छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

हमारा घर - मुसीबतों का घर

“बस ऐसे ही पूरा गाँव नीचे को धँस गया। जो बचा वो बाढ़ में बह गया।” दादी अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाकर फिर तेज़ी से नीचे की ओर लाती हुई अक्सर हमें यह वाकया सुनाया करती। हम दहल जाते।

“गाँव तो अब भी है। बापू देवी माँ की मन्नत जो उतारने जाते हैं वहाँ।”  मैं कहता।

“है तो सही। जहाँ अब टीला है, पहले वहाँ गाँव होता था। अब तो गाँव दूसरी ओर बसा है ।” दादी कहती। फिर थोड़ा रुककर बताने लगती, “तेरे बाबा के गोत्र के नत्थू की औलाद है यह सारा टब्बर । तेरे बाबा की एक बहन थी ।”

“और तेरे सास-ससुर?”

“तुझे पहले भी कई बार टोक चुकी हूँ कि ज्यादा छानबीन न किया कर।” वह डाँटकर मुझे चुप कराने की कोशिश करती।

“माँ, तेरे ससुर का क्या नाम था?” मैं ख़ुशामद करता। उसे जैसे इसमें कोई रहस्य प्रतीत होता। वह अपनी आख़िरी उम्र में भी अपने स्वर्गीय ससुर का नाम मुँह से नहीं लेना चाहती थी। मैं फिर विनती-सी करता- “माँ, बता न।”

“सुदागर।” वह झिझकते हुए बताती, फिर बोलती, “यूँ तो अपने बुजुर्गों का पता होना चाहिए। तेरा पड़दादा फौज में था।”

“फौज में?”

“और नहीं तो क्या। किसी अंगरेज़ अफ़सर का अहलकार था।” वह मैल जमी ऐनक की दाईं ओर की टूटी हुई डंडी की जगह पर बाँधी डोर पर हाथ फेरती और ऐनक को नाक पर अच्छी तरह टिकाती।

 “अच्छा!”

 “उसे मुरब्बा ज़मीन मिली थी। पर मामला भरा नहीं और ज़मीन.....।”

 “क्या हुआ फिर ज़मीन का?”

 “तेरे पड़दादे को कुछ रिश्तेदारों ने और कुछ अपनों ने फुसलाकर, अपने हाथों में कर लिया और सारी जायदाद हड़प ली। पता नहीं काग़ज़ों में क्या-क्या लिखवा लिया।” दादी सारी बात संक्षेप में सुनाकर खत्म कर देती, जो आज भी मेरे मन में अपनी जगह बनाए बैठी है।

 “और यह घर?” मैं अपने घर के विषय में बात करता।

 “यह तो तेरे बापू के ननिहाल वालों की जायदाद है। उसके मामे की औलाद नहीं थी। निपूता कहलाने के डर से वह तेरे बापू को बचपन में ही अपने पास ले आए थे। कुछ समय बाद ही बाकरपुर पंडोरी (ज़िला होशियारपुर का एक गाँव जो होशियारपुर-टांडा सड़क पर स्थित है, सरकारी काग़ज़ों में इस का नाम पंडोरी मैल-पत्ती बाकरपुर है) गाँव बरबाद हो गया था।”

मैंने हिसाब लगाया कि कुदरत का यह कहर १८६० के बाद और १८६६ से पहले टूटा होगा। शिवालिक की पहाड़ियों का बरसाती पानी इसी निचले इलाके की ओर बहता है। परिणामस्वरूप होशियारपुर जिले में तेज़ बहावों से बहते नालों के बाँध टूट जाते हैं और दुआबे के बहुत सारे गाँव इनकी चपेट में आ जाते हैं। इन नालों की संख्या अधिक होने के कारण यह मुहावरा प्रचलित है- ‘बारां कोह ते अठारां चो”‘ (बारह कोस और अट्ठारह नाले)।

लगभग साढ़े तीन मरलों मं बने हमरे इस घर की न किसी से पीठ लगती है और न ही इसकी कोई दीवार किसी से साझी है। उत्तर की ओर मेरे दादा के मामा के बेटों के घर को जाती कच्ची गली है। घर के माथे यानी पश्चिम की ओर बड़ा रास्ता और पूरब-पश्चिम में गाँव की प्रमुख बड़ी गली है।

भारत की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार हमारा मुहल्ला भी हमारे गाँव माधोपुर के पश्चिम की ओर है। बाबा छज्जू (मेरे दादा के मामा का बेटा) के एक घर को छोड़कर बाकी सभी घर कच्चे थे। इसके दक्खिन दिशा की ओर हमारा घर था, और है। गाँव को जाती जट्टों की गली के मोड़ पर यह पहला घर है जिसके कारण जट्टों से, खेतों के काम के बारे में बातें होती रहती थीं।

 “ठाकर, बात सुनना।”

बापू तेज़ी से बाहर वाले दरवाज़े पर चला जाता। आवाज़ देने वाला कई बार मेरी उम्र का मेरे संग स्कूल में पढ़ने वाल लड़का भी हुआ करता। जट्टों के कम उम्र के सभी बच्चे मेरे बापू को उसका नाम लेकर ही बुलाते थे।

