छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

तिड़के शीशे की व्यथा

“सारी चमारली का जूते मार-मारकर सिर पोला नहीं कर दिया तो मैं भी जट्ट का पूत नहीं।" बीच वाली गली में से दगड़-दगड़ करते हुए एक ज़मींदार ने हमारे घर के सामने वाले बरगद-पीपल के दरख़्तों के नीचे आकर अपना गुस्सा ज़ाहिर किया।

“क्या हो गया सरदारा, इतने गुस्से में है?” बुज़ुर्ग ताये बन्ते ने एक हाथ में नलियों वाला छिक्कू और एक हाथ में हुक्के की चिलम पकड़े हुए अपने घर से आते हुए पूछा।

“घास खोदने के बहाने मेरा चारा काटकर ले आई हैं, जैसे इनके बाप का खेत हो।"

उसकी ऊँची आवाज़ सुनकर हमारे आसपास के घरों के सभी बच्चे-बूढ़े इकट्ठे हो गए। उनके कपड़े मैले-कुचैले और फ़टे हुए थे तथा उन पर पैबन्द लगे हुए थे, जिनसे आती पसीने की हल्की बदबू चारों ओर फैल रही थी। उनके पैर नंगे थे। बहुत-सी औरतों के पैर बिवाइयों से फटे हुए थे और उनके अन्दर जमी हुई मैल की काली टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें ऐसी प्रतीत हो रही थीं, जैसे बारिश के अभाव में इन दिनों सूखे की मार झेलते खेतों में आड़ी-तिरछी दरारें दिखाई देती थीं। वे सभी स्तब्ध से अर्द्ध-गोलाकार घेरा बनाकर खड़े थे, चुपचाप एक-दूसरे के चेहरों को देखते हुए। मुझे लगा कि अभी किसी की शामत आएगी। मेरा दिल मारे घबराहट के तेज़-तेज़ धड़कने लगा।

“हम दिन-रात साँपों की मुंडियाँ कुचल-कुचलकर फसलें उगाते हैं और ये झुंड के झुंड जिस ओर निकलते हैं, सब सफाचट कर जाते हैं। कभी मक्का के भुट्टे तोड़ लाते हैं, कभी साग, कभी गन्ने तोड़ लाते हैं और कभी छोलिया ही उखाड़ लाते हैं।"  लगातार चीख-चीखकर बोलने के कारण उसके होंठों की कोरों पर थूक की झाग के सफ़ेद और पानी जैसे महीन कण लगातार जमा हो रहे थे जिन्हें वह थू-थू करके थूक देता।

“सरदारा, तू बता कौन-कौन थी?  मैं पूछता हूँ तेरे सामने।" ताये ने नम्रता से पूछा।

“हद हो गई।... और किसी पास-पड़ोस के गाँव से आ गयीं? सब की सब एक जैसी थीं। अब कोई पैरों पर पानी नहीं पड़ने देता। अगर मैं भी खेतों में ही उनके सिरों से दुपट्टे उतार देता तो ठीक होता?” उसने फिर थू-थू किया। उसकी इसी आदत के कारण गाँव में उसका उपनाम ‘थू-थू’ पड़ गया था।

“हम कम्मी-कमीन लोगों ने और कहाँ जाना है! तुम्हारे खेतों की मेड़ों पर से ही हमने घास-चारा खोदना है। इसके अलावा तुम्हारी भैसों की देखभाल भी तो करते हैं।"  ताये बन्ते ने बात को समाप्त करने के लहज़े से कहा।

“ज्यादा चालाकी भरी बातें न कर। हमारी हिस्से पर दी गई भैंसें लेकर आ गया, जैसे तुमको आधा हिस्सा तो मिलता ही नहीं... कभी सीना चौड़ा करके कहते हो कि तीन हिस्से हमारे और दो तुम्हारे।"

बात का रुख अपने-अपने अधिकारों की ओर मुड़ने के कारण माहौल गरमाने लगा था पर, ताये बन्ते ने कुछ समय चुप रहकर विनम्रता से बात को बीच में ही काटते हुए फिर कहा, “सरदारा, जिस पंज–दुवंजी (पाँच में से दो और तीन का अनुपात) हिस्से की तू बात करता है, वह कई बार नट जाती है, कई बार बाँझ रह जाती है। आखिर में, कसाइयों को ही रस्सा थमाना पड़ता है। इस ठाकर ने भूरी भैंस की दो-ढाई साल खूब सेवा की, बियाने से पहले दंदा (मादा पशुओं में लगने वाली एक बीमारी) देती रही और बियाने के वक्त मर गई। हम भी तो ऐसी चोटें झेला करते हैं।  फिर कौन-सा ये तेरे खेत में से फसल काटकर ले आईं हैं।"

“मेरे से ज्यादा बक-बक न कर। खुद ही बता दो कि किसने मेरी फसल बर्बाद की है। नहीं तो मैं पंचैत करूँगा।"

