द्वादश भाव: एक आध्यात्मिक विवेचना
संजय श्रीवास्तवजन्म कुंडली का द्वादश भाव मोक्ष त्रिकोण के तीन भावों, चतुर्थ, अष्टम और द्वादश में से एक है। इसे मोक्ष स्थान की संज्ञा भी दी गई है। जातक की जन्म पत्रिका का द्वादश भाव अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भाव माना गया है। द्वादश भाव को हम मुक्ति, पूर्ण स्वतंत्रता, त्याग, मोक्ष अथवा देने वाला भाव मानते हैं। किसी भी जन्म कुंडली में द्वादश भाव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाव होता है, जिसका कि जातक के जीवन पर गहरा भौतिक और आध्यात्मिक महत्त्व है। मानव जन्म का अंतिम सत्य मुक्ति है। इस प्रकार कुंडली के प्रथम भाव से लेकर द्वादश भाव तक की यात्रा जन्म से लेकर मोक्ष तक का सफ़र मान सकते हैं। कुंडली का प्रथम भाव जातक स्वयं है उसका व्यक्तित्व है, उसकी आत्मा है। अपने जीवन काल के समस्त कर्मों को भोगते हुए जातक जब जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँचता है तब उसकी अंतिम इच्छा मुक्ति प्राप्ति की होती है। आम बोलचाल में इस मुक्ति से तात्पर्य हम जीवन के उस अंतिम समय से लेते हैं जब जातक अपने सारे कर्म समाप्त कर चुका होता है। हमारे प्रत्येक प्रकार के कर्म के पीछे कुछ ना कुछ अपेक्षाएँ होती हैं, इच्छाएँ होती हैं। किसी ना किसी उद्वेश्य को लेकर हमारे द्वारा कर्म किया जाता है। इस प्रकार मोक्ष के स्थूल स्वरूप को हम मानव जीवन से मुक्ति ही मान लेते हैं। दूसरी ओर यदि हमारे सारे कर्म, कर्म फल की इच्छाओं से मुक्त हों और स्वयं को इस बंधन से मुक्त रखते हुए निष्काम कर्म में जुटे रहें, यही स्थिति वास्तविक मुक्ति अर्थात् मोक्ष है। हम कह सकते हैं कि हमारे कर्म, फल की आशा, अभिलाषा या इच्छाओं से परे हों। यहाँ एक बात और ख़्याल में लेना चाहिए कि मुक्ति के लिए किसी उम्र विशेष के आने का इंतज़ार करने की आवश्यकता नहीं होती। वस्तुतः आप जहाँ हैं, जिस जगह हैं वहीं मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। बस आवश्यकता है तो केवल इस बात की आपके कर्म किसी भी प्रकार से बंधन में बँधे ना हो। फल की इच्छा किए बिना निष्काम भाव से कर्म करते रहना हमारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। यही बात श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कही है . . .
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”
(अध्याय 2 श्लोक 47)
(अर्थात् . . . “तुम्हें कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। अपने कर्मों के फल को अपना उद्देश्य न बनाओ और कर्म न करने में आसक्ति मत रखो”)
आइये इस आलेख के माध्यम से हम द्वादश के आध्यत्मिक पहलू को समझने का प्रयास करते हैं। हमारे कर्मों का मुख्य ध्येय मुक्ति होना चाहिए ना कि इच्छाएँ। हमारी अपेक्षाएँ, हमारी इच्छाएँ ही हमारी मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। किसी विषयवस्तु से अपेक्षा बाँधने का सीधा सा अर्थ होता है कि हमने अपने आप को एक बंधन में आबद्ध कर लिया है। कर्म करने के दौरान यदि हम फल के इच्छित हो गये तो हमारे कर्म निष्काम नहीं रहेंगे। जीवन का सार इसी में है कि हमारे कर्म समस्त प्रकार के बंधनों से मुक्त हों तभी हमें मुक्ति प्राप्त हो सकती है। कुंडली का एकादश भाव इच्छापूर्ति के साथ साथ बंधन का भाव भी है। जब तक हम बंधनों में जकड़े रहेंगे तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है। द्वादश भाव को सामान्यतः “लेने के भाव” के रूप में देखा जाता रहा हैै जबकि वह “त्याग व देने वाला भाव” है। जैसे धन को बाँटना; चैरिटी, दान पुण्य करना; इच्छाओं का त्याग करना; ज्ञान देना इत्यादि। इसे ही व्यय बताया गया है।
