छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

मेरी दादी - एक इतिहास

“तुझे मौत आ जाये इसी घड़ी...खड़ा हो जरा...आ लेने दे तेरे पैदा करने वाले को, फिर देख कैसी पड़ती है मार...तुझे कच्चे को लूण लगा के खाऊँ...।” हाथ में जूती पकड़े मेरे पीछे दौड़ती मेरी दादी अक्सर ऐसी ही श्लोकवाणी पढ़ती और इन श्लोकों के बीच में ठहराव का कम ही इस्तेमाल करती।

गली-मुहल्ले के लोग नित्य घटती ऐसी घटना को देखने के लिए पल भर में आ जुटते। जट्टों का अधिकतर आना-जाना हमारे घर के सामने से ही था और अब भी है।

 ‘चल छोड़ माई, लड़का नासमझ है।’  यह बात कोई व्यक्ति झिझकते-झिझकते ही कहता कि कहीं उसी की शामत न आ जाये।

इस पर, वह और अधिक भड़ककर बताती, “लोगों के बच्चे स्कूल से दो-दो गिलास दूध ले आये, यह टुटपैणा जो था, वो भी गिरा आया। आये तो सही, अगर इसकी बोटियाँ कर-कर न खायीं तो...और फिर, रम्बे(खुरपी) और मुंडे(लड़के) को जितना भी पीटो, उतना ही थोड़ा।” वह अपना पाठ जारी रखते हुए घर की ओर लौट पड़ती।

उन दिनों में सूखे दूध के डिब्बे आया करते थे और उन्हें स्कूल के प्रांगण में ही कड़ाही, पतीले या देग में पानी डालकर उबाला जाता था। फिर वह दूध छोटे विद्यार्थियों को पीने के लिए दिया जाता था। गरीब बच्चे यह दूध अपने-अपने घरों को चाय के लिए ले जाते थे।

मैं कुछ देर बाद इधर-उधर घूम-घामकर लौट आता, पर उसका पारा इतनी सहजता से नीचे नहीं उतरता था। एक बार किसी बात से ख़फ़ा होकर उसने पीतल का गिलास फेंककर मारा, जो नेफ़े के ऊपर मेरे नंगे पेट पर लगा। लगते ही, गिलास के गोलाकार किनारे मेरे पेट पर छप गये जिसके निशान कई सालों तक बने रहे।

वह अपनी कमीज के खीसे में गुड़ रखती थी। करीब बैठा मैं चुपके से आँख बचाकर गुड़ की डली निकाल लेता और फिर, बाहर खिसककर दाँतों से काट-काटकर खाया करता।

जब दादी सुर में होती तब हमारे संग प्यारभरी बातें किया करती। मैं लाड़ से बाँहों से लटकते माँस को बारी-बारी से पकड़ता जो मेरे छोटे-छोटे हाथों में न आता। मैं अपने दुबले से शरीर की ओर देखता और कहता, “माँ, थोड़ा-सा माँस मुझे भी दे दे।”

 “कमबख़्त, खाया-पिया कर, माँस ऐसे ही नहीं चढ़ा करता।” वह खुश होकर नसीहत देती। तभी, हमारे घर के पिछवाड़े रहने वाले बढ़ई परिवारों की कोई बहू आ जाती।

 “माई, घर आना जरा।” हम समझ जाते कि काम क्या है।

कभी-कभी वह मुझे अपने संग ले जाती और मैं मुर्गी की दोनों टाँगों को पकड़कर उसे उलटा लटकाकर ले आता। मिस्त्रियों ने अंडे बेचने के लिए मुर्गियाँ पाल रखी थीं। जब कोई मुर्गी बीमार हो जाती या मर जाती, वे हमें बुलाकर उठवा देते।