 “ ‘बाबों’ का जैब लगता है या’ ‘साधों’ का मीता होगा। ‘बंब’ तो हो नहीं सकता।” हाक मारकर बुलाने वाले का हम अंदर बैठे-बैठे अंदाज़ा लगाते।

 “‘मंतरियों’ का बख्शा था।” बापू आकर बताता- “कह रहा था अगर ‘पक्के वालों’ की मूंगफली खोद ली हो तो हमारे तांगड़ तोड़ दो कल।” इस प्रकार हम उपनाम का प्रयोग व्यक्ति के नाम से पहले किया करते। दादी अपनी निगाह बाहर वाले दरवाज़े पर टिकाए रखती।

कई बार बातचीत के दौरान मैं उसके साथ अपने दादा के बारे में बात करता ताकि उसके बारे में पता लग सके। वह चुप हो जाती। पर बापू बात को संभालता, “भई मुझे थोड़ा-सा याद है। हमारा बापू बहुत काला था, बड़ा ऊँचा-लम्बा और तगड़ा था। इतनी-इतनी तो दाढी थी। कहते हैं उसे बातें बनानी बहुत आती थीं, बहुत मज़ाकिया था।”

 “माँ, कुछ तू भी बोल।” मैं बीच में टोककर कहता।

 “माँ तो बापू पर रौब ही रखती रही है, बोले कैसे।” बापू बताता।

 “अंगरेजों जैसी गोरी और जवान होने के कारण।” मैंने दादी के पास बैठे-बैठे कहा था।

 “हाय कमबख़्तो, पास बैठकर हुज्जतें करते हो।” वह एकदम भड़क उठी। ऐनक संभालते हुए उसने जूती उठाई ।  इतने में मैं रफूचक्कर हो गया था।

....और इस घर में मेरी दादी ने सात बच्चों को जन्म दिया। यानी मेरे तीन ताऊ, तीन बुआ और आख़िर में जन्मा मेरा बापू। यहीं पर उसने अपनी चारों बहुओं के सिर पर पानी वार कर पिया और दो बेटियों की डोली विदा की थी। एक बुआ, भरी जवानी में ही बुखार से मर गई थी।

मेरी ताइयों की कोख हरी होती गई। घर का आँगन बच्चों से भरता चला गया या यूँ समझो कि सिकुड़ता चला गया। गुज़ारा न होने पर, हमलों (भारत-पाक बंटवारा) के बाद, गाँव के एक जट्ट से घर के नज़दीक ही ज़मीन खरीद ली गई। बापू के हिस्से यह पुश्तैनी घर आया।

हमारे घर के पिछवाड़े में चार खानों की एक कोठरी थी जो हमेशा अँधेरे में डूबी रहती। इसकी छत शहतीरों, कड़ियों और सरकंडों की बनी थी। इस पर चूहे रात-दिन छुआछुई का खेल खेला करते, टक-टक किया करते। मिट्टी झरती, हम ‘शी-शी’ करते तो वे तेज़ी से दौड़कर अपने बिलों में छिप जाते। कई बार तो हम उनके संग एक तरह से खेलने ही लग जाते।

हमारी कोई भैंस थोड़ी-थोड़ी देर बाद भीत में सींग मारती। भीत को कोई नुकसान न पहुँचे, इसलिए बापू ने अपनी खड्डी की पुरानी तुर (खड्डी पर कपड़ा बुनते मय जिस चौरस लंबी लकड़ी के ऊपर थान लपेटा जाता है) भीत के साथ सीधी करके गाड़ रखी थी। भैंस इस पर ठक-ठक सींग मारती रहती। बापू आधी रात में भी ऊँचे स्वर में उसे कोसता, “कंजर की, तेरी चमडी उधेड़ दूँगा। अब तो रुक जा, सो लेने दे।” कभी मेरी आँख खुल जाती तो देखकर हैरान रह जाता कि भैंस बापू की बात मानकर सींग मारना बंद कर चुकी होती। लेकिन, कई बार वह अपनी इस आदत की वजह से बापू से मार भी खाती। बापू उठकर उसकी धुनाई भी कर देता।

जाड़ों में दादी की चारपाई इसी कोठरी में हुआ करती। सारे पशु इसी कोठरी में बाँधे जाते थे। पेशाब की दुर्गन्ध दालान तक आती थी। बकरियों की मेंगन टप्पा खाकर कोठरी के दरवाज़े की दहलीज तक आ जातीं।

गर्मियों में जब सूरज आग बरसाता, बाहर कौए की आँख निकलती, तो इस कोठरी की ठंडक में बैठने-सोने का कुछ अपना ही मज़ा होता। बड़ा भाई, ताऊ का बेटा मद्दी और मैं दादी की चारपाई पर रखे कपड़े-लत्तों पर अधलेटे से पड़े रहते। कोठरी में बंधी रस्सी पर पड़े खेस और रजाइयों को झूले की तरह झुलाते रहते। दोपहर में यहीं बैठकर रोटी खाया करते। अपनी माँ से कहते, ‘सीबो, रोटियों पर लूण-मिरच लगा दे।’

 “दे मामों को परांठे पकाकर। जब देखो, मारे भूख के मरे जाते हैं। मैं तो कहता हूँ, दो आलू भूनकर मार माथे इनके।” बापू अपनी आदत के अनुसार कहता।

