छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

बरसात में सूखा

“बिरजू, ध्यान से मेरी बात सुन। जैसे-तैसे दसवीं कर ले, तेरा मामा डी सी  लगा हुआ है, कहीं नौकरी लगवा देगा, तेरी जून सुधर जाएगी।” बापू और माँ ने मुझसे चार बरस बड़े भाई को बार-बार समझाया। बख्शी (बिरजू) सन् १९७० में अपनी दसवीं की पढ़ाई अधबीच में ही छोड़कर घर बैठ गया था। मैं उसी वर्ष नौवीं कक्षा में आया था।

डी सी शब्द सुनते ही मुझे वह निखरा हुआ दिन (१९६४) याद हो आया, जब बरगद-पीपल के नीचे बापू, ताया रामा और मुहल्ले के अन्य लोग खड्डियों पर बैठ कर बुनाई कर रहे थे और जालंधर से कपड़ा बेचने आये बजाज हंसराज और भगवान, जो आपस में साला-बहनोई थे, कपड़ों की चलती-फिरती खुली दुकान पहले की भाँति सजाकर ग्राहकों के पसन्द के थान उनके सामने फेंक रहे थे।

तभी, माँ ने दौड़ते हुए आकर बापू की खड्डी के पास बैठे बख्शी को पोस्टकार्ड पढ़ने के लिए कहा था। सभी लोग बख्शी के मुख की ओर देखते हुए चुपचाप गौर से सुनने लगे, “मैं आई ए एस बन गया हूँ, बधाई!”

आई ए एस  बनने वाली बात समझ में नहीं आई। फिर हंसराज ने चिट्ठी पकड़ी और पढ़ी।  बोला, “पहले लड्डू मँगवाओ, फिर बताऊँगा क्या बात है।”

समीप खड़े हम सब लोगों के चेहरे खिल उठे थे। बापू ने उतावला होते हुए पूछा था, “लाला, फौरन बता, यह क्या होता है?”

 “आई ए एस  डी सी लगा करते हैं, सीबो बहन बधाई! तेरा भाई इतना बड़ा अफसर बन गया है।”

बापू दौड़कर जैराम की दुकान से लड्डुओं का थाल भरवा लाया जो पूरे मुहल्ले में बाँटे गए। लोग अकेले-अकेले या समूह में बधाई देने के लिए हमारे घर आए थे।

चक्रवात की तरह आया यह ख़्याल फिर से मन के किसी कोने में समा गया और बख्शी का दुबला-सा चेहरा सामने आ गया।

और इधर बख्शी ने एक ही ‘ना’ पकड़ रखी थी, “ चाहे एक बार कहलवा लो, या सौ बार...,मुझे नहीं पढ़ना।”

 “चल, बात खत्म हुई।  कल से हमारे संग दिहाड़ी पर चलना।” बापू ने इस आस से कहा कि शायद रोज़-रोज़ के कठिन काम और मालिकों की डाँट-फटकार आदि की सोच कर अभी भी वह पढ़ने के लिए हाँ कर देगा।

 “दिहाड़ी-मजूरी पर कोई नया जाना है? चार-पाँच सालों से जा रहा हूँ जब तीन रुपये दिहाड़ी के तेरे हाथ पर रखा करता था, भूल गया?” बख्शी ने याद दिलाया।

 “अच्छा, जैसी तेरी मर्जी!” बापू ने न चाहते हुए भी अपनी सहमति दे दी।  कई दिनों तक बापू का मन उदास रहा जैसे किसी चीज़ के खो जाने का दुःख हो। उसने हुक्के की नली अपनी ओर घुमाई और एक लम्बा कश भरने के बाद बोला, “सारी आस-उम्मीदों पर पानी फिर गया।”

तभी, रामा ताया ने बाहर वाले दरवाज़े की दहलीज़ लाँघकर अन्दर आते हुए और ह दोनों  भाइयों  को अपनी दादी की चारपाई पर बैठे देखकर अपने मजाकिये स्वभाव में कहा, “ बिरजू और घिरजू ने थाणेदार के गंड़ासी मारी...,।”

