृथ्वी के साथ-साथ यह हमारे नित्य प्रति दैनिक जीवन को भी उतना ही प्रभावित करते हैं।
अब हम चर्चा करते हैं सूर्य की संक्रांति की। सामान्यतः सूर्य सभी बारह राशियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण और फलदायक है। भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित है। जैसे ही सूर्य उत्तर की ओर गतिमान होते हुए मकर रेखा को पार करते हैं मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। वस्तुतः देखा जाए तो सूर्य का बारह राशियों में संक्रमण होने से बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इनमें चार संक्रांतियाँ मेष, कर्क, तुला और मकर। और इनमें भी मकर और कर्क की संक्रांति का अपना विशेष महत्त्व है, क्योंकि मकर संक्रांति में सूर्य उत्तरायण और कर्क संक्रांति में सूर्य दक्षिणायन गति प्रारंभ करते हैं। सामान्यतः भारतीय पंचांग पद्धति की समस्त तिथियाँ चन्द्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। जब सूर्य धनु राशि से निकलकर के मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो इसे मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है।
हिंदू संस्कृति और सभ्यता में मकर संक्रांति का अपना एक विशिष्ट स्थान है। सूर्य देव की गति को दो आयन में विभक्त किया गया है। प्रथम उत्तरायण के नाम से जाना जाता है और द्वितीय दक्षिणायन। सूर्य के मकर राशि में प्रविष्ट होते ही उत्तरायण का आरंभ होता है। और यह लगातार छह संक्रांतियाँ पूर्ण करते हुए जब कर्क राशि में प्रविष्ट करते हैं तो दक्षिणायन का प्रारंभ होता है। उपनिषद और भगवद्गीता हमें बताते हैं कि सूर्य के उत्तरायण गति के दौरान के छह महीनों में जिनकी मृत्यु होती है उनकी आत्मा सूर्य की कक्षा को भेदते हुए और सांसारिक उलझनों से ऊपर उठकर तेजस्विता, आध्यात्मिकता और भव्यता प्राप्त को कर लेती है। इन छह महीनों के दौरान चंद्रमा का सूर्य की दक्षिणी दिशा से गुज़रना होता है और यह पृथ्वी पर वापसी का मार्ग है। अतः आत्मा की मुक्ति के लिए अर्थात् मोक्ष के लिए सूर्य से होकर गुज़रना ही एकमात्र मार्ग है। ऐसा ही एक दृष्टांत महाभारत के युद्ध के ऊपरांत देखने में आता है जब भीष्म पितामह मृत्यु शैया पर पड़े पड़े सूर्य देव उत्तरायण गमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। और उसके ऊपरांत ही उन्होंने देह का परित्याग किया। ज्योतिष विज्ञान के दृष्टिकोण से उत्तरायण को दक्षिणायन की तुलना में अधिक शुभकारी माना गया है।
मकर संक्रांति भारत के प्रमुख पर्वों में से एक है। मकर संक्रांति पूरे भारत और नेपाल में भिन्न रूपों में मनाई जाती है। पौष मास में जिस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है उस दिन इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। 14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता है। इसी कारण इस पर्व को ‘उतरायण’ (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। वैज्ञानिक तौर पर इसका मुख्य कारण पृथ्वी का निरंतर 6 महीनों के समय अवधि के ऊपरांत उत्तर से दक्षिण की ओर वलन कर लेना होता है। और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।
सम्पूर्ण भारत में मकर संक्रान्ति का पर्व विभिन्न रूपों में मनाया जाता है।
जम्मू में यह पर्व ‘उत्तरैन’ और ‘माघी संगरांद’ के नाम से विख्यात है। कुछ लोग इसे ‘उत्रैण’, ‘अत्रैण’ अथवा ‘अत्रणी’ के नाम से भी जानते हैं। इससे एक दिन पूर्व लोहड़ी का पर्व भी मनाया जाता है, जो कि पौष मास के अन्त का प्रतीक है। मकर संक्रान्ति के दिन माघ मास का आरंभ माना जाता है, इसलिए इसको ‘माघी संगरांद’ भी कहा जाता है। डोगरा घरानों में इस दिन माँह की दाल की खिचड़ी का मन्सना (दान) किया जाता है। इसके उपरांत माँह की दाल की खिचड़ी को खाया जाता है। इसलिए इसको ‘खिचड़ी वाला पर्व’ भी कहा जाता है। जम्मू में इस दिन ‘बावा अम्बो’ जी का भी जन्मदिवस मनाया जाता है। उधमपुर की देविका नदी के तट पर, हीरानगर के धगवाल में और जम्मू के अन्य पवित्र स्थलों पर जैसे कि पुरमण्डल और उत्तरबैह्नी पर इस दिन मेले लगते है। भद्रवाह के वासुकी मन्दिर की प्रतिमा को आज के दिन घृत से ढका जाता है।
उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘दान का पर्व’ है। प्रयागराज में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। 14 जनवरी से ही प्रयागराज में हर साल माघ मेले की शुरूआत होती है। 14 दिसम्बर से 14 जनवरी तक का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। एक समय था जब उत्तर भारत में 14 दिसम्बर से 14 जनवरी तक पूरे एक महीने कोई भी शुभ कार्य नहीं होते थे। परन्तु अब समय के साथ लोग-बाग बदल गये हैं। परन्तु फिर भी ऐसा विश्वास है कि 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से पृथ्वी पर अच्छे दिनों की शुरूआत होती है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परम्परा है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा-स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े-बड़े मेले लगते हैं। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्त्व होता है।
बिहार में मकर संक्रान्ति को खिचड़ी नाम से जाना जाता है। इस दिन उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गौ, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का अपना महत्त्व है। महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीज़ें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। इस दिन पूरे बिहार वासी दिन में दही चुरा खाकर और रात के समय उरद दाल और चावल की खिचड़ी बनाकर यह पर्व को मनाते हैं। इस दिन लाई या ढोंढा (चुरा या मुरमुरे का लड्डू) का भी बहुत महत्त्व माना जाता है।
बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहाँ गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला लगता है। एक मान्यता है कि इस दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्रत किया था। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिये लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन मकर संक्रान्ति को यहाँ लोगों की अपार भीड़ होती है। इसीलिए कहा जाता है, “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार।”
तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा-करकट इकट्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बरतन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।
असम में मकर संक्रांति को माघ बिहू अथवा भोगली बिहू के नाम से जाना जाता है।
राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। इस प्रकार मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है।
देवभूमि उत्तराखंड में इस मुख्य पर्व मकर सक्रांति को घुघुतिया त्योहार के नाम से जाना जाता है। आज के दिन उत्तराखंड के सभी लोग अपने दिन की शुरूआत सुबह नहाने से करते हैं। घर की महिलाओं द्वारा रसवाडें को मोल मिट्टी की सहायता से लिपाई-पुताई की जाती है। उसके बाद सभी लोगों द्वारा अपने घर के देवता स्वरूप देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। और दिन के भोजन में घुघुतिया बनाए जाते हैं। यह घुघुतिया आटे की सहायता से बनाए जाते हैं। जिसमें विभिन्न प्रकार की आकृतियों के माध्यम से घुघुतिया तैयार किए जाते हैं। इन सभी घुघुतिया को परिवार के छोटे बच्चों द्वारा कागा (कौवा) को अपने हाथों से खिलाया जाता है। इसी तरह से यह पर्व अपने ऐतिहासिक पहलुओं को सँजोए हुए है।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर भारत के विभिन्न भागों में, और विशेषकर गुजरात में, पतंग उड़ाने की प्रथा है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी महर्षि भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में विलीन हो गईं थीं।
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