“तुम्हारी सरदारियाँ कायम रहें। छोड़ परे अब गुस्से को...।" ताये ने बात खत्म करते हुए कहा और नलियों वाला छिक्कू नीचे रखकर सिर के आगे वाले हिस्से की गंजी खोपड़ी खुजाने लगा।

“ऐसे नहीं मानने वाले ये चमार लोग...” थू-थू ने क्रोध में आकर कहा और फिर उसने दायीं टाँग पीछे की ओर मोड़ कर पैर में पहना चमरौधा हाथ से उतारने की कोशिश की।

“जा, जो करना है, तू कर ले। खामखाह सिर पर चढ़ा जाता है, सामने कोई बोलता नहीं इसलिए...।  जा, पहले ‘नांगों’ के बूढ़े से पूछ, उस दिन मेरे आगे हाथ जोड़कर बच गया था, नहीं तो दराँती से आँतें खींच लेता।" दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले मेरे ताये के पुत्र फुम्मण ने अचानक क्रोध में आकर अपनी दायीं बाँह हवा में लहराते हुए विरोध प्रकट किया। 

माहौल में जैसे तूफ़ान आ गया, सभी लोग स्तब्ध रह गए। मारे डर के मेरी टाँगें काँपने लगीं और शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई। पास खड़ी मेरी माँ ने हाथ भर के घूंघट में से मेरी ओर देखा और मेरी छोटी बहन को मेरी गोद में पटककर स्वयं घर की ओर चली गई। आस-पड़ोस की मेरी चाचियाँ-ताइयाँ घूँघट निकाले खड़ी थीं जो हाथ से पल्लू को थोड़ा-सा सरका कर इधर-उधर देख रही थीं।

ताया बन्ता और दूसरे लोग फुम्मण को बाजुओं से पकड़कर दायें-बायें करने का यत्न कर रहे थे। लेकिन वह गुस्से में फुँफकारता हुआ किसी की सुन ही नहीं रहा था और ऊँची आवाज़ में बोले जा रहा था,  “जो ऐरा-गैरा उठता है, चमारली पर बरस पड़ता है। कभी वे हमारी माँ-बहनों के हाथों से खुरपे-दराँतियाँ छीन लेते हैं, कभी सिर से दुपट्टे उतार लेते हैं। कैसी आदत पकड़ ली है इन लोगों ने! चाहे इनके अपने ही आदमियों ने चारा काट लिया हो, तो भी हमारे सिर मढ़ देते हैं। कोई सुनने वाला ही नहीं।"

“ठीक है, फिर थाने चल कर ही देखना, बेटा! वहाँ देखता हूँ तुझे। यहाँ तो बड़ा अकड़-अकड़कर बात कर रहा है।" थू-थू ने एक और धमकी दी।

“किसी और को धमकी देना, वो ज़माना गया जब ये सब लोग तुम्हारे आगे घिघियाया करते थे।" फुम्मण ने पलट कर जवाब दिया। क्षण भर रुककर उसने फिर कहा, “अब सच्ची बातें सुनकर गुस्सा आता है। खुद यहाँ रोज़-रोज़ आकर डरा-धमकाकर चले जाते हो।"

यह सब देखकर मुझे ऐसा लगता जैसे बस अभी हाथापाई हो जाएगी। कभी ऐसा लगता– जैसे बात खत्म हो गई। दूसरों के चेहरों पर फैली हुई घबराहट को देखकर मैं वास्तव में ही डर गया। मेरा गला खुश्क हो गया और थूक को अंदर निगलना मेरे लिए कठिन हो गया। टाँगें बेजान-सी हो गईं और शरीर ठंडा पड़ गया।  मुझे लगा कि मैं अभी धड़ाम से नीचे गिर पड़ूँगा और गोद में उठाई हुई मेरी बहन सिर के बल गिर पड़ेगी।

“पट-पट जूतियाँ पड़ीं तो खुद ही सीधे हो जाएँगे सब, अब जो ऊँची आवाज में बोल रहे हैं।" थू-थू ने फिर अपनी भड़ास निकाली। पल भर रुककर पहले से धीमी आवाज़ में बोला, “चिडि़या, चूहे और चमार की साली बढ़ोत्तरी ही बहुत है।"

“मुँह सँभालकर बात कर, नहीं तो दाढ़ी उखाड़कर हाथ में पकड़ा दूँगा। और अपने बाप से पहले पूछ जिसने मेरी माँ को पैना मारा था। थाने में नाक से लकीरें खचवाई थीं उससे। जब सभी तुझे कहते हैं कि भई चाहे गुरुद्वारे चढ़ा ले, अगर तेरा इन्होंने नुकसान किया है तो, तू फिर भी ऊपर चढ़ता चला जा रहा है।" फुम्मण ने पूरे जोश में निडर होकर ताये बन्ते और दूसरी बूढ़ी औरतों की पकड़ से छूटते हुए कहा। अब उसकी भौंहें और तन गई थीं और माथे पर त्यौरियाँ उभर आई थीं। ऊँचे स्वर में ज़ोर से बोलते हुए उसके मुँह से भी थूक के कण निकलकर हवा में घुलते जा रहे थे।