द्वादश भाव के स्वामी और द्वादश भाव में स्थित ग्रह की दशा अंतर्दशा आमतौर पर बुरी बताई गई है। और इस दशा अविधि में जातकों को अशुभ फल बताए गए हैं। जातक को इतना डरा दिया जाता है कि वह परेशान होकर उल्टा-सीधा कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। वहीं दूसरी ओर शुभ प्रभाव के अन्तर्गत यह दशा जातक को उसके जीवन की श्रेष्ठ ऊँचाइयों तक ले जा सकती है। इसके लिए जातक के जीवन में आध्यात्मिक चेतना का जागृत होना और जातक की जन्मकुंडली में आध्यात्मिक योग का उपस्थित होना आवश्यक है। ऐसे जातक जिन्होंने द्वादश की दशा अंतर्दशा में अपने जीवन की ऊँचाइयों को स्पर्श किया है वे कभी भी उस विषयवस्तु के पीछे भागे नहीं हैं और ना ही किसी भी प्रकार की योजना उनके द्वारा बनाई गई है। इसका कारण है कि द्वादश भाव में योजना बनाने जैसी किसी व्यवस्था से कोई लाभ नहीं होता है। इस परिस्थिति में केवल और केवल ईश्वर द्वारा निश्चित और प्रदत्त योजनाएँ ही कारगर सिद्ध होती हैं। जब कोई ग्रह द्वादश में जाता है तब वहाँ ग्रह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह बताने का प्रयास करता है कि हम भौतिक स्वरूप में ही ना उलझे रहें और आध्यात्मिकता पर भी ध्यान दें। वह ग्रह हमें आध्यात्मिकता की ओर लेकर जाने का प्रयास करता है परन्तु हम कभी उसे समझ पाते हैं और कभी नहीं। वह ग्रह हमारे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना चाहता है और हम हैं कि सांसारिक मोह माया में ही उलझे रह जाते हैं। कुंडली का द्वादश भाव आपको वह दे सकता है जो अन्य किसी भी भाव से आपको प्राप्त नहीं हो सकता। नियति तो हमारे लिए भटकाव और मुक्ति दोनों ही निश्चित करके रखती है। निर्णय हमारा स्वयं का होता है कि हमें मुक्ति के मार्ग पर जाना है या भटकाव के। हमने देखा कि द्वादश भाव में जो ग्रह जाता है उस ग्रह के विषयवस्तु के सम्बन्ध में हमें व्यय करना होता है अर्थात् ख़र्च करना होता है, ना कि किसी प्रकार के बंधन में बँधना। घटना के घटित होने के बाद हमने अपनी चेतना को जागृत कर उससे सीखते हुए आगे क्या किया। यही हमारा पुरुषार्थ है।
द्वादश भाव संपूर्ण मुक्ति का अनुभव करा सकता है। गहनता से विचार किया जाए तो द्वादश के प्रमुख कारकत्व जैसे अस्पताल, विदेश में निवास, कारावास इत्यादि एक प्रकार से हमारी मानसिक अवस्था का निरूपण मात्र है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से पीड़ित अवस्था में है और अपने आप को एक कमरे में बंद कर लेता है, किसी की नहीं सुनता तो यह अवस्था उस जातक के लिए रुग्णालय की अनुभूति कराता है। कोई व्यक्ति अपने आप को ऐसी जगह में रख ले जिसके बारे में किसी को ज़्यादा जानकारी ना हो। सभी से अपने आप को काट ले। साथ ही अपनों से बहुत दूर हो, मिलना जुलना मुश्किल हो, तब यह अवस्था विदेश को इंगित करती है। अतः हम कह सकते हैं कि अस्पताल, विदेश में निवास, कारावास इत्यादि यह सब हमारी मन: स्थिति ही है और इसे हम ला भी सकते हैं।
