छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

कँटीली राहों के राही

‘रबा-रबा मींह बरसा, साडी कोठी दाणे पा।

कालियाँ इट्टाँ काले रोड़, मींह बरसा दे ज़ोरोज़ोर।’

 

हमारे मुहल्ले के बच्चों की टोली कभी इस गली तो कभी उस गली में उछलती-कूदती स्कूल के पाठ्यक्रम में लगी किताब में से याद की गई उपयु‍र्क्त कविता की पंक्तियाँ एक स्वर में बोलते हुए गुज़रती। हम धरती पर दौड़ते और बादल आसमान में। सिर ऊपर उठाकर देखते तो यूँ लगता जैसे बादल के टुकड़ों ने हमारी तरह एक-दूसरे से आगे दौड़ जाने की होड़ लगा रखी हो। कई बार आसमान पर उड़ते बादलों को देखते हुए हमें ‘कालियाँ इट्टाँ, काले रोड़’ की तुकें कुछ देर के लिए विस्मृत हो उठतीं और हम अपने आप को भूल जाते। अक्सर ‘वणों’(कब्रिस्तान में उगे पौधे) के पास सड़क पर खड़े होकर हमारी ढाणी बातें किया करती।

“बादलों को हमारी आवाज़ सुनाई नहीं दी होगी। नहीं तो वे यहीं बरस जाते।"

“देखो, बादल कैसे पानी ढो रहे हैं। अपनों से आगे वालों को पानी देकर फिर लौट आते हैं –और पानी लेने के लिए !”

“अभी दूर वालों के लिए पानी ढो रहे हैं, हम करीब वालों की बारी बाद में आएगी।"

 

इसी दौरान, कई बार दूर पूरब या पश्चिम की ओर बूढ़ी माई की सतरंगी पींग(इंद्रधनुष) बहुत बड़े चाप के आकार की दिखाई देती। हम रंगों के नाम बोल-बोलकर गिनते। सबसे पहले जामुनी, फिर गहरा नीला, नीला, हरा, पीला, संतरी और इन सबसे ऊपर लाल! आम तौर पर हम आश्चर्यचकित रह जाते कि रंग आसमान में कैसे चढ़ गए। फिर हममें से कोई दाँतों तले उँगली रख कर कहता, “बूढ़ी माई के पास इतने ही रंग होंगे।"

“ये सारे सूरज के रंग हैं।" फुम्मण से सुना हुआ मैंने बताया। सारी टोली की वातावरण में एक छोटी-सी हँसी गूँजी। मैंने पुन: कहा, “फुम्मण बताता था कि इन सारे रंगों का एक रंग है–धूप।"

“हमें तो धूप के सिवा कोई रंग दिखाई नहीं देता।"

“कहते हैं–मोटे तिकोने शीशे में से ये रंग दीखने लगते हैं।" मैंने और जानकारी दी। इसे भी मैंने सुन रखा था।

“यूँ ही बेकार की हाँक रहा है। चलो, वो पहाड़ देखें।" मैं यह सुनकर उदास हो जाता कि क्या पता, फुम्मण ने ही गप्प मार दी हो। जब मुझे उसकी भरोसे भरी बात की याद आती तो लगता– फुम्मण की बात ठीक ही होगी। इस विचार के साथ मेरा आत्मविश्वास और अधिक दृढ़ हो उठता।

 

यहाँ पर हम ऊँचे स्थान पर एड़ियाँ उठाकर पंजों के बल खड़े होकर उत्तर-पूरब की ओर गौर से देखते तो पहाड़ों की नीली धारियाँ आकाश से एकमेक हुई प्रतीत होतीं। निखरी हुई चमकती चोटियाँ आँखों के सम्मुख तस्वीरें बन-बनकर उभरतीं, जिनमें से कई तो परियों का रूप धारण करके बहुत सुन्दर लगतीं। बर्फ़ से ढकी ऊँची सफ़ेद चोटियों में से एक के बारे में मैंने कयास लगाया कि यही हिमालय की सबसे ऊँची चोटी होगी जिसे सर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्के ने 1953 में सर किया था। उस एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने वाले वे पहले आदमी थे। यह सोचते हुए मुझे यूँ लगता मानो मैं अपना प याद कर रहा होऊँ।

...और फिर हम घर की ओर दौड़ते हुए ऊँचे स्वर में बोलते हुए जाते–

 

‘रबा-रबा मींह बरसा, ...

 कालियाँ इट्टाँ, काले रोड़, ...’

 

कविता की इन पंक्तियों के दोहराने और भाग-दौड़ के दौरान एक दिन अचानक हवा थम गई। सारे बादल आपस में घुलमिल गए और उनका रूप बदल गया। आसमान कहीं भी खाली नहीं दिखाई दे रहा था। बस, बादल ही बादल दिखाई देते थे। बन्दे-परिन्दे अपने-अपने घरों-घोंसलों में मानो दुबक गए थे। दिन के तीसरे पहर ही अँधेरा छा गया। जब बिजली कड़कती तो उसकी चमक में दूर-दूर तक दरख़्तों और घरों के वहाँ होने का पता चलता। फिर बादलों का गरजना थम गया ।  बादल जैसे एकाएक फटकर नीचे गिर पड़े हों। सचमुच, मूसलाधार बारिश! मोटे छींटे इतने ज़ोर से बरसते जैसे रिश्ते में मेरी दादी लगने वाली अंधी सन्ती ओखली में धान कूटते समय भारी मूसल चलाती थी।

उस दिन मुझे ऐसे लगा मानो दिन अँधेरे में गुम हो गया हो। पलों में ही जल-थल एक हो गया। बारिश अब ज़ोर से लग चुकी थी और असली गाढ़ा अँधेरा पसर चुका था। बापू दरवाज़े में से बाहर झाँकते हुए कुछ पता लगाने की कोशिश करता प्रतीत हुआ। वह टपकने वाली जगहों के नीचे बर्तन रखता, पहरा देता प्रतीत होता। रात जैसे-तैसे उठ-बैठकर कट गई। दिन निकलते ही बारिश फिर से तेज़ हो गई और बापू का सुबह-सुबह अखण्ड प्रवाह शुरू हो गया–

“और गाड़ें गुड्डे-गुड़ियाँ... और बाँटें ख्वाज़ा खिज़र का दलिया...!”

