छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

बादलों से झाँकता सूरज

”गुड्ड, तू और रोशी पट्ठे काटकर कुतर आओ।“ सोढी मास्टर ने अफीम के नशे की तंद्रा में से हड़बड़ा कर उठते हुए आज फिर पहले की भाँति हुक्म सुना दिया। इसी दौरान उसने दायें हाथ के अंगूठे और तर्जनी से लोहे की छोटी-सी गोल व लम्बी डिब्बी में से नसवार की चुटकी भरने के बाद कहा, ”फुर्ती से दौड़ जाओ, भूखी भैंसें रंभा रही होंगी। साथ ही, पानी डाल कर नहला भी आना।“

आज्ञाकारी विद्यार्थियों की तरह हमने न तो आनाकानी की, न ही ना-नुकर। हमने अपने बस्ते अपने मुहल्ले के जमाती लड़कों के हवाले किए और सोढी मास्टर के गाँव सोहलपुर (ढाई-तीन किलोमीटर के फासले पर पूरब-दक्खिन की दिशा में स्थित एक छोटा-सा गाँव) की ओर चल पड़े।

स्कूल के आँगन से निकल कर अभी हम गाँव के बाहरी कच्चे रास्ते पर पहुँचे ही थे कि छोटे-छोटे स्कूली विद्यार्थियों की चल रही पंक्ति की तरह ख्यालों की एक लड़ी मेरे मन में, मेरे तन की परछाईं की तरह मेरे संग-संग चलने लग पड़ी। सोढी मास्टर के गोयरा वाले खेत में पिछले दिनों काटे गए बाजरे का दृश्य साकार हो उठा। उस दिन, एक दिन पूर्व हुई बरसात के कारण खेत की मेड़ों पर जंगल-पानी के लिए बैठी, भारी और गोरे बदन की जनानियों पर मेरी नज़र पड़ी, जिन्होंने अपनी-अपनी नाक पर दुपट्टा रखा हुआ था। यह दृश्य देखते ही मुझे अपने पैर नीचे जमीन में धंसते हुए-से लगे और गू की बदबू सिर में चढ़ती महसूस हुई, जिससे मेरे विचारों को विराम लग गया, जैसे हम ’मलाह‘(इमला) लिखते समय लगाया करते थे।

”तीसरे दिन हमको भेज देता है। जट्टों के लड़कों को तो कभी नहीं कहता कि पट्ठा-दथ्था कर आओ।“ अचानक पहली बार ऐसी प्रतिक्रिया के साथ मैंने बात चलाई।

”उनसे नासें(नासिकाएँ) तुड़वानी हैं ! कहते हैं-चूहड़ों क पठाण बगारी! सोढिय-खत्रियों को तो जट्ट टिच्च समझते हैं।” मुझ से तीन-चार बरस बड़े रोशी ने बताया। चार-पाँच कदम रखने के बाद उसने कहा, ”सोढियों के पल्ले क्या है? सिक्खी? और जट्ट मौजें लूटते हैं- जमीनों-जैदादों के सिर पर ! यूँ ही तो नहीं ये लोग हमारी गलियों में दहाड़ते फिरते !“

रोशी के इन शब्दों ने मानो मेरी कई पहेलियों और हिसाब जैसे कठिन सवालों को हल कर दिया। मैंने गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर एक तल्खी भरे रोष की झलक दिखाई दी।

हमारे परिवारों में ताये के बेटे रोशी को बहुत सारी उन बातों की भी जानकारी थी जिन्हें केवल बड़े लोग ही जानते हैं। दरअसल, वह पहली कक्षा में ही स्कूल की पढ़ाई छोडकर पास वाले गाँव ढड्डा-सनौरा के एक जमींदार मनजीत सिंह के यहाँ नौकर लग गया था। जमींदार की घरवाली बचिंती शराब बेचने का धंधा करती थी और नशेड़ी लोगों से मेलजोल रखती थी। जब पुलिस छापा मारती तो उसे पकड़ कर भोगपुर की चौकी पर ले जाती। उधर, रोशी उसके लड़कों के संग ढोर-डंगर चराता, घर का काम करता और वहीं रहता भी था। इस प्रकार, वह घर की गरीबी और अभावों के कारण तीन साल नौकर रहने के बाद अपने गाँव लौट आया था और हमारा सहपाठी बन गया था।