उम्र में मुझसे आठ-दस बरस बड़े किशोर फुम्मण की निडरता और उसकी तर्कभरी बातें सुनकर मेरी टाँगों में मानो फिर से जान आ गई थी। क्षणभर मेरे मन में विचार उठा कि मैं भी फुम्मण की तरह निडर और साहसी बन जाऊँ। डराने-धमकाने वालों का डटकर मुकाबला करूँ। बड़ा होकर मैं भी ऐसी गर्जना के साथ बात करूँ और किसी से भी हार न मानूँ। मेरे भी खेत हों और खेतों की मेड़ों पर मैं भी अपनी मूछों को ताव देता हुआ नंबरदारों के लड़कों की तरह घूमा करूँ।

इसी दौरान मेरा ताया रामा आ गया और आते ही उसने फुम्मण को डाँटा, “क्या शोर मचा रखा है तूने ?...घर को चला जा, नहीं त जूते मारूँगा।"

“ये जो रोज आकर रौब झाड़ा करते हैं, इनको कोई कुछ नहीं कहता, हम क्या कहीं बाहर से आए हुए हैं कि इन लोगों ने हमारा जीना ही दूभर किया हुआ है। हर समय रौब, हर समय दबदबा। इनके पास जमीनें क्या हो गयीं, हमारे रब्ब बने बैठे हैं।  आ गए नए अन्नदाते! अगर हमारे आदमी तुम्हारे खेतों में इतनी कड़ी मेहनत न करें तो तुम भूखे मर जाओ।  शाम को पीकर जो चिंघाड़ते हो, यह भी बन्द हो जाए।" क्रोधवश लगातार बोलने से थूक के छोटे-छोटे कण अभी भी हवा में गिर रहे थे। उसकी आँखों का रंग गुस्से के कारण सुर्ख हो गया था और उसका काला शरीर तना हुआ था।

फुम्मण को इस तरह बोलते हुए मैंने पहली बार देखा था। उसके गुस्सैल और अड़ियल स्वभाव को सभी जानते थे कि जिस जगह वह सच्चा होता था, वहाँ वह चट्टान की तरह अड़ जाता था।  आज की तू-तू मैं-मैं को देखकर मैं अवाक् रह गया था। मुझे लगा कि ज़मींदार हवा में लाठियाँ भांजते हुए एक-दूजे से आगे निकलकर दौड़ते हुए फिर आ जाएँगे ।

इसी समय छन-छन करते घुँघरुओं की आवाज़ आई और सभी की नज़रें एकदम से उधर घूम गयीं। वह एक संन्यासी साधू था। पहले से ही जुड़े मजमे में वह भी आकर खड़ा हो गया। लेकिन वह अपने दोनों पैर ऊपर-नीचे करता रहा, ठीक वैसे जैसे मैं गाँव के स्कूल में दूसरे विद्यार्थियों के साथ ‘एक-दो’ ‘एक-दो’ बोलते हुए कदमताल किया करता था। मैं पहली तनाव वाली घटना क्षण भर के लिए भूल गया और धीरे-धीरे उस सन्यासी की नकल करने लगा। मैंने यह हरकत तब बन्द की जब उसने पूछा, “ज़मीन की क्या बात कर रहे थे भाई, सब कुछ तो यहीं रह जाना है, साथ में कुछ नहीं जाना है।"

साधू ने पंजाबी-हिन्दी मिश्रित भाषा में कहा और लगातार कदमताल करता रहा। युवतियाँ और बूढ़ी औरतें सभी अपने-अपने घरों को लौट गईं। बाकी लोग संन्यासी की बातें सुनते रहे। उसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार के ऊपर काबू पाने के लिए प्रवचन किए और अंत में प्रमाण के रूप में उसने कमर की धोती ऊपर उठाकर ताँबे के छल्ले से बिंधा हुआ अपना लिंग दिखाया। हम सभी बच्चे हैरान रह गए। उसने वैराग्य की बातें कीं। कुछ क्षणों में ही उसने पूरे माहौल को ही बदल दिया। ताया थू-थू से बोला, “मैं सभी को समझाता हूँ। आज के बाद तेरा नुकसान नहीं होगा। फिकर न कर, अब बात को खत्म कर।"

“तुम पंचैत मेम्बर हो, तुम्हारा कहना मैं कैसे टाल सकता हूँ। फुम्मण से कहना कि नया खून है, थोड़ा होश में बात किया करे। मेरे बेटों को मालूम हो गया तो न जाने क्रोध में क्या कर दें। बिगड़ा हुआ जट्ट छह कनाल ज़मीन बेच दे तो आदमी मार देता है।"