 

‘धड़ाम !’ अचानक हुई इस आवाज़ ने बापू की बात को अधबीच में ही रोक दिया, नहीं तो पता नहीं और क्या-क्या लोक पढ़ता वह। हमारी रसोई और आँगन की आधी से अधिक दीवार गली की ओर गिर पड़ी थी, जिसने गली में तेज़ गति से बहते पानी को रोक लगा दी। कुछेक पल में ही पानी पिंडलियों तक चढ़ आया। गलियों, नालियों का फ़र्क तो पहले ही मिटा हुआ था।

“फौरन उठो, कहीं दलान-कोठरी की दीवार ही न बैठ जाए।" बापू ने दहलीज़ से बाहर निकलते हुए चिन्ता भरे स्वर में कहा जिससे पूरा परिवार घबरा उठा।

 

बस्ती-मुहल्ले के लोग घरों से बाहर निकल आए। किसी ने सिर पर चादर लपेट रखी थी तो किसी ने खाद वाले बोरे के मोमजामे की तिकोनी-सी बरसाती बना रखी थी।  बापू गिरी हुई दीवार की मिट्टी को फावड़े से जल्दी-जल्दी उठाकर आँगन में फेंकने लगा। आख़िर में, गली के पानी ने एक छोटी-सी नहर का रूप धारण कर लिया, जिसमें गोबर, कुत्ते, बिल्लियों का सूखा गू और घासफूस तैरता हुआ जा रहा था।

थोड़ी देर बाद बापू नि:सहाय स्वर में बोला, “सारी की सारी मिट्टी बहती जा रही है !”

मुझे लगा जैसे बापू का मज़बूत हौसला बहती जा रही मिट्टी के संग गलने-बहने लग पड़ा हो। उसके चेहरे पर फिर से चिन्ताओं की एक ज़ोरदार बौछार पड़ गई थी। उसने करीब खड़े लोगों को सुना कर कहा, “यूँ ही तो नहीं – ऊँट, जुआहां, भखड़ा, चौथा गाड़ीवान, चारे मींह न मंगदे, भले उजड़ जाए जहान।"

“अपने सन्त साखी सुनाया करते थे कि एक राजा से बारह घड़ियों की बारिश झेली नहीं गई थी तो उसने प्रजा की सलामती के लिए रब से बारह बरस का सूखा माँग लिया।"

इन बातों के दौरान अचानक एक ज़नाना स्वर हवा में गूँजा, “साधू का केवल कोठे के नीचे आ गया रे लोगो..., बचाओ... दौड़ के आओ ! बचाओ !"

बारिश हल्की बूँदाबाँदी में बदल चुकी थी। बापू, मैं, कई आदमी,औरतें और कई बच्चे साधू के घर की ओर बगैर वक्त गँवाये दौड़ पड़े। आवाजें लगाने लगे,  “केवल, तू कहाँ है ?...केवल, तू कहाँ है ?”

“इधर हूँ।" कोठे के दो खाने जहाँ गिर गए थे, वहाँ से दुखभरी पर जानदार आवाज़ आई। इस संकेत पर फुर्ती से मलबे को हटाया जाने लगा। कड़ियों, शहतीरों को एक ओर किया गया। केवल एक कोने में सीधा खड़ा था। उसका सिर और शरी मट्टी-गारे से सना हुआ था। बाहर निकलकर उसने सिर और बदन को इस तरह झटका जैसे भीगा हुआ बकरा अपने रोओं पर से पानी छिटकता है। उसकी टाँगों-बाँहों पर लगी हुई खरोंचों में से लहू टपक रहा था और उसकी टाँगें काँप रही थी।

“रब ने दूजा जनम दिया है मेरे पुत्त को।" बन्ती ने हाथ जोड़कर ज़मीन की ओर सिर झुकाकर कहा और फिर केवल के सिर पर हाथ फेरा।

पास खड़े छोटों और बड़ों के चेहरों पर खुशी की फुहार बरस पड़ी। लोग अपने-अपने घरों की ओर बातें करते हुए चल पड़े। ताये बन्ते ने अचानक ही दबी ज़ुबान में कहा,  “रब ससुरा भी गरीबों पर ही ज़ुल्म ढाता है।"

“सूखा हो या बरसात, भूख, दुख, दलिद्दर, चिन्ता, फिकर हमारे लिए ही रखे हुए हैं साले !" बापू ने कहा।

घर पहुँचकर पता नहीं बापू को क्या सूझा, वह तेज़ कदमों से रसोई के साथ वाली मिट्टी की सीढि़याँ चढ़ गया। मैं भी पीछे-पीछे कोठे की छत पर पहुँच गया।  बापू मुंडेर के साथ-साथ टपकने वाली जगहों को पैरों से हल्के-हल्के दबा कर छिद्रों को बन्द करने लग पड़ा। मैंने आसपास देखा– हमारी बिरादरी के कई लोग छतों पर चढ़े हुए थे और छतों की मरम्मत की कोशिश कर रहे थे। दूर जहाँ तक भी मेरी दृष्टि जाती, धान की पौध पानी में डूबी हुई और मक्की, चरी, बाजरे के सिर झुके, मुड़े़ हुए थे। लेकिन, हरे-भरे गन्ने की फ़सल पर पूरा यौवन था। पेड़ स्थिर और सिर ऊँचा किए खड़े हुए ऐसे लग रहे थे मानो सब कुछ चुपचाप देख रहे हों। लोग झुककर चारा काटते यूँ लगते थे मानो धान रोप रहे हों।  पानी ने गाँव को पूरी तरह से घेर रखा था। उसी चपेट में सब जीव-जन्तु, पेड़ और मनुष्य आए हुए थे।

चारों तरफ़ पानी की पसरी हुई मैली-मटमैली चादर रास्तगो, माणकढेरी, सिकन्दरपुर और ढड्ढा-सनौरा तक बिछी हुई दिखाई दी। रेल की अचानक बजी सीटी और छुक-छुक की आवाज़ की ओर मेरा ध्यान एकदम चला गया। मैंने देखा कि ढड्डों के पास से गुज़रती रेल गहरा काला धुआँ छोड़ती तेज़ रफ़्तार से दौड़ती जा रही थी। मेरा मन हुआ कि मैं दौड़कर नम्बरदारों या बाह्मणों के चौबारे पर चढ़ जाऊँ और पूरी रेलगाड़ी को देखूँ जो सफ़ेदों, शीशम के ऊँचे दरख़्तों और दूसरे पेड़ों के कारण बीच-बीच से कभी थोड़ी और कभी थोड़ी ज्यादा दिखाई दे जाती थी। यह छुपा-छुपी का खेल देख ही रहा था कि गली में खुशिया और तीन-चार लड़के लाठियाँ उठाये लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जाते दिखाई दिए। किसी ने पूछा तो चलते-चलते खुशिया ऊँचे स्वर में बताने लगा, “मछलियों का शिकार करने जा रहे हैं, माणकढेरी वाले तालाब में बाढ़ आ गई है। आ जा तू भी।"

 

मेरी उत्सुकता बढ़ी कि दौड़कर खुशिया और उसके साथियों से जा मिलूँ। मछलियों को पर मारते और इधर-उधर तैरते हुए देखूँ। हाथों में से फिसलती मछलियों के बारे में सोचकर मेरा मन प्रसन्नता के गहरे पानियों में डुबकियाँ लगाता प्रतीत हो रहा था। जब आसपास के पसरे गहरे पानी का ख़याल आया तो मैं घबरा उठा, मानो मैं वास्तविकता के रू-ब-रू हो गया होऊँ।

