आश्रम

संजय श्रीवास्तव (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

ज़माने के अजीबो-ग़रीब 
इस चलन को मैंने देखा है
पैसों के पीछे भागते यहाँ 
हर शख़्स को मैंने देखा है
वो प्रेम वो मोहब्बत 
न जाने कहाँ खो गईं आजकल
ज़रा सी रंजिश पर ख़ून और क़त्ल 
होते मैंने देखा है
 
चेहरे पे बुज़ुर्गों के आज 
वो ख़ुशी दिखाई नहीं देती 
आँखों में उनकी अब 
वो रौशनाई दिखाई नहीं देती 
पुश्तैनी ज़मीन जायदाद की तरह 
हमने बाँटा है उनको
हस्ती दोनों की आजकल
एक ही घर में दिखाई नहीं देती 
 
भरोसा आदमी का आदमी से 
आज उठता जा रहा है 
अपने ही परिवार से इंसान 
अब दूर होता जा रहा है
गाँव की खुली आबो-हवा छोड़कर 
जब से फ़्लैट में आया है 
मानवता और मानवीय संवेदनाएँ भी 
खोता जा रहा है
 
कभी बुज़ुर्गों की निगाहें 
हमारे लौटने का इंतज़ार करती थीं
“आ गए बेटा” . . . “आज देर कर दी” . . . 
कहकर स्वागत किया करती थीं 
अब तो दुम हिलाता और गुर्राता 
टॉमी ही मिलता है अक्सर 
जहाँ कभी बुज़ुर्गों की 
सुकून भरी झप्पी मिला करती थी
 
बहाना काम का करके 
कभी ना बात किया करते हैं 
कुछ पूछने पर अक्सर हम 
उनको झिड़क दिया करते हैं 
हमें पालने की ख़ातिर जिन्होंने 
सारा जीवन होम किया हो
उन मात पिता का अक्सर हम 
अपमान और तिरस्कार किया करते हैं
 
कभी सोच के तो देखो 
क्या तुम ऐसे ही बड़े हो गए हो 
आज जहाँ पहुँचे हो क्या 
अपने आप ही पहुँच गए हो 
बिना आशीर्वाद के उनके 
तुम्हारा कल्याण नहीं हो सकता 
यह पुण्य प्रताप है उनका 
तुम जहाँ आज पहुँच गए हो
 
कहते हैं भगवान से पहले दर्जा 
मात पिता का आता है 
पूजने से पहले भगवान को 
माता-पिता को पूजा जाता है 
पर आज के इंसान की 
निष्ठुरता की पराकाष्ठा तो देखिए 
जानवर को पालता है और 
बुज़ुर्गों को आश्रम छोड़ आता है
 
बुज़ुर्गों को आश्रम छोड़ आता है . . .। 

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