ग्रहों की वक्रीय गति: एक अध्ययन
संजय श्रीवास्तव
वर्तमान समय में ग्रहों के वक्रीय होने पर बहुत कुछ लिखने, पढ़ने और सुनने में आता है। आइए इस लेख के माध्यम से हम इस भौगोलिक घटना को समझने का और उनसे प्राप्त होने वाले शुभ-अशुभ फलों की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
ग्रहों की वक्र गति पूर्णतः एक भौगोलिक घटना है। वक्री मूलतः एक संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है मुड़ा हुआ या टेढ़ा अथवा अप्रत्यक्ष। वक्री ग्रह को सक्त ग्रह के नाम से भी जाना जाता है। ज्योतिष में मुख्य रूप से नौ ग्रहों की चर्चा की जाती है जिसके अंतर्गत सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति शुक्र, शनि, राहु, केतु हैं। सूर्य और चंद्रमा कभी भी वक्री नहीं होते हैं। वहीं राहु एवं केतु सदैव ही वक्री गतिमान रहते हैं। भास्कराचार्य महोदय द्वारा रचित सूर्य सिद्धांत के द्वितीय अध्याय में ग्रहों की आठ प्रकार की गति का उल्लेख किया गया है।
वक्रानुवक्रा कुटिला मंदा मंदतरा समा। तथा शीघ्रतरा शीघ्रा ग्रहाणामष्टधा गतिः॥
तथातिशीघ्रा शीघ्राख्या मंदा मंदतरा समा। ऋज्वीति पंचधा ज्ञेया या वक्रा सानु वक्रगा॥
(अर्थात्- वक्र, अनुवक्र, कुटिल, मंद, मंदतरा, सम, शीघ्र, शीघ्रतर। इनमें प्रथम तीन वक्री कहे जाते हैं क्योंकि इनमें ग्रह उल्टा चलता दिखाई देता है जबकि अन्य में सीधा चलता दिखाई पड़ता है।)
वक्र, अनुवक्र, कुटिल, मंद, मंदतरा, सम, शीघ्र, शीघ्रतर आदि आठ प्रकार की गतियों में प्रथम तीन अर्थात वक्र, अतिवक्र और कुटिला से अभिप्राय ग्रहों की वक्रगति से होता है, जब उन्हें प्रकाश से दूर जाना माना जाता है। शेष पाँच अर्थात मंद, मंद तारा, सम, शीघ्र और शीघ्रतर रुजुगति या प्रत्यक्ष गति को संदर्भित करते हैं। जब ग्रह वक्रगति से मुक्त हो जाते हैं और मार्गी ग्रह के रूप में जाने जाते हैं , जिनके बारे में माना जाता है कि वे प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। दो वक्री ग्रहों के बीच घिरा ग्रह वक्री ग्रह की तरह व्यवहार करता है, यह बात चंद्रमा पर भी लागू होती है।
वैदिक ज्योतिष में समस्त गणनाएं पृथ्वी को केंद्र मानकर अर्थात भू केंद्रीय पद्धति के अनुसार की जाती है। सिद्धांत ज्योतिष में भी वक्री ग्रहों के विषय में स्पष्ट किया गया है। समस्त ग्रह और हमारी पृथ्वी भी सूर्य के परितः एक दीर्घ वृताकार कक्षा में चक्कर लगाते हैं। सूर्य के चारों ओर दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में चक्कर लगाने के कारण पृथ्वी से देखे जाने पर ग्रह कभी तीव्र गति से तो कभी मंद गति से चलते हुए दिखाई पड़ते हैं। ग्रहों की तीव्र गति उन्हें अतिचारी बनाती हैं और इसी तीव्र गति की स्थिति में जब वह पीछे चलने लगते हैं तो उन्हें सामान्य ज्योतिष में वक्री ग्रह कहा गया है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे दो रेलगाड़ियाँ एक दूसरे के समानांतर एक ही दिशा में गति कर रही हैं। एक रेलगाड़ी द्रुतगामी और दूसरी मंदगामी है। प्रेक्षक तेज़ रेलगाड़ी में बैठा है। जैसे ही वे दोनों रेलगाड़ियाँ एक दूसरे के समीप साथ साथ आती हैं तो कुछ देर के लिए दोनों एक दूसरे के सापेक्ष स्थिर दिखाई पड़ती हैं। जैसे ही द्रुतगामी रेलगाड़ी मंदगामी गाड़ी को पीछे छोड़ते हुए आगे निकलने लगती है तो उसमें बैठे प्रेक्षक को ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानो मंदगामी रेलगाड़ी उससे दूर होती जा रही है या उलटी