छत पर से उतरे तो मैंने देखा कि हमारे मुहल्ले के लोग टोलियाँ बनाकर घुसुर-फुसुर कर रहे थे। उनके चेहरों पर किसी चिन्ता-शोक की मानो दोहरी लिपाई हो गई हो।  वे बातें कह रहे थे–

“वो तो रात की मरी पड़ी है। मसानों में तो पानी हरहरा रहा है, माणकढेरी वाले तालाब में बाढ़ आई हुई है। शाम तक अगर पानी उतर गया तो पूरब की ओर फूँक देंगे। उधर वाली जगह ऊँची है, वहाँ तो पानी अभी भी कम ही है।"

“मसान का वह हिस्सा तो हमारे लिए ही है।" जुगिंदर सरैहड़े (रुई धुनने वाली बिरादरी से संबंधित) ने अचानक आई तेज़ बौछार की तरह साधारण से ज़रा ऊँची आवाज़ में कहा। उसके ये शब्द सुनकर ताये बन्ते के काले और मैले दाँत थोड़े से दिखाई दिए।

असल में, निम्न जातियों के मसान साझे थे लेकिन, हमारे गाँव से रास्तगो को जा रही राह इन्हें दो हिस्सों में बाँटती थी। आबादी के हिसाब से पश्चिम का बड़ा हिस्सा आदिधर्मियों/रामदासियों का हिस्सा बन गया था, पर अभी भी पहले वाली परम्परा कभी-कभी अपना जलवा अचानक ही दिखा देती थी।  शीघ्र ही, फिर से यह ज़मीन का टुकड़ा साझे मसान में बदल गया।

सूरज और बादल आपस में छुपा-छुपी का खेल खेलते रहे जो अधिक देर न चला।  बादल फिर घिर आए।  आकाश काला पड़ गया। बारिश क़हर बनकर बरसने लगी। लोगों के चेहरे मुरझा गए।

शाम तक हमारी बिरादरी के कुछेक घर ढह गए या उनकी दीवारें गिर पड़ीं। गाँव के गुरुद्वारे की इमारत के बाहर वाला छोटी ईंटों का विशाल बुर्ज़ थोड़ा-थोड़ा करके मेरी आँखों के सामने हना शुरू हो गया। ताई तारो (जट्ट) का पुओं वाला ईंटों के ख्भों पर खड़ा छप्पर गिर पड़ा। बरसते पानी में हमारे घरों की कंजकों यानी कुँआरी लड़कियों ने अपने घरों के परनालों से गिरती पानी की धारों के नीचे उड़द दबाए। चौराहों पर गुड्डे-गुडियों को फूँका; लाल-काले कपड़े पर उड़द की दाल रख कर टोने किए कि बारिश रुक जाए। आसपास के पानी भरे खेतों में बड़े-बड़े पीले रंग के मेंढ़कों की टर्र-टर्र और गहरे बादल ऐसे लगते मानो वे भी किसी गरीब-मार साजि़श में शरीक हों।

बहुत से लोगों के चेहरे चिन्ता, फ़िक्र की मूर्तियों में तब्दील हो गए पर मैं और मेरे हमउम्र साथी मेंढ़कों का किसी शिकारी की तरह पीछा करके उत्साहित हो रहे थे। केंचुओं के दो-दो टुकड़े करके और ज्यादा खुश होते कि वे कैसे अलग अलग होकर भी रेंगने लगते हैं ! या फिर, हम ठीकरों को पानी पर रगड़कर फेंकते और उन्हें दूर तक तैरकर जाते हुए देख कर खुश होते।

...और दूसरों की तरह हमारा चूल्हा भी ठंडा था। लेकिन, बाढ़ का पानी अगली सवेर भी गाँव की बाहरी सड़क के निचले हिस्से में बह रहा था। लोगों को जंगल-पानी की बेहद तंगी थी, खासकर बुजु़र्गों को।  जिनके घर और दीवारें ढह गई थीं, वे फिर से उनके निर्माण कार्यों में जुट गए थे।

पिछले बरस की कसर निकाल दी इस बार ! कुँओं का पानी दो-तीन हाथ चढ़ जाएगा। अब दो साल तक कुँओं के तल नहीं सूखने वाले। एक ज़मींदार ने कंधे पर रखा फावड़ा नीचे रखते हुए बरगद-पीपल के नीचे खड़े लोगों के संग खुशी की रौ में बात आरंभ की।

इतने में ‘घोड़ों का मोहणी आते ही पूछने लगा, “सुना भई जट्टा, लगा आया पैलियों(खेतों) के चक्कर?  बारिश ने तो वाह-वाह कर दी, लहरें-बहरें लगा दीं।"  फिर उसने उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पूछा, “तेरे बछड़े का क्या हाल है?  सच, जो तू मंडी से भैंसा लाया था, वो सीधे हाथ चलता है कि उल्टे हाथ?”  उत्तर में कुछ कहने का अवसर दिए बगैर वह फिर बोला, “जबसे हमने सावा(बैल) बेचा है, तब से बग्गा(सफ़ेद बैल) उदास रहता है।"

यह सुनते ही बापू त्यौरियाँ चढ़ाकर घर की ओर चल पड़ा था और बोले जा रहा था, “इन्होंने कुँओं के दो-तीन हाथ पानी चढ़ने की बात पकड़ रखी है, हमारे लिए तो अभी गले-गले चढ़ा हुआ है।  पशुओं का हाल-चाल पूछने बैठा है, मुझसे किसी ने कहा कि गली की तरफ वाली तेरी दीवार गिर गई, बुरा हुआ!” फिर रुककर बोला, “कहते हैं न–गाँव बसता है, कटड़े को मन भर दूध की क्या कमी !”

दरअसल, हमारी बिरादरी के लोगों के लिए ऐसी क़हर ढाने वाली और भयानक बरसात पहली बार नहीं आई थी। वे तकरीबन हर बरसात का ‘चमत्कार’ देखा करते। जब एक-दो दिन लगातार बारिश होती रहती तो कच्चे कोठों की दास्तान बरसात की तरह लम्बी हो जाती। कच्ची दीवारों पर मिट्टी की पपड़ी फूलकर धीरे-धीरे गिरने लगती और इनके नीचे से चींटियाँ अपने सफ़ेद अंडे उठाये तेज़ गति से इधर-उधर दौड़ती दिखाई देतीं।  दीवारें ढहतीं तो चूहे, छछूंदर, कनखजूरे तथा अन्य कई प्रकार के छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं द्वारा छिपने के लिए की गई दौड़-भाग नज़र आती। यह नज़ारा देखने में अच्छा लगता, पर बापू की चिन्ता, फ़िक्र पूरी रकम की तरह मुकम्मल रहते हुए भी यूँ लगती मानो वह हम सबमें तकसीम हो गई हो।  हिसाब के सवालों की तरह यूँ लगता जैसे मेरी सोच में उन्होंने खास खाना बना लिया हो।