ताया ने लाड़ से हमारे कई नाम रखे हुए थे।  वह खाँसते हुए घर में प्रवेश करने की बजाय हमारे बारे में कोई टोटका, कभी कोई तुक बोलकर घर के अन्दर पाँव रखता और मेरी माँ फुर्ती से दो हाथ लम्बा घूँघट निकाल लेती।

बापू के पास ताया के बैठने की देर थी कि उसने हुक्के की नली उसकी ओर कर दी। उसने जल्दी-जल्दी लम्बे-लम्बे कश भरे।  ताया कभी धुएँ को मुँह में से, कभी नाक में से छोड़ता और कई बार पता ही न चलता कि धुआँ चला किधर गया।  वह उसे कितनी ही देर तक मुँह में ही रोके रखता। फिर उसने सहज ही पूछ लिया, “कैसे मुँह लटकाये बैठे हो? जैसे कुड़ी (लड़की) दफनाकर आ रहे हो। बताओ तो सही।”

 “इसके मामा को क्या बताएँगे? पढ़ता नहीं या हम इसे पढ़ा नहीं सकते? क्या सोचेगा वह हमारे बारे में?” बापू ने प्रश्न पर प्रश्न खड़े कर दिए जिनमें से जवाब भी झलकते थे।

 “पढ़-लिखकर कहीं काम लग जाएगा। आगे तू अपना सोच-विचार कर ले।” ताया ने कुछ दिन पहले की तरह बख्शी को फिर से समझाया।

मैंने देखा, बापू का अधेड़ उम्र का चेहरा मुरझा गया था। वह एकटक धरती की ओर देखता रहा मानो किसी खोई हुई चीज़ को खोजने का यत्न कर रहा हो।  मैंने देखा कि बापू की तीन-चार दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी में सफेद बालों की गिनती दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

...और फिर बख्शी बापू के साथ दिहाड़ी-अधदिहाड़ी पर जाने लगा।  पतला, फुर्तीला और मजबूत हड्डी का शरीर कितना-कितना बोझ उठाता, फावड़ा चलाता, ईंटें उठाता-फेंकता और गारे की घाणी करते न थकता।  उसने मुसीबतों का फँदा अपने गले में खुद ही डाल लिया था। कुछेक दिन बाद मुझे लगा जैसे न पढ़ने का उसका चाव धीरे-धीरे उतरने लगा हो।  वह अपने चेहरे पर उग रहे बिरले मोटे बालों को दायें हाथ के अँगूठे और उँगली से तेज़ी से गुस्से में नोचता इस तरह लगता मानो वह अपने भविष्य से जूझने का यत्न कर रहा हो। चेहरे के कील-मुँहासों से यूँ लगता जैसे उसकी ज़िंदगी भी अब समतल न रही हो।  जब वह उन्हें दबा-दबाकर उनमें से पीक और कील निकालता तो उसका चेहरा कई तरह के रूप बदलता जैसे किसी बच्चे को डराने की कोशिश कर रहा हो।

बापू और माँ बख्शी के बारे में सोचते, चिन्ता करते और आपस में बातें करते, “सारी उमर ऐसे ही चमड़ी उतरवाएगा ये!  मैं तो कहता हूँ भई, तू डी.सी. साहब से बात कर। कहीं पुलिस में ही भर्ती करा दे।  तुझे पता है, पुलिस वाले लोगों को मारते ही नहीं, उनसे पैसे भी ऐंठत हैं।”

यह सुनते ही मामा जी का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया- भरवां, कटी हुई आकर्षक मूँछों वाला गोरा रोबदार चेहरा! सिर के पीछे की ओर काढ़े गए छोटे बाल और गठीला ऊँचा-लम्बा जवान शरीर! साथ ही, तीतर-पंखी बादलों जैसे ख़्याल मन की लहर के साथ,साथ एकत्र होने लगे।  पल भर में ही पिछले जाड़े में मामा जी और बापू के बीच हुई बातें सुनाई देने लगीं और दृश्य उजागर होने लगा।

बापू ने गाँव आए मामा जी को अपने परिवार की मजबूरियों की अकथ-कथा सुनाने की ख़ातिर बात चलाई थी, “साहब अगर जी.एम. को कहकर मुझे मिल में इस बार पक्का करा दो तो घर की गुजर-बसर ठीक से होने लगेगी।”

