छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

हमारा, चमारों का बरगद

“ये बरगद, पीपल के बीच इतना फासला था कि हम जब बच्चे थे, बीच में से निकल जाते थे।” एक दिन मस्ती में आए बापू ने घर के सामने वाले बरगद, पीपल के दरख़्तों का ऐतिहासिक प्रसंग छेड़ दिया, जिसके बारे में जानने की मेरी हार्दिक इच्छा को सहज ही बौर पड़ गया।

 “अब देख लो, दोनों एक, दूजे से कैसे लिपटे हुए हैं, बीच में से हवा भी पार नहीं हो सकती।” इतना कहकर बापू चुप हो गया, पर मैं उतावला था कि बात जारी रहे।

“इन बेजुबानों ने बिना बोले, बिना चले, जवान होकर एक दूसरे को गले लगा लिया, और इधर बंदा है, साला बंदे को पास नहीं फटकने देता।” बापू ने चुप्पी का छोटा, सा दरिया पार करके बात आगे बढ़ाई, लेकिन उसके ताम्बई माथे पर, आलू वाले खेत की मेड़ों जैसी त्यौरियाँ उभर आई थीं।  मुझे अपने बापू के चेहरे से उसके अन्दर चल रहे जोड़, घटाव का अहसास हुआ।  आँखों के सम्मुख बरगद, पीपल के खड़, खड़ करते पत्तों के झड़ने का दृश्य साकार हो उठा और साथ ही, नई कोंपलें चमकती हुई दिखाई दीं।

“तुझे और बताऊँ... ये बरगद, पीपल के दरख़्त हमारे बापू (पिता-राम दित्ता) और झीरों के राम सिंह के बाबा(दादा) ठाकर ने मिलकर लगाए थे।”

यह सुनकर मैं इन दरख़्तों और मनुष्यों की उम्रों के हिसाब में पड़ गया।  अपने दादा की मौत, दादी और अपने बापू की उम्र से मैंने यह अंदाज़ा लगाया कि इन दोनों दरख़्तों को १८७६ से १८८० ईसवी के बीच लगाया गया होगा।

“अगर ज्यादा ही पीछे पड़ा है तो और सुन... ये बरगद के नीचे खड्डियों वाली १६ मरले की जगह अपनी बिरादरी के लोगों ने मिलकर ‘निचले मुहल्ले’ वाले करतार सिंह से बिना लिखत, पढ़त के खरीदी थी और ‘पक्कों वाले’ भाई हरबंस सिंह ने इसे नापा था।  उन दिनों कमीन जाति के लोगों को खेती के लिए तो क्या, कोठा डालने तक को भी जगह खरीदने का हक नहीं था।  इन्तकाले अराजी कानून लागू था- उसके तहत चमार, चूहड़े पैसे देकर भी अपने नाम ज़मीन नहीं खरीद सकते थे।” बापू एक खास बहाव में बह चला था, जिसमें मैं किसी तरह की रुकावट पैदा नहीं करना चाहता था।

जट्ट, ब्राह्मण, सुनार, बढ़ई, नाई, झीर, सरेहड़े आदि जातियों का सतनाजा हमारे बरगद को ‘चमारों का बरगद’ ही कहा करता था।  कभी गाँव का कोई जट्ट दूसरे से पूछता कि वह किधर से आया है, तो वह प्रत्यत्तर में बताता, “चमारली की तरफ़ गया था।  चार चमार कमाद(गन्ना) की अध, दिहाड़ी

के लिए करके आया हूँ।”  कई ‘चमारड़ी’ शब्द का प्रयोग करते।  बापू उस जट्ट के चले जाने के बाद कई बार ‘साला चमारों का !’ जैसी गालियाँ बककर अपने मन की भड़ास निकाला करता।

फ़सल कटाई के दिनों में मजदूरी पर गेहूँ काटने के लिए जट्ट रात के खाने के समय या तो हमारे बरगद के नीचे या फिर मुहल्ले के चक्कर लगाया करते।  कइयों ने कच्छे के ऊपर मैला, सा कुरता या बनियान पहन रखी होती।  अँगोछा कंधे पर होता जिसे वे टाँगों पर से मच्छर हटाने के लिए बार, बार इस्तेमाल में लाया करते।  उनके चले जाने के बाद बापू अक्सर ही कहता, “पता नहीं, इन जट्टों को कब अकल आएगी?  भई तू घर में आया है, कमर में धोती, तौलिया ही बाँध लेता।”

हमारे सभी परिवारों के लोगों को मालूम होता कि किसकी रोही या मैरे वाली भूमि पर, किसकी रकड़ वाली, छल्ल वाली या फिर घड़ल्लों वाली भूमि पर गेहूँ की फ़सल भारी है।  रेत के टीले वाली गेहूँ की कटाई की तरफ़ अधिक लोग मुँह न करते।  कहते- कौन साला हाड़ तुड़वाये, टीले में सूखे दाने की गेहूँ में।

कोई व्यक्ति गेहूँ मज़दूरी पर काटना तय कर लेता।  तीनों समय रोटी और दो बार चाय भी मिलती।  कई जट्टों को मेरा बापू और ताये के बेटे जवाब दे देते कि फलाने के जाना है।  पीछे से कहते, “भरी(पूली) तो तोलकर उठवाता है मामा, बुरी नीयत वाला, और खामखाह पीछे पड़ा रहता है। कहता है- तुम हुक्का, बीड़ी ज्यादा पीते हो।  भला, इस बहाने दम न मारें तो टिकने कहाँ दें।  सारा दिन चमड़ी भुन जाती है और पूली देने के समय सौ, सौ नखरे करते हैं।”

पीपल के शिखर की डालियों पर सुबह, शाम मोर बैठते और ‘कियऊँ, कियऊँ’ की आवाज़ें निकालते।  फिर वहाँ से उड़कर हमारे घरों की छतों पर बैठकर नृत्य किया करते।  हम चुग्गा डालते, वे हमसे कम ही डरा करते।  कौवे बरगद की गूलरों को चोंच मारते।  चिड़ियाँ बार, बार उड़तीं और फिर बैठ जातीं।  बरगद, पीपल के इर्दगिर्द मैंने कई अवसरों पर मौली के धागे बँधे देखे जिसके बारे में मैंने एक दिन बापू से यूँ ही पूछ लिया था।