आठ-दस दिनों के अन्दर उतरी हुई पपड़ियों की जगह को इस तरह लीप-पोतकर भर दिया जाता कि दीवार की खस्ता हुई हालत का बिलकुल भी पता न चलता, जैसे बदन पर के ज़ख्म भर जाने के बाद उनका नामोनिशान मिट जाता है।  घरों-दीवारों के पुनर्निमाण के कारण इनकी चमक-दमक पहले से अच्छी लगती।  हमारी बिरादरी के गरीब-गुरबे लोगों के होंठों पर मुस्कान भादों की एक-आध बौछार की तरह आ जाया करती।  उनकी आपसी बातचीत से लगता कि बरसात का क़हर मानो अतीत की मनहूस याद बनकर रह गया हो।  बरगद-पीपल के नीचे फिर सभी लोग टोलियाँ बनाकर बैठने लगे, बातों का सिलसिला फिर से चलने लगा।

इस बार अभी तक रास्तगो गाँव के गुग्गे वाले नहीं आए। अब तो कारां (गुग्गा पीर की पूजा की निश्चित अवधि) भी खत्म हो गई। ताये महिंगे ने हुक्के की नड़ी ताये बन्ते की ओर मोड़ते हुए अचानक बात आरंभ की। थोड़ा रुककर फिर कहने लगा, “कल या परसों शायद गुग्गा नौमी है।"

“दीवारों-कोठों से फुर्सत पा गए हैं, किसी दूसरी ओर माँगने चले गए होंगे। ओ जी, ओ जी!” ताये बन्ते ने पिछले शब्दों को खींचकर बोलते हुए गुग्गा भगतों की नकल उतारी।

इसी दौरान, जागर चौकीदार के घरों की ओर से डमरुओं के बजने के साथ-साथ एक मिली-जुली हल्की-सी आवाज़ में ये शब्द भी सुनाई दिए–

‘गुग्गा जो जम्मिया, चौरियाँ वाला,

चानण होइया घर बाहर

जैमल राजिया, कन्ता मेरिया,

ओ जी, ओ जी, ओ जी...।’

 

.... और फिर उन गुग्गा भक्तों ने हमारे बरगद-पीपल के नीचे अपना पड़ाव डाला। उनमें से एक ने सबसे आगे चलते हुए गुग्गे का झंडा उठा रखा था जिसे रंग-बिरंगे रूमालों, कतरनों, मोर के पंखों, नारियलों और कौड़ियों से सजा रखा था।

गाने से थोड़ा दम मारने के बहाने वे अपने साथ लाए हुक्के के लम्बे-लम्बे सूटे खींचते। जत्थे का नेता भगत कथा सुनाता, “गुग्गे पीर की माँ का नाम बाछल और उसकी मौसी का नाम काछल था। गुग्गे के दो मौसेरे भाई हुए हैं– सुरजण और अरजण ! वे हुआण मत से ही गुग्गे के साथ वैर-विरोध रखते थे। गुग्गे की घरवाली रानी सिलीअर बड़ी खूबसूरत और दिल भरमा लेने वाली स्त्री थी। सुरजण सिलीअर से स्वयं विवाह करवाना चाहता था। उसको हासिल करने के लिए सुरजण और अरजण ने गुग्गे से युद्ध किया पर वे दोनों गुग्गे के हाथों मारे गए।"

कथा सुना रहे भगत ने कंधे पर रखे अंगोछे से अपनी धुआँखी मूँछें और मुँह साफ़ करते हुए प्रसंग को आगे बढ़ाया, “जब बाछल को इस सारी दु:खभरी व्यथा का पता चला तो उसने अपने बेटे गुग्गे से मुख फेर लिया।  गुग्गे ने बेहद दुखी होकर धरती माता से शरण माँगी, पर धरती माता ने गुग्गे को शरण देने से इसलिए इन्कार कर दिया कि वह हिन्दू है। इसी कारण गुग्गा मुसलमान बन गया। धरती ने उसे शरण दे दी।  वह कलमा पढ़ते-पढ़ते घोड़े सहित धरती के अन्दर समा गया।"

इतनी-सी कथा के बाद डमरुओं पर छोटे-छोटे डग्गे पड़ने लगे और गुग्गा भक्तों की सुबद्ध आवाज़ ऊँची हो गई–

 

‘अग्गे तां बैठे अरजण ते सुरजण

जुध जो करदे दूले राजिया

नहीं देणी सिलीअर नार

ओ जी, ओ जी, ओ जी।’

 

कथा बाँचता भगत हुक्का गुड़गुड़ाने लग पड़ा और दो-तीन अन्य भगत घी, सरसों का तेल, गुड़, गेहूँ, आटा अपने बर्तनों-थैलों में डलवाने लग पड़े। जब झंडा उठाकर वे अगले पड़ाव के लिए गाँव वाली गली में घुसे तो हम सभी बच्चों की टोली ने एक ही बोली बोली, वह भी बदलकर–

 

‘गुग्गे दे नौ नियाणे(बच्चे)

गुग्गा पीर आप जाणे

ओ जी, ओ जी,

ओ जी, ओ जी ।’

 

हम बच्चे कटोरे-कटोरियाँ के मुँह, जिन्हें मोमजामे से पहले ही बाँध रखा होता, पर अपने छोटे हाथों से टहनियाँ तोड़ कर बनाई गई खपच्चियों को अपनी तरफ़ से पूरी तान निकालने के हिसाब से मारते। उधर ताये बन्ते ने दूसरों को सुनाकर कहा, “कभी अंधे घोड़े का दान माँगने चल दिए, कभी गुग्गा... क्या काम पकड़ रखा है इन्होंने भी, जैसे गुग्गा इनकी मौसी का बेटा हो।"

“ये भी अपने जैसे ही हैं, गरीब बेचारे, हमारे जैसे! इनके पास भी कौन-सी जैदाद है! बहाने से चार मन दाने कमा लेते हैं।" बापू ने ताया के पास बैठते हुए कहा।

“रास्तगो वाला काणा पखीर तेरा सज्जन जो है, हमप्याला ! हम आज तक इनके घर नहीं गए, न इनके घर कभी हुक्का पिया, न पानी।  तुझे बड़ा प्यार आ रहा है इन माँगकर खाने वालों पर।"

“हमें भी जट्ट कहाँ पास फटकने देते हैं। आँगन में नीचे ज़मीन पर बिठाते हैं, कुत्ते जितनी कदर नहीं।"  बापू ने पलटकर जवाब दिया।