माँ हमें कभी प्याज़, गुड़, राब, अचार या फिर लस्सी के खट्टे के साथ रोटी दिया करती। कई बार हम रोटी छाबे में पड़ने ही न देते और खुद ही रसोई में घुसकर तवे पर से उतरती रोटी उठा लाते। माँ चिल्लाती, “जरा सबर भी करो। हाथ जल जाएगा। इतने उतावले क्यों होते हो। घड़ी भर बाद फिर हाँक लगाओगे-सीबो, रोटी दे।”

दूसरों की तरह हम भी अपनी माँ को उसका नाम लेकर ही बुलाया करते थे। सुच्चा-जूठा तो हमारे घरों के शब्दकोश में था ही नहीं।

जाड़े में और मार्च-अप्रैल के महीनों में अनाज की तंगी कुछ ज्यादा ही हो जाती। इसका एकमात्र विकल्प गन्नों के पकते हुए रस से उतारी गई मैल होती। गाँव से काफ़ी हटकर ‘मंतरियों’ और ‘तजरबियों’ के कोल्हू पर मैल लेने के लिए कभी बड़ा भाई और कभी मैं जाता और कई बार दोनों इकट्ठे।  वहाँ भट्टी पर कई कुत्तों का पक्का डेरा था। जब हम बाल्टियाँ रखते तो वे एक-दूजे से आगे-आगे आते। बाल्टियों में मैल डालने से पहले भट्टी में ईंधन झोंकने वाला आदमी एक डोई भर कर दूर फेंकता। कुत्ते उसे जल्दी-जल्दी अपनी जीभों से चाटने लगते। चन्नू का साहब और सोहण, दोनों बाल्टियों सहित प्रायः कोल्हू पर ही मिलते।

हम छोटी मगर भरी हुई लोहे-पीतल की बाल्टियों को बड़ी होशियारी से इस तरह उठाकर लाते कि मैल छलक कर हमारी टांगों या पैरों पर न पड़ जाए। कुत्ते हमारे पीछे-पीछे चलते रहते। हम गर्दन घुमा-घुमाकर पीछे की ओर देखते और कुत्तों को आँखें तरेरते। बाल्टी को दूसरे हाथ में पकड़ने के समय हम थोड़ा दम मारते तो वे भी रुक जाते। हम अपने घर के पास पहुँचते तो वे पीछे लौट जाते।

मैल ढोते समय मुझे बड़ी शर्म महसूस होती। सोचता कि पंछी की तरह उड़कर अपने घर पहुँच जाऊँ, राह में मुझे कोई न देखे और न ही मुझे कोई मिले। जब कभी संग पढ़ने वाला कोई लड़की-लड़का मिल जाता तो मैं मुँह दूसरी ओर घुमा कर तेज़ कदमों से वहाँ से गुज़र जाता। मैं अपनी माँ और बापू से अपने मन की दुविधा बताता। बापू एकदम टूटकर पड़ता, “मैल पीने के वक्त तो कहता है सारी मुझे ही दो!....और तू क्या अकेला जाता है?.....सारा चमार मोहल्ला लाता है। हम सिर पर मैल की चाटियाँ रखकर सारे रिश्तेदारों को पहुँचाते थे। कहाँ बसीमूदा और कहाँ बजवाड़ा।” (ज़िला होशियारपुर के दो गाँव-बसीमूदा और बजवाड़ा जो माधोपुर से ३०-३४ किलोमीटर के फासले पर स्थित हैं।)

माँ बीच में टोकती, “क्यों जबान गंदी करता है और पाँच-सात बरस में जवान हो जाएँगे, खुद ही काम-धंधा करने लग जाएँगे ये।”

 “फिर सालों ने पता नहीं कटी उँगली पर मूतना भी है कि नहीं। यही मामा ज्यादा बिगड़ा हुआ है। बड़े को जहाँ चाहो, भेज दो।  आगे से जवाब नहीं देता, चुपचाप चला जाता है।”

ऐसे ही, एक दिन बड़े भाई ने हड़बड़ाते हुए कहा था- “अपनी थाली इधर ले आ, मामा आ या।”

हमने फुर्ती से अपनी थालियाँ-छन्ने कोठरी में भैंस के लिए बनाई हुई छोटी-सी नांद में छिपा दिए। उस समय (सन् १९६४) मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था। हमारा एक आई.ए.एस. मामा दुपहरी में कार में आया। हमने चावलों में सानी हुई मैल कोठरी में ठंडी होने के लिए रखी हुई थी। अगले वर्ष तो अकाल ही पड़ गया। दूसरा, पाकिस्तान से जंग छिड़ गई। लोग अन्न के लिए इधर-उधर हाथ मारने लगे। सरपंच और नंबरदार की अहमियत औ धिक बढ़ गई थी।

अनाज के अकाल के बाद भी हम पर और हमारे लोगों पर पड़ी स्थाई आफ़त के कारण मैल पीने का सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा, भले ही मैंने हाई स्कूल भी पास कर लिया था।

जट्टों के बच्चे और मेरे हमउम्र मुझे ‘मैल पीणा’ कहा करते। जब कभी ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो जाती तो वे ‘चमार-माँ के यार’ जैसा काव्यात्मक फ़िकरा भी कसते। हम में से कोई भी तीखा विरोध न कर पाता।