एक दिन दादी ने मुझे मुर्गी काटने को कहा। बापू चारे के लिए अभी घर से निकला ही था। मैंने एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह गन्ने छीलने वाला हँसिया उठाया और आँगन में खुरली(नाँद) वाली दीवार के पास खड़ी चारपाई के पाये पर मुर्गी को रख कर काटने लगा। मुर्गी का धड़ मेरे हाथ में था। मैंने दो-तीन बार हँसिये से वार किया पर उसकी गर्दन धड़ से अलग न हो सकी। कुछ दूरी पर बैठी दादी बड़बड़ाने लगी, “फुड़की पैणे! इतना बड़ा हो गया, तझे अभी...।”

बस, फिर क्या था। उसके एक इशारे से मैंने बाँयें हाथ से मुर्गी की गर्दन पकड़ी और दायें पैर से उसका धड़ दबा लिया। हँसिये के एक ही वार से उसकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी।

शाम के समय की इस हरकत से मेरा मन दुःखी हो उठा। देर रात तक मुझे नींद न आयी। आँखों के सामने उसकी गर्दन, उसका धड़ और उसके फड़फड़ाने का दृश्य घूमता रहा। मारे डर के मैं मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा। मेरे साथ लेटा मेरा बड़ा भाई गहरी नींद में बेफ़िक्र सोया पड़ा था। पता नहीं, मुझे फिर कब नींद आयी।

दादी किसी अभाव के दुखड़े के साथ अचानक बात शुरू करती, “टुट पैणा, हिन्दस्तान-पाकस्तान क्या बना, खाने-पीने की वो बातें ही नहीं रहीं। रास्तगो के मुसलमान सिर पर गोश्त के भरे टोकरे उठाये बेचने के लिए आया करते थे, जैसे शहरों में केले-सेब बेचते हैं। जी भरकर खाया करते थे।”

 “तुझको इन बातों का क्या पता, जब नौकरों का बछड़ा बीमार होकर अचानक मर गया था, बड़ा मोटा-तगड़ा था। सब घरों में उसका गोश्त तराजू पर तोल-तोलकर बाँटा गया था। टुट पैणे... ने आखिर में झगड़ा खड़ा कर दिया कि हमें पिछले पुट्ठों का गोश्त क्यों नहीं दिया।” वह इस तरह अपनी यादों को ताज़ा किया करती जो मेरी स्मृतियों में गहरे उतरती जातीं।

 “पहले खाने को अन्न कहाँ मिलता था? जमींदारों के यहाँ बाजरा तोड़ने जाया करते थे। बालियों को सुखाना, कूटना, झाड़ना, पीसना..., तब कहीं जाकर रोटी खानी। गोश्त के शोरे से बड़ा अच्छा गुजारा हो जाता था। जाड़े में ज्यादा पशु मरते थे। गोश्त सुखाकर रख लेते थे। हड्डियाँ सुखाकर कोठी पर या फिर छत पर कड़ियों से टाँग देते थे।” दादी अपनी ज़िंदगी का मानो एक और अध्याय शुरू कर देती जिसे कभी वह बड़े चाव से और कभी दुःखी मन से लगातार हमें सुनाती।

मैं अब कुछ बड़ा हो गया था। हमें फाके तो बहुत करने पड़े, पर जहाँ तक मुझे याद है, मरे पशुओं का माँस कभी घर में नहीं लाया गया था। सो, इसी कारण दादी की इन बातों में मेरी दिलचस्पी और अधिक बढ़ने लग गई थी।

“हमलों (देश के विभाजन के समय हुए दंगों) से कुछ पहले हम सभी चमारों के घरों में पशुओं की चरबी के पीपे भरे रहते थे। सब इसे घी की तरह इस्तेमाल करते थे, तुड़का(छौंक) लगाते थे, रोटियाँ चुपड़ते थे।” दादी बताती। मेरी हैरानी की सीमा न रहती। मैं माहौल को ठीक-ठाक बनाये रखने की हर संभव कोशिश करता ताकि दादी को किसी भी प्रकार से गुस्सा न आ जाए।