“गाँव के पूरब की तरफ़ ‘वलियों के मुहल्ले के बरगद और हमारे बरगद का विवाह पूरी रस्मों के साथ किया गया था- गाँव के लोगों ने बड़ी खैर, सुख मनाई थी।”

बापू बरगद, पीपल की काफी मोटी और लम्बी डालियों और उनकी सघन छाया की ओर इशारा करके कहता, “हमारे लिए तो इन दरख़्तों ने बड़ी लहरें, बहरें लगा रखी हैं, यूँ ही क्यों कहें।  इनकी खैर माँगने के लिए मौली बाँध देते हैं, और क्या...।”

इनके नीचे हमारी बिरादरी के बहुत से परिवारों की खड्डियाँ थीं और रोटी, रोजी इन्हीं पर निर्भर थी।  खड्डी के काम में घर के सभी सदस्यों को लगना पड़ता था। जैसे, पहले सूत की अट्टियों के चीरू बनाए जाते, फिर उन्हें चरखड़ी पर चढ़ाकर चरखे की तकली पर नड़े काटे जाते। बापू तानी के लिए सरकंडे गाड़ता जो नीचे से जुड़े होते और ऊपर से अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर की शक्ल के होते।  यह एक लम्बी इकहरी पाल होती। कभी वह दो, दो सरकंडे दोहरी कतार में गाड़ता।  तकलियों के साथ गाड़े हुए सरकंडों की दरारों के बीच में से ताने को निकाल कर उन्हें तानता।  ऐसा करने पर हवा के कारण बनी एक लहर, सी दिखाई देती।  जब नड़े का धागा खत्म हो जाता तो नए नड़े के धागे के सिरे को थूक लगाकर पहले वाले धागे के संग मरोड़ी देता।  शाम तक जल्दी, जल्दी ताना तनता।  मेरा बड़ा भाई बख्शी भी इस काम में हाथ बंटाता।  बापू अगले दिन ताना खींचकर उस पर मांड़ी चढ़ाता।  ऊपर से एक बड़ी कूची को फेरता ताकि धागे आपस में जुड़ न जाएँ।  फिर ताना इकट्ठा करता और ‘रश’ के साथ उसका एक, एक धागा

थूक लगाकर मरोड़े देकर जोड़ता जाता।  फिर पल्लू के लिए खड्डी पर चढ़ाता।  अब बाने के लिए नलियाँ तैयार की जातीं।  बापू खड्डी में टाँगें लटकाकर बैठता।  वह पैरों से पंजाले की पसार बारी, बारी से दबाकर ताने के बीच में से नाल को कभी दायें और कभी बायें हाथ से फुर्ती के साथ निकालता।  अगर नुकीली नाल (जिसमें नली, धागा होता) धीमे चलती तो उस पर सरसों के तेल का हाथ मलता।  वैसे भी काली लकड़ी की नालघिस, घिसकर इतनी मुलायम हो जाती कि हाथों में से फिसलती रहती। बापू और ताये की खड्डी के पास कुछ पड़ोसी जट्ट बातें करने के बहाने बैठा करते थे।  इनमें से ताया हरी सिंह, जिसे गाँव के सभी लोग हरी राम या लुंज कह कर बुलाते थे, या उसका बड़ा भाई चन्नू मुझे प्रायः हाँक मारा करते, “गुड्ड, रत्ते बामण से लम्प की डिब्बी तो पकड ला दौड़कर।”  ताया चन्नू सिर खुजलाता और भोगपुर की चीनी मिल में हुई घटनाओं को हँस, हँसकर सुनाता।

मैं दौड़कर दुकान की ओर जाता और झट से सिगरेट ले आता।  दोनों भाई (ताया हरी सिंह और चन्नू) कभी इकट्ठे तो कभी अकेले, अकेले खड्डियों में आकर सिगरेट पर सिगरेट फूँका करते।  उनके ताये का बेटा रेशू (रेशम सिंह) अपने पास रेडियो रखता था और शाम को झुटपुटा होने तक यहाँ बैठा रहता था।  उसका सिर बीचोबीच से गोलाई में मुंडा हुआ देखकर मेरी हँसी निकल जाती।  मुझे यह बार, बार देखने का अवसर मिलता जब ताया अपने ‘केश’ सुखाता या फिर सिर को हवा लगवाता।  कई बार ज्ञानू नाई उसके सिर के बीच वाले बाल यहीं बैठकर मूंड देता था और कभी दाढ़ी का खत बना देता था।  ताया अनब्याहा था, इसलिए कई लोग उसे पीठ पीछे ‘छड़ा’ या ‘बोक बकरा’ भी कहा करते थे।  इतने में कभी, कभी तोतों का एक समूह तीर का निशान बनाता हुआ हमारे सिरों पर से उड़ते, बोलते गुज़र जाता।

बापू जब खड्डी में से उठकर घर से नलियाँ लेने के लिए आता या पेशाब करने के लिए उठता, तो मैं चोरी, छिप्पे हुक्के का कश मार लिया करता।  बापू मेरी यह करतूत देखकर दूर से ही मुझे बहन, बेटी की गालियाँ बकने लग पड़ता।

तभी, गाँव की कोई जट्टी आ जाती।  बहुत, सी जट्टियाँ अपने पास से सूत या रुई देकर बापू से सफेद खेस, चादरें आदि बुनवाया करतीं।  वे मेरी माँ को अपने घर बुलाकर सूत या रुई तराजू में तौलकर देतीं।  माँ के साथ हिसाब करके बदले में मेहनत की एवज में गेहूँ या मक्की के दाने दिया करतीं।  कई बार मैं भी माँ के संग उनके घर जाने की जिद्द करता। जब मेरी माँ को जट्टी सूत या लोगड़ (पुरानी रुई) की गाँठ उठवाती तो साथ ही कहती, “सीबो, रुक जरा, लड़के को गुड़ की डली दे दूँ, बहल जाएगा।” मेरे चेहरे पर रौनक आ जाती।  मुँह में पानी आ जाता।  मैं अपनी हमेशा बहती नाक को अपने कुरते की बाजुओं से बिना हाथ लगाए पोंछ लिया करता।  माँ से आगे दौड़कर घर पहुँच जाता।

