पितृ पक्ष का वैज्ञानिक पक्ष और चंद्रमा
संजय श्रीवास्तव
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक के पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों अर्थात् पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। माता पिता आदि पारिवारिक सदस्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार जब आत्मा अपना भौतिक शरीर छोड़कर जिस सूक्ष्म शरीर को धारण करती है वह प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था ‘प्रेत’ है क्योंकि आत्मा जिस सूक्ष्म शरीर को धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्
(जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है)
भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफ़ी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरितमानस में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख “भरत कीन्हि दशगात्र विधाना” तुलसी रामचरितमानस में हुआ है। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं: पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुज़ुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
चंद्रमा की पृथ्वी से ओसत दूरी लगभग की 3,85,000 किलोमीटर है। हम जिस समय पितृपक्ष मनाते हैं अर्थात् आश्विन मास के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिनों में चंद्रमा पृथ्वी के सर्वाधिक निकट अर्थात् लगभग 3,81,000 km पर ही रहता है। इसलिए कहा जाता है कि पितर हमारे निकट आ जाते हैं।
शतपथ ब्रह्मण में कहा है:
“विभु: उर्ध्वभागे पितरो वसन्ति”
यानी विभु अर्थात् चंद्रमा के दूसरे हिस्से में पितरों का निवास है।
चंद्रमा का एक पक्ष हमारे सामने होता है जिसे हम देखते हैं परन्तु चंद्रमा का दूसरा पक्ष हम कभी देख नहीं पाते इस समय चंद्रमा दक्षिण दिशा में होता है दक्षिण दिशा को यम का घर माना गया है। आज हम यदि आकाश को देखें तो दक्षिण दिशा में दो बड़े सूर्य हैं जिनसे विकिरण निकलता रहता है हमारे ऋषियों ने उसे श्वान प्राण से चिह्नित किया है। शास्त्रों में इनका उल्लेख लघु श्वान और वृहद् श्वान के नाम से हैं इसे ही आज के विज्ञान ने केनिस माइनर और केनिस मेजर के नाम से पहचाना है।
इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी आता है वहाँ कहा गया है:
“श्यामश्च त्वा न सबलश्च प्रेषितौ यमश्च यौ पथिरक्षु श्वान” (अथर्ववेद 8/1/19)
अथर्ववेद के इस मंत्र में इन्हीं दोनों सूर्यों की चर्चा की गई है।
श्राद्ध में हम एक प्रकार से उसे ही हवि देते हैं कि पितरों को उनके विकिरणों से कष्ट न हो इस प्रकार से देखा जाए तो पितृपक्ष और श्राद्ध में हम न केवल अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं बल्कि पूरा खगोलशास्त्र भी समझ रहे हैं। श्रद्धा और विज्ञान का यह एक अद्भुत मेल है! जो हमारे ऋषियों द्वारा बनाया गया है। आज समाज के कई वर्ग श्राद्ध के इस वैज्ञानिक पक्ष को न जानने के कारण इसे ठीक से नहीं करते कुछ लोग तीन दिन में और कुछ लोग चार दिन में ही सारी प्रक्रियाएँ पूरी कर डालते हैं यह न केवल अशास्त्रीय है बल्कि हमारे पितरों के लिए अपमानजनक भी है।
जिन पितरों के कारण हमारा अस्तित्व है उनके निर्विघ्न परलोक यात्रा की हम व्यवस्था न करें, यह हमारी कृतघ्नता ही कहलाएगी। पितर का अर्थ होता है पालन या रक्षण करने वाला। पितर शब्द पा रक्षणे धातु से बना है। इसका अर्थ होता है पालन और रक्षण करने वाला एकवचन में इसका प्रयोग करने से इसका अर्थ जन्म देने वाला पिता होता है और बहुवचन में प्रयोग करने से पितर यानी सभी पूर्वज होता है। इसलिए पितर पक्ष का अर्थ यही है कि हम सभी सातों पितरों का स्मरण करें इसलिए इसमें सात पिंडों की व्यवस्था की जाती है। इन पिंडों को बाद में मिला दिया जाता है। ये पिंड भी पितरों की वृद्धावस्था के अनुसार क्रमश: घटते आकार में बनाए जाते थे। लेकिन आज इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढ़ाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परन्तु ‘गया श्राद्ध’ का विशेष महत्त्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परन्तु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
आज कथित आधुनिकता की दौड़ में हम अपने संस्कारों और रीति रिवाज़ को भूलते चले जा रहे हैं। आधुनिक होने और आधुनिक बनाने का तात्पर्य यह कदापि नहीं होना चाहिए हम अपनी जड़ों से ही विमुख होने लगे भारतीय सभ्यता और संस्कृति की जड़े बहुत ही वैज्ञानिक और गहरी हैं। किसी भी संस्कार को सिरे से नकारने के पूर्व हमें उसकी गहराई तक जाकर उसके मर्म को समझने की आवश्यकता होती है। किसी के द्वारा बताए गए खंडित ज्ञान और एक सोची समझी रणनीति के तहत दी गई शिक्षा निश्चित रूप से हमारी संस्कृति पर कुठाराघात ही करती है।
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