 “उन दिनों सरसों या मिट्टी के तेल के दीये कौन जलाता था। हमारे घरों में चरबी के दीये जलते थे।” पास बैठा पड़ोसी खुशिया दादी के हलफ़िया बयान की पुष्टि करता और एक-एक बात विस्तार और बारीकी से बताने का यत्न करते हुए कहता, “तू अपने बापू से पूछ ले, ये छज्जू, ढेरू, माघी, सींहा-मींहा पखीर... ये सब माँस खाते थे।”

बीमार होकर मरे पशुओं का माँस खाने की घटनायें सुनकर मेरा दिल डूबने-सा लगता। जंगली जानवरों और अन्य पशुओं का शिकार करके तो राजे-महाराजे माँस खाते ही रहे हैं। आदि मानव का जीवन ही जंगल और जंगली जीवों पर निर्भर रहा है। सभ्यता के विकास शिखरों पर पहुँचकर भी हमारे ये लोग इन हालात में रहने, जीने के लिए विवश हैं। मुझे अपने देश की आज़ादी, सभ्यता और संस्कृति जैसे शब्दों पर प्रश्नचिह्न लगते महसूस होते।

होश सँभालने के बाद से मैंने अपनी दादी को कभी काम करते नहीं देखा था। लेकिन वह अपनी और दूसरों की बहू, बेटियों की बुराई ज़रूर किया करती, “कंजरियाँ, दोपहर तक सोकर नहीं उठतीं। इस वक्त तक तो हम दस सेर आटा पीस लिया करती थीं। मशीन पर हमारा आटा कौन पीसता था?”

हाँ, वह अपनी कमीज, सलवार को खुद ही टाँका, टाकी लगा लेती। अपने कपड़े खुद धो लेती। जेठ, असाढ में उसे बहुत गरमी लगती। इन दिनों में वह घर के पास वाले पीपल के तले खाट बिछाकर बैठी रहती। कमीज कम ही पहनती। वह अपने दुपट्टे को इस ढंग से शरीर पर लपेटती कि वह साड़ी में बदल जाता। अपने समय में वह गाँव में सबसे बड़ी उम्र की थी। पर जब कोई बड़ा, बुजुर्ग उसके सामने खड़ा होकर हाल, चाल पूछता तो वह दुपट्टे को अच्छी तरह सँवारकर सिर पर ओढ़ लेती। अन्दर, बाहर कहीं भी जाती ‘दिब’ की पंखी उसके हाथ में हुआ करती।

जाड़ों में भी वह ज्यादा कपड़े या गरम कपड़े नहीं पहनती थी। मेरे बापू के हाथ की बुनी हुई डिब्बी वाली खेसी वह ओढ़ा करती और पैरों में धौड़ी की जूती पहनती। बीच में, कभी, कभार मेरे पुलिसिये ताऊ की उतारी हुई खाकी जर्सी पहन लिया करती। इस दौरान, जब हमारी माँ कडकड़ाते जाड़े में हमारे नहाने के लिए पानी के पतीले गरम करती, तो दादी इस पर टोका, टाकी किया करती। वह कहती, “न, सारा बालण पानी गरम करने पर ही लगा देना है क्या?...दो घड़ी धूप में पड़ा रहने देती।”

गर्मी हो या सर्दी, वह दोपहर को नहाती। उसके लिए पानी की बाल्टी आँगन में धूप के आते ही रख दी जाती। वह और मेरी माँ, दोनों आँगन में बने खुले गुसलखाने में, खाट को खड़ा करके उस पर कोई कपड़े का परदा डाल कर नहा लिया करतीं। हम सब जने रात को यहीं पर पेशाब किया करते। इस खुले गुसलखाने से पेशाब की बू हमेशा आती रहती जबकि चक्की के पाट ज़मीन खोदकर इसके बराबर टिका दिये गये थे।

माँ जब कपड़े धोने वाले साबुन से हमें नहलाती तो दादी फिर से अपना वही राग अलापना शुरू कर देती, “साबुनों से नहलाने लग पड़ी है...आ गयी बड़े रजवाड़े की बेटी...हम तो टल्ले, लीड़े रेह से धो लेते थे। सिर लस्सी, दही से धो लिया करते थे। अब नई, नवेलियों की अकड़ का कोई ठिकाना नहीं है।”