 

गर्मियों में कोठरी के ठंडा रहने का एक कारण उसकी कच्ची दीवारें थीं तो दूसरा गाँव के अंदर की ओर जाती गली की नाली और बरसात के उफनते पानी के बचाव के लिए दीवार के साथ बनी मिट्टी की एक बड़ी ऊँची खंदक थी। इस पर हरी और घनी घास फैली थी जैसे किसी लॉन में मिट्टी को ऊँचा-नीचा आकार देकर एक ख़ा शक्ल दी गई हो।  बरसात के दिनों में इस ओर की भीत में सीलन ऊपर तक चढ़ जाती, जिसकी दुर्गन्ध नाक में चढ़ने लगती।

सावन में मूसलाधार बारिश के दौरान हमारे घर की छत पर भरपूर हरियाली हो जाया करती। फुट, डेढ़-फुट के करीब ऊँचे तिनके और फुँदनों वाली घास के साथ-साथ ज़मीन से लग कर फैलने वाली बूटी भी खूब फैल जाती। थोड़ी दूर किसी अन्य छत पर से देखने पर यूँ लगता मानों बरसीन के दो क्यारे हों क्योंकि दालान और कोठरी की छत चाहे साथ-साथ थी पर बीच की छोटी-सी मुँडेर उन्हें अलग करती थी।

चींटियों ने काफ़िलों के रूप में छत के नीचे-ऊपर आने-जाने के लिए दीवारों में बेरोक रास्ते बनाए हुए थे। जब कभी खूब मूसलाधार बारिश होती तो छत से पानी की धारें बहने लगतीं। हम धार वाली जगह पर बड़े बर्तन रख देते। जहाँ कहीं टप-टप पानी चूता वहाँ छोटी-बड़ी कटोरियाँ और गिलास रख देते। कई बार घर के बर्तन भी पूरे न पड़ते और टपकता हुआ पानी जगह-जगह छोटे-छोटे गड्ढे बना देता। यह सारा पानी दालान के पश्चिम में इकलौते दरवाज़े की दहलीज के पास वाली नीची आयताकार जगह में भर जाता। मैं, बड़े भाई के संग इसे बड़े चाव से चुल्लू में भरकर बाहर फेंकता। इसी दौरान कभी मुझे या बड़े भाई को तेज़ आँधी-पानी में छत पर से टपकते पानी को रोकने के लिए कुर्ता उतारकर ऊपर चढ़ाया जाता। मैं छत की मुँडेर के पास नीचे की ओर मुँह करके पूछता, “हो गया बंद?”

 “नहीं, अभी नहीं।” घर का कोई सदस्य ऊँची आवाज़ में बोलकर बताता।

 “ले, यह रख!” बापू आँगन में से गीली मिट्टी का लोंदा पकड़ाता।

 “साले, बहुत बहन मरवा ली, अब तो बस कर ।” बापू बारिश और रब पर अपनी भारी-भरकम गालियों की बौछार करता।

 “क्यों बकावाद करके मुँह गंदा करता है। हम भी लोगों के संग हैं। तेरे कहे रुक जाएगा भला।” मेरी माँ समझाने के लहजे में कहती।

 “पूरब दिशा वाले सारे घर पक्के हैं। उनसे हमारा क्या मुकाबला? वो दो कनाल ज़मीन गिरवी रख दें तो और पक्का कोठा डाल सकते हैं।” थोड़ा रुककर फिर कहता, “मेरा तो इरादा है कि आँगन में सिरकी लगा लें।”

 “सिरकी भी लगा ले। अगर विध माता ने हमारे करमों में यही सब लिखा है तो फिर क्या कर सकते हैं?” माँ दिलासा देती।

 “साली विध माता का कहर सूखे-बरसात में हमी पर गिरता है। बाकी मुल्क भी तो यहाँ बसता है। चल, छोड़!” बापू दरवाज़े में से बाहर निकलकर आशा भरे स्वर में कहता, “बादल फट गया सीबो, अब बारिश हल्की हो जाएगी।”

एक बरसात के दौरान आँगन में बाजीगरों की कुटिया जैसी सिरकी भी लगाई गई। बारिश के पानी के कारण अंदर बैठने-खड़े होने के लिए जगह ही नहीं बची थी।

बापू को जैसे कुछ याद हो आता, उदास-सा होकर वह कहता, “हमने आदमपुर की नहर खोद डाली, अम्ब के थाने तक सड़क बना डाली, पर मुझसे साला चार खाने का कोठा नहीं बन सका।”

कुछ देर बाद वह चारपाई के नीचे से खुरपी-दरांती निकाल कर छत पर चढ़ जाता। खुदाई-कटाई करता। बारिश की बूँदाबाँदी की तरह उसकी श्लोकवाणी जारी रहती। वह घास-बूटी को जड़ से उखाड़ता, साथ ही बेहया गालयँ निकालता- “कैसे चार दिनों में ही फैल गया माँ का खसम!”