इन खड्डियों पर फौज के लिए तौलिये बुने जाते।  लहरिया बुना जाता। सिल्क, लीलन की ११०, ११० गज का ताना और ३०, ३० गज का थान होता।  जब कभी सिल्की ताने की खड्डी और खुंडे के बीच कुछ झोल पड़ जाता तो बापू मुँह में पानी भरकर उसे पिचकारी की तरह फर्राटे के साथ बाहर छोड़ता।  मैं यह देखकर अपने जैसी छोटी, सी हँसी हँसता।  बापू दो, तीन बार इसी तरह पानी उलीचता तो ताना फिर से तन जाता।  फिर वह हाथ और पैर के दस, दस नाखूनों को फुर्ती से हरकत में ले आता।

“ताने का उस वक्त साला मलता क्या था, पाँच रुपये थान के!  ताने का सारा कच्चा माल होशियारपुर के गाँवों- जौड़ा, खानपुर, चंडियाल, ख़लासपुर के मुसलमान जुलाहों और नैणोवालिये मुंशी से बुनने के लिए लाया जाता था।  सारा रास्ता पैदल तय करना पड़ता था और दो, दो मन की गाँठें सिर पर उठाकर लानी पड़ती थीं।  कभी तेज, चिलचिलाती धूप, कभी बारिश, कभी आँधी, कभी कड़ाके की ठंड ! फिर भी, आते, जाते थे।” बापू ने दुःखी होकर एक और अकथ कथा शुरू कर दी।  अब मैं देखता हूँ कि ये गाँव सात से सत्ताईस किलोमीटर की दूरी पर बसे हुए थे।

 “हम तो शायद पैदा ही जुल्म झेलने के लिए हुए हैं, कैसा जीना था उस वक्त हमारा !” बापू ने दुखती रग पर एक बार फिर हाथ रखा।

“एक बार पता है, क्या हुआ ?  भोगपुर की चौकी का दरोगा यहाँ खड्डियों में आ गया।  धरम से खूब जवान था साला !  मुझे और धन्ने को कहने लगा कि कल थान लेकर थाने आओ।  अपनी ओर से हम कितने सारे थान ले गए।  उसने एक, एक थान हम दोनों से छाँटकर रख लिया।  हम खड़े रहे कि कुछ देगा।  वो बहन का खसम तो उल्टा दबका मार कर कहने लगा, दौड़ जाओ, मेरे मुँह की तरफ़ क्या देखते हो !  धरम से हमारी लातें काँपने लगीं।  हम फौरन थाने से निकल पड़े कि कहीं कोई और माँ का यार आकर ठगी न कर ले।” बापू बात को विस्तार देता रहा।  कुछ पल बाद, वह फिर अपनी पहली वाली बात पर आ गया, “इन खड्डियों में बड़ी रौनकें हुआ करती थीं।”

यह सुनकर मुझे बाल उम्र में इस बरगद के झरे हुए पीले पत्तों की बनाई गई फिरकियाँ घूमती हुई दिखाई दीं, जब मैं हवा के खिलाफ दौड़ता हवा हो जाता था।  यह स्मरण करते हुए मेरे तन, मन पर इस बरगद, पीपल की छाँव की तरह रौनक पसर गई।  विवाह, शादी के अवसर पर बाँधे गए लाउड, स्पीकर साकार हो उठे।  जादूगरों और तमाशा दिखाने वाले की ओर से देशी ठेके की शराब की बोतलें, अनसिले कपड़ों के सूट और अन्य बहुत, सा सामान निकाले जाने पर मैं अन्दर ही अन्दर खुश होकर रह गया।  पीतल के बर्तन कली करते कारीगर की अँगीठी के धुएँ से मुझे खाँसी उठती महसूस हुई।

“हमारा दीवान (मेरा ताया दीवान चन्द) हीर का किस्सा पढ़कर सुनाया करता था।  बड़ी सुरीली आवाज थी। आधा गाँव इकट्ठा हो जाता था।” बापू ने कहा।  अब उसके चेहरे पर हल्की, सी मुस्कान तैर रही थी।

इसी दौरान, मुझे अंधे साधू गरीब दास का ख्याल हो आया जो गर्मियों में बरगद के नीचे ‘पूरन, भगत’, ‘कौलां’, ‘तारा रानी’ और ‘दहूद’ का किस्सा सुनाया करता था।  वह एक हाथ से इकतारा और दूसरे हाथ में पहने मजीरे बजाता। वह बीच, बीच में प्रसंग सहित कथा की व्याख्या भी किया करता। साथ, साथ हुक्के का कश भी भर लिया करता।  उसकी लम्बी, भरवां सफेद दाढ़ी और मूँछें धुआँखी होकर लाखे रंग की हो गई थीं और उसके गेरुए रंग के चोले से एकमेक हने का भ्रम पैदा करती थी।  उसके घने केशों में जुओं और लीखों की भरमार का दूर से ही पता लग जाता, जब वह अपनी पगड़ी के नीचे निरन्तर खाज करता।  गरीब दास को सभी ‘अंधा साधू’ ही कहा करते।  गाते समय कई बार वह मुझसे कहता, “गुड्ड, चिलम में आग रख दे।” वह आधी, आधी रात तक गाता रहता।  चलते समय कोई उसे न्योता देता, “महाराज, कल हमारे यहाँ परशादा छक लेना।”