दिशा में दौड़ रही है। वस्तुतः दोनों ही रेलगाड़ियाँ एक ही दिशा में गमन कर रही है। ठीक इसी प्रकार तारामंडल में प्रत्येक ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर गति करता हुआ दिखाई पड़ते हैं परंतु कभी-कभी कुछ समय के लिए पृथ्वी पर प्रेक्षक के संदर्भ में वे पूर्व से पश्चिम अर्थात विपरीत दिशा में भ्रमण करते दिखाई पड़ते हैं, जिसे वक्री कहते हैं। यथार्थ रूप में गृह कभी उलटी दिशा में गति नहीं करते हमें केवल ऐसा होने का आभास ही होता है।
सौरमंडल में बुध और शुक्र को आंतरिक ग्रहों की संज्ञा दी गई है क्योंकि ये दोनों ही ग्रह सूर्य और पृथ्वी के बीच अपनी कक्षा में सूर्य की परिक्रमा लगाते हैं। इसी प्रकार मंगल, गुरु और शनि को बाह्य ग्रह की संज्ञा दी गई है। आंतरिक ग्रह कभी भी बाह्य युति नहीं करते हैं। बाह्य ग्रह मंगल, गुरु और शनि आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार से युति करने में सक्षम होते हैं। यहाँ एक बात और ख़्याल में ले लेनी चाहिए कि बुध और शुक्र चूँकि आंतरिक ग्रह हैं और उनकी परिक्रमा करने की कक्षा अपेक्षाकृत छोटी होती है इसलिए ये सूर्य से अधिक दूर नहीं जा सकते हैं। बुध एक ओर जहाँ सूर्य से अधिकतम 27 अंश तक दूर जा सकता है वहीं शुक्र 47 अंश तक। इस प्रकार सूर्य से आगे 15-27 अंश की कोणीय पर बुध प्रतिगामी हो जाते हैं और सूर्य से आगे 27-47 अंश तक शुक्र वक्री रहते हैं। अन्य अंशों पर ये मार्गी बताए गए हैं। यह तो चर्चा हुई आंतरिक ग्रहों की अब ज़रा बाह्य ग्रहों की स्थिति पर भी नज़र डालते हैं। सूर्य से 120 अंश आगे तक एवं 120 अंश पीछे तक कोई भी बाह्य ग्रह अर्थात मंगल, गुरु और शनि वक्री नहीं होते हैं। जैसे ही बाह्य ग्रह सूर्य से 120 अंश से अधिक दूर जाते हैं तो वे वक्री हो जाते हैं और 240 अंश आगे तक वे वक्री अवस्था में ही बने रह सकते हैं। उसके पश्चात इन तीनों बाह्य ग्रहों की मार्गी गति प्रारंभ हो जाती है। मंगल, सूर्य से जहाँ 164 अंश से 196 अंश के बीच की कोणीय दूरी के अंतर्गत प्रतिगामी होते हैं तो बृहस्पति 130 से 230 अंश के अंतर्गत और शनि सूर्य से 115 से 245 अंश के अंतर्गत प्रतिगामी होते हैं। जब भी ग्रह अपनी गति में परिवर्तन करते हैं अर्थात वक्री से मार्गी अथवा मार्गी से वक्री होते हैं तो वे कुछ समय के लिए स्थिर अवस्था में प्रतीत होते हैं। इसे स्तंभन के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार शनि 144 दिनों तक वक्री रहते हुए और 5 दिन पहले और बाद तक स्थिर रहते हैं। बृहस्पति 120 दिनों तक वक्री रहते हुए तीन या चार दिनों तक पहले और बाद में स्थिर रहते हैं। शुक्र अधिकतम 42 दिनों तक वक्री रहते हैं तथा दो दिन पूर्व और दो दिन पश्चात तक स्थिर बने रहते हैं। इसी प्रकार बुध 24 दिन तक वक्री रहते हैं और एक दिन पहले तथा बाद में स्थिर रहते हैं।
बुध को सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण करने में 88 दिन का समय लगता है इसे बुध का संपातिक काल कहते हैं। इसी प्रकार शुक्र का संपातिक काल 224.7 दिन, मंगल का संपातिक काल 687 दिन गुरु का संपातिक काल 11.9 वर्ष और शनि का संपातिक काल 29.5 वर्ष होता है। सूर्य की परिक्रमा करने में लगे समय के आधार पर एक छोटी सी गणितीय व्याख्या से निश्चित किया जा सकता है कि कौन सा ग्रह एक वर्ष में कितनी बार वक्री होगा? इस आधार पर गणना द्वारा यह बताया गया कि बुध को पुनः वक्री होने में 115 दिन लगते हैं। इसी प्रकार शुक्र को पुनः