जब बादलों को चीरकर निकली तेज़ धूप पड़ती तो गाँव की ओर की भीत ढह जाती। ऐसा हर साल होता या एक साल छोड़कर। साथ वाले खाने के तिड़के शहतीर के नीचे की टेक किसी भरोसे की गवाही भरती दिखाई तो देती, पर पारे की भाँति डोलते हमारे मनों की घबराहट में कोई कमी न होती। गिरे हुए मलबे में से अनगिनत चींटियाँ, ततैये, टिड्डियाँ, कनखजूरे और छिपकलियाँ इधर-उधर दौड़ कर छिपते फिरते। गाँव के लोग हमदर्दी जताते हुए कहते-”चल ठाकर, दीवार तो फिर बन जाएगी। शुकर मना कि घर के लोग बच गए।”

कभी कोई भीत गिर पड़ती तो कभी कोई। जिस बरस कोठे की भीत न गिरती तो आँगन को घेरे खड़ी भीत गिर जाती जिसके नीचे की मिट्टी को कल्लर खा चुका होता और जिसके चलते वह हिस्सा ऊपर वाले हिस्से से काफी पतला हो चुका होता। बापू फिर मिट्टी के ‘गड्डे’ भर कर लाता, फिर भीत कूटी जाती।

 “फौरन बाहर निकल आओ। बीच वाली शहतीर बैठ गई है।” बापू ने एक बरसाती रात की सुबह पौ फटने से पहले ही हमें सचेत करने के लिए ऊँचे स्वर में शोर मचाते हुए आवाज़ लगाई।

मिनटों में ही सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया।

 “रब का शुक्र मनाओ कि जानें बच गई। ठाकर, अब शहतीरों के नीचे खम्भे बनवा ले जैसे-तैसे।” कोई सलाह देता।

बापू, ‘बहरों’ के सुरजीत सिंह से गरज मुताबिक रुपया-पैसा ले आता और भोगपुर जाकर परनोट पर अँगूठा लगा आता। सुरजीत सिंह साहूकारी करता था। उसकी बड़ी बहन ज्वाली जब गली में से गुज़रती तो हम सब बच्चे उसके पीछे जाकर एक-सुर में कहते- “ज्वालिए दे चरखे नूं गेड़ा.....।” वह अनब्याही थी और अमृत छककर निहंगों वाला बाना पहनती थी। वह ईंट-पत्थर उठाकर मारने को दौड़ती पर, मारती कम ही। कहती- “तुमसे ज्वाला सिंह नहीं कहा जाता?......मैं अब नहंग नहीं लगता?”

बरसात के बाद दशहरे के आसपास हमारे घर के निकट वाले बरगद-पीपल के नीचे गधे रेंकते। साथ ही, हाँक सुनाई देती- “गोलू मिट्टी ले लो.....गोलू मिट्टी.....।”

बूढ़ी औरतें एकत्र हो जातीं। मोलभाव होने में काफी समय लग जाता। पहाड़ की ओर से आया बारू चमार या ब्यास दरिया पार से आया फेरी वाला कुम्हार बताता, “बहन, इस गधे की दोनों खोंचें रास्तगो में खाली करके आया हूँ।”

मेरी माँ सहित मोहल्ले की मेरी चाचियाँ, ताइय गोलू ख़रीद लेतीं। माँ ने पहले ही गिरी हुई मिट्टी की पपड़ियों की जगह को मिट्टी के लौंदे लगा कर भरा और लीपा होता। उसे शेष दीवार से इस तरह एकमेक, इकसार किया होता कि बहुत बार पता ही नहीं चलता कि पपड़ी कहाँ से गिरी थी। कहाँ से कच्ची ईंटों की चिनाई वाली सामने की दीवार नंगी हो गई थी। जब माँ इस पर गोलू मिट्टी का दोहरा लेप लगा चुकती तो कुछ देर बाद स्वयं से कहती, “चल मना, दीवार भी सूख गई और लेप भी अधसूखा हो गया।”

फिर वह तवे के पिछले हिस्से की कालिख पर गीला किया हुआ अपना दायाँ हाथ घिसती और फिर ‘ठां-ठां’ करके दीवारों पर छाप देती। मैं उसकी नकल करता और अपने छोटे-छोटे हाथों की छाप देखकर खुश होता।

ऐसे समय, बापू भी कभी-कभी बाहर से आ जाता।

 “ले, नज़र से बचाने का काम भी खत्म।” माँ की यह बात सुनकर बापू मुस्कुराता। उसके बारीक और छोटे दांत बरबस दीखन लगते।

 “साले इस कोठे का तकरीबन हर साल झंझट रहता है। पता नहीं कब इससे छुटकारा मिलेगा?” बापू शिकायती अंदाज में कच्चे कोठे की न खत्म होने वाली कहानी को समेटता।

 “दिन हमेशा एक से नहीं होते।” माँ ढलते सूरज की किरणें पकड़ती प्रतीत होती।

कोठरी के एक कोने में माँ के दहेज वाली एक छोटी पेटी रखी हुई थी जिस पर मोर-मोरनियाँ, उनके बच्चे, फूल, बेलें तथा अन्य कई प्रकार के बूटे बन हुए थे ये सब सलेटी, हरे, लाल तथा काशनी रंगों से बनाए गए थे। इस पेटी में एक अन्य संदूकची हुआ करती थी। उस पर भी ऐसी ही चित्रकारी थी।

