छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

अपने नाम से नफ़रत

“सारा चमार, टोला पढ़ने बैठ गया।  दिन-ब-दिन इनका दिमाग खराब हुए जाता है। अगर इन्हें नौकरियाँ मिल गईं तो हमारे खेतों में काम कौन करेगा! भइये? जो लाइन लगाकर आते जा रहे हैं! दस बार कहो तो एक बार हाथ हिलाते हैं... ऊपर से दस, दस रोटियाँ फाड़ते हैं।” ‘बूझड़’ ने हम सात, आठ जनों को कालेज जाते देख, सुनाकर कहा।

मैं जो पहले से ही सोच में डूबा था, तुरन्त एक और विचार में पड़ गया कि हमारे माँ, बाप बेगार कर, करके, उधार ले, लेकर हमें पढ़ाते, लिखाते हैं और हम खुद दिहाड़ियाँ कर, करके पढ़ते हैं, किसी से हेराफेरी नहीं करते, फिर इन्हें हमारे बारे में उल्टा सोचने का क्या हक है? अपने लड़कों को बड़ा अफसर बनाने की योजनाएँ बनाते नहीं थकते।  इसके साथ ही, पिछले दिनों उसके द्वारा कसी गई फ़ब्ती मुझे अचानक याद हो आई।  हम उसके खेतों में दिहाड़ी करने गए थे।  दोपहर के बाद की चाय हमारे गिलासों में डालते समय उसने यह व्यंग्य कसा था -

‘चाह (चाय) चूहड़ी, चाह चमारी

चाह नीचों की नीच

पूरन ब्रह्म पार थे

जे(अगर) चाह ना हुंदी बीच।’

यह सुनते ही मन का खुला आकाश एक पल में सिकुड़ गया था।  चाय के घूँट अन्दर करना कठिन हो गया था।  मेरे चित्त में आया कि गिलास वाली गर्म, गर्म चाय उसके मुँह पर दे मारूँ या उसकी धौली दाढ़ी नोच लूँ- जरा बोलना सीख ले कि तन से अधिक मन कैसे दुःखी होकर यह सब कुछ सहता है!  उधर, बापू के शब्द बार-बार मेरे कानों में गूँज रहे थे, “देख, दौड़भाग करके, खरगोश के कानों जैसे नोट उधार पकड़कर तुझे कालेज में दाखिल करा दिया। बंदे का पुत्त बनकर पढ़ाई के साथ-साथ दिहाड़याँ भी करना। ब्याज समेत मूल लौटाना है।”

इस तरह के ख़्याल, जुबान पर आए मेरे शब्दों को निगल जाते और एक भयानक, सा हादसा अन्दर ही अन्दर घटित होकर रह जाता।

लोग उसे ‘बूझड़’ इसलिए कहते थे क्योंकि उसकी चितकबरी, सी दाढ़ी गालों पर ऊपर तक घनी घास की तरह उगी हुई थी जिसे वह मरोड़कर अन्दर की ओर ठूँस लेता था।  इस तरह उसकी दाढ़ी बया के घोंसले जैसी पोली और लटकती हुई दिखाई देती। गालों पर और आँखों के आसपास इतनी चरबी चढ़ी हुई थी कि देखने वाला दंग रह जाता कि इसे दिखाई कैसे देता है!

जब ‘बूझड़’ के शब्द याद आते तो दिल पर गंडासा चलता।  आगे बढ़ने वाली सोचों के छोटे-छोटे टुकड़े हो जाते।  फिर, मन को ढाढ़स मिलता जब यह ख़्याल आता कि कोई चाहे जो सोचे, समय के पहिये को सदैव आगे ही चलना है, पीछे की ओर नहीं।

लेकिन, इन गर्मी की रातों में दीये की काँपती लौ में पढ़ते हुए मेरा मन बापू के बारे में सोचकर लौ की भाँति काँप उठता।  निगाह यद्यपि किताब पर होती, पर ध्यान उसकी नित्य की हाड़तोड़ कमाई की ओर होता।  जब बापू के बड़े परिवार के बारे में सोचता तो मन भयभीत हो उठता कि हम सात भाई, बहन, उनमें से दो छोटे हैं जो बारी-बारी से माँ का दूध पीते हैं।  एक ने दूध के दाँत अभी निकाले ही हैं और दूसरे के अभी टूटे नहीं।