 “भाइया, मैं बात करूँगा।” मामा जी ने भरोसा दिलाया।

 “बच्चे ठीकठाक पढ़ जाएँगे, रोज़गार का वसीला बन जाएगा, उमर के चार दिन सुख से गुजर जाएँगे।” पल भर की ख़ामोशी के बाद उसने अपने गहरे रिश्ते का अहसास करते हुए अपनत्व भरे शब्दों से याचना,सी की।

 “ठाकर दास, फिक्र न करो, मैं बात करूँगा। जल्दी पता दूँगा।” मामा जी ने फिर यकीन दिलाया।

बापू को घर की तरक्की और खुशहाली अगर कहीं दिखाई देती थी तो वह थी गन्ने के सीजन की मिल में मजदूरी या बारह महीने की मिल की नौकरी में! इसी कारण, वह मामा जी के पीछे पड़कर बार-बार कहते-सुनते झिझकता नहीं था, “चलो, इस बार नहीं तो अगले सीजन में देख लेना...।”

 “मुझे पंद्रह साल हो गए हर सीजन पर काम करते हुए, जिनकी छोटी-मोटी सिफारिशें थीं, वो पक्के हो गए।  या फिर वो पक्के हो गए जिन्होंने चढ़ावा चढ़ा दिया। हम आठ-दस वही बन्दे रह गए हैं जिनका कोई बेली-वारिस नहीं है, अगर...।” बापू दलीलें देकर चुप हो गया। शायद, उसे अब मामी द्वारा बताई गईं मामा जी की मजबूरियों की याद हो आई थी।

मामा जी ख़ामोश बैठे अपनी नेकटाई पर बार-बार हाथ फेरते रहे जैसे उसकी कोई सिलवट निकाल रहे हों।

मिल की गन्ना-मजूरी की ऋतुएँ पहले की तरह आती-जाती रहीं। जब मामा जी सहकारिता तथा अन्य विभागों के सचिव बने, तो बापू और माँ बहुत खुश हुए। अंधेरे भविष्य में आस-विश्वास का एक जलता हुआ चिराग़ नज़र आया।

बापू के संग मिल में मजदूरी करने वाले, मुहल्ले के लोग कहने लगे, “ले भई ठाकर, तेरी पौ बारह हो गई समझ।  बारह महीने की पक्की नौकरी बस लगी ही समझ। जट्टों की बेगारी से पीछा छूट जाएगा। रौब से कह, तेरा हक बनता है, यार ऐसा न सोच-मुल्ला सबक नहीं देगा, तो क्या घर भी नहीं आने देगा?”

ऐसी बातों ने बापू को उकसाया और उत्साहित किया।  उसने शर्म-संकोच को झटकते हुए हिम्मत करके एक बार फिर कहा, “साहब, अब तो सब कुछ तुम्हारे हाथ में हैं। मेहरबानी करके अगर...,।”

 “ठाकर दास, तुम्हारी बात अपनी जगह ठीक है, पर लेबर के लिए मैं किसी को नहीं कहूँगा...ठीक है, किसी पढ़े-लिखे के लिए सिफारिश करनी हो तो और बात है।” मामा जी ने अपने मन की बात साफ़ और स्पष्ट ढंग से बता दी।

बापू की कुत्ता-झाँकन एक पल में खत्म हो गई।

लेकिन, उसने आस का पल्ला फिर भी न छोड़ा, मानो पिछले पंद्रह बरसों की मिल की मौसमी मजदूरी उसकी पक्की नौकरी का हक बन गई हो।  अब वह बड़े मामा जी, जो सरपंच थे, के इर्द गिर्द चक्कर लगाने लग पड़ा था।  सिरतोड़ यत्नों के बावजूद परनाला वहीं का वहीं रहा।

मेरे मन में इन ख़्यालों के ओले पड़ने उस वक्त रुके जब बापू ने माँ को धीरज के साथ सलाह दी, “मेरी बात छोड़ तू, बिरजू के मामा को तू खुद एक बार कहकर देख। अगर थोड़ा-सा ज़ोर मार दे तो समझ ले कुल तर गया। हम तो अपना टैम जैसे-तैसे गुज़ार रहे हैं, पर इसकी ओर देख के मन डूबने लगता है।  अभी उमर पड़ी है, कल को ब्याह-शादी भी होनी है, जट्टों के रिश्ते तो पैलियों को होते हैं और हमारे यहाँ देखते है, मुंडा काम क्या करता है! सौ बातें पूछते हैं।  और..।”

