ग्रहण और राहु-केतु
संजय श्रीवास्तव
राहु और केतु वैदिक ज्योतिष के अनुसार दो “छाया ग्रह” हैं, वास्तव में इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता है। मूल रूप से देखा जाये तो ये चंद्रमा के परिक्रमा पथ के दो कटान बिंदु हैं। राहु और केतु को सूर्य और चंद्रमा का शत्रु माना जाता है और इनके कारण ही ग्रहण लगते हैं। भारतीय वैदिक परम्परा में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है और चंद्रमा को मन का कारक। चंद्रमा को जल का अधिपति ग्रह होता है। अर्थात् पृथ्वी पर जितना भी जल तत्त्व उपस्थित है उसके मुख्य स्वामी के रूप में चंद्र का वर्णन मिलता है। मानव शरीर का लगभग सत्तर प्रतिशत भाग जल तत्त्व है। इस प्रकार चंद्रमा पर पड़ने वाले किसी भी प्रकार के प्रभाव का असर मानव मन मस्तिष्क पर ना हो ऐसा सम्भव ही नहीं है। और अब तो यह तथ्य वैज्ञानिक रूप से सत्य सिद्ध भी हो गया है। इस प्रकार से मानव स्वयं पर और उसके मन पर राहु और केतु और अंततोगत्वा ग्रहण के पड़ने वाले प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। राहु केतु जीवन में भाग्य, कर्म, भौतिक इच्छाओं और आध्यात्मिकता को प्रभावित करते हैं, तथा कुंडली में इनकी अशुभ स्थिति व्यक्ति के जीवन में रुकावटें पैदा करता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राहु, केतु के कारण ही ग्रहण लगते हैं। धर्मशास्त्रों की मानें तो सूर्य, चन्द्रमा के अत्यधिक नज़दीक होने पर राहु, केतु ग्रहण लगा देते हैं।
राहु को मुख और केतु को धड़ के रूप में अलग-अलग होने की बात का शास्त्रीय वर्णन प्राप्त होता है। इनकी उत्पत्ति के विषय में पौराणिक आख्यान है कि कश्यप ऋषि की दो पत्नियाँ, अदिति और दिति थीं। अदिति से देवताओं की उत्पत्ति और दिति से दानवों की उत्पत्ति के विषय में बताया गया है। कश्यप ऋषि के पुत्र राजा हिरण्यकश्यपु के नाम से जाने जाते हैं। हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रह्लाद थे तथा इनकी पुत्री का नाम सिंहिका था। इस प्रकार स्वरभानु को सिंहिका और उसके पति विप्रचिति की संतान बताया गया है। आगे चलकर स्वरभानु ही राहु और केतु में विभाजित हुआ। बात उस समय की है जब देवत्व तथा अमरत्व प्राप्त करने के लिए स्वरभानु ने भगवान शंकर का कठोर तप किया, भगवान शंकर ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर कहा कि, उसे देवत्व तो प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वह असुर कुल में जन्मा है परन्तु वह अमर होकर देवताओं के साथ पूजा जाएगा। देवयोग से उसी के बाद समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों में एक अमृत कलश भी निकला, अमृत पीने के लिए देवता और दानव, दोनों ही लालायित थे। जब स्वरभानु ने देखा कि अमृत देवताओं को पिलाया जा रहा है, तो वह भेष बदलकर देवताओं की पंक्ति में देवताओं के रूप में बैठ गया और अमृतपान करने लगा, जैसे ही अमृत की कुछ बूँदें स्वरभानु ने ग्रहण कीं, तभी सूर्य और चन्द्रमा ने देवता के रूप में छुपे स्वरभानु असुर को पहचानकर तुरन्त ही भगवान विष्णु से सम्पर्क किया। वे स्वयं ही मोहिनी रूप धारण कर अमृत पिला रहे थे। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से स्वरभानु का शीश, धड़ से पृथक कर दिया। अमृत की कुछ बूँद पिए जाने के कारण वह मृत्यु को तो प्राप्त नहीं हुआ, अपितु सिर व धड़ दोनों ही अलग-अलग जीवित रहे। सिर का हिस्सा राहु और धड़ का हिस्सा केतु बन गया। किंवदन्ति है कि समय बीतने पर भगवान विष्णु द्वारा उसका धड़ सर्प से जोड़ दिया गया, इसलिए राहु, केतु सर्पाकृति के हो गए तथा पूर्व में प्राप्त वरदान अनुसार अमृत पान के कारण अमर हो गए, ब्रह्मा जी ने उन्हें (छाया) ग्रह का दर्जा दे दिया।