“जा, चला जा परे...।" ताये ने थोड़ी धमकी देते हुए कहा।

उसी समय मेरे ताये की बहुएँ हमारे घर के दरवाज़े के सामने आ खड़ी हुईं।  मैं मजमा छोड़कर घर की ओर चल पड़ा। जीतो भाभी ने ऊँची आवाज़ में कहा, “चाची, गुड्ड को रोटी के लिए भेज दो।"

मैं अपनी छोटी बहन को घर में छोड़कर छन्ना और रोटियों वाला कपड़ा उठाकर अपनी भाभियों के साथ चल पड़ा। यह काम मेरे प्रतिदिन के कामों में शामिल था। मेरा बापू कभी किसी ज़मींदार के खेत में मज़दूरी करने जाता तो कभी किसी के। हम उनके घरों के आँगन में अपने बाटियाँ-छन्ने(बर्तन) रखकर, नीचे ज़मीन पर बैठ जाते। जट्ट औरतें थोड़ा झुककर ऊपर से ही रोटियाँ ऐसे फेंकती थीं कि हम दोनों हाथों की बनाई हुई पत्तल के ऊपर बड़ी युक्ति से उन्हें लपक लेते थे। दाल-साग की भरी कलछी भी इसी तरह ऊपर से ही बर्तनों में डालती थीं कि उनके गर्म-गर्म छींटे कई बार हमारे पैरों पर पड़ जाते थे, जिनके कारण छोटे-छोटे छाले पड़ जाया करते थे।

ऐसे अवसरों पर मेरी सोच अक्सर झट से पीछे की ओर लौट जाती थी। कभी मुझे मेरा बापू इकबाल सिंह के घर में गेहूँ-मक्की के ढेर को कोठी में डालता दिखाई देता तो कभी बातें करता हुआ, “आज हम इन दानों के ढेर पर नंगे पैर चलते-फिरते हैं, दाने कोठी में पड़ जाने के बाद हमसे इनके भिट जाने (अपवित्र होने) का भय  इन लोगों को सताने लगता है। ... और फिर कल किसने यहाँ घुसने देना है हमें!”

‘भिट’ शब्द से मेरा मन बार-बार कटता, जैसे हमारे कुएँ की जगत पर रस्सी से कट-कटकर लकीरें पड़ गई थीं! मेरे विचारों के पता नहीं कैसे अचानक पंख निकल आते – बरसात के कीट-पतंगों की तरह! मैं सोचता– जमींदार अपने पशुओं को कैसे खूब मल-मलकर नहलाते हैं, पानी पिलाते हैं और उनका हर तरह से ध्यान रखते हैं। उनका कुत्ता कभी दालान के अन्दर, कभी रसोई के अन्दर बिना किसी रोक-टोक के आता-जाता है, बिल्ली के आगे उनके बच्चे म्याऊँ-म्याऊँ करते घूमते हैं। बिलौटों के लिए दूध बर्तन में डालकर उनके आगे रखते हैं और उधर, बापू और उसके साथी अपने-अपने घरों से गिलास-कटोरे लेकर जाते हैं। दिन भर उनके लिए जान मारकर काम करते हैं। इनसे तो ये जानवर अच्छे हैं जो गोदी में बिठाकर प्यार से दुलारे-पुचकारे जाते हैं। फिर, मेरे मन में विचार आता कि ऐसी मज़दूरी के साथ मेरा कभी वास्ता न पड़े, जैसे-तैसे पढ़ जाऊँ,  बड़ा होकर दिल्ली में रहने वाले अपनी बुआ के बेटों की तरह नौकरी करूँ, दिल्ली में रहूँ और नई-नई पैंट-कमीज़ें पहनकर घूमता फिरूँ, न किसी का भय और न किसी की डाँट-डपट हो।

कई बार बापू को मज़बूरीवश उन ज़मींदारों के यहाँ दिहाड़ी पर जाना पड़ता था, जिनके घरों की दाल-रोटी हमें बिलकुल पसन्द नहीं थी।  कभी-कभी बापू अपने दिल की बात हमसे साँझी करता, “उस गन्दी औरत के हाथों से बनी रोटी खाकर उल्टी आने को होती है।  बाजरे की रोटियाँ, मसूर की दाल के साथ देकर टरका देती है।  अभी कोई बाल-बच्चा नहीं है उस बुरी नीयत वाली के।"

अनेक बार बापू की दिहाड़ी की मज़दूरी के बदले में मेरी माँ जट्ट औरतों से गुड़, शक्कर, प्याज़, लहसुन, आलू, गेहूँ, मक्की, उड़द, मोठ, मसूर या कोई अन्य वस्तु ले आती।  लेकिन, यह सब देखकर बापू व्यंग्य से कहता, “अपनी चीजों की कीमतें अपनी मरजी से बढ़ा लेते हैं, हमारी दिहाड़ी नहीं बढ़ाते।  सारा दिन पशुओं की तरह काम कराते हैं।"