जब मेरी माँ पेटी खोल कर उसमें से कोई चीज निकालती तो कई बार मैं और मेरा बड़ा भाई वहाँ खड़े होते। हमें दादी और माँ के सूफ़ के काले घाघरे दिखाई देते। हम उन्हें फैलाते तो वे तंबुओं जैसे दिखाई देते। तीलियों और तिनकों पर रंग-बिरंगी धारियों से फुलकारीनुमा कढ़ाई किया हुआ बड़ा-सा पंखा दिखाई देता। उसे निकाल कर हम बारी-बारी से हवा करते। उसके तीनों ओर गुलाबी कपड़े की झालर लगी होती थी। डंडे की ओर उसके ऐन नीचे चौकोर आकारवाली जगह, बड़ी जुगत के साथ डंडा हाथ में पकड़ने के लिए छोड़ी हुई थी। जब जोर से हवा करते तो दालान की पांवों तले की मिट्टी भी उड़ने लग जाती। विवाह या किसी की मृत्यु पर जब लोग इकट्ठा होते, यह पंखा गाँव के कई घरों में जाता। पांतों में बैठे बराती या किसी की मृत्यु पर आए लोग, इस पंखे की हवा लेते।

पेटी के करीब ही बड़े मटके, घड़े, हाँड़ी, कुज्जे आदि टेक लगा कर रखे होते। उनमें भांत-भांत का अन्न, गुड़, शक्कर, दालें, रोटियों के सुखाए गए टुकड़े वगैरह रखे होते। सबसे ऊपर वाले बर्तन में नमक होता, जो ढक्कन से ढका होता। उन बर्तनों में से किसी एक में बापू देसी शराब की बोतल छिपाकर रखता। जब कभी वह पैग लगा लेता तो अपनी छोटी-छोटी मूँछों पर हाथ फेरता। बीड़ी पीता। माँ से कहता- “तेरी बात सही है भई, दिन जरूर फिरेंगे। तगड़े होकर ये खुद-ब-खुद बोझ उठा लेंगे। सीबो, धरम से कहता हूँ, तेरी बातों से मेरा हौसला बुलन्द हो जाता है।”

पेटी की बगल में ही एक कच्ची कोठी थी जिसमें दुनिया भर का छोटा-मोटा सामान ठुंसा पड़ा होता। यहाँ रखे कुठले में दादी गाँव की जट्टनियों से मिला हुआ गुड़, शक्कर या राब से भरी कटोरी रखती थी और इसकी छोटी खिड़की की कुण्डी में बड़ा-सा ताला लगाकर चाबी अपने दुपट्टे के पल्लू में बाँध लेती थी। कई बार वह दीये की रोशनी में कोठी में से चीजें ढूंढा करती।

कोठी के नीचे और ऊपर बापू का जूती बनाने का सामान रखा होता जिसमें कवाई, कलबूत, रंबी, कुंडी, फरमे, जमूर और हथौड़ी हुआ करती। मैं कई बार इन औजारों से खेलता। बापू भड़क कर मुझसे इन वस्तुओं को छीनता और गालियाँ देता । कई पड़ोसी जट्ट और झीर ये औजार माँगकर ले जाते। वे कील, मेख, खुरी आदि खुद ही ठोक लेते।

 “अगर मैं उस वक्त भाइये (मेरा फूफा गुलजारी लाल) से लाहौर में पूरा काम सीख लेता तो कारीगर बन जाता। शहर में किसी पेड़ के नीचे बैठकर पैसे कमाता। अब जैसा, जट्टों का गुलाम न होता।” इन औजारों को देख कर बापू अपनी यह दास्तान किसी अभाव की तरह शुरू कर देता।

कोठी के करीब एक कोने में चक्की हुआ करती थी। जब मैं बहुत छोटा था, मेरी माँ इस पर पूरे परिवार के लिए आटा पीसा करती थी। साथ में गाती-

 “पुत्तां नूं देंदा बाबल महल ते माड़ियाँ

धीआँ नूं देंदा देस पराये

वे मेरे धरमियाँ बाबला...-” (बेटों को देता पिता महल और माड़ियाँ, बेटियों को देता पराए देश, ओ मेरे धर्मात्मा पिता)

वह अपने नए जनेपे से पहले ही अपने लिए सौंफ, सोंठ, छोले, गेहूँ और अन्य कई चीजें पीसकर रख लेती। बाद में बापू उन्हें भूनकर देसी घी में मिलाता-इसे हम‘गजा’कहा करते। एक के बाद एक जन्मी मेरी चार बहनें और एक भाई के जन्मों के समय मुझे भी यह खुराक खाने का अवसर मिलता रहता।

ग्रीष्म की एक दोपहरी को बापू किसी जट्ट के खेत में आधी दिहाड़ी लगाकर घर लौटा था। उसके बाँयें कंधे पर साफा लटक रहा था और उसके ऊपर फावड़ा था। माँ खाट पर कुछ ही समय पहले जन्मी मेरी दूसरी बहन के साथ लेटी हुई थी और उसने माथे पर दुपट्टा बाँध रखा था। पास ही मैं खेल रहा था। बापू ने दालान में घुसते ही आँख के इशारे के साथ-साथ मुँह से बोलकर पूछा- “क्या हुआ?”