दरअसल, मैंने इन छोटे भाई, बहनों के जन्म से पहले अपनी माँ को कई बार स्पष्ट शब्दों में कहा था, “मुझे और नया बहन, भाई नहीं चाहिए।  हमारी तंगियाँ बढ़ रही हैं और बहनों को गोद में उठाते हुए मुझे अब शर्म आती है।”

माँ मेरे इस विचार से कभी सहमत होती और कभी नाराज!  अन्त में, दलील देती, “रब की देन को कोई कैसे धक्के मारे।” जब कभी वह बापू से मेरी कही बात का ज़िक्र करती तो वह जूती उठाकर मेरे पीछे पड़ जाता, “साला अंगरेजों का... लग गया अकल देने... तेरे कहे मैं बेकार होकर घर में बैठ जाऊँ?”

मैं बहुत समझाता, घर की खराब हालत और पढ़ाई, लिखाई में पड़ रहे विघ्न की बात करता। ऐसा इसलिए कि बापू, माँ और दादी समेत हम दस सदस्य चार खानों के दालान और इस पिछली कोठरी में सोने को विवश थे। बरसात के दिनों में अन्दर उमस और घुटन होती। जाड़े के दिनों में तो हमारे पास पाँच, सात पशु भी बाँधे जाते थे। घर में भीड़, निरी सिर पीड़! तौबा, तौबा!

फिर मुझे लगता जैसे मेरी ज़िम्मेदारी पहले से बढ़ गई हो।... और अन्य बातों के अलावा मैंने अपनी कमाई के पैसों में से शीशे की चिमनी वाला टेबल, लैम्प खरीद लिया।  लपट की लौ स्थिर हो गई।  मुझे लगा जैसे कोई भी हवा अब घर के अन्दर पसर रही रोशनी को अँधेरे में तब्दील नहीं कर सकती। मेरे पास लैम्प क्या हो गया, मैं मन ही मन खुश होता रहता जैसे बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो।  लेकिन, रात में अलग कमरा न होने में मुझे वक्त की बर्बादी और अपने भविष्य की खराबी नज़र आने लगी।  एक जुगत सूझी कि क्यों न दिन के समय किसी दरख़्त के नीचे या फिर बरगद, पीपल की शाखाओं को काट कर बनाई गई गुरुद्वारे की कुटिया में बैठकर पढ़ा करूँ और रात में अपने सहपाठी रामपाल की बैठक में पढ़ना, सोना शुरू करूँ।

और उधर, कालेज की पढ़ाई का अपना मज़ा!  हालाँकि मुझे स्टेशन तक पहुँचने के लिए लगभग चार-पाँच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। हाथ में किताब-कापी, घूमने-फिरने की अपनी मर्ज़ी।  पढ़ने के लिए पंजाबी, हिंदी, अंग्रेजी के अख़बार। अल्मारियों में बन्द पड़ा अथाह ज्ञान! सोचता- दिनों में ही ये मेरे लहू में रच-बस जाए। आगे बढ़ने के लिए सामाजिक व्यवहार और पिछला बहुत कुछ भूलने की कोशिश करूँ।  मैं बड़े चाव के साथ पढ़ने के लिए कालेज जाता।

इन्हीं दिनों (५ अक्तूँबर,१९७२ ) को अचानक मोगा गोली कांड की घटना घट गई।  हमारे सरकारी कालेज, टाँडा सहित आसपास के सभी कालेज बन्द हो गए।  लेकिन, विद्यार्थी संगठनों की गतिविधियों का दौर शुरू हो गया।  लम्बे-चौड़े वायदों और अन्य विद्यार्थी जानकारी देने वाले भाषण दिए जाने लगे। सुनकर खून खौलता।  पर मेरी टाँगें उस वक्त अचानक थर-थर काँपने लगी थीं, जब एक अजनबी विद्यार्थी नेता ने कपड़े में लिपटी हुई कोई वस्तु मेंरे हाथ में पकड़ाई। मुझे पता नहीं चल रहा था कि आख़िर यह है क्या? दस, पंद्रह मिनट बाद वह अपनी वस्तु मुझसे वापिस लेते हुए और मेरे मुँह की ओर देखते हुए बोला, “क्यों डर के मारे मरा जाता है, डरपोक कहीं का!”