वक्री होने में 571 दिन मंगल को 777 दिन, गुरु को 397 दिन और शनिदेव को 376 दिनों का समय लगता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं की ग्रह के वक्र होने की यह खगोलीय घटना ग्रह विशेष की सूर्य से अधिकतम दूरी पर गतिमान रहने और उसके पृथ्वी से निकटता के कारण प्रतीत होती है। आंतरिक ग्रह अर्थात बुध एवं शुक्र जब पृथ्वी एवं सूर्य के मध्य में होते हैं तो वक्री होते हैं। इसी प्रकार बाह्य ग्रह मंगल, बृहस्पति एवं शनि उस समय वक्री होते हैं जब पृथ्वी उस बाह्य गृह एवं सूर्य के मध्य में आ जाती है। अर्थात यह कहा जा सकता है कि दोनों ही स्थितियों में जब ग्रह पृथ्वी से निकटतम होती है तब ग्रह वक्री होता है। इस प्रकार वैदिक ज्योतिष की महत्वपूर्ण खगोलीय घटना को समझा जा सकता है।
महर्षि अगस्त्य का कथन है कि प्रतिगामी गति अथवा वक्री गति सामान्य तौर पर जन्म या प्रश्न के समय उनके कार्यात्मक गुणों और समग्र स्वभाव के अनुरूप ही शुभ अशुभ फलों के लिए ग्रहों के प्रभाव को तेज़ करते हैं।प्रतिगामी ग्रह मानव चेतना की प्राथमिक संरचना और मानव जीवन के साथ उसके संबंध को प्रभावित करते हैं। वक्री ग्रह अप्रत्याशित परिणाम देते हैं। वक्र गति के कारण ग्रहों को असाधारण चेष्टा बल प्राप्त होता है, जिसका प्रबल प्रभाव उनके जन्म कुंडली को प्रभावित करने के तरीक़े और उनके पारगमन द्वारा व्यक्त किया जाता है।
आइए अब वक्री ग्रहों के शुभाशुभ फलों पर चर्चा करते हैं। वक्री ग्रहों से प्राप्त होने वाले शुभ अशुभ फलों के विषय में शास्त्रों में ज्यादा उल्लेख नहीं मिलता है। और जहाँ तक ज्योतिष विद्वानों का प्रश्न है तो उनमें मतैक्य नहीं है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्म कालीन समय में ग्रहों की वक्री गति का प्रभाव जीवन पर उनके सामान्य गति से अलग ही पड़ता है। आइए कुछ प्रचलित मतों पर विचार करते हैं।
1. जब कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में गोचर के दौरान वक्री होता है तो वह अपनी उच्च राशि में स्थित होने के अनुसार फल प्रदान करता है। इसके ठीक विपरीत यदि कोई ग्रह उच्च राशि से गोचर वश वक्री होता है और उसकी नवांश में स्थिति नीच की है, तो अपनी नीच राशि में स्थित का फल प्रदान करता है। कोई भी शुभ अथवा पाप ग्रह यदि नीच राशिगत हो, परंतु नवांश में अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो वह उच्च राशि का ही फल प्रदान करता है।
इसी मत के अनुसार वक्री ग्रहों की दृष्टि का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। वक्री ग्रह अपनी उच्च राशि का होने के समतुल्य फल प्रदान करता है कोई ग्रह जो वक्री ग्रहों से संयुक्त हो उसके प्रभाव में मध्यम स्तर की वृद्धि होती है। अपनी उच्च राशि से गोचर करता कोई ग्रह वक्री होने पर नीच राशिगत होने का फल प्रदान करता है।
2. कोई भी ग्रह यदि वक्री हो रहा है तो वह प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली के हिसाब से ही शुभ या अशुभ फल देगा। उदाहरण अर्थ गुरु के वक्री होने पर उसके शुभ व शुभ फल देने के प्रभाव में कोई अंतर नहीं आता अर्थात किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाले गुरु वक्री होने की स्थिति में भी उसे कुंडली में शुभ फल ही प्रदान करेंगे तथा किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाले गुरु वक्री होने की स्थिति में उसे कुंडली में अशुभ फल ही प्रदान करेंगे। हाँ वक्री होने से गुरु के व्यवहार में ज़रूर बदलाव आता है जैसे वक्री होने की स्थिति में गुरु कई बार शुभ या अशुभ फल देने में देरी कर देते हैं। यही नियम अन्य ग्रहों पर भी लागू होते हैं।