 “लड़की !” माँ ने बताया।

 “दुर फिटे मँह तेरे।” बापू ने मुँह बनाया।

 “लड़का पैदा करना मेरे हाथ में है क्या?” माँ ने बेबसी भरे स्वर में कहा। मुझे लगा कि बापू इस बार बेटे की आस लगाए बैठा था। उसने फावड़ा नीचे रखा और तेज़ी से खुरे की ओर हाथ-मुँह धोने चला गया। पर मुझे रुई जैसी नरम छोटी बहनें अच्छी लगतीं। मैं उन्हें कभी गोद में उठाता कभी कंधे पर। उनसे लाड करता, उन्हें गुदगुदाता। छी-छी करके हँसाता। वे भी किलकारियाँ मारतीं ।  मैं उन्हें झुलाने के लिए उतावला रहा करता।

माँ को जब लीड़े-कपड़े, पोतड़े या चूल्हे-चौके का कोई काम करना होता तो दालान में हमेशा बिछे रहने वाले अपने दहेज के बड़े पलंग की बाही (पाटी) से अपना दुपट्टा या साफा बाँधकर झूला बनाती और उसमें नव-जन्मी मेरी बहन को लिटा देती। मुझसे कहती- “बेटा, इसे झुलाते रहना, रोने न पाए। मैं दाल चढ़ा दूँ चूल्हे पर और कुएँ से पानी के दो डोल भर लाऊँ।”

मेरी माँ को मेरी तीसरी बहन के जन्म के बाद सूतकी का ताप चढ़ गया जो धीरे-धीरे मियादी बुखार में बदल गया। उसके सिर के बाल झड़ने लग गए और डेढ़-एक महीने में काफी झड़ गए। फिर वह गंजी हो गई। वह सिर पर दुपट्टा या कोई कपड़ा बाँधकर रखा करती। उसके दुबले शरीर के कारण आँखें और चेहरा डरावना-सा हो गया। बुखार टूटने में ही नहीं आ रहा था। बूढ़ी-बुजुर्ग औरतें आतीं, पूछतीं, “गंगो (दाई) क्या कहती है, ठाकर? जैसा बताती है, वैसा ही करता जा।”

बापू हममें से किसी को कहता, “ये मूढ़ा चाची को दे।”

धान की फूस के मूढ़े बापू खुद ही बना लेता था । चौरस या गोल-गोल। पहले वह फूस को छाँट कर इसकी रस्सियाँ बटता था।

 “कधाले (कंधाला जट्टां) वाले चरंजी लाल (मशहूर हकीम) के पास करूरा लेकर गया था परसों। कहता था- माता(चेचक) निकल आई है। हम तो पहले तेइया ताप ही समझ रहे थे।” बापू खबर लेने आए लोगों को बताता। उसका चेहरा चिन्ता में फीका-सा हो उठता।

 “अभी तो छोटे-छोटे बच्चे हैं...-रब ठीक करेगा...-सीबो हौसला रख। देह को रोग लगा ही करते हैं...-तगड़ी हो, उठ कर बच्चे संभाल।” मोहल्ले की कोई सयानी बूढ़ी अपनी फटी हुई सलवार, जिसमें से उसके मैले कपड़ों से मेल खाते काले घुटने झाँक रहे होते, को ठीक करते हुए कहती।

बुजुर्ग औरतें मेरी माँ और बापू को दिलासा देतीं और सलाह भी। उठते समय आशीषें देतीं। “ठाकर, घबरा मत...-रब भला करेगा। अगर माता है तो परहेज रख।”

उधर हम अपनी बहन को चम्मच से दूध पिलाकर खुश होते। वह किलकारियाँ मारती। बापू हँस कर माँ को बताता, “देख सीबो, बकरी का दूध पी-पीकर कैसे फूलती जा रही है।”

 “यूँ ही नजर न लगा देना। क्या मालूम इसी के कारण मेरी जान बच गई है।” माँ मुस्कुरा कर धीमे स्वर में बोलती।

जब मेरी यह बहन पाँच-छह साल की हो गई तो एक दिन वह बार-बार सिर में खाज करती रही। माँ ने सोचा-जुँएँ पड़ गई होंगी। उसने उसके बालों में बारीक कंघी फेरी और जुँएँ ढूँढने लगी।  कुछ न दिखा। हल्के से बुखार के दौरान भी गुनगुने पानी से उसके सिर के बाल धोए। सिर के बीच का हिस्सा कुछ खुश्क और फूला हुआ था। माँ ने वहाँ हाथ रखा तो वह पिलपिला रहा था। अचानक नाखून लगने की देर थी कि माँ ने घबराई हुई आवाज़ में बापू को जोर से पुकारा।

 “वहाँ क्या कर रहा है? मैं आवाजें दिए जा रही हूँ।”

 “क्या मुसीबत पड़ गई तुझे?” बापू अंदर से बोला।

 “लड़की के सिर में तो कीड़े कुलबुला रहे हैं।”

बापू ने गरम पानी से बलजिंदर का सिर धोया। झाडू के तिनके से कीड़े निकाले जो एक सफेद से तंतु-जाल में फंसे हुए थे। फिर, बापू ने डॉक्टर की तरह मुझे हुक्म दिया, “गुड्डू, वो आले में से फिनैल की बोतल उठा ला जिससे गाय की पिछाड़ी के कीड़े धोते हैं।”