मैं बोझ, मुक्त हो गया। हालात को देखते हुए हम कई दिन कालेज नहीं गए। मगर कुछ दिन बाद साहस करके एक ही कक्षा में पढ़ने वाले मुहल्ले के सभी लड़के घरवालों की इच्छा के विरुद्ध कालेज जाने के लिए तैयार हुए।  बापू ने एक बार फिर समझाया, “जट्टों के छोकरों के पीछे न लगना...।”

बापू की यह बात मेरे मन, मस्तिष्क में गहरे उतरती लग रही थी।  मैं सोचता- बापू बार-बार इस तरह क्यों चेतावनियाँ देता रहता है?

कालेज जते हुए राह के किनारे बाँस, नीम, शीशम आदि के दरख़्तों और केलों के झुरमुट के बीच, कुएँ वाली बीती हुई घटना जबरन याद हो आई। उस वक्त मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ता था और मेरी माँ को ताई तारो ने दबी आवाज़ में कहा था- “गुड्ड को छुट्टी कराकर हमारे रहट कुएँ चलाने के लिए भेज दे, मेरा अवतार स्कूल चला जाएगा।”

दूसरे गाँव में मैं रहट चलाते समय गाधी पर बैठा झूले ले रहा था कि ताई सुबह का नाश्ता ले आई और कहने लगी, “गुड्ड, ज़रा नीचे उतर, तेरे ताये के लिए पीने का पानी भरना है।  तू तो आड़ में से ही पी लेना।”

यह बात मेरे दिल में शूल की तरह इस तरह गड़ गई जैसे शही (तारो के पति उधम सिंह का उपनाम) गाड़ी हाँकते हुए भैंसों के पुट्ठों में बेरहमी से आर(चोभा) चुभा देता था।  मेरी डबडबाती आँखों का पानी आँखों में ही जज़्ब होकर रह गया था, जैसे छेदों वाली रहट की डोलियों में से कुएँ का कुएँ में गिरता पानी!

इस वाकये की लम्बी लड़ी बीच में ही तब टूटी, जब अचानक सामने छिड़ी हुई मधुमक्ख्यिों की ओर मेरी निगाह गई।  मुझे लगा, रास्ते के साथ वाले खेत में बैलगाड़ी पर ‘कड़ब’(सूखा चारा) लादते मज़दूरों की तरह मैं भी चारों ओर से मधुमक्खियों से घिर गया होऊँ।  मैं बेबस होकर उजले भविष्य की प्रतीक्षा में कितनी ही देर तक सहपाठियों के संग नीचे ज़मीन पर बैठा रहा।

कालेज अभी भी बन्द था और विद्यार्थी सड़कों पर बिफरे साँड़ों की तरह घूमते दिखाई देते थे। कोई नेतानुमा विद्यार्थी बाँहें उठाकर ऊँची आवाज़ में कहता, “साथियो!  बटाले में गोली चल गई है; दो, तीन विद्यार्थी ज़ख्मी या शहीद हो गए हैं। ये इम्तिहान की घड़ी है। आओ, सभी मिलकर संघर्ष को और तेज़ करें, सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए अपने अपने लहू से अँगूठे लगाएँ, मैमोरंडम भेजें। भरोसा रखो, जीत तुम्हारी है- इंकलाब ज़िन्दाबाद!  इंकलाब ज़िन्दाबाद!!”