“चल छोड़, जैसे-तैसे गुजर-बसर हो रही है।" माँ ने बात लम्बी होते देख कहा।

“यह जो हमारी चमड़ी झुलसती है, तुम घर के अन्दर बैठी क्या जानो ।"

“तुमसे कौन बहस करे। कहता है, घर के अन्दर बैठी रहती है।" इतना कहकर माँ पिछली कोठरी में किसी काम से चली गई ।

अन्त में, बापू अक्सर थके-माँदे बैल की तरह धम्म से चारपाई पर बैठ जाता और कभी लेट जाता। फिर, दुखी होकर अपने आप से ही बातें करने लगता, “अगर थोड़ी-सी ज़मीन हमारे पास भी होती, बहुत बढ़िया गुजारा हो जाता। पता नहीं किस कंजर ने हमें जमीन से वंचित किया हुआ है। अगर कभी मिल जाए तो साले से पूछें कि मामा, तू भी हमारी तरह किसी की गुलामी करके देख, दो दिन में गांड न फट जाए तो मुझे पकड़ लेना।"

बापू के चेहरे पर तनाव होता, आँखें लाल और भौंहें तनी हुई होतीं। उसकी बातें कड़वीं होती और उनमें तेज़ी होती। ऐसे समय मैं सोचा करता कि बड़ा होकर ज़मीन खरीदकर उस में केले, आम और गुलाब की कलमें रोपूँगा जैसे गाँव के कई जट्टों के कुओं पर हैं।

मैं देखता कि घर में पैसे की तंगी के कारण रोज़ ही नया कलह-क्लेश छिड़ा रहता। खाने-पीने के समय यह कलह अपने शिखर पर होती। बापू गुस्से में गिलास-कटोरे उठा-उठाकर पटकने लगता। रसोई में उनके आपस में टकराने की आवाज़ दलान में बैठे लोगों को भी सुनाई देती थी। ऐसा लगता था कि अभी चूल्हे की आग लपटों का रूप धारण कर लेगी। मैं अक्सर ऐसे क्षणों में डर जाता था कि बापू अभी उठकर माँ के दो-चार तमाचे या पीठ पर घूँसे जड़कर अपना गुस्सा निकाल लेगा और फिर खामोश होकर बैठ जाएगा। अन्त में, बगैर कुछ खाये-पिये सो जाएगा।

इन्हीं दिनों में माँ हम दोनों भाइयों की ओर देखकर दुखी होती पर, बापू तो पहले ही भड़क उठता था– “कहाँ जाकर फाँसी लगा लूँ– तुझे बीसियो बार बताया है कि पैसे की को बात नहीं बनी, रोज़ वही झगड़ा, हर वक्त बुरा-भला, बच्चे तेरे ज्यादा हैं, मेरे कम लगते हैं!” बापू के स्वर में क्रोध भी झलक रहा होता और लाचारी भी।

“मुझे ऐसे खा जाने वाली नज़रों से न देख, महीना तो हो चुका है।"

“मैं कहाँ डाका डालूँ, बहुतों से पूछ लिया, माँगने पर तो कोई दुअन्नी भी नहीं देता।" बापू ने माँ की बात बीच में काटते हुए गुस्से में कहा। फिर पता नहीं उसके मन में क्या आया कि वह कहने लगा, “खूब मेहनत करता हूँ, फिर भी कुछ नहीं बनता। हमारी साली किस्मत ही ऐसी है, पता नहीं किन कर्मों की सजा भुगत रहे हैं।  इससे तो अच्छा था पैदा ही न होते। क्या कमी पड़ जाती अगर पैदा न होते... ऊपर से तू....।"

“थोड़ा सन्तोष रखा कर, दूसरे की बात भी सुन लिया कर। मैं तो कहती हूँ कि कल बैसाखी है, सूरज निकलने से पहले ही स्नान करा ला इन्हें।"

जलते हुए कोयलों पर जैसे वर्षा की फुहारें पड़ गयी हों। बापू ने अपने सिर पर बँधे हुए अँगोछे के नीचे बालों में उँगलियाँ फिराते हुए ‘अच्छा जैसा तुम कहो’ कहकर अपनी स्वीकृति दे दी।

अगले दिन तड़के ही बापू मुझे और बिरजू को लेकर गाँव से दक्षिण की ओर चल पड़ा। हम चुपचाप चले जा रहे थे। चाँद भी जैसे हमारे साथ-साथ चल रहा था। रास्ते के किनारे पर जब कभी सरकंडे और झाड़ियों का झुंड आता तो उनमें हवा के चलने से सरसराहट की आवाज़ उत्पन्न होती थी। क्षणभर के लिए मेरे भीतर डर की लहर हवा से भी तेज़ गति में दौड़ने लगती। मैं लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ बड़े भाई का हाथ पकड़ लेता। जब हम जंडीर गाँव की फिरनी (गाँव के चारों ओर का कच्चा रास्ता) पर पहुँचे तो चुभ्भे (गुड़ बनाने की भट्टी) के भीतर से एक कुतिया निकलकर भौंकने लगी।  उसके तीन-चार पिल्ले पीछे-पीछे दौड़ते हुए आए। बापू ने उनको धमकाया तो वे सभी वहीं ठहर गए। बापू ने हमें तेज़ चलने को कहा।