बापू ने थोड़ा रुककर फिर कहा, “तू जा, कहकर देख, दस पास नहीं तो क्या हुआ, फेल तो है ही।”

बापू ने स्थिति के अनुसार फैसला करने के लिए किसी गड्ढे को पार करने के वास्ते एक लम्बी छलाँग लगाई। मुझे लगा, बख्शी के भविष्य की चिन्ता उसे अन्दर ही अन्दर घुन की तरह खाये जा रही थी।

बापू माँ को उसके भाइयों के ताने मारता, उल्टा-सीधा भी बोलता, क्रोध में आकर कई चीजें उठा-उठाकर मारने लगता।  और माँ, वह जैसे छाती पर पत्थर रखकर सब कुछ सह लेती। बस, इतना भर कहती, “भला, मेरे हाथ में क्या है? कहना-सुनना ही होता है।”

उन्हीं दिनों माँ के बार-बार कहने पर मामा जी ने बख्शी को पुलिस में भर्ती के लिए बुलाया।  मामा जी का सन्देशा बख्शी के लिए सावन-भादों के बादल की तरह आया जो कभी बरस जाता है औ कभी साथ वाली मेंड़ को सूखा ोड़ जाता है।

दरख़्तों पर गहरी हरियाली की तरह पूरे परिवार के तन-मन में खुशी की लहर दौड़ने लगी, ठीक वैसे जैसे गाँव के निकट के नाले में बिना बरसात ही बाढ़ आ गई थी और लोग बातें करने लग पड़े थे, “दूर पहाड़ों पर पानी बहुत बरसा होगा, तभी बाढ़ आई।  वहाँ भला क्या ज़रूरत है बारिश की, वहाँ ऊँची जगहों पर तो बरसता ही रहता है। इधर, बगैर बारिश ही लोगों का कितना कुछ बाढ़ में बह गया।” मुझे लगा जैसे बापू के पहले गिले-शिकवे, ताने-उलाहने और बेउम्मीदी मामा जी का सन्देशा आने से बहकर दूर चले गए हों।

मामा जी ने सलाह दी, “पुलिस से रोडवेज़ की कंडक्टरी कहीं अच्छी है। बख्शी को कहो, लायसेंस बनवा ले।”

बख्शी ने जालंधर के चक्कर लगा-लगाकर कंडक्टरी का लायसेंस कुछ दिनों में बनवा लिया। उसने गाँव से सौ किलोमीटर दूर पठानकोट से एक महीने का ‘फर्स्ट ऐड’ का प्रशिक्षण भी ले लिया। नित्य के किराये-भाड़े की तंगी के बावजूद उसके पैर धरती पर नहीं लगते थे। उसकी सोच ने राकेट की गति से दौड़ना शुरू कर दिया।  घर में हैरानी भरी खुशी की बातें होने लगीं जैसे पिछले दिनों अमेरिका के चाँद पर जाने, वहाँ से मिट्टी-पत्थर और तस्वीरें खींचकर लाने की खबरों के बारे में लोग बातें कर-करके हैरान हुआ करते थे। पढ़े-लिखे जहाँ इसे साइंस का कमाल कहते, वहीं तजुर्बेकार बड़े-बूढ़े लोग थे जो इन खबरों को अफवाहें कहकर सहजता से एक पल में रद्द कर देते।

 “गुड्ड, तुझे सच बताऊँ, रात में सपनों में मैं बस ड्राइवर को सीटियाँ मारता रहता हूँ। भोगपुर, काला बकरा, किशनगढ़ और दूसरे सारे अड्डों से सवारियाँ उठाता हूँ, उतारता हूँ।  बड़ा मजा आता है जब ड्राइवर मेरे सीटी बजाने पर बस रोकता और चलाता है।” कुछ देर बाद वह फिर कहने लगा, “अब पक्की नौकरी मिल जाएगी, तू जितना मर्जी पढ़ लेना। कापियों-किताबों की कमी नहीं आने दूँगा। मामा की तरह बड़ा अफसर बन जाना।”