एक और अंधे साधू का मुझे स्मरण हो आया जिसने अपना नाम असलाम रखा हुआ था।  वह भरपूर कदकाठी वाला आदमी था। हाथ में ‘समों’ वाली लाठी रखता था और हरे रंग का चोला और हरी टोपी पहनता था।  साल में दो, तीन बार हमारे गाँव में आकर कुछ दिन तक रहता था, हमारे घर के बिलकुल साथ वाले घर -मेरे बापू के ताये के बेटे के घर में।  वह कव्वाली, काफी और दूसरे धार्मिक गीत गाया करता।  वह हारमोनियम या सारंगी बजाता।  उसके अन्य मुरीद तबला और सारंगी बजाया करते।  उसे हाल, सा आ जाता।  उसकी आवाज़ ऊँची होती जाती जो थमने का नाम न लेती।  वह साधू था तो हमारी बिरादरी का पर, उसने इस्लाम को अपना लिया था-सामाजिक समानता की खातिर।  उसके प्रवचनों के कारण मेरे अपने ताये के तीनों बेटों ने उसे अपना मुर्शिद बना लिया था।  उसे गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी का भरपूर ज्ञान था।  वह कई ग्रंथियों के गलत गुरबाणी उच्चारण को पकड़ लेता और सरेआम फटकार लगाता।  वह चुनौती देता, “मेरे से पूछो कौन सा शबद कितने सफे पर है।  मेरे से गुरु ग्रंथ साहिब बेशक उल्टा पढ़वा लो।” गाँव के कई लोग उसके विचार सुनने के लिए आया करते।

“एक बार हमारे महने वाले सन्तों ने इन खड्डियों वाली जगह पर, बरगद के नीचे दरबार साहिब का खंड पाठ करवाया।” यह बात शुरू करके बापू ने जैसे मेरे ख्यालों की लड़ी को और जोड़ने, बढ़ाने की कोशिश की।  हालाँकि मैं बहुत छोटा था, पर मेरे सामने सन्त रामलाल का गोरा, सुन्दर चेहरा प्रगट हो गया जो उनकी दूध जैसी सफेद दाढ़ी से मेल खाता था।  गुणी, ज्ञानी होने के कारण पूरे गाँव में उनकी अच्छी मान्यता था।  भोग के समय लगभग सभी बिरादरियों के लोग उनके वचन सुनने के लिए आए।  जब परसाद बाँटा जाने लगा तो वे सब बारी, बारी से हाथ धोने या पेशाब करने के बहाने खिसक गए।  इस घटना की चर्चा हमारे लोग कई दिनों तक करते रहे।  कहते- “अगर परसाद नहीं लेना था तो आए क्या थन लेने थे !”

बरसात के दिनों में बुनाई का काम बहुत कम हो जाता।  ऐसा इसलिए कि इन लोगों ने गाँव के या फिर साथ लगने वाले गाँवों- सोहलपुर, माणकढेरी, रास्तगो, सिकंदरपुर, ढड्डा, सनौरा के जट्ट, जमींदारों से भैंसें आधे पर या दो, तिहाई हिस्से पर ली होतीं, जिन्हें वे बरगद के नीचे ही बाँधा करते।  लस्सी, दही के साथ बरगद के पास वाले कुएँ में से डोलू से पानी निकाल, निकालकर इन्हें नहलाते।  पूछों को मूँडते, धलियारे(पट्टे) डालते।  मेरा बापू भैंसों के गले में घंटियाँ और पाँवों में झाँझरें पहनाता।  हमारा पूरा परिवार इनके आगे, पीछे ही लगा रहता।  हम- मेरा बापू, मेरा बड़ा भाई और मैं- गाँव के निकट से बहते नाले में से या टीले पर से रेत लाकर इनके नीचे डालते।  सर्दियों में मैं और मेरा बड़ा भाई बख्शी राहों में उगे शीशम के पेड़ों के झरे, बिखरे पत्तों को बटोरकर लाते। कभी, कभी खेतों में से गन्नों की पत्ती जट्टों से चुराकर इकट्ठी कर लाते और पशुओं के नीचे डालते।

जब भैंसें ब्याने वाली होतीं तो बाजिब मूल्य पड़ता।  अक्सर जट्ट खरीदा करते।  इस प्रकार मेरा बापू साल, ड़ेढ साल बाद भैंस का रस्सा, संगल खोलकर जट्ट के हाथ में पकड़ा देता।  घर के अन्य सदस्यों के मुँह लटक जाते। कभी, कभी भैंस हमारे घर में ही ब्या जाती। मैं कटड़ा, कटड़ी के साथ खेला करता, उससे लाड करता। जब कटड़ा रस्सा चबाता तो मैं खुश होता।  मैं उसके मुँह में नरम, नरम घास डालता तो वह उसे और मेरे हाथ को चबाने की कोशिश करता।  मेरी आँखें नम हो जातीं।  पल भर बाद मैं उसका सिर सहलाने लग जाता।  इसी मोह के कारण मैं भैंस के पीछे जा रहे कटड़े के लिए जिद्द किया करता था।

“हम एक और भैंस ले आएँगे-पंज कल्याणी, भूरी, मीमी, सी !” कई बार माँ मुझे बहलाती।

बापू अपने पहले घर गई भैंस की तारीफें करता न थकता, “धरम से, बड़ी अच्छी थी।” कभी कहता, “हमारे पास पैसे होते तो हम रख लेते।  हमें तार देती वो, बड़े रवे की थी। पर हमारी साली किस्मत कहाँ ?”