“ओह...मर गया !” पोहली (एक काँटेदार पौधा) का सूखा हुआ पौधा हवा से ज़मीन पर लुढ़कता हुआ अचानक मेरे पैरों के तले आ गया था। मेरा छलाँगें मार-मारकर चलना एकाएक रुक गया। मैं तुरन्त ज़मीन पर बैठ गया। फिर, बापू ने मेरे पैरों के तलवों से काँटे निकाले और हाथ फेरते हुए पूछा, “अब तो नहीं चुभते ?”

थोड़ा ध्यान से देखा तो मुझे आभास हुआ कि यह वही जगह थी, जहाँ मंगी (मेरे ताये का पुत्र) और मैं दूसरे साथियों के साथ पिछले साल बैसाखी का पर्व देखने के लिए आए थे। गाँव के दीवान ने गोलगप्पों की छाबड़ी लगा रखी थी।  किच्छी और पाशू ग्राहकों के जूठे बर्तन साफ़ करते और पानी पिलाते थे। पकौड़ों और मिठाई की बहुत.सी दुकानें सजी हुई थीं। कबड्डी का दम भरते लड़के और खेल के मैदान के इर्द-गिर्द गोल दायरे में बैठे.खड़े हुए बच्चों और बूढ़ों की भीड़ ! ये दृश्य मन के शीशे पर उभरे। घर लौटते समय, रास्ते भर अलगौजे़ की आवाज़ एक बार फिर मुझे सुनाई देती रही थी।

“कमीज उतारकर जल्दी से स्नान कर लो, फिर घर को लौटें। गेहूँ काटने भी जाना है, इकबाल सिंह के खेत में।" बापू ने जैसे हमें हुक्म सुनाया। उसने अपनी पुरानी मैली कमीज़ उतारते हुए नसीहत की, “यहीं किनारे पर बैठकर स्नान कर लो, इधर गहरा गड्ढा है।" पूर्व की ओर से आता हुआ पानी घास-पौधों, सरकंडों की झाड़ियों से गुज़रता हुआ, धीमी-सी कल-कल ध्वनि करता हुआ बह रहा था। चाँद की चाँदनी से तालाब में शीशम के पेड़ों की टहनियों और पौधों की परछाइयाँ दिखाई देतीं जो हिलती भी थीं।

जब हमने कपड़े पहन लिए तो बापू ने थैले में से दराँती निकाली। पाँच मूठें सरकंडे की काटीं, सिर झुकाकर धरती को नमस्कार किया और कहा,  “हे मालिक, रहम कर, बच्चों को ऐसा खुजली का रोग फिर कभी न हो।"

वास्तव में, हम दोनों भाइयों के शरीर पर कुत्तों जैसी खुजली हो गई थी।  खुजाते-खुजाते शुष्क जगहों पर से पानी रिसने लगता था। आसपास के घरों के बच्चे हमारे संग न खेलते । हमारे परिवार वाले भी हमें ज्यादा बाहर नहीं निकलने देते थे ताकि हमसे किसी और को ये छूत का रोग न हो जाए। खारिश होने पर हम दिन-रात शरीर पर जल्दी-जल्दी खुजली करते रहते। हमारा कोई वश न चलता, गुस्सा आ जाता। हम रुआँसे से हो जाते।

स्कूल में बहुत दिनों से छुट्टियाँ थीं क्योंकि नई कक्षाओं के शुरू होने का समय था। कुछ दिन पहले परिणाम घोषित हो चुके थे। मैं तीसरी कक्षा में हो गया था। यदि स्कूल की पढ़ाई के दौरान यह सब कुछ होता तो मुझे भी अपने साथ पढ़ने वाले सोहन की तरह घर पर ही रहना पड़ता।  खेलना-कूदना बन्द हो जाता। लौटते समय रास्ते में मैंने ऐसा सोचकर सन्तोष कर लिया था।

घर पहुँचे तो माँ के चेहरे पर विश्वास की एक झलक प्रत्यक्ष दिखाई दे रही थी।  उसने हमें समझाया और ढाढ़स बँधाया,  “ये सभी घाव भर जाएँगे, अब नाखूनों से शरीर को मत खरोंचना।" क्षण भर रुककर उसने फिर कहा, “रब खुद ठीक कर देगा, हमने उसका क्या बिगाड़ा है।"