यह सुनकर भी मेरी माँ चुप रहती। वह उसके कड़े, रूखे स्वभाव से यूँ डरती थी जैसे धुनकी से कौवा! मेरी माँ न तो दादी के सामने मुँह खोलती थी, न ही उसके हुक्म के आगे ना, नुकर करती थी। कई बार तो लगता था मानो उसकी जबान कहीं गायब हो गयी हो।

कभी,कभी गाँव की कोई जट्टी(जाटनी) दादी को धीरे से कहती, “हरो, घर आना जरा।”

वह बगैर किसी हील, हुज्जत के अपनी डंगोरी उठाती और उसके पीछे, पीछे चल पड़ती। वह पल भर में ही उलटे पैर लौट आती। उसके गोरे चेहरे की झुर्रियाँ समुद्री लहरों की भाँति प्रतीत होतीं। वह देहरी लाँघती तो ज़मीन में उलटी दबाई गई हरे रंग की बोतलों पर पुराने जर्जर दरवाज़े के पट बिना किसी चीं, चीं के अन्दर की ओर घूम जाते जैसे कोई बच्चा एड़ी के बल सन्तुलन बनाकर घूमता है। वह हुक्म देती, “कहाँ मर गया सारा टब्बर, खाट बिछाओ।”

हममें से कोई एक आगे बढ़कर फुर्ती से उसकी बात का पालन करता। वह जैसे किसी खास प्राप्ति के नतीजे के लिए, खुशी की रौ में अपने दुपट्टे या किसी कपड़े में लाये गये रोटियों के टुकड़े जल्दी, जल्दी सुखाने के लिए डालने लगती। ये विवाह,  कुडमाई(सगाई) या पाठ के भोग के बाद के बचे, खुचे टुकड़े होते। जब इन्हें गुड ,पानी में रांधा जाता तो खाते ही जाने को जी करता। कई बार इन्हें गन्ने के रस की आखरी चासनी के कड़ाहे में पकाया जाता। महक से ही मुँह में पानी भर जाता। स्वाद खाने पर ही पता चलता।

मेरी दादी कभी गुरुद्वारे नहीं गयी जबकि हमारे घर और गुरुद्वारे के बीच एक गली ही पड़ती है। हाँ, जब बरसात न होती और सूखा पड़ जाता तो जट्ट ‘ख्वाजा, खिजर’ का दलिया देते। हमारे मुहल्ले में जागर चौकीदार हाँक लगाता, “गुरुद्वारे से सब लोग दलिया ले आओ भई...,”  ‘ले आओ भई...’ को वह किसी टेक की तरह लम्बा खींचता और आगे बढ़ जाता।

वह अपनी थाली तुरन्त भरवा लाती। फिर उसमें देसी घी डाल कर खाती। वैसे, संग्रांद में कभी परसाद लेने नहीं गयी, न कभी कथा, कीर्तन सुना, और न ही किसी खानगाह पर दीवा जलाया। दीवाली पर भी कभी दीये नहीं जलाये। उसे इन धार्मिक रीतों को रिवाज के तौर पर पालने का शौक नहीं था। बल्कि वह तो कहा करती, “बन्दा, दसों नाखूनों की कमाई करे, निंदा, चुगली न करे, नेक नीयत को मुरादें। और भला रब को आग लगानी है।”

अब उसकी आँखों की ज्योति पहले जैसी नहीं रही थी। बन्दे को पहचानने के लिए वह आँखों पर हाथ का छप्पर, सा बनाती। कई बरस हुए उसकी बाँयीं आँख का आपरेशन हुआ तो उसके ऊपर हरी पट्टी बाँधी गयी, पर वह तब भी टिककर न बैठी। उसने अपना आना, जाना बरकरार रखा। इतना फर्क ज़रूर पड़ गया था कि वह हाथ में सोटा हरदम रखने लगी थी। उसका घर में रौब और बाहर दबदबा बराबर कायम था। जब कोई बच्चा उसे खिझाने के लिए शरारत भरी हरकत करता तो वह गस्से में बरस पड़ती, “किस बच्चेखाणी की औलाद है?... अपनी माँ के आगे जाकर कूकें मार हरामी!”

