रात
संजय श्रीवास्तव
बसी है याद दिल में नींद को कहाँ आना है
आँखों ही आँखों में इस रात को गुज़र जाना है।
घनघोर कालिमा भरी रात ना बीते शायद,
उजाले पर बिछा अँधेरे का शामियाना है।
चाँद भी आज शायद मेरे साथ साथ जागेगा,
रूठकर चाँदनी को मायके में ठहर जाना है।
गाँव की बारात अब आगे ना जा पाएगी,
सुना है तेरे गाँव का यह महल्ला पुराना है।
तुम ना जाना पास के मैदान में अब घूमने,
ज़मीं पर सुना है काँटों भरा बिछौना है।
साथ माँ बाप का दोबारा नहीं मिलता कभी,
बुला लो उन्हें आश्रम जिनका आशियाना है।
प्रेम और विश्वास की गंगा कभी ना रोकना,
पंचतत्व से उद्भव और वहीं सिमट जाना है।
परिंदे भी अब इस ओर रुख़ करते नहीं,
जानते हैं उस जगह बस जाल ही ठिकाना है।
रूठकर मुझसे कभी दूर तुम जाना नहीं,
दो दिलों की दूरियाँ तो मौत का बहाना है।
स्नेह ओ प्रेम का अहसास अब दिखता नहीं
मिले बैठे हुए चार यार को, गुज़रा ज़माना है।
पैरों तले फूल को कभी रौंदना नहीं 'प्रेम',
कौन जाने ठौर उसका ईश का घराना है।
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