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार, राहु और केतु का परिक्रमा चक्र 18 वर्षों का होता है और ये हमेशा एक-दूसरे से 180 अंश की दूरी पर होते हैं। चूँकि राहु और केतु दो विपरीत चंद्र नक्षत्र हैं, इसलिए ये कुंडली में हमेशा एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत भावों में दिखाई देते हैं। दोनों ग्रह हमेशा वक्री गति में रहते हैं। जन्मकुंडली में भी ये दोनों एक दूसरे से 180 अंश दूर होते हैं। यह चंद्रमा की पुरस्सरण कक्षा या पृथ्वी के क्रांतिवृत्त तल पर चंद्र आरोही और अवरोही नोड्स के लगभग 18 वर्षीय घूर्णन चक्र के साथ मेल खाता है। यह एक सरोस से भी मेल खाता है, जो लगभग 223 संयुग्मी महीनों (लगभग 6585.3211 दिन, या 18 वर्ष, 11 दिन, 8 घंटे) की अवधि है, जिसका उपयोग सूर्य और चंद्रमा के ग्रहण के विषय में की जाने वाली भविष्यवाणी करने के लिए किया जा सकता है। “शनिवत राहु कुजवत केतु” (अर्थात राहु शनि के सदृश और केतु मंगल के सदृश कार्य करते हैँ) की ज्योतिषीय अवधारणा में राहु, शनि (पारंपरिक शासक ग्रह) के साथ मिलकर कुंभ राशि का स्वामी बताया गया है। खगोलीय दृष्टि से, राहु और केतु आकाशीय क्षेत्र में गति करते समय सूर्य और चंद्रमा के पथों के प्रतिच्छेदन बिंदुओं को दर्शाते हैं। इसलिए, राहु और केतु क्रमशः हिंदू ज्योतिष में उत्तर और दक्षिण चंद्र ग्रहणों के मानवीकरण हैं। ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इनमें से किसी एक बिंदु पर होते हैं। जब सूर्य क्रांतिवृत्त पर किसी भी बिंदु से जुड़ता है, तो अमावस्या सूर्य के प्रकाश को अस्पष्ट कर देती है, जिससे सूर्य ग्रहण होता है, और पूर्णिमा का प्रकाश पृथ्वी की छाया से मंद हो जाता है, जिससे चंद्र ग्रहण होता है। जब सूर्य या चंद्र इन छाया ग्रहों के बिंदु पर आते हैं, तो पृथ्वी की छाया पड़ने के कारण ग्रहण लगता है। ये जीवन में कार्मिक प्रभावों को नियंत्रित करते हैं। कुंडली में इनकी अशुभ स्थिति व्यक्ति के जीवन में समस्याएँ पैदा कर सकती है। सही दशा और दिशा मिलने पर ये अपार सफलता, आध्यात्मिकता और ज्ञान भी प्रदान कर सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि केवल सूर्य और चंद्र ही राहु-केतु से प्रभावित होते हैं। सूर्य, चन्द्रमा को छोड़कर जन्मकुण्डली में अन्य ग्रह भी राहु-केतु के साथ सम्बन्ध बनने पर इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं। यदि यह प्रभाव सकारात्मक और शुभ प्रकृति का है तब जातक को शुभ फलोँ की प्राप्ति होती है और वह आध्यत्मिक ऊँचाइयों को भी स्पर्श कर सकता है वहीं दूसरी ओर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की स्थिति में समय आने पर कुछ परेशानियों का सामना कर पड़ सकता है। राहु-केतु का अक्ष जन्मपत्रिका में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कुछ विद्वानों ने इस अक्ष के एक ओर सभी ग्रहों के होने पर तथा इसी अक्ष के दूसरे भाग में कोई भी ग्रह न होने पर कालसर्प योग की कल्पना की है। यद्यपि प्राचीन होरा ग्रंथों में कालसर्प योग नाम के किसी भी योग का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं प्राप्त होता है, परन्तु राहु, केतु के प्रभाव एवं कालसर्प योग के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
नवग्रह स्तोत्र में वर्णित राहु, केतु के पौराणिक मंत्र इस प्रकार हैं:
राहु मंत्र:
अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥
केतु मंत्र:
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥
राहु, केतु के मंत्रों का जप करने से इनके नकारत्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है और यहाँ तक की समाप्त भी किया जा सकता है। मंत्र जाप और आराधना के माध्यम से राहु, केतु को अनुकूल बनाया जा सकता है।
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