अब यदि द्वादश में कोई ग्रह स्थित हो जाता है तब यहाँ जातक का व्यय उस ग्रह के संदर्भ में होने लगेगा। आइए पहले इसके स्थूल तत्पश्चात् आध्यत्मिक पक्ष को द्वितीय, पंचम और षष्ठम भाव के संदर्भ में समझने का प्रयास करते हैं। उदाहरण स्वरूप कुंडली के दूसरे भाव का स्वामी यदि द्वादश स्थान में स्थित होता है तब जातक का व्यय कुटुंब, परिवार, खानपान इत्यादि में होगा। अब थोड़ा गहराई में जाकर, सूक्ष्मता से इसे समझने का प्रयत्न करते हैं। दूसरे भाव से जातक की प्राथमिक घरेलू शिक्षा दीक्षा, बचपन में प्राप्त संस्कार इत्यादि का विचार किया जाता है। ऐसे जातक को बचपन में ऐसे संस्कार मिलेंगे जिसमें वह बहुत ज़्यादा इच्छाएँ नहीं रखेगा और इस प्रकार ऐसे व्यक्ति की मुक्ति का कारण उसको बचपन में प्राप्त संस्कार बनेंगे। उपलब्ध ज्ञान और अध्ययन के आधार पर ऐसा जातक विदेश में जाकर, विदेशी कम्पनी में कार्य कर, अस्पताल इत्यादि से संबंधित कार्य कर धनार्जन करता है। इस भाव के आध्यात्मिक पहलू को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि जिस जातक के पास धन की प्रचुरता हो, धन का आधिक्य होता है तो ऐसे जातक में वैराग्य का भाव पैदा हो सकता है। जैसे जैसे धन का आधिक्य होता जाता है जातक का यह विरक्ति का भाव मुक्ति देने में सक्षम हो सकता है। सामान्यतः यह समझा जाता है कि धन एक भौतिक वस्तु है अतः यह हमें अध्यात्म के मार्ग पर कैसे ले जा पाएगा? ऐसा जातक जिसके पास धन की प्रचुरता होती है उसको किसी चीज़ की अभिलाषा, इच्छा शेष नहीं होती है। इस प्रकार वह इच्छाओं के बंधन से मुक्त होकर कर्म कर सकता है, जो उसके वैराग्य और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। ऐसा जातक यदि अपना धन का सदुपयोग ज़रूरतमंदों की मदद, दान पुण्य इत्यादि में करता है तब उसके पास धन की आवक निरंतर बनी रहती है। इस प्रकार धन की अधिकता भी अध्यात्म का कारण बनती है और उसे मुक्ति प्रदान करने में सहायक बनती है।
पंचम भाव से हम ज्ञान और विवेक को देखते हैं। अब यदि पंचम भाव के स्वामी के द्वादश में जाने की व्याख्या हम भौतिक दृष्टिकोण से करें तो पाते हैं कि इस स्थिति में जातक विदेश में निवास कर शिक्षा प्राप्त कर सकता है, अस्पताल, मेडिकल इत्यादि से सम्बन्धित शिक्षा ग्रहण कर सकता है। अब यदि द्वादश के आध्यात्मिक पक्ष पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि पंचमेश को पूर्णता के साथ, समग्र रूप में प्राप्त करने के लिए हमने जो ज्ञान अर्जित किया है उसको बाँटना होगा जिससे ज्ञान बढ़ेगा। ज्ञान को मुक्ति के भाव से आगे बढ़ाना होगा और उसका प्रचार-प्रसार करना होगा। तब यह ज्ञान, बुद्धि, विवेक इत्यादि और अधिक सूक्ष्म रूप में हमारे अंदर समाहित होता जाएगा। इस प्रकार पंचमेश के द्वादश में जाने पर हमें अपने ज्ञान को अपने से दूर करना होगा और इस प्रकार हम उस ग्रह को मुक्त कर ग्रह की समग्रता को प्राप्त कर सकते हैं। द्वादश भाव गूढ़ विद्या या छुपी हुई प्रतिभा या गुप्त ज्ञान में परिपक्वता का भाव भी माना गया है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित प्रतीत होता है कि यह छुपी हुई प्रतिभा जातक के अंदर अवचेतन मन में समाहित रहती है और विशेष परिस्थिति में ही निकल कर सामने आती है। अवचेतन