“जट्ट फिर भी ज़मीन–जैदाद वाले हैं, ये रामदासियों को देख लो, हमारे में से सिक्ख बने हैं। पहले इसी कुएँ से पानी भरा करते थे, अब अपनी अलग कुइया बना ली है। कहते हैं– इस कुएँ से हुक्कों में से उँडेले गए पानी की बदबू आती है। सीधा नहीं कहते कि हम अब पहले वाले नहीं रहे।"

“हमारी माँ तो अभी तक मुणशा सिंह की माँ को बुआ कहकर बुलाती रही है।" बापू ने बताया।

“सीता राम की मौसी लगती थी कि....?” ताये बन्ते ने हुक्के की नली पर हटाते हुए और नाक में अधूरा वाक्य बोलते हुए कहा।  साथ ही, छोटी–सी हँसी हँसा, “और मैं तुझे क्या बता रहा था।  सारी एक ही बात थी, साझी रिश्तेदारी थी। बस, चालीस–पचास सालों से ये सारा फ़र्क पड़ा है। इनके टब्बर में से ही था– सन्तराम जो आर्य समाजी बन गया था।  उसने मुड़कर इनकी ओर मुँह नहीं किया।" ताये ने पलभर रुककर फिर पहली बात पर आते हुए कहा, “अब सारी बात ये है भई कि हमारे अपने अपने नहीं रहे, और तू हमें चूहड़ों के साथ न मिला... हमारी उनसे कैसी साँझ ?... कोई लेना नहीं, कोई देना नहीं,  कोई रिश्तेदारी नहीं। सो, ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाते इस जैसी जाहिल कौम को।"

“धौली दाढ़ी का कुछ ख़याल कर। अगर हम चूहड़ों के घर पैदा हो जाते?  अगर जन्म लेना अपने बस में होता तो मैं चमारों के घर नहीं पैदा होता।" बापू हुक्के का घूँट भरे बगैर ही उनके पास से उठ खड़ा हुआ। घर की ओर बढ़ते हुए ऊँचे स्वर में बोला, “ये कोढ़ नहीं निकलेगा हम लोगों के अन्दर से, सारा बखेड़ा बाह्मणों का खड़ा किया हुआ है। बखेड़ा कैसा, फूट डाल रखी है खाली बैठकर खाने को, हम जैसों से दूसरों के लिए बेगार करवाने के लिए !”

बापू की विचार-शृंखला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह फिर शुरू हो गया, “हमारी क्या जून हुई?  न तीन में, न तेरह में।  कहने को हम हिन्दू हैं, कोई बताए तो सही कि बाह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों में से हम किसमें आते हैं?  न हमारा धर्म, न वर्ण! कोई पूछे तो सही कि हम हिन्दू कैसे हुए !” बापू बोलते-बोलते जैसे हाँफ उठा था। दम मारकर जैसे फिर से बोलने लग पड़ा, “कई बार मेरा चित्त करता है कि हम सिक्ख बन जाएँ।"

“तुझे किसी ने रोका है?... मुझे तो हिन्दुओं-सिक्खों में कोई फर्क नहीं दीखता।  और फिर, सब तो एक ही रब को मानते हैं।" माँ ने बातचीत में जैसे हिस्सा लेने की कोशिश की हो।

“तेरी बात भी सही है कि जात-पात के बारे में सिक्खों में भी हिन्दुओं वाला यह कलंक माजूद है।" बापू को फिर पता नहीं क्या सूझा, वह कहने लगा, “मैं तो कहता हूँ भई, किसी तरफ होकर मर जाओ सब के सब, चाहे जिधर मर्जी मर जाओ।  चाहे सिक्ख बन जाओ, चाहे कुछ और पर हिन्दू न रहो। इस नरक में से निकलो।"  बापू को जैसे कुछ याद हो आया, वह बताने लगा, “कुछेक दिन पहले लाहौरी राम बाली ने एक जलस मे तक़रीर करते हुए कहा था कि डाक्टर अम्बेडकर ने कुछ सम पहले गरीबों, कम्मी-कमीनों को कहा था कि बौद्ध बन जाओ, जहाँ न वर्ण, न जात, सबके सब बराबर हैं। हिन्दू पता नहीं किस गुमान में रहते हैं, कहते हैं– हम फलाने-फलाने से ऊँचे हैं। लानत है–डूब कर मर जाओ कहीं जा़लिमो ! मरे हुओं को मारने वालो!"

“क्यों अपना लहू जलाये जा रहा है? छोड़ परे अब!” माँ ने दबी ज़बान से सलाह दी।

बापू को मानो कुछ और याद आ गया था और वह बिना पूछे बताने लगा, “ये इन्दरसिंह पिछले दिनों माँ को ताना मार गया।  कहता था हरो, दामाद (मेरा फूफा गुलज़ारी लाल) को कहना कि आगे से आड़ में से पानी पिया करे, पतनाले को मुँह लगा कर पिया तो मेरे से बुरा कोई नहीं…। उसने यूँ ही सारी उम्र गुरुद्वारे में ढोलकी कूटते और छैने बजाते बिता दी।"

मेरी आँखों के सामने पिछले दिनों राम गऊओं का वहाँ पर पानी पीने का दृश्य साकार हो उठा। मुझे महसूस हुआ कि हम लोग पशुओं स भी बदतर हैं। हमसे तो पत्थर और बेज़ुबान पशु अच्छे जिनकी इतनी कद्र होती है। पूजा हो रही है ! पल भर बाद मुझे लगा मानो पतनाले से गिरता पानी एकदम खौलने लगा हो और फिर चक्रवात में बदल गया हो।

“क्यों राख को कुरेदे जा रहा है, बुझी हुई आग को फूँकें मार के यूँ ही न लाल-पीला हुए जा !”

“मेरे अन्दर आग की लपटें उठती हैं, ऊपर से तू समझाने बैठी है! अगर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान न बनता तो भाइये (मेरा फूफा गुलज़ारी लाल) ने यहाँ छिक्कू लेने आना था लाहौर से, जहाँ इधर जैसा कंजरखाना फिर भी कम ही है।"

यह सब कुछ सुनते ही मेरे मन में ख़यालों का एक और चक्र चलना शुरू हो गया– फूफा अंग्रेज़ों जैसा गोरा-चिट्टा, ऊँचा-लम्बा, तन्दुरुस्त जवान, एक से एक नया कपड़ा पहनता, अगर उसने चलते रहट के पतनाले को मुँह लगाकर पानी पी लिया तो बाबा इन्दर सिंह को डोलियों, बैड़(रहट का चक्र जिस पर डोलियों की माला चलती है), लट्ठ, गादी के रास्ते भ्रष्टता का ज़हर कैसे चढ़ गया !