”मैं तो कहता हूँ कि बापू और ताये को बता दें ताकि सोढी चार अक्खर हमें भी पढ़ लेने दे। सवेरे स्कूल की सफाई करने की बारी लगाएँ, फिर इसके पशुओं के लिए परेशान होते फिरें।“ मैंने दिल की बात कही। मुझे लगा जैसे मैंने कोई सुझाव रखा हो।

”ठहरो तो जरा, आज तुम्हारी चुटिया पकड़कर न घुमाई तो मैं भी जट्ट का पूत नहीं! इन चमारियों को मेरे खेत ही दिखाई देते हैं साफ करने को।“ सोहपुर के नम्बरदार की गरजदार और क्रोधभरी आवाज़ ने अचानक हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा। हमारी बातचीत का सूत्र अधबीच में ही टूट गया, जैसे बापू की खड्डी की तानी के धागे टूट जाते हैं। नम्बरदार खेत की मेड़ों से घास-चारा खोदती-काटती औरतों की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था।

इसी दौरान, कुछ दूरी पर ’बुड्ढों‘ (जिनके यहाँ हमारा परिवार खेती और अन्य काम में सहायक होता था) के कुंज (शीशम के घने पेड़) के पास गधों के रेंकने की आवाज़ सुनाई दी, जैसे शंख पूजा गया हो। पर हम बातें करते हुए चलते रहे, ”रोज यही कुत्तेखानी होती है, हर कदम पर, हर जगह पर। आखिर, हमारे पास पैलियाँ (खेत) क्यूँ नहीं?“ इन्हीं विचारों में गुम होकर जब सोढी मास्टर के घर पहुँचे तो उसकी घरवाली ने हमारे हाथों में दराँतियाँ थमा दीं।

शिखर-दुपहरी में अनमने मन से हम गोयरा वाले खेत में पहुँचे। ताजा और सूखे गू से अपने पैर बचा-बचाकर हम आगे बढ़ते। रक्त-सने छोटे-छोटे कपड़ों को दराँतियों की नोकों से उठाकर दूर फेंकते तो आसपास घूमते दो-तीन पिल्ले उन्हें अपने दाँतों के बीच दबाकर इधर-उधर दौड़ते हुए आपस में खेलने लग पड़ते। उनकी हरकतें देख कर मन खुश होता लेकिन उमस के कारण चारों ओर बदबू इतनी फैली हुई थी कि सीधे सिर को चढ़ती थी। हवा एकदम बंद थी और साँस लेना दूभर हो रहा था। घिन्न के कारण जी मितलाने से मेरा मन वहाँ से भाग जाने को हुआ ताकि जल्द से जल्द साफ पानी से अपने पैरों और टाँगों को धो सकूँ। ...और हम फिर भी पके हुए सिट्टों वाला बाजरा काटते रहे। इतने में, सोढी की घरवाली सिर-मुँह के गिर्द दुपट्टा लपेट कर बाजरे के पूले बाँधने लगी।... और फिर, रोशी और मैं, दोनों एक साथ, पट्ठे कुतरने वाली मशीन चलाते रहे और सोढी की पत्नी पट्ठे के पूले मशीन में लगाती रही। हमारी साँसें फूल गईं और हम पसीना-पसीना हो उठे। मैं मन ही मन सोढी को गालियाँ देता रहा जिनके शब्द मेरे मुख से नहीं निकल रहे थे, पर कानों में सुनाई दे रहे थे।

गाँव लौटने पर जब नल की ओर बढ़े तो सोढी की घरवाली बोली, ”रुको, मैं पिलाती हूँ।“

उसके संकेत पर हम घर के गंदे पानी की निकासी वाली नाली की ओर चले गए और दोनों हाथों के चुल्लू बनाकर खड़े हो गए। उसने पानी से भरा जग उठाया और कुछ ऊँचाई से पानी उंडेलने लगी। आँगन से बाहर निकलते ही रोशी बोला, ”पहले हमारे भाई इन मास्टरों की और इनके पशुओं की सेवा-टहल करते रहे हैं और अब हम कर रहे हैं।... न साला सोढी का तबादला होता है, न ये मरता है। कोढ़ी-सा, लम्बू अमली !“