इस बरगद के नीचे रुलिया नाई हमारी हजामतें बनाया करता।  हम सभी बच्चे उसे ताया कहकर बुलाते थे।  सिर के बाल काटते समय वह हमें नीचे ज़मीन पर बिठा लेता और कुरता उतरवा लेता।  वह पास बैठे ताये मंहगे या दलीपे से लेकर हुक्के का घूँट भरता रहता।  कितनी, कितनी देर बैठा मैं थक, ऊब जाता तो बाल सुइयों की तरह चुभने लगते।  कैंची, मशीन के बाद उसका आखिरी हथियार उस्तरा हुआ करता।  वह अपनी गुच्छी में से उसे निकालता तो पहले उसे चमड़े के एक गोल आकार के टुकड़े पर दो, चार बार कभी इस ओर से तो कभी उस ओर से रगड़कर घिसता।  फिर उसकी धार को परखता और दायें हाथ के अँगूठे के साथ वाली दो उँगलियों को पानी से भरी कटोरी में भिगोकर, कनपटियों और कानों के पीछे के हिस्से को तर करता।  मैं दहल जाता, वह ‘बस, बस’ कहता तो उसके कानों की बालियाँ झूलने लगतीं।  वह फिर मेरे सामने ज़मीन पर रखे छोटे से शीशे को उठाकर अपनी कुतरी हुई दाढ़ी और मूँछों को सँवारता।  अपने बालों की लटों को सफेद परन्तु मैली पगड़ी के नीचे खोंसता।  जब बापू कटे बालों को देखता तो टिप्पणी करता, “कंजर की सारी उमर गुज़र गई, पर बाल बनाने नहीं आए।  देख कैसे ऊबड़, खाबड़ बाल काटे हैं।  देख तो सही सीबो, साले ने इधर भी लड़के के खरोंचें डाल दीं।”

एक बार मैंने बापू से पूछा, “ताया हमारे बाल काटने चार किलोमीटर दूर ढड्डियाँ से आता है।  हमारे गाँव में भी तो ताया ज्ञानू और उसका बापू बाबा नत्था सिंह बाल काटते हैं।”

“वो हिन्दू नाई हैं। हमारे बाल नहीं काटते।  बापू यह कहकर दूसरे काम में व्यस्त हो गया। बात मेरे पल्ले पूरी तरह न पड़ी।  पर ताये ज्ञानू को मैंनेकई बार जट्टों के पशुओं की पूँछों के बाल काटते देखा था।

बरगद, पीपल के नीचे खड्डियों वाली खुली साफ, सुथरी जगह होने के कारण यहाँ कोई न कोई सरगर्मी बनी रहती।  विवाह के दिन निश्चित किए जाते।  विवाह होते।  बारातें ठहरतीं।  मातम की घड़ी में लोग यहीं पर आकर बैठा करते।

इस बरगद, पीपल के कारण हमारा मुहल्ला समूचे गाँव के मनोरंजन का साधन भी था।  इस जगह पर ‘नकलें’ हुआ करतीं।  ‘साल’ होता।  ‘साल’ की रस्म साल भर बाद अक्सर बरसात के बाद ढोर, डंगर की खैर, सुख के लिए निभाई जाती थी, जो चमारों के फर्जों में शामिल थी।  इसकी तैयारियाँ महीना भर पहले ही आरंभ हो जातीं।  हम चढ़ती उम्र के लड़के अपने से बड़ों के साथ ‘साल’ के लिए ‘सामग्री’ तथा दूसरी रस्में निभाने वाले चेलों और नकलचियों की खातिर रसद के लिए एक पशु पर सवा सेर के हिसाब से घर, घर से अनाज उगाहने जाया करते।  हमारे और कई गरीब जट्ट परिवारों के घरों में अनाज का अभाव होता, जिस कारण वे अपने पशुओं की गिनती घटाकर बताया करते।

‘साल’ पशुओं की मुँह, खुर की बीमारी को हटाने और ‘सिद्ध’ देवता को रिझाने के लिए होता।  इसकी रस्में सम्पन्न करने वाले ‘भगतों’ का मुखिया कडियाणे वाला किरपा हुआ करता।  वह ऊँचा, लम्बा और चौड़ी छाती वाला व्यक्ति था।  उसने भगवे वस्त्र पहन रखे होते और गले में कई मालाएँ होतीं।  उसकी बेटी नंती मारे घरों में ब्याही हुई थी और उसका दामाद मस्सा भी उसका चेला था।  वह अपने आप को मस्सा सिंह कहलवाता था, पर गाँव के बच्चे उसे मस्सा रंघड़ ही कहा करते, पीठ पीछे।  किसी की गाय, भैंस दूध न देती तो वह आटे के पेड़े को हाथ में लेकर मुँह में कुछ बुदबुदाता और फिर रुक, रुककर फूँकें मारता।  बाद में पेड़ा कराने आई स्त्री के बारे में उत्साह में भरकर कहता, “साली गाय को पट्ठे डालती नहीं, दूध क्या आसमान से टपकेगा ?”  वह बातों, बातों में मीठे मजाक भी कर लेता, “आ गई लेकर, हाथ हल्का कराने। कहती है- भाइया, बहू के पैर भारी नहीं होते।  भई भाइया इसमें क्या करे ?” वह कई बार हँसी, ठिठोली वाली बात नाक में बोला करता।

‘साल’ की शुरुआत हमारे घर की पिछली कच्ची दीवार के साथ मिट्टी के एक छोटे से लिपे, पुते चबूतरे पर बाबा सिद्ध चानो के नाम पर कुछ श्लोक, मंतर पढ़ने के साथ हुआ करती।  संग्रांद, अमावस्या को हमारे मुहल्ले के लोग अपने पशुओं की तंदरुस्ती के लिए इस चबूतरे पर मीठी मोटी रोटी और चूरमा बच्चों को बाँटा करते जो आम तौर पर गेहूँ, मक्की के आटे और गुड़ के मिश्रण से पकाये, बनाये जाते।

बाबा सिद्ध चानो या बाबा सिद्ध वली चमारों का एक प्रसिद्ध शक्तिशाली देवता और पशुओं का रखवाला माना जाता है।  सवेरे, शाम बाबा सिद्ध चानो और भगवान कृष्ण का ‘अखाड़ा’ लगता।  हारमोनियम बजाता भगत श्लोक पढ़ता और दो भगत आपस में मल्लों की तरह कुश्ती करते।  भगत कथा सुनाता कि कृष्ण जी महाराज बड़े नीतिवान और योद्धा थे।  एक बार उनकी बाबा सिद्ध चानो के साथ टक्कर हो गई।  अट्ठारह दिन तक ‘अखाड़ा’ लगा रहा। कृष्ण जी बाबा सिद्ध को चित्त न कर सके।  आखिर, दिन छिपने के बाद कृष्ण ने अपने पैर के पद्म द्वारा ऐसा कर दिया कि लगा सूरज अभी अस्त नहीं हुआ, और आराम कर रहे बाबा सिद्ध को कृष्ण जी ने धोखे भरी चाल से चित्त कर दिया।