इन्हीं विचारों में पड़े-पड़े एक पल को ख़यालों का यह चक्र रहट की डोलियों में परिवर्तित हो गया और कुएँ का ‘पाण’ स्वच्छ व निर्मल पानी के स्थान पर एक शीशा बनकर सामने आ खड़ा हुआ। कई अक्स बनते-मिटते रहे।  कभी इनसे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ बनते दिखाई देते तो कभी इनमें से ज्वालामुखी फूटता। शरीर एकदम से झिंझोड़ा जाता। सोचता कि मैं कहीं इसमें झुलस न जाऊँ ।  सोच का यह सिलसिला पता नहीं अभी और कितनी देर निरन्तर जारी रहता, अगर ध्यान मेरा कंधा ज़ोर से हिलाकर ऊँची आवाज़ में न कहता, “कल, सिवइयाँ खाने का दाँव लगेगा। इस बार दोहलटे कुएँ पर चलेंगे।“

गुग्गा-नौमी के दिन हमारे मुहल्ले की मेरी चाचियाँ-ताइयाँ बरगद वाले गुरदास की जगह पर दीये जलातीं और माथा टेकतीं।  कच्ची लस्सी के छींटे देतीं।  थाल की सिवइयों को बच्चों में बाँटतीं जो पहले से ही कटोरे-कटोरियाँ बजा-बजाकर शोर मचा रहे होते।

गाँव के पूरब की ओर दो-रहट वाले कुएँ पर सिर्फ़ जट्ट, ब्राह्मण और सुनार स्त्रियाँ ही सिवइयाँ चढ़ाने जाया करती थीं।  उन्होंने अपनी बायीं कुहनी ऊपर की ओर मोड़कर, अपने कंधे के बराबर किए और फैलाये हुए हाथ पर थाल टिकाये होते जिन्हें क्रोशिये से बुने सफ़ेद रूमालों से ढका होता और दायें हाथ में कच्ची लस्सी से भरा गिलास या लोटा होता। उनके नए सजीले कपड़े और चाल में एक भरोसा देखते हुए मेरे मन में अनुपात, जमा, घटा और भाग के सवालों जैसा एक सिलसिला शुरू हो जाता। मुहल्ले की औरतों, बहन-बेटियों की तरस भरी हालत की ओर मेरा ध्यान जाने में एक क्षण न लगता जिनके कपड़े मैले, पैबन्द लगे या घिसे हुए होते। उनके बेरौनक चेहरे कतार बनाकर मेरे सामने आ खड़े होते।  उनकी चाल में जमींदारिनों जैसी अकड़ दिखाई न देती बल्कि वे नंगे पैर एक हाथ में खुरपा-दंराती और दूसरे हाथ से सिर पर रखी कपड़े या घास की गठरी को पकड़े दिखाई देतीं या फिर कूड़ा-करकट उठातीं, अपने बच्चों को मारती-पीटती हुइ और उन्हें बुरा-भला बोलती हुई।

खैर, हमारे मुहल्ले के बच्चे उधर दोहलटे ुएँ का भी चक्कर लगा लेते।  इस बार ध्या, रामपाल और सुच्चे के साथ मैं भी बाटी(कटोरा) उठाकर बीच वाली गली में चल पड़ा। सिवइयाँ लेते समय एक-दूजे से आगे होना आम-सी बात होती। जब जाति के नाम पर किसी ने डाँटा-फटकारा और ताना मारा तो मैं वहाँ से चुपके से खिसक पड़ा। मेरे दिमाग में खलबली मच गई।  इस स्थान पर सिवइयाँ लेने जाने का यह मेरा पहला और अन्तिम मौका था।

पर शाम तक मेरे चित्त में आकाश में उठती घटाओं की तरह बादल उमड़ते रहे जो घोर उदासी का रूप धारण करके बरसने भी लगे। कुछ दिन तक मेरा रोम-रोम इन ख़यालों से दबता-कुचलता रहा और मन की यह अवस्था अचानक उस समय बदली जब भिड़ों के झुण्ड की तरह हमारे मुहल्ले के बच्चों के टोलों ने ढोल की आवाज़ की ओर एक-दूजे से आगे निकलने की होड़ में दौड़ना शुरू कर दिया, मानो उन्होंने आपस में शर्त लगा रखी हो।  कोई कमर के ऊपर से नंगा था तो कोई नीचे से।  पल में ढोली के पास पहुँचकर सभी बच्चे भंगड़ा नाचने लगे। बदन से निचुड़ते पसीने की किसी को परवाह नहीं थी।

दरअसल, माधोपुर से दक्षिण की ओर चारेक किलोमीटर की दूरी पर स्थित बिनपालके गाँव का अधेड़ उम्र का इकहरे बदन वाला अच्छरू, जिसके मुख पर माता के दाग थे, छोटी बिल्ली आँखें थीं, खुली पतली दाढ़ी, गले में काले रंग की डोर में लटकता कंठा, सिर पर सीधी-सादी अधमैली सफ़ेद या मोतिया रंग की पगड़ी जिसका एक सिरा लटका हुआ था, बदन पर कुरता-धोती और पाँव में काले क्रोम की जूती पहने, ढोल बजाता इस तरह तेज़-तेज़ कदमों से चल रहा था मानो उसे अभी बहुत सारा रास्ता तय करना हो। हम छोटे बच्चे उसके आगे होकर ढोल की ताल पर नाचते-कूदते तो वह थोड़ा रुककर ढोल बजाने लग पड़ता और आगे बढ़ाया हुआ अपना दायाँ पैर बार-बार ताल के साथ ज़मीन पर इस तरह मारने लगता जैसे वह भी सब कुछ भूलकर छोटा-सा बच्चा बन गया हो।

गाँव के इर्द-गिर्द कच्चे रास्ते पर जाते हुए इस तरह हम पूरे गाँव की परिक्रमा कर लेते। बाज़ी की खुशखबरी साथ वाले गाँवों में महीना-बीस दिन पहले ही पहुँच जाती। बाज़ीगरों ने बाज़ी डलवाने के लिए गाँव बाँट रखे थे और हमारा गाँव अच्छरू के पास था।

बाज़ी प्राय: दोपहर के समय ‘स्यालकोटियों’ के बरगद के नीचे हुआ करती।  बरगद की बड़ी-बड़ी दूर तक फ़ैली डालियों की छाया तले लड़कियों, बूढी औरतों, बुज़ुर्गों, बच्चों और युवकों के साथ सारा गाँव बाजीगर नौजवानों के जौहर देखने के लिए इकट्ठा होता। ढोल बजाने वालों ने तो जैसे पहले से ही जि़द ठानकर मुकाबलेबाज़ी की होती जिसके कारण सारे माहौल में जोश भर जाता।

बाज़ी से तीन-चार दिन पहले ही उन्होंने मिट्टी का एक ढलवाँ छोटा-सा रास्ता बना रखा होता जो आगे से काफ़ी ऊँचा होता, जिसे ‘अड्डा’ कहते। ऊँचे किनारे के ऐन सामने वाले हिस्से के साथ लम्बाई में आठ-दस फुट का एक पटरा(सागवान की लम्बी-पतली मुलायम शहतीर) गाड़ते। जिस स्थान पर मिट्टी खोदी गई होती उसकी बार-बार गुड़ाई करते और उसे अच्छी तरह महीन और मुलायम बनाते। ठीकरों, शीशे के टुकड़ों, कील,प​त्तियों जैसी चीज़ों को बड़े ध्यान से चुग कर बाहर करते ताकि वे चुभें नहीं। वहाँ कूदने, छलाँग लगाने का अभ्यास किया करते।