 “कोई अक्ल कर, इसे भोगपुर ले जा।” बापू को माँ ने सलाह दी।

बापू बलजिंदर को साइकिल पर बिठाकर मोगा सोकड़ा फार्मेसी ालं के यहाँ पट्टी करवान चला गा।

बाद में, मैं अपनी इस बहन को पट्टी करवाने ले जाता रहा। मेरी हैरानी की उस समय कोई सीमा न रहती जब डॉक्टर कीड़ों वाली जगह पर बनी मोरी में दवाई लगी डेढ़-दो पट्टियाँ कैंची से धकेल देता। हर तीसरे दिन पट्टी करवाने के बावजूद जख्म भरने में महीना लग गया। जब वह पूरी तरह तंदरुस्त हो गई तो माँ ने शाह रौशन वली (गाँव से एक किलोमीटर पश्चिम की ओर एक मुसलमान फकीर का रौज़ा) को रोड़े (भूनी हुई गेहूँ में मिलाया हुआ गुड़) चढ़ाकर मन्नत उतारी।

 

बरसात और जाड़े के दिनों में हम दालान में सोया करते। कोठरी के दालान वाली, बीच की दीवार में बने आले में रखे दीए की रोशनी में हम दोनों भाई पढ़ा करते। एक ही चारपाई पर सोते। एक बार दीवाली से पाँच-सात दिन बाद रात को जब बड़ा भाई पढ़ रहा था तो वह अचानक मुझे धक्के मारने लगा। मुख से वह कुछ नहीं बोल रहा था। मैं जागकर फिर सो जाता। आख़िर, उसने खींचकर चाँटा दे मारा। धीरे से बोला, “वो देख साँप, रोशनदान के रास्ते आया--”

हम घबरा उठे पर चारपाई पर से न उतरे ।  वह खूब काले चमकते रंग वाला फनियर नाग कलेंडर लटकाने के लिए गाड़े गए कील पर अपनी पूँछ की कुंडली मारे हुए था। वह अपने चौड़े फन के साथ दीवार से काफी आगे बढ़ कर हवा में आ जाता। थोड़ी देर बाद वह नीचे उतर आया। हम एक-दूजे से लिपट गए। फिर वह फुर्ती से कोठरी में घुस गया। हमने बापू को जगाया। अभी हमने पशुओं को वहाँ बाँधना आरंभ नहीं किया था।

हमारी अफरा-तफरी और ऊँची आवाजें सुनकर आसपास के लोग भी उठ गए। ताऊ के बेटे भी आ गए। उन्होंने कोठरी का छोटा-मोटा सारा सामान और उपले उठा कर आँगन में रख दिए ।  वे सतर्क होकर साँप को ढूँढते, कड़ियों में लाठियाँ मार-मारकर जाँचते रहे।  बाँसों की कड़ियों में डंडे घुसा-घुसाकर देखते कि कहीं इनकी खाली पोरों में न घुस गया हो पर कुछ भी पता न चला कि साँप गया किधर!

आँगन में से किसी ने कहा, “लड़कों को भरम हुआ होगा।”

कोई कहता, “अब ये इतने बच्चे तो नहीं और फिर दीवा जल रहा था।”

कोई बोला, “सारी धरती इन्हीं की है और फिर धरती राह दे देती है इन्हें। फिर भी दहलीज के आगे राख छान दो और गुग्गल जला दो...-सवेरे अपने आप मालूम पड़ जाएगा अगर लकीर पड़ गई तो। क्यों ठाकर?”

राख छानने के बाद बापू ने दो टूक कहा, “ये आधे गुरुद्वारे में तो वन फैला हुआ है। जब तक इन बाँसों को और इस झाड़-झंखाड़ को काटा नहीं जाता, तब तक तो ऐसा ही होता रहेगा। यह देखता नहीं, गिलोय कैसे फैली पड़ी है।”

गुरुद्वारे के घेर के लिए कंटीले पौधों और दरख्तों की बाड़ बनी हुई थी। दरअसल, यह बाड़ खरगोशों, साँपों, गोहों, नेवलों आदि की एक बड़ी पनाहगाह थी। राजपुर (माधोपुर से पश्चिम की ओर छह किलोमीटर के फासले पर एक गाँव) के सांसी अपने शिकारी और साधारण कुत्तों की फौज के संग आते। उनके हाथों में लाठी-डंडे कुदालियाँ होतीं। वे फुर्ती से शिकार पर झपटने के लिए कुत्तों को सिसकारते। भिन्न-भिन्न आवाजें निकालते। शोर मचाते। देखते ही देखते उनमें से किसी के कंधे पर रखी लाठी के सिरे पर खरगोश या गोह लटक रहे होते।

खैर, अगली सुबह साँप की कोई लकीर न दिखाई दी। मैं डर के मारे कई दिन कोठरी के अंदर न घुसा। अगर दिन के समय किसी काम से अंदर जाता तो दिल की धड़कन तेज़ हो जाती और टाँगें काँपने लगतीं। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य हो गया। माँ पूर्ववत तड़के उठ कर दूध बिलोती हुई गाने लगी थीं-

      सुन नी माये मेरीये

      धीयाँ क्यूँ दित्तीयाँ दूर

      सुन नी माये मेरीये...

      ( सुन ओ मेरी माँ, बेटियों को क्यों दिया दूर, सुन ओ मेरी माँ )।

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