दीपावली: पौराणिक और ऐतिहासिक व्याख्या

15-10-2024

दीपावली: पौराणिक और ऐतिहासिक व्याख्या

संजय श्रीवास्तव (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

दीपावली मूलतः एक संस्कृत शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है ‘दीप’और ‘अवली’। ‘दीप’ का तात्पर्य यहाँ पर दीपक से है जो हमें प्रकाश प्रदान करता है और ‘अवली’ का अर्थ है ‘पंक्ति’। इस प्रकार दीपावली के महान पर्व पर दीपकों को पंक्तिबद्ध प्रज्वलित कर ख़ुशियाँ मनाई जाती है। कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दीपावली का त्योहार प्रकाश, रोशनी, श्रद्धा उत्साह, उमंग और उल्लास के साथ मनाया जाता है। 

आज इस लेख के माध्यम से हम इस बात पर चर्चा करेंगे की दीपावली मनाया जाना कब से प्रारंभ हुआ और इसके पीछे की पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और मान्यता क्या है? वैसे तो अलग-अलग काल में दीपोत्सव मनाए जाने के अलग-अलग दृष्टांत हमारे समक्ष आए हैं। उन सभी कारणों को एक-एक करके हम यहाँ विवेचित करने का प्रयास करेंगे जो निश्चित रूप से हमारे भारतीय समाज की वैभवशाली, गरिमामय और प्राचीन संस्कृति को उजागर करते हैं। आइए उन कालखंडों की एक एक कर विस्तार से विवेचना करते हैं। 

1. यक्ष परम्परा और दीपावली:

भारतवर्ष में प्राचीन काल में देव, दैत्य, दानव, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, नाग, विद्याधर इत्यादि अनेक प्रकार के संप्रदाय हुआ करते थे। यक्ष उन्हीं में से एक थे जो इस उत्सव को मनाया करते थे। उस काल में यक्ष के साथ-साथ गंधर्व भी इस त्योहार को मनाया करते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते हुआ अपनी यक्षणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। सभ्यता के क्रमिक विकास और परिवर्तन के साथ-साथ त्योहार के स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। इस परंपरा को अनेक संप्रदायों ने आगे बढ़ाया। 

2. कुबेर देव, माता लक्ष्मी और भगवान श्री गणेश की पूजा:

आगे चलकर धन के देवता कुबेर की पूजा अर्चना के साथ-साथ धन की देवी माता लक्ष्मी की उपासना और पूजन किया जाने लगा। आजकल हम देखते हैं कि माता लक्ष्मी के साथ-साथ कुबेर देवता की पूजा की जाती है। वास्तव में धन के देवता कुबेर की मान्यता यक्ष और गंधर्व तक की सीमित थी जबकि धन की देवी लक्ष्मी देव और मानव दोनों में समान रूप से मान्य थीं। कहते हैं कि माता लक्ष्मी जी और कुबेर देवता के साथ भगवान गणेश जी की पूजा का प्रचलन भौव संप्रदाय के लोगों ने प्रारंभ किया। इस प्रकार एक ओर जहाँ कुबेर देवता केवल धन के ही अधिपति माने जाते हैं वहीं दूसरी ओर माता लक्ष्मी धन की स्वामिनी होने के साथ-साथ ऐश्वर्य और सुख प्रदाता भी हैं। भौव संप्रदाय द्वारा भगवन श्री गणेश के पूजन के प्रमाण मिलते हैं। जिससे यह स्थापित होता है कि गणपति महाराज भी इस दिन रिद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में विराजमान हुआ करते थे। इस प्रकार समय के साथ-साथ अलग-अलग स्थान पर अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार इनकी पूजा की जाने लगी। परन्तु कुबेर देव माता लक्ष्मी और भगवान गणेश तीनों की ही पूजा समान रूप से की जानी चाहिए। 

3. लक्ष्मी पूजन और उनका विवाह:

एक अन्य मान्यता के अनुसार इस दिन माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु का विवाह संपन्न हुआ था। इस वजह से इस दिन लक्ष्मी पूजन का विशेष महत्त्व रहता है। इस प्रकार दीपावली के दिन को लक्ष्मी जी और विष्णु जी के विवाह के दिन से भी जोड़कर देखा जाता है। 

4. राजा बली और वामन देव:

एक अन्य मान्यता के अनुसार राजा बलि ने देवताओं को संग्राम में हराकर स्वर्ग लोक पर अपना आधिपत्य प्रस्थापित कर लिया था। देवताओं को इस विषम परिस्थिति से उबारने के लिए उनके विशेष आग्रह पर भगवान श्री विष्णु वामन अवतार के रूप में राजा महाबली द्वारा कराया जा रहे हैं यज्ञ अनुष्ठान में उपस्थित होते हैं। तीन पग धरती दान में लेने के बाद वामनदेव ने कहा कि वर माँगों तब असुर राज बलि बोले, “हे भगवन! आपने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या की अवधि में मेरी संपूर्ण पृथ्वी नाप ली है, इसलिए जो व्यक्ति मेरे राज्य में चतुर्दशी के दिन यमराज के निमित्त दीपदान करेगा, उसे यम यातना नहीं होनी चाहिए और जो व्यक्ति इन तीन दिनों में दीपावली का पर्व मनाए, उनके घर को लक्ष्मीजी कभी न छोड़ें। ऐसे वरदान दीजिए।” यह प्रार्थना सुनकर भगवान वामन बोले, “राजन! ऐसा ही होगा, तथास्तु!” भगवान वामन द्वारा राजा बलि को दिए इस वरदान के बाद से ही नरक चतुर्दशी के दिन यमराज के निमित्त व्रत, पूजन और दीपदान का प्रचलन आरंभ हुआ। इसे कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन को छोटी दिवाली, रूप चौदस और काली चौदस भी कहा जाता है। इस दिन यम पूजा, कृष्ण पूजा और काली पूजा तो होती ही है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस दिन वामन पूजा का भी प्रचलन है। कहते हैं कि इस दिन राजा बलि (महाबली) को भगवान विष्णु ने वामन अवतार में हर साल उनके यहाँ पहुँचने का आशीर्वाद दिया था। इसी कारण से वामन पूजा की जाती है। 