गधों के रेंकने की आवाज़ फिर सुनाई दी और हम उछलते-कूदते ’भइयों‘ के डेरे की ओर दौड़ पड़े, जहाँ छोटे-छोटे तम्बू गड़े थे, झोंपड़ियाँ और कोठरियाँ बनी हुईं थ। किसी-किसी झोंपड़ी के बाहर बकरी बँधी थी या फिर मेमने कूद रहे थे। अंदर-बाहर जाते स्त्री-पुरुष और इधर-उधर घूमते गधे दिखाई दे रहे थे।

आगे बढ़े तो देखा, मेरा बापू उन भइयों के संग बैठा बीड़ी पी रहा था, जिन्हें हमारे लोग ’पूरबिये‘ कहते थे। उन्हें मिली-जुली हिन्दी-पंजाबी में बोलते देखकर मैं हैरान था।

 ”...उधर तो हमें बच्चों के नाम भी दिनों के नाम पर रखने पड़ते हैं जैसे सोमू, मंगलू, बुद्धू वगैरह या फिर जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों के नाम पर, जैसे मेरा ही नाम है मच्छर दास, इसका मक्खी दास, उसका तोताराम और वो खड़ा है चिड़ी राम...।“

”...और ये खड़े हैं हग्गीराम और मूतरू राम !‘“ बापू ने बीच में टोकते हुए जैसे भइये की सामाजिक परेशानी की पुष्टि के लिए बात चलाई हो।

”हम लोगों के सभी नाम ऐसे ही गंद-मंद पर हैं।“

”...तो तुम अपने नाम दूसरे लोगों की तरह रख लो। इसमें क्या दिक्कत है?” बापू ने सुझाव दिया।

”ठाकुरों, राजपूतों जैसे ! भगवान का नाम लो...-मेरे माँ-बाप ने मेरे छोटे भाई का नाम उदय सिंह रख लिया था और ठाकुर लट्ठ ले कर आ गए थे कि तुमने हमारे पिता का नाम कैसे रख लिया? बोले-तुम हमरे बाप बनना चाहते हो? तुम्हें क्ा हक है कि तुम मरे नाम रखो। भला चाहते हो तो ये नाम बदल लो।“ भइये के चेहरे पर उदासी की लहर किसी बरसाती नदी की बाढ़ की तरह तेज़ी से चढ़ रही थी।

 ”तो फिर उनका कहना मान लिया?“ लगता था, बापू अपने संशय को दूर करना चाहता था। उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर बीड़ी का बंडल और माचिस निकाली।

”फिर क्या, पिटाई करवानी थी? उस दिन से भाई का नाम उदय सिंह से बुद्धू हो गया।“ भइया को जैसे कोई अभाव खल रहा था जिसके चलते वह उदास-सा हो गया था। उसने जमीन पर दायीं उँगली से कोई तस्वीर बनाई या कुछ लिखा। अन्त में, उसी हाथ की हथेली से उसने उसे मिटा दिया।

मुझे उसका यह खेल समझ में न आया। बापू के चेहरे से उसकी उत्सुकता स्पष्ट दिख रही थी, मानो वह इंतजार कर रहा हो कि वह भइया अभी अपने इलाके की और बातें बताएगा।

”...--ठाकुर दास, क्या बताएँ?...- उधर पूरबी उत्तर प्रदेश में हमरी हालत बहुत खराब है। हम गरीब लोगों की नई शादी की डोली सीधे ठाकुरों के घर जाती है। जब चाहते हैं, हमरी बहू-बेटियों को अपनी हवेली में बुला लेते हैं।“ एक भइया दुःखी स्वर में अपने इलाके की व्यथा सुना रहा था।

यह सुनते ही बापू फुर्ती से पांवों के बल बैठ गया। उसने हाथ में पकड़ी सुलगती बीड़ी दोहरी कर दी और फिर उसके टुकड़े कर दिए। बापू का शरीर तन-सा गया। उसने हमारी ओर एक उचटती-सी नज़र से देखा, पर बोला कुछ नहीं।