हमने अपने लहू, सने अँगूठे पूरे जोश के साथ काग़ज़ों पर लगा दिए। नए शब्दों से परिचय हुआ।  परिणामस्वरूप कालेज ३९ दिनों तक बन्द रहा।  सर्दी का मौसम आ गया।

कालेज के दिनों में मुझे अपने नाम का पहला हिस्सा ‘बलबीर’ और इसका अर्थ अच्छा लगता।  दूसरा, यह ‘सिक्खी’ के अनुरूप लगता।  किसी दूसरे के लिए एक चुनौती, ललकार! मोटी बात यह कि इसमें जाति का कलंक न झलकता।  नाम का पिछला हिस्सा ‘चंद’ मुझे हिन्दू आस्था से जुड़ा हुआ महसूस होता, जिसने हमारे लोगों को अपने शिकंजे में कसा हुआ है।  इसमें से हीन, कमीन की दुर्गन्ध चारों ओर फैलती महसूस होती।

अक्सर, मुझे वह दिन याद आता जब मेरा बड़ा भाई बख्शी दशहरे के दिन भोगपुर से ‘सीता-राम’ का कैलेंडर ले आया था और मैंने देखते ही उसे फाड़कर पैरों के नीचे मसल दिया था। उस वक्त मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था।

बापू ने शायद मेरी मंशा को समझते हुए कहा था, “यह क्या किया, कमूत की मार? ऐसा करने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा?”

“कहते हैं- इस राम ने शम्बूक ऋषि का अपने हाथों क़त्ल किया था, क्योंकि वह रब की भक्ति करता था।” मैं एक मासूम की तरह सुना-सुनाया बताने लगा था, “राजा राम चंदर दूसरे देश से आए आर्यपुत्र हैं... अपने आप को श्रेष्ठ समझने वाले! और हम यहाँ के बाशिंदे हैं- इन्होंने हमारा राजपाट छीन लिया और हमें अछूत बना दिया...। धोखे से हमें गुलाम बना लिया...। बेरहमी के साथ जान से मार देते हैं।... किसी किले का निर्माण करना हो तो बलि अछूतों की, कोई और बड़ा ‘पुण्य’ का काम करना हो तो बलि का बकरा -अछूत! धर्म के नाम पर यह कुकर्म?... हम तो गुरुद्वारे से बीड़(श्री गुरु ग्रंथ साहिब) लाकर पाठ कराते हैं... हम हिंदू कैसे हुए” मैंने दम लेकर फिर कहा, “भूल गया जब जालंधर से आई हिंदुओं की ढाणी हमारे लोगों को पंजाबी में समझा रही थी कि अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाओ।... और मैंने आगे बढ़ कर कहा था- हम पंजाबी बोलते हैं, हमारी मातृभाषा पंजाबी है।”

“और हमने कौन-सा उनका कहना मान लिया? हम क्या नहीं जानते थे कि लोगों में फ़र्क डालने के लिए ये सारे मन्सूबे हैं।” बापू ने जानकारी और भरोसे के साथ कहा।

मुझे निरंतर बोलते और तर्क देते देखकर बापू ने उस दिन बेशुमार बातें कीं। कहने लगा, “चाहता तो मैं भी हूँ कि हम हिंदू समाज की पाखंडी, दम्भी चालों की गहरी जड़ों को उखाड़कर इस तरह उल्टा दें जैसे पिछले दिनों हमारे बरगद, पीपल के दरख़्तों को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था। पर बात यह है भई कि अकेले-अकेले आदमी के करने से कुछ नहीं होने वाला।  यह तो सारे भाईचारे का साझा मसला है, साहस के साथ साझा कोशिश होनी चाहिए।”

उसने अपनी पगड़ी को ठीक करते, उसे दोनों हाथों से अपने सिर पर अच्छी तरह बैठाते हुए मेरी ओर तसल्ली भरी नज़रों से देखा; मानो वह मेरे अन्दर अपना भविष्य तलाश रहा हो! फिर मुझे लगा, मेरी हरकतों और मेरी बातों पर बापू पहले मानो ऊपरी तौर पर ही झिड़कता रहा हो।

मेरे मन में बार-बार आता कि अपना नाम बदल लूँ।  इस बारे में मैंने पूछ-पड़ताल नहीं की। नाम बदला नहीं जा सकता, यह सोचकर मेरा मुँह झुलसे हुए बैंगन जैसा हो जाता। उदासी की एक हल्की, सी परत कभी-कभी मेरे चेहरे पर उस वक्त झलकने लगती, जब कोई व्यक्ति मेरा हालचाल पूछता।