‘अखाड़े’ वाले अन्तिम दिन की रात को ‘साल’ होता।  गाँव के लोगों सहित आसपास के गाँवों के लोग इतनी बड़ी संख्या में आते कि घरों की मुंडेरों पर स्त्रियों, बच्चों, सयानों की कतारों से एक और दीवार बनी हुई दिखाई देती। आरती, अरदास होती, गुरु रविदास की महिमा होती तो ‘भौरा’ चिमटे से जलते कोयले के टुकड़े उठा, उठाकर मुँह में रखता, उन्हें निगल जाता, कभी चबा कर भी खाता।  कभी दाँतों के बीच कस लेता, अन्दर से बाहर की ओर फर्राटा मारता, अँगारे छोड़ता। भगत साथ, साथ गाते रहते, “भौरा आग खाएगा...।” लोग हैरान होते।  जैसे ही रस्म पूरी होती तो साजिन्दे एकदमआवाज़ उठा देते, “था थैया... था थैया !” साथ ही नर्तक जिसने लड़कियों वाला लिबास पहना होता, उछलता, कूदता तबले, बाजे वालों के समूह में आ

 

मिलता, बोल उठाता-

विच्च भाफाँ छड्डे शरीर

कुड़ती मलमल दी ...।

 

या

 

लक्क मिण ना दर्जिया मेरा

सूट सी दे वन पीस दा।

 

या

 

गलगल वरगी जट्टी

खा लई ओ काले नाग ने।

 

इसके साथ ही रुपये, रुपये की ‘वेलों’ की शुरुआत हो जाती। जब निकट वाले किसी गाँव का कोई व्यक्ति या गाँव के एक धड़े का आदमी पाँच सौ एक की वेल कराता तो वेलों का एक सिलसिला बेल की तरह लम्बा होता चला जाता। टकूए, लाठी या बरछे के साथ नोट बाँधकर ऊपर हवा में उठाये जाते। नर्तक लड़का दायें हाथ के अँगूठे और तर्जनी को मुँह में डाल कर सीटी बजाता तो साजिन्दे पल भर के लिए अपने साजों की आवाज़ें धीमी कर लेते, “वेल, रुपये की वेल, एक सौ एक रुपये की वेल, मीते छड़े की वेल, मेरे खसम मीते की वेल !” ऐसी वेलें छड़े अपने लिए कह कर करवाते थे। 

कई बार कोई शराबी इस ‘लड़की’ को ‘पकड़’ लेता।  वह भी प्रत्युत्तर में आँख दबाकर शराबी टोलियों को खुश करते हुए उनकी जेबें खाली करवाने में सोलह कला सम्पन्न होने का सबूत देता।

हमारे गाँव में ‘नकलों’ के लिए माणकढेरी (होशियारपुर) से मिरासी आया करते थे।  इन मिरासियों को वहाँ के लोगों ने १९४७ के दंगों में पाकिस्तान नहीं जाने दिया था।  ‘साल’ वाले ‘भगत’ और ‘नक्काल’ पिप्पलां वाला गाँव (होशियारपुर) की चमार बिरादरी के थे।  नक्काल और भगत, जट्ट और सीरी के रूप में नकल उतारते जिसके संवाद कुछ इस प्रकार से होते -

जट्ट-    हाँ भई धन्ने, नौकर लगेगा?

कम्मी-   जी सरकार !

जट्ट-    बोल क्या माँगता ?

कम्मी-   खाऊँगा, पिऊँगा तुम्हारे सिर।

जट्ट-    खाना, पीना हमारे सिर।

कम्मी-   लीड़ा, कपड़ा पहनूँगा तुम्हारे सिर।

जट्ट-    लीड़ा, कपड़ा हमारे सिर।  और ... , ?

कम्मी-   तेल, साबुन तुम्हारे सिर।

जट्ट-    हाँ, तेल, साबुन हमारे सिर ! और ... ?

कम्मी-   जूती तोडूँ तुम्हारे सिर।

 

इसके साथ ही हँसी, ठहाकों के गुब्बारे और ऊँचे हो जाते।  ‘जट्ट’ इस ‘कम्मी’ की दायीं पसलियों पर चमड़े की तिकोनी पटाकी बरसाता।  ‘नक्काल’ ने तो पहले ही कुरता गले तक ऊपर उठाया होता।

इस प्रकार, मनोरंजन भरी रात का तीसरा पहर हो जाता। ‘साल’ वाला ‘भगत’ बीच में टोककर कहता, “खुशिया, भीमा जहाँ कहीं भी बैठे हों, चबूतरे पर चले जाएँ।”

‘साल’ की अन्तिम रस्मों को पूरा करने के लिए ‘भगत’ किरपे को चारपाई पर बिठाकर चार लोग कंधा देकर गाँव की पश्चिमी हद पर ले जाते, जहाँ वह एक ‘टूना’ करता और पशुओं पर पड़ी ‘भारी’ उनके शरीरों से बाहर निकालता।  चारपाई के आगे की ओर हाथी की सूँड बनाकर ‘हाथी की सवारी’ का भ्रम पैदा किया होता।  जाते समय आपस में बातचीत न करने की सख़्त हिदायत होती थी। एक, दो बार ये रस्में देखने के लिए मैं भी संग गया था।  हद से कुछ पहले ही हमें रोक दिया जाता कि ‘चीज़’ बच्चों पर वार न कर दे।