”और बताएँ?‘“ बुढ़ापे की ओर तेज़ी से बढ़ रहा भइया बोलते-बोलते रुक-सा गया। उसका स्वर पहले से अधिक खरखरा और कंपित-सा हो उठा। मुख पर घोर उदासी और निराशा के चिह्न स्पष्ट उभर आए।

उसने शब्दों को किसी बालक की भाँति जोड़ा और जैसे-तैसे हिम्मत करके कहा, ”होली के दिन मत पूछो...- शाम को ठाकुर शराब पीकर और लट्ठ लेकर आ जाते हैं...हुक्म सुनाते हैं-अपनी औरतों से कहो, हमरा दिल बहलाएँ। ...अब इधर आए हैं तो अपना बाल-बच्चा लेकर आए हैं।“

मुझे लगा, भइये के पास मानो शब्द ही खत्म हो गए हों। उसका गला भर आया और आँखें छलछला उठ। उसकी गर्दन नीचे की ओर यूँ लटक गई जैसे किसी मुर्गे की गर्दन मरोड़ दी गई हो। यह सब देख-सुनकर मेरे अपने तन में ताकत न रही और मुख जैसे मुरझा गया।

पल भर बाद, मुझे लगा कि उन लोगों के साझे दुःखों के आदान-प्रदान ने बोली और इलाके की भिन्नता पर पौंछा फेर दिया है। बापू की आँखों में लाली चमकती दिखाई दी। उसे पता नहीं क्या सूझा, वह उत्सुकता से कहने लगा, ”उधर की लानत भरी ज़िन्दगी से तो अच्छा है कि तुम लोग इधर ही बस जाओ।“

”सारी रिश्तेदारी उधर है...- क्या करें, कुछ सूझता नहीं। मन तो करता है, पंजाब में बस जाएँ जहाँ सरेआम तो कुछ नहीं है। न ही इतनी छुआछूत है। हमरे को भी तीन-चार बरस हो गए इहां रहते और देखते हुए।“

”औरतें तो भाई हर जगह छुआछूत से परे हैं।“ बापू ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ”बहुत सारी कुदेसणें (दूसरे प्रांत की औरतें) खरीदकर लाए हुए हैं, बहुत सारी पूरबनिय-- ये सोहलपुर की औरतें क्या यूँ ही हमको-तुमको करती हैं? और फिर, औरत बेचारी का हाल भी हमारी तरह ही है। उसका न धरम है, न वरण(वर्ण)। पानी को चाहे जिस बर्तन में डाल लो, उसी में रम जाता है, उसी के रंग का हो जाता है।“ बापू ने बिना रुके कहा।

भइये ने ऊपर से नीचे की ओर सिर हिला कर ’हाँ‘ में हुंकारा भरा।

”यार, एक बात मेरे को याद आ रही है। पिछले दिनों हमारे गाँव का ड्राइवर जो पहले बम्बई में ट्रक चलाता था, बता रहा था कि वेश्या का पेशा ऊँची-नीची दोनों जातियों की औरतें करती हैं, पर कमला वशिष्ठ, बिमला वर्मा, शर्मा वगैरह का रेट दूसरी औरतों से ज्यादा है।“ बापू ने अपनी ओर से नई जानकारी देते हुए कहा, ”एक ही पेे में कितना फर्क ! मैं उसकी बात सुनकर हैरान रह गया कि ऐसे जिस्म-फरोशी के धंधे में भी ग्राहक जात-पात देखते हैं...।“

”गोरी-चिट्टी होती हैं, शायद इसलिए...।“

”चलो छोड़ो, कहाँ-कहाँ की बात करें...।“ बापू ने स्वयं ही शुरू की गई बात को समेटते हुए कहा।

पास बैठे एक अन्य भइये ने अपने दायें हाथ की उँगली से नीचे के होंठ में से खैनी निकाल कर छिटकी और फिर बायीं ओर गर्दन घुमा कर दाँतों के बीच से थूक की पिचकारी मारी।