जब गाँव की कोई जट्टी या कोई अन्य औरत बिना अभिवादन किए उसके करीब से गुजर जाती तो वह ऊँचे स्वर में कहती, “पता नहीं कौन यारों-पीटी हंकार में डूबी परे, परे से ही गुजर गयी।”

पीपल के नीचे बैठीं ताश के खिलाड़ियों की ढ़ाणियाँ, बारां टाहणी या कंचे खेलते बच्चे, इन सबकी नजरें एकदम से दादी की चारपाई पर केन्द्रित हो जातीं। बात को जानने के लिए वे बेसब्री से उसकी ओर देखने लगते।

“ये कौन थी कंजरी?” हवा के तेज़ झोंके की तरह वहाँ से गुजरी औरत का वह आगा, पीछा एक कर देती। समीप बैठे या पास से गुजरते आदमी से वह गुस्से में भर कर पूछ, पड़ताल करती।

इस प्रकार जो औरत उसे अभिवादन किए बिना वहाँ से गुजर गयी होती, उसकी तो शामत ही आ जाती। दादी उलाहनों और तानों पर उतर आती। सुलह तभी होती जब खेत से लौटते समय वह औरत एक तरह से अपनी ‘गलती’ को कबूल कर लेती, “मुझे जरा जल्दी थी माँ, यह ले गरम, गरम गुड,  कोल्हू चल रहा है।”

उसे बैठी, बैठी को रस, गुड, दही, साग, मक्खन और गन्ने मिल जाते। इसमें से वह कुछ हमें और कुछ अपने दूसरे पोते, पोतियों को दे देती।

“माँ, पाँय लागूँ।” कोई दूसरी औरत वहाँ से गुजरते हुए कहती। यह सुनकर उसके अन्दर उठी लपटों पर जैसे बारिश की बौछार पड़ जाती।

“गुरू भला करे।” वह किसी, किसी को तो आशीषों की झड़ी लगा देती। वह कइयों की तारीफों के पुल बाँधते न थकती और कहती, “ये गंगी के पोत की बहू कलविंदर हुई, गुज्जर सिंह की लाल मुँही हुई, बगैर बुलाये नहीं गुजरतीं। मेरे लिए अच्छी हैं, बड़ा आदर, मान करती हैं, यूँ ही क्यूँ कहूँ।”

कई घर उसे पीरों की तरह मानते। वार, त्यौहार पर बहुत कुछ खाने को दे जाते। लोहड़ी से अगले दिन गन्ने के रस में बनी चावलों की खीर कई जट्ट घरों से आती। इसे हम दो, दो दिन तक खाते रहते। ऐसे अवसरों पर दादी मुझे बहुत अच्छी लगती। जब चाय के लिए घर में गुड न होता, तो वह अपने पास से दो भेलियाँ पकड़ा देती। सारा परिवार उसका शुक्रगुज़ार हो जाता।

कभी, कभार मेरी छोटी बुआ करमी अपनी माँ और मेरी दादी की खैर, खबर लेने आ जाया करती। वे घंटों बातें करके भी न थकतीं। बुआ मुझे इशारा करके धीमे से कहती, “नंती के यहाँ से कली(हुक्की) तो पकड़ ला, बेटा।”

मैं बड़े चाव से हुक्की में ताज़ा पानी भरता। हुक्की गुडगुड़ाने के लिए जब कभी मुझसे लम्बा सुट्टा लग जाता तो मेरे मुँह में पानी भर जाता और खाँसी छिड़ जाती। अन्दर बैठी बुआ समझ जाती कि सब कुछ तैयार है। वह दादी से छिपकर हुक्की पीती थी क्योंकि उसे इस गुड़गुड़ और धुएँ से सख़्त नफरत थी। कभी, कभी वह मेरे बापू को बुरा, भला कहती, “तेरे मुँह में हर वक्त हुक्के की नलकी रहती है, आग लगा इसे।”