“भई, इस बार बहुत ‘भार’ पड़ा। बड़ी भारी थी पशुओं पर।” लौटते हुए बात चली।

“किरपे भगत का भार कौन सा कम है !  खुशिया सबसे ज्यादा ठिगना है, तभी ज्यादा भार उसके ऊपर पड़ा।” मैंने सोचा।

पौ फटने से पहले ही जागर चौकीदार हाँक लगाता, “माल-डंगर साल के नीचे से निकालो भई ...।’

‘स्यालकोटियों’ के बरगद की डाल से लाल कपड़े में लपेट कर बाँधे नारियल, सामग्री और मौली के धागों के नीचे से गाँव के एक, एक पशु को निकाला जाता।  यह डाल पूरे रास्ते पर यूँ फैली हुई थी, मानो किसी शाही दरवाज़े का ऊपरी हिस्सा हो। इस रस्म के बाद सारे गाँव के घरों, हवेलियों के अन्दर जल के छींटे दिए जाते।  गुग्गल, धूप की धूनी दी जाती।  कुछ सामग्री बाँटी जाती ताकि अगले दिनों में लोग इसका धुआँ पशुओं को देते रहें।

हमारे बरगद, पीपल के नीचे गर्मी और बारिश के मौसम में ‘बारां टाहनी’ ‘नक्का पूर’ और ताश के खिलाड़ियों की टोलियाँ जुटती थीं।  हुक्कों की गुड़गुड़ होती।  कई बार तो बरगद से कुछ फासले पर ‘नांगों के पोखर’ पर टर्राते मेढकों की टर्र... टर्र... और हुक्कों की गुड़गुड़ एक, दूसरे में विलीन हो जाती।

इन दिनों में मेरी बुआ और मुहल्ले की बहन-बेटियाँ अपने भाई, भतीजों को राखी बाँधने आतीं।  राखी वाले दिन ये राखियाँ बापू आदि अपनी, अपनी बाँहों पर घंटा, दो घंटा  ही बाँधकर रखते और फिर इन्हें उतारकर हुक्के की नै से सजा कर बाँध दते थे, जो वहाँ पर महीना भर बँधी रहतीं।

बरगद की छोटी डालियों पर छोटे बच्चों के लिए झूले डाले जाते।  बड़ी स्त्रियों, जवान औरतों के लिए पीपल की मोटी डाल पर मर्द खुद झूले डालकर देते थे।  ताई तारो (जट्टी) और चाची छिन्नी इतनी ऊँचे, ऊँचे झूले लेतीं कि मेरे जैसी छोटी उम्र वालों के दिल घबराने लगते थे और कई बार ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह जाती।

हमारा बरगद जहाँ बरसातों में समूचे गाँव को पूरियों के लिए पत्ते उपलब्ध करवाता और अन्य खुशियों का वसीला बनता, वहीं भय, चिन्ता, तनाव और लड़ाई, झगड़े का गवाह भी बनता।  जब कभी जट्टों का कोई जवान लड़का अपनी बैलगाड़ी हमारे घरों के सामने से निकाल रहा होता, गाड़ी में खड़ा होकर बैलों की नथों में डाले रस्सों को पकड़कर पुचकारना शुरू कर देता और गाना गाने लगता, फिर हमारे घरों की ओट जैसी बाहरी कच्ची दीवारों के ऊपर से हमारी सुन्दर और मासूम, सी बहन, बेटियों को ताकता, झाँकता।  हमारे लोगों में से कोई आदमी पलट कर बोलता, “मामा ! गड्डा गाँव के बाहर वाले रस्ते से नहीं जाता क्या ?” या फिर कहता, “तू बैठकर गड्डे को नहीं ले जा सकता ?” कोई अन्य व्यक्ति मुँह में बड़बड़ाता, “बना फिरता है रानी खाँ का साला, हर वक्त धौंस देते हैं कि हगना, मूतना बन्द कर देंगे।  तुम क्या रब को ढूहा (गाँड) देकर आए हो जो तुम्हें ये जमीनें मिल गईं। हम नहीं तुम्हारे जैसे !”

कई बार शराब में धुत्त बख्तौरा या उसका छोटा भाई ‘लम्बा सोढी’ आकर हल्ला, गुल्ला करते, माड़ी धाड़ चमारली!(चमार, बिरादरी कमजोर है !) दोनों बिरादरियों में आमने, सामने टक्कर हो जाती।  लाठियाँ हवा में लहराने लगतीं।  साथ ही, गालियों की मिसाइलें दागी जातीं।  पाँच, सात मिनट की यह घटना उस समय खत्म होती जब ताया चन्नण सिंह अपने बेटों को बुरा, भला बोलता और सब लोगों से कहता, “बात को खत्म करो, मेरी सफेद दाढ़ी की इज्जत मिट्टी में मिला दी औलाद ने !”

“इस बरगद के नीचे हमारे साथ क्या, क्या नहीं हुआ ?” बापू ने अन्दर की बात इस लहजे में कही जैसे वह हमें कुछ बताना चाहता हो।  यह रात की रोटी खाने के बाद का समय था।

“हाँ, बता बापू।” मैंने बेसब्री में कहा।

“हमलों (भारत, पाक विभाजन) से पहले नम्बरदार शेर सिंह सीधा यहाँ हमारी खड्डियों पर आया करता था।  हुक्म देता था- ठाकरा, तू और खुशिया, कल थानेदार की घोड़ी के लिए घास ले जाना।”

“आँधी हो या बरसात, हम मजबूर होकर थाने में घास लेकर जाते। पहले नम्बरदार को घास की गाँठें दिखाते।  वह दोनों हाथों से गाँठ को ऊपर हवा में उठाकर तोलता, साथ ही देखता कि घास बढ़िया भी है कि नहीं।  थाने पहुँचकर हम वैसे ही डर जाते थे।  जब तक मुंशी की तसल्ली न होती, हम गाँठों के पास खड़े रहते।  बड़े बुरे दिन थे !  डाक्टर अम्बेडकर और मंगूराम उठे, तब कहीं जाकर ये कुछ ठीक हुए।  बँटवारे के बाद भी पुलिस वाले आते रहे, पर हमने घास ले जाना बन्द कर दिया कि अब तो मुल्क आज़ाद हो गया।”