इन्हीं शशोपंज से भरे दिनों में वार्षिक परीक्षा के दौरान बस के अन्दर एक छोटी-सी घटना मेरे मन पर एक काव्य, हादसा बनकर घटी।  इस घटना ने मेरे नाम की समस्या को और अधिक गंभीर बना दिया।  बात इस प्रकार के वार्तालाप में हुई-

“जानबूझकर तूने दो-तीन बार मेरे पैर पर पैर रखा...।” हमसे पिछली वाली सीट पर से एक ग़ैरतमंद और रौबदार जनाना आवाज़ आई।  हमारी गर्दनें एकदम पीछे की ओर मुड़ गईं। कुछ सवारियाँ तिरछी नज़रों से देखने लगीं।

हमारे मुहल्ले का एक लड़का जो हमारा सहपाठी था, बहुत भोला बनकर कह रहा था, “मैंने शरारत नहीं की।  अनजाने में ही पैर लग गया होगा, मुझे पता नहीं...।”

“बड़ा ओवर क्लैवर बनके बता रहा है, घर में माँ-बहन नहीं? बस थाने ले चलो।” उस सुन्दर-सी लड़की ने कंडक्टर से कहा। गुस्से में बोलती उस लड़की का रंग लाल हो गया था और चेहरा और भी रौबदार!

“चल, छोड़ बीबा, बात खत्म कर।” एक बुजुर्ग ने लड़की से कहा और हमारे साथी को समझाते हुए बोला, “आज के बाद ऐसी हरकत नहीं करना।”

जैसे ही अड्डा आया, हम छलांगें लगाते हुए उतर गए।  लड़की मदद के लिए लोगों को पुकारती रह गई।

चार कदम ही आगे गए थे कि उस सहपाठी लड़के ने कहा, “धर्म से, हल्की भूरी आँखें, तोते की चोंच जैसी तीखी नाक, गोरा चेहरा, गोल ठोड़ी और खूबसूरत दिखने वाली उस लड़की को देखकर भूख मिटती थी।”

“मिटती कि चमकती?” मैंने व्यंग्य में कहा। दो-चार कदम और आगे बढ़ने के बाद मैंने कहा, “आज के पंजाबी पेपर में प्रसंग सहित यही व्याख़्या लिख देना।”

देर रात तक यह घटना मेरे ज़ेहन में और गहरे उतर गई।  अगले तीन-चार दिनों और रातों को यही ख़्याल आता रहा कि वह लड़की सच्ची थी।  उसकी बात को किसी ने गंभीरता से लिया ही नहीं।

अगले पेपर से पहले छुट्टियाँ आ गईं, तो मैं गुरुद्वारे की झोपड़ी में पैन-काग़ज़ लेकर बैठ गया।  मुझे महसूस हुआ कि बचपन का काव्य-बीज मन में अकस्मात फूट पड़ा है। मैं घटना को लिखने के लिए छटपटाने लग पड़ा। 

सांयकाल तक मैं शब्दों को जोड़ता-तोड़ता, लिखता-मिटाता रहा। कुछ तुकबन्दियाँ बनीं और आख़िर, डेढ़-एक पन्ना भर गया। मन पंख फैलाकर नृत्य करने लगा। मित्रों को वे तुकबन्दियाँ सुनाईं जिनमें उस लड़की के हक में बात की गई थी। मेरे यत्न को सराहा गया। मैं काव्य अभ्यास करने लगा।

कालेज की पत्रिका ‘तारिका मंडल’ में कविता छपने की बात चली तो मेरा नाम मेरी सोच के सामने पहाड़ जितना सवालिया निशान बनकर खड़ा हो गया। नृत्य करता मोर जैसे पैरों की ओर देखकर दुःखी होता है, वैसे ही मैं अन्दर ही अन्दर बर्फ़ के टुकड़े की तरह घुलता रहता।  कहने का तात्पर्य यह कि मेरे दिल में अपने नाम को लेकर पैदा हुई नफ़रत शिखरों को छूने लगी थी।  मैं मन में नए नाम की तरकीबें सोचने लगा ताकि कम से कम अपने हिंदू नाम को बदल सकूँ।

 

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