अभी ये बातें हो ही रही थीं कि बाहर के दरवाजे़ से अचानक एक ही स्वर में आवाज़ आई–

 ‘बारां बरस की हो गई रे गौरजाँ

पारबती जी इस्नान करेंगे,

शिवा जी दरशन करेंगे...।’

 

सिर के ऊपर ज्योतिषियों जैसी पगड़ियों पर मोर के पंख बाँधे हुए वे तीनों बाबा गौरजां गाकर घर.घर भीख माँगते थे। शुरुआत हमारे घर से करते क्योंकि गाँव की मुख्य गली यहीं से ही शुरू होती थी। वे घंटियाँ बजाते। एक बाबा एक तुक बोलता और दूसरे दोनों उससे अगली। वे बर्फ़ जैसे सफेद वस्त्र पहने होते थे और धोतियों के छोर पीठ के पीछे कमर पर खोंसे होते।  कंधों के ऊपर से गेरुए रंग के कपड़े नीचे की ओर लटकते रहते।

मैं कोठरी में रखे घड़े में से आटे की कटोरी भरकर एक बाबा की बगल से लटकी झोली में डालने के लिए गया तो बापू ने गुस्से से कहा, “थोड़ा नहीं डाल सकता था, घर में अनाज की कमी का दौर है। इस माँगकर खाने वाली जाति का तो यही काम है। दिन भी नहीं चढ़ने देते...आ जाते हैं मुँह उठाकर।"

“पता नहीं कब के चले होंगे।" माँ ने सहज स्वभाव में कहा।

“वहाँ भोगपुर मिल की टीनों के नीचे बैठे हुए हैं... और ये नवाँशहर से क्या अभी आ गए।" बापू ने बात जारी रखते हुए कहा,  “हैं तो ये अपने ही आदमी, पर ये साले, शिव के भक्त बने हुए हैं, उसकी गोरी-चिट्टी पत्नी के सोहले गा-गाकर अपनी गाड़ी धकेल रहे हैं।"

“माँगना कहीं आसान है, तुम भी माँगकर दिखाओ तो...।"

“मेरे कोई कीड़े पड़े हुए हैं जो माँगने चल पड़ूँ।" बापू की बहस को बीच में ही छोड़कर माँ दालान में चली गई और मैं उन बाबाओं के पीछे-पीछे अगले घर की ओर चल पड़ा ।

उन बाबाओं के शब्दों को मैं बड़े ध्यान से सुनता। इसके साथ ही ‘बरगद वालों’ के गुरदास के आँगन में ऊपर एक जगह पर शीशे में जड़ी हुई शिव-पार्वती की रंग-बिरंगी तस्वीर मेरी आँखों के सामने आ जाती। तालाब में नहा रही पार्वती मुझे कितनी ही देर तक बार-बार दिखाई देती रहती। मुझे लगता जैसे मैं कुछ क्षणों के लिए शिव बन गया होऊँ।  मुझे बहुत अच्छा लगता, पर इसका जि़क्र मैं किसी से न करता।

माँ बाहर वाली दहलीज़ पर खड़ी होकर, जो अपने बायें हाथ में एल्यूमिनियम या पीतल की छोटी बाल्टी उठाये, दायें हाथ से अपनी ओर आने का इशारा करती और साथ ही आवाज़ लगाती, “गुड्ड, दौड़कर पालो के घर से लस्सी ले आ।"

मैं जट्टों की गली में बाल्टी को घुमाता, छलाँगें लगाता हुआ जाता। जब गुरुद्वारे के आगे ‘शेखचिल्लियों’ के घर के समीप पहुँचता तो मेरी टाँगों और पैरों में पहले जैसी फुर्ती न रहती। सोचता– बापू भैंसों की देखभाल करता है, उन्हें नहलाता-धुलाता है, धूप-छाँव में करता है, बारिश में उन्हें सूखी जगह पर बाँधता है। चारा डालता है, पर ब्याने से पहले ही भैंस किसी और के घर चली जाती है।  मन चाहता कि बापू से कहूँ, भैंस हम रख लें। घर का दूध-लस्सी पियें और मैं भैंस के कटड़ी-कटड़े के साथ खेलूँ। कभी-कभी मुझे लगता कि इसके बारे में बापू को भी जानकारी है। जब मिलखा सिंह (जट्ट) अपने पोते के बलवान होने के बारे में लोगों को अति उत्साह में बताता, “भई, हमारा तोची (तरलोचन सिंह) तो दूध पीता है और दूध ही मूतता है।" तो मैं सोचता कि मैं भी इसी तरह ऊँचा-लम्बा और शक्तिशाली बन जाऊँ।