उसका दबदबा जारी था। एक दिन ताई तारो(जट्टी) और चाची छिन्नी पीपल पर डाले गये झूले पर पींगें ले रही थीं कि दादी को पता नहीं क्या सूझा, वह ऊँचे स्वर में दुहाई देते हुए आयी, “इन नटनियों, लुच्चियों को यही काम रह गया है। आदमियों की कोई परवाह ही नहीं है, वे थके, माँदे आये हैं। बदमाश कहीं कीं।”

यह सुनते ही पींगें नीचे आ गईं। शिखर, दुपहरी का सूरज मानो अस्त होने के लिए उतावला हो उठा हो। चेहरों पर चढ़ी लाली फीकी पड़ गयी। तमाशबीन खिसकने लग पड़े। वह अभी त्यौरियाँ चढ़ाए आगे बढ़ ही रही थी कि सब की सब तितर, बितर हो गयीं।

दादी के साथ ताई तारो की पटती भी बहुत थी। ताई दाल, सब्जी को तुड़का लगाती तो आसपास के कई घरों में खबर हो जाती कि उसने आज क्या भूना है। दादी को इसका दसवंध(गृहस्थों द्वारा गुरु को दिया जाने वाला हिस्सा) अपने आप पहुँच जाता।

ताई की तीन देवरानियाँ, जेठानियाँ थीं। जब वे किसी मातम में या फिर घर से बाहर कहीं जातीं, तो चाबियाँ दादी को थमा जातीं। वह खुश होकर राह चलते लोगों को सुनाकर कहती, “ये चन्दा सिंह की बहुएँ कहीं भी जाना हो, चाबियाँ मुझे ही देकर जाती हैं। मेरा कुटुम्ब तीन दिन भी काटते रहो तो भी खत्म न हो...मेरी तो मुझको पूछतीं ही नहीं।”

एक बार उसी ताई से कहा, सुनी हो गयी। तब ताया ऊधम सिंह जिसे सभी गाँववासी ‘शही’ कहते थे, गुजर चुका था। वह घोड़ी वाले बिक्कर सिंह के साथ गड्डा(बैलगाड़ी) चलाता था। दादी ने अपना ही शोर मचा रखा था। उसने राह में खड़ी होकर कह दिया, “तूने गाँव की कई औरतें रंडी कर दीं, पर तू रंडी होकर भी रंडी न हुई।”

कटार जैसे इन शब्दों को सुनकर सबके सिर शर्म से झुक गये।

“तू भूल गयी जब मैं ब्याही आयी थी?  उस वक्त तक तेरा ससुर जाँघिया पहनकर नंग, धड़ंग घूमा करता था। आ गयी मुझसे झगड़ा करने, सैंतलबाज(चतुरानी) कहीं की!” प्रत्युत्तर में ताई हँस पड़ी और बात आई, गई हो गयी।

मुझे याद है, गाँव के कई जट्ट शादी, ब्याहों के कारजों में मेरी दादी से सलाह लेने आया करते थे। वह जैसा कहती, वैसे ही सभी कारज पूरे किये जाते। वह किसी बुजुर्ग जट्ट के आने पर कभी भी अपनी चारपाई पर से नहीं उठती थी, जैसे कि मेरा ताया रामा जट्ट को चारपाई पर बिठा लिया करता था और खुद नीचे ज़मीन पर बैठ जाता था। ऐसी ही दोनों स्थितियों में मुझे जातियों के अन्तर खत्म होते दिखाई देते। आदर, सत्कार की एक मिसाल कायम होती प्रतीत होती। जब बापू और ताया, जट्टों की हवेलियों या घरों में जाते तो उन्हें कोई अपने बराबर तो क्या, यूँ ही बैठने के लिए भी न कहता। यह खयाल मेरी सोच की एक लम्बी राह बन जाता।