फुर्तीले और तेज़-तरार नौजवान बाज़ीगरों ने बाज़ी के समय अपने जांघियों को कस कर बाँध रखा होता। उनके शरीर मज़बूत, गठीले और चिकने-चमकते हुए होते कि उन पर मक्खी तक न ठहरती।  वे पश्चिम से पूरब की ओर पटरे तक दौड़ने से पहले अपनी दोनों भुजाओं पर बार-बार हाथ फेरते। फिर तेज़ी से दौड़ कर बायें पैर को ज़ोर से पटरे पर मारते हुए ऊपर की ओर उछलते और पीछे की ओर हवा में छलाँग लगाकर अपनी अगली कलाबाज़ी की कामयाबी के लिए अभ्यास करते।  एक-दो युवक जिनकी मसें भीग रही होतीं, दौड़कर आते और हाथों के बल सिर नीचे और टाँगें ऊपर उठाकर इतनी फुर्ती से घूम कर एक चक्कर-सा बना देते जैसे रहट की डोलियों की माला घूम रही हो। बुजुर्ग आपस में बातें करते, “शरीर को बड़ा संभाल कर रखा है लड़कों ने !"

“धरम से, रूह खुश हो गई लड़कों की ओर देखकर। भई मेहनत से ही शरीर बनता है। हमारे लड़के तो शराबें पी-पी कर पेट बढ़ाये जाते हैं।" एक ज़मींदार ने जैसे अपनी बिरादरी के लड़कों पर रोष प्रकट किया हो।

इसी दौरान ढोलों की आवाज़ और ऊँची हो जाती। बाज़ी डालते जवानों और लोगों में जोश की जैसे बाढ़ आ जाती। बाज़ी बाकायदा शुरू होती, हम छोटे बच्चों के हाथ अपने आप भुजाओं पर हरकत करने लगते– बाज़ी कलाकारों की निरी नकल !

बाज़ी कलाकार कई सीधी और कई उल्टी छलाँगें लगाे।  वातावरण में और धिक उत्साह भर जात। जब कोई नौजवान सिर नीचे और टाँगें ऊपर उठा कर हाथों के बल चलता तो ढोली और कई बुज़ु़र्ग लोग बाज़ीगर का साथ देने की खातिर एक आवाज़ में गा उठते–

कालियाँ घटाँ चढ़ आइयाँ

मोरां ने पैलाँ(नृत्य) पाइयाँ ...,

इस तुक को वे बार-बार दोहराते।

बाज़ीगर दूर से दौड़कर आते, पटरे के शिखर पर पैर से सहारा लेकर लम्बी छलाँगें लगाते, लम्बाई नापते। इसी तरह तेज़ गति से दौड़कर पटरे पर पैर लगाकर छलाँग लगाते और हवा में गुच्छा-मुच्छा किए शरीर की कलाबाजि़याँ दिखलाते। कई बार उल्टी छलाँगें लगाते अर्थात हाथों के बल पर पैरों-टाँगों को फुर्ती से पीछे की ओर ले जाते। लोगों के जोश और उत्साह में जैसे नई जान पड़ जाती।

“धरम से, बड़ी सफाई से तिहरी छलाँग मार गया लड़का।" कोई बुज़ु़र्ग किसी नौजवान की तारीफ़ करता और अच्छरू को रूपये-दो रूपये का नोट पकड़ाता जो हाथ के इशारे से ढोल वाले को रोककर लोगों की ओर मुँह करके कहता, “खाते-पीते रहो सरदारो, तुम्हारी बेलें हरी-भरी रहें।"

जब तक ऊँची छलाँग लगाने की तैयारी की जाती, तब तक ‘अड्डे’ के करीब लोहे के एक रिंग में से निकलने के लिए एक जवान ज़मीन पर सीधा लेट जाता और दूसरा उसके पैरों-टाँगों की ओर से रिंग में से बड़ी मुश्किल से पहले सिर निकालता, फिर धड़। उन दोनों की देहों पर नील पड़ जाते। ढोली उनसे पूछता, “क्यों भई जवानो, लुहार को बुला कर कड़ा कटवाएँ?”

“नहीं, बिलकुल नहीं !” कठिन परीक्षा की घड़ी में उनकी धीमी आवाज़ सुनाई देती। समीप ही बुजुर्ग अपने दोहरे किए शरीर को एक छोटे रिंग में से निकालता और तालियाँ बजाकर गुनगुने स्वर में गाता और निम्न पंक्तियाँ दोहराता–

‘कर लो जतन हजार

तोते ने उड़ जाणा !’

 

फिर बारी आती– आग से खेलने की।  शहतूत की पतली टहनियों को गोल रिंग जैसा आकार दिया होता और उसे पकड़ने के लिए उसके दोनों ओर एक-एक लम्बी टहनी बाँधी होती। रिंग के इर्दगिर्द कपड़े की करतनें लपेट रखी होतीं। जब मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी जाती तो उसे दोनों ओर से दो आदमी पकड़कर खड़े हो जाते और उसे अपनी छाती के बराबर ऊँचा उठाए रखते। आग की लपटें बड़ी होती जातीं। दो खास कलाबाज़ दौड़ कर आते। उनकी बाँहें आगे की ओर और शरीर इस प्रकार तना होता मानो वे कुएँ में गोता लगाने जा रहे हों। वे अग्निचक्र पार कर जाते। लेकिन, कभी-कभी उनकी देह या किसी अंग को आग छू जाती और चमड़ी के जल जाने का हल्का-सा निशान पड़ जाता।

इसी प्रकार, कोई नौजवान कलाबाज आँखों पर पट्टी बाँधकर, कृपाण को दाँतों तले दबाकर जिसके सिरों पर बाँधी गई कतरनों में से लपटें उठ रही होतीं, पाँव के बल उल्टी छलाँग लगाता और उसी स्थान पर फिर पहले की तरह खड़ा हो जाता।

यह कमाल देखकर मैं हैरान रह जाता। मेरे मन में आता कि मैं भी ऐसी कलाबाज़ी सीखूँ। मुझे भी लोग जानें। मेरे जौहर देखकर लोग तालियाँ बजाएँ और मैं खुश हुआ करूँ।