5. लक्ष्मी और काली का सम्बन्ध:
एक अन्य मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के बाद लक्ष्मी जी और धनवंतरी महाराज प्रकट हुए थे। वहीं इसी दिन माता काली भी प्रकट हुईं थीं। यही वजह है कि दीपावली के दिन लक्ष्मी जी और काली जी दोनों के लिए पूजा की जाती है और दीपोत्सव मनाया जाता है। एक अन्य उल्लेख में दीपावली की रात की माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु का विवाह संपन्न हुआ था। 

6. सिंधु घाटी काल में दीपोत्सव के चिह्न:

नवीन शोध के आँकड़े सामने आने से यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि दीपावली मनाने के संकेत सिंधु घाटी की सभ्यता में आज से क़रीब 8000 वर्ष पूर्व भी मिलते हैं। सिंधु सभ्यता की खुदाई में काफ़ी सारे मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो के क्षेत्र में की गई खुदाई में जो भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं उस आधार पर यह बताया जा सकता है कि घरों में भी मिट्टी के दीपक रखने के स्थान बने हुए थे। इस व्यवस्था से ऐसा प्रतीत होता है की भवनों के मुख्य द्वार को प्रकाशित किया जाता रहा हो। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। इस मातृ देवी के दोनों और दीपक प्रज्वलित करने के स्थान स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। जिससे इस बात का पता चलता है कि आज से 8000 वर्ष पूर्व तो स्पष्ट रूप से दीपावली मनाने के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। 

7. रामायण काल में दीपावली:

दीपावली को प्रभु श्री राम के अयोध्या नगरी वापस लौटने से जोड़कर भी देखा जाता है। नवीन शोध के आँकड़ों के अनुसार प्रभु श्री राम का काल 5200 वर्ष पूर्व का माना गया है। भगवान श्री राम 14 वर्ष का वनवास पूरा करने के बाद पुनः अयोध्या नगरी लौटे थे। कहते हैं कि सीधे अयोध्या न जाते हुए पहले नंदीग्राम गए थे और वहाँ कुछ दिन रुकने के बाद दीपावली के दिन उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया था इस दौरान उनके लिए ख़ास तौर पर नगर को सजाया गया था और दीपों की मालाओं से उसे सुसज्जित किया गया था। इस प्रकार प्रभु श्री राम के काल से ही 14 वर्ष पश्चात उनके अयोध्या वापस आगमन की ख़ुशी में दीपावली निरंतरता के साथ मनाई जा रही है। लेकिन क्या महाभारत काल में भी दिवाली मनाई जाती थी? इस सम्बन्ध में दो घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। 

8. महाभारत काल और दीपोत्सव:

दीपावली का पर्व इंद्र और कुबेर की पूजा से जुड़ा हुआ था ऐसा कहा जाता है कि दीपावली के एक दिन पहले श्री कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था जिसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है इसी ख़ुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुल वासियों ने दीप जलाकर ख़ुशियाँ मनाईं थीं। दूसरी घटना श्री कृष्ण द्वारा सत्यभामा के लिए पारिजात नामक वृक्ष लाने से जुड़ी है। यह भी कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने दीपावली के दिन को ही महाभारत के युद्ध के प्रारंभ के लिए चुना था। लेकिन इसका कोई उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं मिल पाता है। 
श्री कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध करके गोवर्धन पूजा के रूप में अन्नकूट की परंपरा प्रारंभ की गई थी। ”कूट” का अर्थ है पहाड़ . . . अर्थात्‌‍ अन्नकूट का अर्थ हुआ भोज्य पदार्थों का पहाड़ अर्थात्‌ भोज्य पदार्थों की प्रचुरता से उपलब्धता है। हम जानते हैं कि श्री कृष्ण और बलराम कृषि के देवता हैं। उनकी चलाई गई अनुकूल परंपरा आज भी दीपावली उत्सव का एक अभिन्न अंग है। यह दीपावली के दूसरे दिन अर्थात्‌ प्रतिपदा को मनाया जाता है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि देश, काल और परिस्थिति से अनुसार दीपावली मनाए जाने के अनेक कारण हमारे समक्ष उपस्थित हैं। वर्तमान समय में हमारे देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में इन्हीं प्रचलित मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार दीपावली का त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 

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