पर दादी की वह घटना मुझे कभी नहीं भूली। जिन दिनों बारिश नहीं हो रही थी और सूखे का कहर निरंतर जारी था, गाँव की औरतें पानी में गोबर, मिट्टी मिलाकर इंद्र देवता को रिझाने के लिए आपस में होली खेल रही थीं। ‘नोब’ की सीबो ने दादी के ऊपर उस घोल की बाल्टी उलट दी। बस, अखण्ड प्रवाह शुरू हो गया।

“मरदों की शौकीन कहीं की, नीच! कुछ तो मेरे धौले झाटे(बालों) की शरम कर लेती, बच्चे पीटी!” वह बेधड़क गालियाँ बकती उसके घर तक चली गयी। फिर उल्टे पैरों लौट आयी क्योंकि वहाँ पर उससे माथा भिड़ाने वाला कोई नहीं था। मसला तभी खत्म हुआ, जब तक सीबो ने घर आकर दादी से माफी न माँग ली। इस दौरान वह तीन महीने तक हमारे घर के सामने से नहीं निकली जबकि यहाँ से उसका रोज़ का आना, जाना था।

दादी का हठी स्वभाव उसकी बुढ़ापे में भी नहीं बदला था।

हम घर के सारे सदस्य सोचते कि दादी के कपड़े मेरी माँ धो दिया करे। पूछने पर दादी उखड़ी कुल्हाड़ी की रह टूट कर पड़ती, “मैंने नहीं किसी का मुथाज (मोहताज) होना,  इससे तो रब्ब पड़दा ही दे दे(उठा ले)!”

उसकी सुरत अभी अच्छी थी। जब हम उसकी बातों को गौर से सुनते तो वह कई पुराने प्रसंग छेड़ बैठती, “आज की औरतों से तो चार कदम चला नहीं जाता, मैं चलकर लाहौर पहुँच जाती थी।”

अंग्रेजों के राज की बात चलती तो वह महारानी एलिजाबेथ (द्वितीय) के बारे में झट टिप्पणी करती, “रंडी, अभी कल तो मलका बनी है।”  ‘जार्ज पंचम’ और ‘अडवर्ड’ के नाम के सिक्कों के बारे में मैंने उसी से पहली बार सुना था।

 

दादी की सेहत दिन, प्रतिदिन गिरने लगी थी, पर उसके खाने, पीने में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। लस्सी, गन्ने का रस, मैली, साग, मक्खन, मक्की की रोटी पहले की तरह ही खाती-पीती। कभी वह कटोरी में और कभी मक्की की रोटी के ऊपर बहुत सारा साग रख कर उसके बीच एक गड्ढा, सा बनाकर उसमें मक्खन रख लेती। अगर मक्खन न होता तो दही रख लेती। रोटी खाने से पहले रोटी का छोटा, छोटा चूरा करती और चिड़ियों को चोगा देती। बीस-तीस चिड़ियाँ उसके पास चारपाई पर आ बैठत। वह दृश्य दिल को खींचने वाला होता। कुत्तों को दरवेश समझ कर बुरकियाँ डालती। आखरी उम्र में एक-दो कुत्ते उसके पक्के संगी-साथी बन गये थे।

और फिर उसकी कड़क आवाज़ पहले जैसी न रही। बच्चे उसके करीब से सीटियाँ बजाते दौड़ जाते। अगर कोई बच्चा या सयाना आदमी उसे तंग, परेशान और मजाक करता तो वह कहती, “रब करे तुम्हारे भी ऐसे दिन आएँ।”

दादी के बदले हुए सुर पर हैरानी होती कि अब उसकी पहले जैसी नहीं चलती। मुझे उसकी माँस खाने से संबंधित कुछ गालियाँ जो वह अक्सर मुझे और दूसरे शरारती बच्चों को दिया करती थी, याद आ जातीं जो इस तरह की थीं- ‘तेरा कीमा बनाके खाऊँ’, ‘तेरा कलेजा निकाल के खाऊँ’, ‘तेरा गोश्त बनाके खाऊँ’, ‘तेरा भुरता बनाके खाऊँ’, ‘तेरा मगज निकाल कर खाऊँ’, ‘तेरे सीरमे पीऊँ’, ‘तेरा कबाब बनाके खाऊँ’ आदि।