अर्थात् चेतना से परे, मन की वह स्थिति होती है, वह भाग है, जो सचेत जागरूकता के बाहर रहता है लेकिन यह हमारी भावनाओं विचारों और व्यवहार को प्रभावित करता है। अवचेतन मन को सृजनात्मकता और अंतर्ज्ञान का स्रोत भी माना गया है। द्वादश भाव में स्थित ग्रह अथवा द्वादश की दशा अंतर्दशा में इस प्रकार का ज्ञान निकलकर सामने आता है। पंचम यदि ज्ञान है तो पंचम से अष्टम अर्थात् द्वादश, ज्ञान की गहराई है। इसी प्रकार प्रेम सम्बन्ध, साहित्य सृजन इत्यादि में गहराई भी द्वादश से ही देखी जा सकती है। अतः गहन अध्ययन, रिसर्च, आविष्कार, नई खोज इत्यादि के विषय में द्वादश अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। द्वादश आपके पिछले जन्म को भी बताता है। पंचम भाव हमारे चित्त की जन्म-जन्मांतर की समस्त पूर्व जन्मों की यात्रा है। इसे हम समस्त पूर्व जन्मों का लेखा-जोखा भी कह सकते हैं। जातक के चित्त के ऊपरी सतह पर क्या लिखा हुआ है इसे हम पंचम भाव के कारकत्वों के अध्ययन से समझ सकते हैं, जैसे प्रेम, विवेक, ज्ञान, विद्या, संतति, बौद्घिक क्षमता इत्यादि। परन्तु चित्त के अंदर की व्यवस्था को समझना है तो हमें पंचम से अष्टम अर्थात् द्वादश भाव पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा। इसलिए द्वादश भाव पूर्व जन्म के पुण्यकर्मों के आधार पर सुनिश्चित भाग्य को भी इंगित करता है। यहाँ से एक बात और निकलकर सामने आती है कि जिस प्रकार पंचम ज्ञान है तो द्वादश ज्ञान की गहराई है इसलिए रिसर्च, विभिन्न खोजें, अनुसंधान, सर्जरी, किसी चीज़ को नया जन्म देने की बात आती है तब द्वादश भाव उतनी ही मदद करता है जितना कि पंचम। इसलिए द्वादश भाव को एकदम से बुरा या दुख स्थान कहना उचित प्रतीत नहीं होता है।
इसी प्रकार षष्टम भाव का स्वामी जब द्वादश भाव में स्थित होता है तो सामान्य रूप से हम यह मानते हैं कि जातक का ख़र्च बीमारी में हो सकता है, जातक विदेश में नौकरी कर सकता है या विदेशी कंपनी को अपनी सेवाएँ दे सकता है, अस्पताल, कारावास इत्यादि से सम्बन्धित उसकी नौकरी अथवा सेवाएँ हो सकती हैं। षष्ठम भाव नौकरी को दर्शाता है। छठे भाव के स्वामी की स्थिति द्वादश में हर्ष नामक विपरीत राजयोग का निर्माण भी करती है। अब इसके आध्यात्मिक पहलू पर नज़र डालते हैं और जीवन परिवर्तन के दृष्टिकोण से विचार करते हैं। चूँकि छठा भाव सेवा का भाव भी होता है अतः जातक को निःस्वार्थ भाव से पीड़ित मानवता की सेवा, दीन दुखी और समाज के शोषित वर्गों के प्रति सेवा भाव रखते हुए उनके प्रति कर्म करना चाहिए। इस प्रकार जातक अपने जीवेन में आमूल चूल परिवर्तन ला सकता है और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, अन्यथा उसे भटकाव ही मिलता है। इस प्रकार द्वादश भाव मुक्ति और भटकाव दोनों को ही अपने में समाहित किए हुए है।
ज्योतिष विज्ञान की चर्चा हो और काल पुरुष की पत्रिका का उल्लेख ना हो तब विवेचना आधी अधूरी सी जान पड़ती है। कालपुरुष की पत्रिका में द्वादश भाव मीन राशि द्वारा इंगित होता है। इस राशि का स्वामित्व बृहस्पति के पास है जो देवताओं के गुरु हैं। पवित्र दैवीय प्रेम और स्वर्ग से संबंधित मोक्ष के रूप में शुक्र यहाँ उच्च के होते हैं। सांसारिक बुद्धि के कारक बुध यहाँ नीच के होते हैं। यह राशि अध्यात्म के गूढ़ विषय से और आध्यात्मिकता से संबंधित राशि है। बृहस्पति का मीन में होना जातक को मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। ज्योतिष की जैमिनी पद्धति में भी इसे विशिष्ट स्थान दिया गया है।