बड़े भाई का यह भरोसा सुनकर मुझे एक पल तो लगा था मानो मेरा कद हाथ भर और ऊँचा हो गया हो। मैं मन ही मन हवा में उड़ते हुए अपने संगी-साथियों के सामने कई तरह की डींगे मारने लगा।  कुछ समय बाद मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैंने एकाएक सलह जमातें पास कर ली हों और महीने के महीने अपनी तनख्वाह के नोटों की गड्डी लाकर अपनी माँ की हथेली पर रखने लग पड़ा होऊँ।  अपने मन की खुशी पर बाँधा गया बाँध टूटने-टूटने को होता।

लेकिन, सारे परिवार के चेहरों पर चढ़ी खुशी की लहरें जल्द ही उतर गईं जैसे बरसाती नाले का शिखर दोपहरी में उफनता पानी सूरज छिपने के साथ ही उतर गया था, जब पूछताछ के उत्तर में मामी ने बताया, “बख्शी के बारे में इनका कहना है कि फलांने को ये कह नहीं सकते, वह उनसे बहुत सीनियर है और, फलांने को इसलिए नहीं कहेंगे क्योंकि वह उनसे बहुत जूनियर है। कहते हैं, फिर भी तुम लोग फिकर न करो...।”

मुझे लगा मानो दालान की पिछली कोठरी का शहतीर फिर टूट गया हो जिस पर बापू के सिवाय किसी और की दृष्टि न पड़ी हो, और वह किसी और बल्ली की तलाश में जुट गया हो।  उसका बुलन्द हौसला इसकी गवाही दे रहा था।

बापू ने ख़ामोशी का सागर पार करते हुए कुछ पल बाद माँ से कहा, “अगर मेरी सास आज ज़िंदा होती तो वो तेरे दुखड़े सुनती...।”

यह बात मेरे कानों में पड़ने की देर थी कि मेरी आँखों के सामने एकदम मेरी अंधी नानी का लाखे अखरोट जैसा झुर्रियों से भरा शान्त चेहरा आ गया।  उसने मुझे कभी आँखों से नहीं देखा था। वह बड़े मद्धम उजाले वाले दालान में बैठी अपने बेटी-बेटों, पोते-पोतियों और मेहमानों की प्रतीक्षा करती आहट लेती रहती। मुझे वे पल स्मरण हो आए और साथ ही मन भर आया, जब (सन् १९६४ में)  नानी मुझे छू-छूकर देखती कि मैं कितना ऊँचा और तगड़ा हो गया हूँ। वह मेरे सिर पर बार-बार हाथ फेरती, मुझें बाँहों में समेटती, लाड़ करती और कहती, “इधर भी बुग्गी(चुम्मी) दे मेरे पुत्त, दीदों में जोत होती तो अपने दोहते को देखती-अब तो नौ बरस का हो गया है गुड्ड, है न सीबो? रब इसकी उमर लम्बी करे, सुख रखे...।”

मैं अपने ख़्यालों में बहत पीछे जाकर उस वक्त लौटा जब बाहर वाले दरवाज़े में से रामे ताये के शब्द मुझे सुनाई पड़े।

उसने घर में फैली मातम जैसी उदासी का कारण पूछा तो बापू ने फिर वही दास्तान संक्षेप में कह सुनाई।

 “दूसरों को तो अक्ल देता फिरता है कि अपने पैरों पर आप खड़े हो, पक्का इरादा रखो...और अब खुद क्यों डोलने लगा?” ताये ने हुक्के की नड़ी पीछे करने के बाद अपनी मूँछों पर दायें हाथ का बनाया मुक्का फेरते हुए कहा। पता नहीं उसके मन में क्या आया, बोला, “एक बात और बता दूँ, गुड्ड का मामा साधू स्वभाव का है।”

 “दूसरों के काम भी तो...। हमसे शायद दूर ही रहना चाहते हैं। जो भी थोड़ा-सा बड़ा अफसर बन जाता है, वह अपना पीछा ही भूल जाता है।”