“और बताऊँ !” बापू की आँखों में लाली चमक रही थी।

“बता।” हमने कहा।

“एक बार गाँव लड़ोआ का ज़ैलदार अच्छर सिंह और शेर सिंह नम्बरदार इधर से गुज़र रहे थे।  हम सब अपने ध्यान में खड्डियों में बुनाई कर रहे थे।

 

 अचानक, ज़ैलदार अपनी घोड़ी से उतरा और चाचा छज्जू पर डंडे बरसाने लगा।  बोला- मेरी घोड़ी की रास नहीं पकड़ी।  चाचा ने खूब मिन्नत, बिनती की कि सरदार जी, आपको देख नहीं पाया... , नहीं तो रास पकड़ लेता।  पूरी चमारली को गालियाँ बकता रहा, फटकारता रहा। कहता था- तुमने घोड़ी के पैरों की आवाज़ नहीं सुनी ?  धरम से, हम सब खड्डियाँ छोड़कर अपनी, अपनी जगह थर, थर काँपते रहे।  आखिर, शेर सिंह ने ज़ैलदार को कहा-छोड़ो भी अब, सरदार जी।  छज्जू राम, आगे से ख्याल रखना।  इतना कहकर दोनों घोड़ियों पर चढ़ कर रास्तगो की ओर चल दिए। ज़ैलदार साले को जज जितने हक मिले हुए थे, जिसे चाहे अन्दर कर देता था, जिसे चाहे छुड़वा देता था।  कहते हैं, सात खून माफ थे साले को, तभी तो दुनिया डरती थी उससे ! बेगार कराने को हमारे कितने ही आदमी ले जाता था, बहन का खसम !”

बापू का क्रोध किसी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा था। फिर मुझे लगा कि वह हमें आज़ादी के असली अर्थों को समझने के लिए प्रेरित कर रहा हो।

अँग्रेजी सरकार के पिट्ठू इस ज़ैलदार को मैंने भोगपुर के थाने के पास कई अवसरों पर वहँ घूमते देखा था।  उसे उन दिनों में ही देखा जब वह मरों जैसी ज़िन्दगी काट रहा था।  लेकिन, उसकी पगड़ी का कुल्ला (तुर्रा) तब भी किसी घमंड की हामी भरता सिर पर ऊँचा उठा दिखाई देता था।

बापू ने कहा, “ऐसा होता रहा हमारे साथ, जैसे, तैसे पढ़, लिख लो ससुरो !  ज़िन्दगी सुधर जाएगी। अब तो पहले से ज़मीन, आसमान का फर्क है।”

फिर, वह दिन भी आ गया जिसके बारे में मैंने कल्पना में भी नहीं सोचा था और वह मेरी याद का एक न भुलाया जा सकने वाला वाकया बन गया। 

 

यह १९७२ के फरवरी महीने की बात है।  मैं दसवीं कक्षा के अन्तिम दिनों में था। स्कूल से लौटा तो देखा कि हमारे बरगद, पीपल को काट दिया गया था। कटे हुए ये दरख़्त देखे नहीं जा रहे थे। किसी पुराने वक्त में जंग में शहीद हुए शूरवीर के टुकड़ों की तरह बरगद, पीपल की लम्बी, मोटी डालियाँ ज़मीन पर पड़ी थीं।  तने की छाती पर जागर चौकीदार और उसके बेटे जल्लादों की तरह तेजी से आरा चला रहे थे।

अभी हाल ही में बीता जाड़ा मुझे बरबस याद आ गया जब भारत, पाकिस्तान जंग के दौरान हमारे बहुत से परिवारों ने ब्लैक, आउट रातों में इनकी शरण ली थी। इनके नीचे कई मोर्चे खोदे गए थे। जब आदमपुर हवाई अड्डे या भोगपुर की शुगर मिल के आसपास पाकिस्तानी बम गिरता तो हम लोग दौड़कर इन मोर्चों में जा छिपते थे।

इन डरावनी रातों में इस बरगद, पीपल के नीचे ठीकरी पहरे के लिए गाँव के लोग इकट्ठा होते। खौफ़ के दौरान भी मैंने वहाँ ज़िदगी को धड़कते देखा था।  हँसी, मजाक को इंदर सिंह का स्वर्णा तूल देकर उस समय शिखरों पर पहुँचा देता जब वह ठहाका लगाकर कहता, “इन जाड़े की रातों में चोरियों का भेद दशहरे से पहले ही खुल जाएगा, क्यों किशने?” हम छोटी उम्र के सारे लड़के इस राज़ वाली बात को समझ जाते।

बरगद, पीपल के कटे टुकड़ों को देख मुझे लगा मानो सभी के सिरों पर से एक साया उठ गया हो। खड्डियों वाली जगह नंगी हो गई थी। हमारे लोगों पर होते ज़ुल्मों के गवाहों का खात्मा कर दिया गया था।

इस दुःखदायी घटना से मेरे घरवालों के चेहरों पर अफ़सोस का मातमी पहरा प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था। दादी ने अगली सुबह पौ फटने तक बददुआओंकी झड़ी लगा रखी थी, “कमबख्तो, तुम्हारा नाश हो !  जैसे तुमने मेरा दिल दुखाया, रब तुम्हारे साथ भी ऐसा ही करे !”

अपने ब्याह के बाद से ही दादी ने इस बरगद, पीपल को बड़े होते देखा था और इन दोनों की छाया का आनन्द लिया था।  उसके दिल को दुःखी करने वाली बात यह भी थी कि उसके पति के हाथों लगाई गई इस निशानी का नामोनिशान मिटा दिया गया था।

बापू ने भी बड़ा दुःख मनाया। पर उसने यह कहकर दिल को तसल्ली दे ली कि चलो, जो हो गया, सो हो गया, अब जट्टों के छोकरे तो नहीं आकर बैठेंगे यहाँ !

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