द्वादश भाव के अच्छी स्थिति में होने एवं इस भाव के स्वामी की दशा अंतर्दशा आने पर जातक के हृदय में त्याग के भाव पोषित होते हैं। अर्थात्् यदि कोई व्यक्ति उसके साथ कुछ ग़लत या बुरा भी करता है तब वह उसे नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में होता है अर्थात् “जाने दो” का भाव। जब हमारी मनोदशा इस प्रकार की बन जाती है कि हम लोगों की बातों का बुरा नहीं मानते हैं और उससे प्रतिशोध की भावना नहीं रखते हैं, इसका तात्पर्य है यह है कि हमारा द्वादश भाव श्रेष्ठ कार्य कर रहा है। इसका सही अनुभव हम द्वादश भाव के स्वामी की दशा अंतर्दशा आने पर बड़ी आसानी से कर सकते हैं। किसी भी कर्म के पूर्व हमारा सामना हमारी मनोस्थिति से होता है। मन की स्थिति विचार को जन्म देती है और यही विचार हमारे कर्म में रूपांतरित होता है। अंततः हमें कर्मफल की प्राप्ति होती है। अक्सर ज्योतिषी यह कहते पाए जाते हैं की सभी कुछ पहले से तय है सभी कुछ पहले से ही लिखा हुआ है। अब यदि यह मान भी लिया जाए कि सब कुछ पहले से ही लिखा हुआ है तो फिर हमारे पुरुषार्थ का क्या? . . . जो हम जीवन भर करते हैं? ईश्वर द्वारा प्रदत प्रज्ञा अथवा दैवीय ज्ञान का क्या? . . . भगवान हमें ज्ञान इसलिए देते हैं कि हम अपने कर्मों को काट सकें। वास्तव में हमारे पुरुषार्थ और ईश्वर का दिया विवेक ही इस स्थिति से हमें मुक्ति दिलाता है और हम सही समय पर उचित पुरुषार्थ कर अपने कर्मों को काटकर एक नई दिशा प्राप्त कर पाते हैं। इसे कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है कि जिस प्रकार लग्नेश यदि षष्ठम में जाता है तब हम रोग की बात करते हैं। यहाँ दैवीय ज्ञान ज्योतिष यह कहता है कि हम रोग की बात क्यों करते हैं, सेवा की बात क्यों नहीं करते हैं। सेवा भी तो छठे भाव का कारक तत्त्व है। मोटे तौर पर हम किसी भी भाव से संबंधित घटना के होने की जानकारी तो प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु यह हमारा स्थूल आकलन ही होता है। सटीकता के साथ भाव से सम्बद्ध घटना का निर्धारण दुष्कर कार्य है। ज्योतिष शास्त्र, भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच एक पुल की भाँति कार्य करता है। कहीं ना कहीं जातक को अपना पक्ष स्पष्ट करना ही होता है कि वह जीवन में भौतिक स्वरूप के साथ है अथवा आध्यात्मिक स्वरूप के। हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा कुंडली के माध्यम से जीवन चक्र को बेहद ही सरलता से समझाने क प्रयास किया है। जीवन के भौतिक स्वरूप और विषय वस्तु का उपभोग करते हुए ही जातक मुक्ति के भाव तक पहुँच पाता है। लग्न भाव से अपनी यात्रा प्रारम्भ करते हुए समस्त भौतिक सुख सुविधाओ का उपभोग करते हुए ही जातक आध्यात्म को समझ पाता है। अन्यथा भौतिक सुखों की लालसा को साथ लिए कभी भी जातक अपनी आध्यात्मिक यात्रा की पूर्णता और सफलता को प्राप्त नहीं कर पाता है। द्वादश भाव हमें अपनी चेतना को जागृत कर अध्यात्म की राह पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
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