उसके खाट पकड़ लेने पर माँ भावुक हो उठती। वह हमको बताती, “हमारी माँ जैसी घर, घर पैदा नहीं होंगी, पैंतालीस-पचास साल रंडेपा काटा, बच्चे पाले, उनकी शादियाँ कीं, पर मजाल है किसी से दबकर रही हो।”

घर में बातें होने लगीं, “पता नहीं, माँ जाड़ा काटेगी भी या नहीं। सौ साल के करीब है, सौ नहीं तो दो-चार साल कम होगी।”

जाड़ों में दादी की चारपाई पिछली कोठरी में होती और वहीं पर पशु बाँधे जाते थे। दिन के समय उसकी चारपाई आँगन की धूप में बिछा दी जाती।

गाँव के कई सयाने लोग जिनमें आदमी और औरतें होतीं, उसकी चारपाई के पास आकर उसे सलाह देते, “हरो, रब-रब किया कर।”

जाड़े का मौसम बीत गया, गरमी की ऋतु आ गयी। गेहूँ की फसल काटी जाने लगी। बापू और मेरे ताये के बेटे आपस में बात करते,  “कहीं फसल कटाई के बीच ही माँ...”

वह चारपाई पर पड़ी रहती। मेरी माँ उसका कपड़ा-लीड़ा धोकर उसे पहनाती। वह उसे बच्चों की तरह सँवारती, उसके बालों में कंघी करती। लोग मेरी माँ की प्रशंसा करते हुए कहते, “भई सीबो, तेरा जवाब नहीं। बहुत सेवा-टहल करती है तू। रब तेरे भी दिन फेरेगा।”

दादी का मेरी माँ के प्रति रवैया नरम पड़ गया। उसकी ज़ुबान पर आशीषें आने लगीं। इन िनों वह अक्ल देने जैसी बाते करने लग गई थी। तभी, गाँव का कोई आदमी या औरत आकर कहती, “हरो, रब-रब करा कर। सुरती रब की ओर लगा, जरा जल्दी छुटकारा मिल जायेगा।”

“बड़ी आग लगाती हूँ बच्चा पीटे को, ले ही नहीं जाता तो मैं क्या करूँ?” वह अपने पोपले मुख से एक ही जवाब देती।

“माँ, बता कौन-सी चीज़ खाने को तेरा दिल करता है?” एक दिन हमने पूछा।

उसने साफ शब्दों में कहा, “गोश्त का शोरबा।”

बापू शाम को बकरे का माँस खरीद लाया। रात को एक कटोरी गोश्त और तरी से भरकर दादी को दी गयी। उसने गेहूँ की रोटी तरी के साथ खायी।

अगले दिन दादी में जैसे जान आ गयी। उसने मेरी माँ से कई बातें कीं। पर यह (२ मई, १९७६) उसकी साँसों का अन्तिम दिन बन गया। आधा गाँव इकट्ठा हो आया। उसकी मृत देह के पास उसकी सिफ्तें होने लगीं।

“कंगन की तरह खनकती थी हरो। रंडेपा काटा इज़्ज़त से। वाहेगुरू झूठ न बुलाये, अंग्रेजों को मात देता था उसका रंग-रूप! धरम से बड़े रौब वाली थी बुढ़िया।” मुझे लगा, जैसे ताई तारो उसे श्रद्धाजंलि भेंट कर रही थी।

मेरी माँ रो रही थी। हम दुःखी थे। अर्थी के पीछे लोगों का एक दरिया था जो श्मशान भूमि की ओर जाने वाले सारे रास्ते पर दूर-दूर फैला दिखाई देता था। अर्थी पर बाँधे हुए गुब्बारे हवा में ऊपर की ओर उड़ रहे थे, मानो उसके स्वाभिमान की हामी भर रहे हों।

 

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