रंगों का महापर्व होली
संजय श्रीवास्तव
विश्व में संभवतः भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पर प्रकृति में होने वाले प्रत्येक प्रकार के सकारात्मक बदलाव को एक उत्सव अथवा एक त्योहार के रूप में मनाया जाता है। उत्सव आत्मा का स्वभाव है किसी भी उत्सव को आध्यात्मिक होना ही है। आध्यात्मिकता के बिना एक उत्सव में गहराई नहींं आती। इसी का ज्वलंत उदाहरण रंगों का महापर्व होली है। बुराई पर अच्छाई की जीत और रंगों के त्योहार के रूप में मनाई जाने वाली होली को वसंत के आरम्भ और शीत ऋतु के समापन के रूप में मनाया जाता है। होली के समय मौसम में होने वाले इस परिवर्तन का बहुत महत्त्व है। होली के ज्योतिषीय और शास्त्रीय पहलू पर यदि हम दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि होली की मूल कथा होली के दो मुख्य पहलुओं से जुड़ी हुई है। जिनमे से एक है—होलिका दहन और दूसरी है ‘धुरेड़ी’ जो कि रंगों का उत्सव है। यह होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है। होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है।
हम सभी ने बचपन से भक्त प्रह्लाद और होलिका की कहानी सुनी है। प्रह्लाद असुरों के राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र था। प्रह्लाद जन्म से ही भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था, जिसे हिरण्यकश्यप एक नश्वर शत्रु मानता था। प्रह्लाद के पिता ने उसे हर तरह से भगवान विष्णु की पूजा करने से रोकने का प्रयास किया, किन्तु प्रह्लाद की भक्ति अटूट थी। इससे तंग आकर हिरण्यकश्यप ने अपने ही पुत्र को कई बार तरह-तरह से जान से मारने की कोशिश की लेकिन चमत्कारिक रूप से प्रह्लाद हर बार बच गया। चूँकि हिरण्यकश्यप की बहन, ‘होलिका’ को वरदान मिला था कि अग्नि उसे कभी नहींं जला सकती। एक बार होलिका ने हिरण्यकश्यप को सुझाव दिया कि वह प्रह्लाद के साथ अग्नि की एक चिता में बैठेगी और इस प्रकार प्रहलाद अग्नि में जलकर मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा और होलिका सुरक्षित बच जाएगी।
इस प्रकार लिए गए निर्णय को अमल में लाने हेतु फाल्गुन महीने की पूर्णिमा की संध्या पर होलिका बालक प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर एक चिता पर बैठ गई। वहाँ उपस्थित अन्य लोगों ने इस चिता को आग लगा दी। सभी के आश्चर्य का ठिकाना उस समय नहीं रहा जब उस दिन होलिका बुरी तरह से जल गई और मृत्यु को प्राप्त हुई। और भीषण अग्नि प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहींं कर पायी। यही बुराई पर अच्छाई की जीत है। इसीलिए हर फाल्गुन की पूर्णिमा के अगले दिन होली का उत्सव मनाया जाता है।
होली का एक गहरा ज्योतिषीय महत्त्व है जिसे उपर्युक्त कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है। फाल्गुन में पूर्णिमा के दिन, सूर्य ‘कुंभ राशि’ में ‘पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र’ में होता है जबकि चंद्रमा ‘सिंह राशि’ में पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में होता है। अब निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुका है कि पृथ्वी पर जीवन की उपस्थिति के पीछे सूर्य और चंद्रमा के संयोजन ही कारण है। आध्यात्मिक रूप से भी, सूर्य को हमारी आत्मा का कारक माना जाता है जबकि चंद्रमा को हमारे मन के रूप में निरूपित किया गया है। सूर्य को देवत्व का प्रकाश भी माना जाता है जबकि चंद्रमा को भक्ति का प्रतिनिधि कहा जाता है। यदि हम सूर्य को देवता के समकक्ष मानते हैं, तो चंद्रमा को भक्त माना जाएगा। शास्त्रों में भी, भगवान के परम भक्तों को चंद्रमा के रूप में मान्यता दी जाती है। फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसके स्वामी ‘शुक्र’ हैं। और सूर्य जिस नक्षत्र में है, उसके स्वामी ‘बृहस्पति’ हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि असुरों के गुरु शुक्राचार्य हैं, जबकि बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं। और इस नक्षत्र में, चंद्रमा की राशि ‘सिंह’ है, जो अग्नि का परिचायक संकेत है। यही कारण है कि सूर्य का पूरा प्रकाश पड़ने से फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा अर्थात् भक्त, सिंह अर्थात् अग्नि के प्रभाव में होता है और उसे कुछ भी नुक़्सान नहींं हो पाता है। इस दिन, परमात्मा की ऊर्जा अपने भक्त पर अपना पूरा ध्यान दे रही है क्योंकि पूर्णिमा वह दिन है जब पूरा चंद्रमा दिखाई देता है। इसका अर्थ है कि देवता अपने भक्तों को पूरी कृपादृष्टि से देख रहे हैं। इस दिन को ईश्वर की असीम अनुकम्पा से सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से निवृत्ति के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है।
आप सभी को होली के पावन पर्व पर हार्दिक बधाइयाँ और ढेर सारी शुभकामनाएँ।
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