बापू और भइयों के चेहरों को देख और इन बातों को सुनकर मेरे मन में एक उथल-पुथल-सी मच गई। कई पहेलियों जैसी बातें मेरी समझ से बाहर रह गईं। फिर, मन में आता कि ये बातें निरन्तर होती रहें और मैं ध्यान से इन्हें सुनता रहूँ। परन्तु, तभी टोकरे में बिठाई हुई काले रंग की नंग-धड़ंग और बहती नाक वाली छोटी-सी बच्ची ने एक साँस में जोरों से रोना शुरू कर दिया। इस कारण सभी का ध्यान उसी तरफ खिच गया। उसके आँसू यूँ गिर रहे थे जैसे बर्फ की कुलफी पिघल रही हो।

समीप ही सिलबट्टे पर लाल मिरची रगड़ती उसकी माँ मिरची रगड़ना छोडकर और साड़ी का पल्ला सिर पर लेकर उस बच्ची को चुप कराने लगी। रोती हुई लड़की के रूखे-बिखरे बालों का घोंसला-सा बना हुआ था और उसकी गालों पर बहते आँसुओं की लकीरें अभी भी दिखाई दे रही थीं, जबकि वह अब चुप हो गई थी। उधर, सिल पर से मिरचों के लाल पानी की एक पतली-सी धार अभी भी बह रही थी, जो क्षण भर बाद छोटी-छोटी बूँदों में बदल गई। कुछ देर बाद मुझे लगा जैसे लाल मिरचें हम सभी के दिलों पर पड़ गईं हों और उन्होंने हमारे दिलों के अंदर हलचल-सी मचा दी हो। शायद, इसी कारण छाती पर रखी मेरी बाँहें खुद-ब-खुद खुल कर नीचे लटक गईं और हाथों में अजीब-सी हरकत आ गई। बाजू की छोटी-छोटी मछलियाँ फड़क कर रह गईं।

पल भर की खामोशी के बाद बापू ने फिर बात शुरू की, ”यार, कभी-कभी तो मैं सोचता हूँ कि इस मुल्क में हमारा है क्या? ...तू और सुन, तीसरे दिन जरीब-झंडियाँ उठाये पमैश(पैमाइश) के लिए आ जाते हैं और हमारे आँगन के बीच निशान लगाकर कहते हैं कि चमारों के सारे घर हमारी छोड़ी हुई शामिलात जमीन में हैं।“

”तुम लोग जमीन के टुकड़े की बात करते हो, मुझे तो लगता है जैसे हम गरीबों की बहू-बेटियाँ उनकी शामिलात हों।“ भइये ने बापू की बात बीच में काटते हुए जैसे किसी रहस्य की ओर संकेत किया। सिर के छोटे-छोटे बालों में उँगलियों से खाज करते हुए उसने कहा, ” तुम हमसे अच्छे हो... जमीन नहीं तो क्या हुआ, थोड़ी-बहुत इज्जत तो है।“ भइये की आवाज़ इतनी भारी हो उठी थी मानो किसी बड़ी इमारत से टकराकर गुम्बद में गूँज रही हो।

यह सुनकर बापू अवाक-सा उसके मुख की ओर देखता रह गया। भइयों और बापू के मुरझाये चेहरों को देखकर हमारे अपने मुख उतर गए। मेरा मन उचाट-सा हो गया।

      ” पता नहीं, किन जनमों-करमों की सजा झेलनी पड़ रही है।“ भइये ने अपने आप से प्रश्न किया जिसे हम सबने सुना।

      ” जन्मों-करमों को आग लगाओ...- कोई उपाय सोचो इन जालिमों से छुटकारा पाने का। जैसे हमारे लोग कांग्रेस के सामने मांगें रखते हैं...- तुम भी वैसे ही सोचो। सिर झुकाकर और रोने-धोने से कुछ नहीं होने वाला इस बेईमान मुल्क में...।“ बापू जब तजवीज़ें पेश करता तो एक सुलझे-सयाने इन्सान की तरह प्रतीत होता। एकबारगी मेरे मन में आया कि अगर वह इतना अक्ल वाला है तो मेरी माँ पर हाथ न उठाया करे और न ही ’उसकी माँ की, बहन की’  किया करे। लेकिन, यह ख्याल हवा के झोंके की तरह एकाएक कहीं दूर चला गया।