3. वक्री ग्रह किसी कुंडली विशेष में अपने नैसर्गिक स्वभाव से विपरीत आचरण करते हैं अर्थात अगर कोई ग्रह किसी कुंडली में सामान्य रूप से शुभ फल दे रहा है तो वक्री होने की स्थिति में वह अशुभ फल देना शुरू कर देगा। इसी प्रकार अगर कोई ग्रह किसी कुंडली में सामान्य रूप से अशुभ फल दे रहा है तो वक्री होने की स्थिति में शुभ फल देना शुरू कर देता है।
4. वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता। ज्योतिषियों के इस वर्ग का मानना है कि प्रत्येक ग्रह केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है और किसी भी प्रकार से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता।
5. एक अन्य मत के अनुसार यदि कोई ग्रह अपने उच्च की राशि वक्री होता है तो उसके फल अशुभ हो जाते हैं तथा यदि कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में वक्री होता है तो उसके फल शुभ हो जाते हैं।
इन समस्त मतों का सूक्ष्मता और गहनता से अध्ययन करने पर और अनुभव के आधार पर कुछ सूत्रों और निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकता है। यहाँ एक बिंदु अवश्य विचारणीय है कि जिस प्रकार अशुभ ग्रहों के शुभ स्थान के साथ संबंध होने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं तो क्या सिर्फ़ एक भौगोलिक घटना की वजह से वक्री ग्रह अशुभता प्रदान करेंगे। नहीं . . . वे ऐसा नहीं करेंगे . . . विभिन्न शोध और अनुभव के आधार पर यह बताया गया है कि:
1. वक्री ग्रह लग्नेश, लाभेश और पंचमेश होने की स्थिति में जातक को अच्छा फल प्रदान करेंगे।
2. द्विस्वभाव लग्नों में शुभ ग्रह यदि केंद्र के स्वामी है तो उन्हें केंद्राधिपति दोष नहीं लगता और वक्री होने की स्थिति में ऐसे ग्रह शुभ फल प्रदान करते हैं। द्विस्वभाव लग्न में गुरु और बुध शुभ ग्रह हैं, गोचरवश वक्री होने पर शुभ फल प्रदान करेंगे। इसी प्रकार मेष लग्न की पत्रिका में शुक्र देव वक्री होने पर अच्छे परिणाम प्रदान करेंगे।
3. जन्म पत्रिका में त्रिकोण भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हैं और वे वक्री हो जाते हैं तो भाव के कारकत्वों के साथ-साथ स्वयं के कारकत्वों की अशुभता में वृद्धि करेंगे। अतः कह सकते हैं कि अशुभ ग्रह मंगल और शनि वक्री होने पर ताकत के साथ अशुभता प्रदान करेंगे।
4. इसी प्रकार यदि कोई ग्रह वक्री होकर अपने शुभ गोचर में है तो वह शुभ फल देगा और वक्री होकर यदि अशुभ गोचर में है तो उससे अशुभ फल प्राप्त होंगे।
प्रतिगामी ग्रहों के विषय में ज्योतिष शास्त्रों जैसे होरा पाराशर इत्यादि में बहुत ही कम श्लोक मिलते हैं। हाँ . . . ताजिक नीलकंठ में ज़रूर ग्रहों के वक्री होने के ऊपर कुछ जानकारी उपलब्ध है। वैदिक ज्योतिष के गणितीय भाग में ग्रहों की गति के गणितीय पक्ष को बताया गया है। इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं की ग्रहों का वक्री होना एक भौगोलिक घटना है। विद्वान ज्योतिषियों के मतों, खोज, अनुभव और स्वाध्याय के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जन्म कुंडली में ग्रहों का वक्री होना सर्वदा अशुभ फल प्रदान ही करेगा ऐसा नहीं है। शुभ अशुभ गोचर और ग्रहों के संबंध के आधार पर हमें शुभ अशुभ फलों की प्राप्ति होती है।
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