बापू को टोकते हुए उसने कहा, “तू यूँ ही लोगों की बातों में न आया कर। लोग तो बहुत कुछ कहते हैं कि बड़े अफसरों की एक अलग जमात बन गई है और वे गहरी रिश्तेदारियाँ भी छोड़ते जा रहे हैं। गुड्ड का मामा तो अभी भी आता-जाता है।”

बापू का मुँह और भी छोटा हो गया।  उसके मस्तक पर त्यौरियाँ उभर आईं।  वह पल भर सोचने के बाद बोला, “मैं सोचता था, सीबो...।”

मुझे अन्दर ही अन्दर महसूस हुआ कि बापू उस वक्त को नहीं भूल पा रहा है जब माँ जट्टों के सुरजन सिंह की हवेली में पशुओं का गोबर-कूड़ा उठाया करती थी। माँ के संग कभी बड़ा भाई तो कभी मैं जाया करता।  सर्दियों में जब वह हाथों की ओक बनाकर पशुओं का गोबर-मूत्र उठाती तो मुझे घिन आती। दम घुटने लगता। मेरा मन होता कि दौड़कर किसी खुले स्थान में चला जाऊँ।  बीच-बीच में यह सोच उभरती कि मैं माँ की कोई खास मदद नहीं कर रहा तो उसके संग क्या करने आता हूँ।  फिर मुझे लगता मानो मैं उसका आसरा होऊँ या उसका पहरेदार।

 “बता, क्या सोच रहा था?” ताये ने दो-टूक पूछा।

 “यही कि बिरजू का कहीं काम बन जाता तो चार दिन हम भी...।” बापू इससे आगे बोल नहीं पाया मानो भविष्य की चिन्ता ने उसकी जीभ पलट दी हो या खींच ली हो।

फिर, एकाएक वह कोठरी के एक कोने में पड़ी माँ की दहेज वाली पेटी में से सँभालकर रखी चिट्ठियाँ निकाल लाया। दूसरे हाथ में पकड़ी काँसे की थाली को नीचे ज़मीन पर रख, उसमें सारी चिट्ठियाँ टिकाकर उसने खीसे में से माचिस निकाली।  आग लगाते हुए बोला, “जलाकर इनका तेल इस हाथ में लगाऊँगा, कहते हैं, दाद-खुजली हमेशा के लिए हट जाती है।”

कुछेक पल रुककर फिर कहने लगा, “बातें तो खत्म नहीं होंगी, मैंने सोचा आज यही काम खत्म कर लूँ।”

बापू की बातों की किसी ने हामी नहीं भरी।

 “गुड्ड का मामा उसूलों वाला आदमी है! और फिर वह सरकार का नमक खाता है। तभी तो कहता है- पढ़ते है नहीं, नौकरियाँ कहाँ से मिल जाएँ! वह गलत नहीं कहता कि अच्छे नम्बर लेकर खुद आगे बढ़ो।  और फिर हमारे लिए यह क्या कम है कि वह गुड्ड का मामा है।” ताये ने पूरे भरोसे के साथ कहा।

बापू ने जैसे ताये के कहे शब्द सुने ही न हों।

“मौसमों के हेर-फेर की तरह इन्होंने रात में फिर तंग करना है...” कहकर वह फुर्ती से उठा और बाहर वाले दरवाज़े की दीवार के सहारे खड़ी खाट को बिछाकर उस पर ज़ोर-ज़ोर से लाठी बरसाने लगा।  उसमें से झड़ते खटमलों को पैरों की जूती से मसल-मसलकर मारने लगा।  मैंने भी आगे बढ़कर बताना शुरू कर दिया, “एक ये जा रहा... एक वो जा रहा...।”

खाट के पैताने तो कभी सिरहाने लाठी पीटते हुए बापू के माथे से पसीना टपकने लगा था। आख़िर, वह हाँफ गया।  उसने लाठी बाँयें हाथ में पकड़कर दायें हाथ की पहली उँगली से पसीना पोंछा  और बाहर बरगद-पीपल की घनी छाँव तले बैठी मेरी दादी के पास जाते-जाते बोला, “ये बरसात कहने भर को है, सूखा पता नहीं अभी और कितने दिन रहेगा!”

मैं बापू की बातों पर विचार करने लगा और उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

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