मैं ‘बारियों’ (पाकिस्तान के ‘बार’ इलाके से आए लोग) के खुले-बड़े आँगन में बाल्टी या डोलू रखता और सिर झुकाकर खड़ा रहता। इसके साथ ही लस्सी माँगने के बारे में बेशुमार ख़याल छोटे-छोटे बादलों की तरह एक घटा के रूप में आ घिरते और मन के आकाश पर घोर निराशा और उदासी की वर्षा करते हुए प्रतीत होते। मेरा तन-मन ग्लानि की इस बाढ़ में बहता हुआ लगता। मुझे अपने सिर-धड़ और टाँगों का पता ही न लगता कि वे आपस में एक हैं। मेरी सोच के निरंतर चलते काफि़ले भी ठहरने का नाम लते जब पालो अन्दर से ी कहती, “गुड्ड, थोड़ा रुककर आना, मैं दूध बिलोने लगी हूँ।"

पालो के यहाँ हमने दूध का महीना भी लगाया हुआ था। सुबह-सुबह मेरा पहला चक्कर उनके घर से दूध लाने के लिए लगता। कभी पाव और कभी आधा किलो।

लेकिन लस्सी लेने के लिए कई बार दो-दो चक्कर लगाने पड़ते थे। उधर बापू झपटकर डाँटता, “अब तो चला जा मामा ! सौ बार बताया कि भई लस्सी के बगैर मेरे से नहीं रहा जाता।"

“अगर इतनी जरूरत है तो इस बार मीणी और बूरी दोनों खूँटे पर बँधी रहने देना। और फिर बच्चे खाएँगे-पिएँगे...।"

“देख, कैसे मुँह भर के बके जाती है। जो रकम जमींदारों से उधार ली हुई है मकान के खम्भे बनाने के लिए, वो तुम्हारे बाप ने देनी है ?”

“जब भी बोलता है, मेरे माँ-बाप तक जाता है। जबरदस्ती गले पड़ जाता है।  बात किस तरफ की होती है, ले किसी ओर को जाता है।"

“सारा दिन गधे की तरह काम करते हैं और ये...।" फिर बापू गुस्सा होकर मुँह में ही बड़बड़ करने लगता, चिलम के बीच की राख निकालकर कंकरी को ठीक तरह टिकाकर तम्बाकू डालने लग जाता।

कभी-कभी मेरे मन में आता कि बापू को किसी दिन कह दूँ कि मैं आधा गाँव लाँघकर लस्सी लेने नहीं जा सकता, मुझे शर्म आती है। मगर मैं अगली सुबह फिर बाल्टी या डोलू उठाकर कभी किसी के घर लस्सी माँगने जाता तो कभी किसी के। यह सिलसिला जारी रहता। सुबह-शाम को लस्सी का खट्टा पीकर मज़ा आ जाता। अगर दाल-सब्ज़ी नहीं बनती तो भी उससे काम चल जाता। गर्मियों के दिनों में जब गाय-भैसों के दूध सूख जाते, हमें लस्सी की काफ़ी तंगी हो जाती। लस्सी पीने की इच्छा बनी रहती। चाय तो हम कई बार बिना दूध के ही पी लेते थे और बापू अपनी किस्मत को कोसते हुए अपना तपता हुआ सीना ठंडा करने की व्यर्थ कोशिश करने लगता।

इस सोच में डूबे हुए मुझे गली में माणकढेरी वाला बाबा बगलों में लम्बी-लम्बी थैलियाँ डालकर माँगता हुआ दिखाई देता। मोटे खद्दर की एक थैली में आटा और एक में दाने डलवाता। माथे पर तिलक लगाकर और गेरुए वस्त्र पहनकर उसने साधुओं जैसा वेश बना रखा था। हर दरवाजे़ के सामने खड़े होकर ऊँचे स्वर में बताता,  “बीबी जी, कल पूरनमासी है और ग्रहण भी लगेगा।"

मेरा छोटा-सा तन-मन बड़ी सोच में डूब जाता कि इसे कैसे मालूम कि कल ग्रहण लगेगा?  और मुझे तभी समझ में आता जब वह पतली-लम्बी किताब में से किसी को कुछ पढ़कर बताता और किसी को कुछ।  मेरे मन में आता कि जब वह हमारे घर माँगने आएगा तो मैं पूछूँगा–मीणी भैंस हमारे घर ही रहेगी?  नहीं तो कोई उपाय कर दे जैसे दूसरों से गेहूँ के दाने लेकर करता है। और यह भी पूछूँगा कि रत्ते बामण के बड़े घर और चौबारे जैसा हमारा घर कब बनेगा? कहूँगा– कोई रेख में मेख मार जैसे उसको गाँव के और लोग कहते हैं लेकिन मेरे दिल की बातें दिल में ही रह जातीं और वह हमारे पास वाली ताई तारो के घर(जट्टों के) में चाय-पानी पीकर बीच वाली गली में से लौट जाता। इसी के साथ, मन का शीशा तिड़क जाता जिसकी ख़ामोश व्यथा मेरे वजूद में लहू की तरह चक्कर काटती रहती और ये प्रश्न मेरे मन को कचोटते रहते कि वह बाबा साधू होकर हमारे मुहल्ले में माँगने क्यों नहीं आता! 


 

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