अन्त में, ऊँची छलाँग का नज़ारा देखने वाला होता। पटरे के आगे बाँसों के शिखर पर चारपाई इस ढंग से बाँधी गई होती कि कोई कलाबाज़ अगर अपने निशाने से चूक जाए तो चारपाई पर गिरे। किसी गंभीर चोट से बच जाए। जब सारे कलाबाज़ एक-एक करके छलाँग लगा चुके होते तो पटरा ऊपर की ओर खिसका कर ऊँचा कर दिया जाता। अगली कलाबाज़ी देखने के लिए सभी उतावले हो उठते।

“सरदारो, एक ऊँचा-लम्बा जवान दो।" बाज़ी डलवाने वाला प्रमुख बाज़ीगर ऊँची और विश्वासभरी आवाज़ में कहता।

“‘नोबों’ का मिंदर कहाँ है?  नहीं तो इकबाल सिंह को खड़ा कर लो।"  कोई व्यक्ति बोलता।

महिंदर सिंह, इकबाल सिंह या बारा सिंह का भज्जी–तीनों तन्दरुस्त और आकर्षक नौजवान ! छह फुट दो-तीन इंच ऊँचे ! मज़बूत और गठी हुई देह ! न अंहकार, न किसी से वैर !  वे तीनों बारी-बारी से सीढ़ी जैसी ऊपर वाली चारपाई पर हाथों-बाँहों से छाज को पकड़कर खड़े हो जाते। कभी एक, कभी दूसरा ।  कलाबाज़ पूरी दृढ़ता और भरोसे से बगैर छाज को छुए उसे फलाँगकर तिहरी छलाँग लगा लेते।  साथ ही, ढोल र धमालें पड़तीं। तालियाँ और हल्लाशेरी की आवाज़ें माहौल में गूँजने लगतीं। साथ वाले गाँवों से आए लोग खिसकना शुरू कर देते।  कोई किसी को अपने घर चाय-पानी के लिए ले जाता। इस तरह, धीरे-धीरे यह छोटा-सा बाज़ी मेला बिखर जाता।

देखते ही देखते, बाज़ीगरों की टोली के पास गेहूँ का एक बड़ा ढेर लग जाता। गुड़, चावल और दालों की ढेरियाँ लग जातीं। देशी घी और सरसों के तेल से बर्तन आधे-पौने भर जाते। कुछ नगद रुपये इकट्ठे हो जाते। अच्छरू और उसकी बहुत सुन्दर घरवाली बन्ती, जिसकी ठोड़ी पर फूल और बाँहों पर मोरनियाँ ज़हर-मोहरे रंग की थीं, और जो गाँव में कंघी-सुइयाँ बेचा करती थी, के लिए जट्ट स्त्रियाँ थाल में नए अनसिले कपड़े रखकर लातीं। उनके चेहरे प्रसन दिखाई देते। उन दोनों का जवान बेटा जुगिंदर या भतीजा बिल्लू फुर्ती से कभी गुड़, घी पर से मक्खियाँ हटाता और कभी उनके ऊपर कपड़ा डालता।

इसी दौरान एक जमींदार ने कहा, “चल भई अच्छरू रामा! इसी बहाने चार मन दाने हो गए। अब तेरा साल अच्छा गुजर जाएगा। कुछ बेच-बाच लेना। और फिर तूने कौन सी टाँग घुमाई है, बस चार दिन ढोल ही तो बजाया है।"

“सरदारा, यूँ तो तेरी बात सही है, पर इस बार लागत भी खूब लग गई... मँहगाई देख तो कितनी है !  और फिर महीना हो गया जूतियाँ घिसाते !”

उधर, दानों के ढेर के करीब गुड़-घी पर बैठती-उड़ती मक्खियों की ओर मैं अभी शायद एकटक देखता ही रहता, अगर ध्यान मुझे झिंझोड़कर न कहता, “गुड्ड !  ऊपर देख, ‘बारियों’ के बिक्कर के चितकबरे कबूतर कैसे कलाबाजि़याँ खा रहे हैं।"

ये नज़ारा देखते-देखते मुझे लगा मानो कुछ पल के लिए मैं भी चितकबरा कबूतर बनकर गहरे नीले निखरे आकाश में उड़ने लगा होऊँ। पर मेरी परवाज़ अचानक उस वक्त धरती पर आ उतरी जब मुझे उस जमींदार के शब्द स्मरण हो आए, ‘तूने कौन सी टाँग घुमाई है, चार दिन ढोल ही तो बजाया है।’

इस तल्ख़ टिप्पणी के साथ ही एक और ख़याल आया जिसमें मेरा बापू अपने लाखे चेहरे पर त्यौरियाँ चढ़ाये हुए मेरे मन के आकाश पर प्रगट हुआ। यह निरा ख़याल ही नहीं था बल्कि एक हकीकत थी। जब मैं घर पहुँचा तो बापू मुझे जैसे समझाने लग पड़ा, “बाज़ी वाले लड़कों ने देह तोड़कर रख दी, रौनक-मेला करके लोगों का दिल बहला दिया, पर इन जमींदारों ने धेले जितनी क़दर नहीं की। कहते हैं– कम्मी-कमीनों का काम ही सेवा करना और मन बहलाना है। मैं तो कहता हूँ भई, हमारे मुल्क में से ये ऊँच-नीच का कलंक बगैर जूती के नहीं मिटने वाला।  अगर चार खेत हमारे पास भी हो जाएँ तो फिर कौन पहचाने इन बेकद्रे जमींदारों को !  इनकी नफ़रत भरी निगाहें पता नहीं कब तक घूर-घूरकर देखती रहेंगी।  मगर जिंदा रहने के लिए ये सब कुछ झेलना पड़ता है।  और क्या करें अब? अन्दर ही अन्दर जल-भुनकर रह जाते हैं।"

कुछ देर चुप रहकर बापू मुझ पर अचानक उबल पड़ा, “मामा ! चार अक्खर पढ़ लिया कर, नहीं तो हमारी तरह जमींदारों की गुलामी किया करेगा। सारा दिन देह तुड़वाया करेगा और फिर डाँट-फटकार के बाद मिलेगी दो वक्त की रूखी-सूखी रोटी, जिससे न बंदा मर सके, न जी सके!”

बापू जब भी ऐसी बातों से गुस्सा होता तो सीधा मेरे ऊपर ही बरसता।  मुझे उसकी बातें जँचती थीं पर समझ में नहीं आतीं कि घूम-फिरकर मुझे ही क्यों काटने दौड़ता है। उसकी बातों को, उसके विचारों को सुनते हुए मुझे यूँ लगा मानो वह और ‘कम्मी-कमीन’ लोग अपने दु:खों के साझी बन रहे हों और कठिन समयों में एक-दूजे के सच्चे हमदर्द बन रहे हों और एकजुट होकर अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने की ख़ातिर जूझने के लिए कंटीली राहों के राही बन रहे हों जिन्हें ज़ख्मी और लहुलूहान होकर भी पता नहीं अभी और कितना रास्ता तय करना हो।


 

<< पीछे : थूहरों पर उगे फूल आगे : बादलों से झाँकता सूरज >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में