सूरज के पश्चिम की ओर सरकने के कारण पूरब में साये लम्बे होने लगे थे। ठीक, भइयों और बापू जैसे लोगों के दुख-दर्दों की लम्बी व्यथा की तरह। हवा अब पहले से तेज़ चलने लगी थी। शीशम के पत्ते उड़-उड़ कर हमारे पैरों में और इधर-उधर गिर रहे थे। बरसाती नाले की खुदाई होने के कारण धूल-मिट्टी उड़ने लगी थी। चारों ओर चक्रवात उठने लगे थे। पुरबनियाँ अपने बच्चों को उठाकर तम्बुओं के अंदर घुस गई थीं। हम अडोल खड़े रहे और हाथों से आँखों को धूल-मिट्टी से बचाने लगे।

इसी दौरान, बापू ने उठकर पीछे से कुरता झाड़ते हुए कहा, ”अच्छा भई मच्छर दास, ये हवा अब रुकने वाली नहीं। और ये बच्चे भी सिर पर खड़े हैं, इन्हें मंजल पर पहुँचाना है।“

पलभर बाद, हमारी ओर इशारा करते हुए बोला, ”बंदे बनकर मन लगाकर पढ़ाई-लिखाई में लग जाओ...। सोढी अमली और दूसरे मास्टरों की तो कल लेता हूँ खबर, जो तुम्हें कभी पटठे-दथ्थे(चारा) पर, तो कभी डाक दे के जंडीरों वाले भंगे की ख़रास(बैल से चलने वाली आटा चक्की) पर और कभी भूंदियाँ (माधोपुर से चार-पाँच किलोमीटर दूर एक गाँव) को दौड़ाए रखते हैं।“

” कल तो मास्टर गुरबंता सिंह कृषि मंत्री ने आना है स्कूल में।“ हमने बताया।

” उसके लिए हमारी सारी बिरादरी ने पहले ही फैसला कर रखा है कि कांग्रेस हमें भी जमीनें दे।“ बापू ने हमारे संग इस तरह से बात की जैसे हम इस सारे सिलसिले को समझते हैं। वह फिर बताने लगा, ”गुरबंता सिंह भी मास्टर रहा है पहले...-हमारे लोगों को कहता था-जमीन रबड़ है जिसे खींच कर बढ़ा दूँ और तुम लोगों को बाँट दूँ...? और हमारे लोग उसकी यह दलील सुनकर चुप हो गए थे पिछली बार भोगपुर में। किसी ने कहा ही नहीं कि भाई जिनके पास ज्यादा है और जिससे जमीन संभाली नहीं जाती, उसमें से काटकर पटठे-दथ्थे और कोठे वगैरह डालने के लिए इन गरीबों को भी बंदोबस्त करा दें। चार दिन वे भी सुख की साँस ले लें। कोई बात नहीं, हमारा वक्त भी आएगा कभी।“

बापू रूखे स्वर में यह कहता हुआ ’बुड्ढों‘ के खेतों की ओर चल पड़ा और हम मौका पाकर गधों को हांकने लगे। बांध वाली जगह पर पहुँचकर जब गधों के ऊपर लदे भरे हुए खोंचे खाली होते, हम वहीं से फुर्ती से उछलकर गधों की पीठ पर चढ़ जाते और खदानों तक पहुँचने तक अपनी एड़ियों को इस तरह गधों की बगलों में मारते रहते जैसे हमने राजा-महाराजा लोगों की तस्वीरों में देखा था। इस तरह, हम कितनी ही देर तक मिट्टी और गधों से खेलते रहते। साये और लम्बे हो गये थे। हम अपने गाँव की ओर चल दिए। चक्रवात पहले ही चलती हवा में तब्दील हो चुके थे।

पता नहीं, हम थक गए थे कि मैंने और रोशी ने आपस में अधिक बातें नहीं कीं। बापू की दोपहर वाली बातें गई शाम तक मेरे मन में बार-बार ऐसे आ रही थीं जैसे आसमान में उड़ते बादलों में से सूरज बार-बार झाँक रहा था।

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