छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

रेगिस्तान में बहा दरिया

“ठाकरा !  ठाकरा ! दरवाज़ा खोल !” एक ही साँस में बोली गई घबराई हुई, सी आवाज़ थी।

“बाऊ बसन्त सिंह लगता है।” कहकर बापू फुर्ती से बाहर वाला दरवाज़ा खोलने के लिए आगे बढ़ा।  वह जाते, जाते कह रहा था, “मुँह अँधेरे ! कभी आगे न पीछे... खैर हो।”

“ठाकरा ! जीत ने रात में संखिया खा लिया !  तुझे बुला रहा है।  रत्ते के यहाँ से हींग लेकर जल्दी ही आ जा।” बाबा ने आँगन में प्रवेश करते हुए रुआँसे स्वर में रुक, रुककर कहा।  फिर वह बुक्का फाड़कर रोने लगा।  वह लपेटे हुए कम्बल से आँखें पौंछने लगा।  हम सबके चेहरे उतर, से गए।

“रात में नहीं बता सकता था?” बापू ने तल्खी के साथ शिकवा किया।

बाऊ बाबा को जैसे सुनाई ही न दिया हो। उसने फिर नाक में बोलते हुए कहा, “ठाकरा ! जल्दी पहुँच।  मलकीत कौर भी कल की मायके गई हुई है।”

मैंने देखा कि बाऊ बाबा के पैरों में पहनी रबड़ की जूती पर ओस की एक मोटी तह जमी हुई थी।  उसके चेहरे पर उदासी और लाचारी की एक परत चढ़ी हुई थी।

“कैसा काम किया मूरख ने !” बापू ने ये शब्द धीमे से बोले।

बाऊ बाबा आया बाद में और उठकर पहले चल दिया। कुछ दिन पहले की बात एकाएक मेरी आँखों के सामने आकर घूमने लगी।  ताया जीत उस दिन हमारे गाँव और अपने गाँव सोहलपुर के बीच बरसाती चो (नदी) के लिए नये, नये लगाए गए बाँध के साथ वाले तिरछे से टुकड़े में हल चला रहा था।  उसने लाड़ भरे शब्दों में कहा था, “गुड्ड !”  और पैने सहित अपना दायाँ हाथ हवा में हिलाकर इशारा किया था।  जब मैं उसके करीब गया तो उसने हल रोककर जबरन मेरा कुर्ता और कच्छा उतारा और मरखने बैल के सींग पर टाँग दिया।  फिर हँस कर बोला था, “खुद ही उतार ले अब।” मैं रुआँसा हो उठा था।  मैं एक हाथ आगे और एक हाथ पीछे ले जाकर अपना नंग ढकने की कोशिश करने लगा।  मैं जितने ऊँचे स्वर में रोता, ताया उतना ही ज्यादा हँसता। उसके चौड़े दाँतों वाला ऊपर का जबड़ा काली दाढ़ी और मूँछों के बीच में फबता था।  आखिर, ताये को खाँसी छिड़ गई थी और उसका भरा हुआ सुडौल सुन्दर चेहरा लाल हो उठा था।

“ले, इस पैने से उतार ले।” ताये ने बैठकर मुझे बाँहों में भर खिझाते हुए कहा।  वह जानता था कि इस काले-सफेद बैल से मैं बहुत डरता हूँ क्योंकि वह सींग मार देता था।  हमारे गाँव से खरीदे बछड़े के साथ भिड़ते समय उसका एक सींग पूरा ही उखड़ गया था और उसके बीच से निकली छोटी, सी गुल्ली पर डेढ़, दो महीने तक पट्टी बाँधी जाती रही थी। मेरा सुबकना अभी जारी था कि बड़े बाबा अरजन सिंह (ताये का चाचा बाबा) ने दूर से ही फौजी रौब वाली डाँट मारकर कहा, “ओए शर्म कर कुछ, बहुत हो गई तेरी ठिठोली !”

ताये ने तुरन्त कपड़े उतारकर मुझे दे दिए थे।  इतने में ताई (मलकीत कौर) सुबह का नाश्ता लेकर आ गई थी और साथ वाले खेतों में काम करते बापू, बड़े बाबा और छोटे बाबा (जिसे सभी ‘बाऊ’ कह कर बुलते थे) आ गए थे।  जब ताई को पता चला तो वह ताये को घूरती हुई मुझे अपने संग घर ले गई थी।

मेरी इन ख़्यालों के डिब्बों वाली लम्बी रेलगाड़ी उस वक्त रुकी जब बापू के मुख से “ओह ! तेरी... !” निकला।

जल्दबाजी में साइकिल को कोठरी में से निकालते समय बापू के दायें टखने से थोड़ा, सा ऊपर टाँग की हड्डी पर बिना पैडिल वाली किल्ली ज़ोर से लगी थी। उसके मुख से सहज ही निकल गया था, “जल्दबाजी के आगे गड्ढे ही रहते हैं साले !”

बापू हवा से भी तेज़ साइकिल दौड़ाकर सोहलपुर (मेरे गाँव माधोपुर से दक्खिन, पूरब की ओर ढाई तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित छोटा, सा गाँव) पहुँचना चाहता था।  उसने ताये वाले विलायती साइकिल को ड्योढ़ी से बाहर करते हुए मुँह पीछे घुमाकर हमें हुक्म दिया था, “आज स्कूल से छुट्टी कर लेना दोनों जने !”

कुछ देर बाद हम दोनों भाई रोटी खाकर सोहलपुर के लिए निकल पड़े थे।  मेरे मन में कई डरावने ख़्याल आ रहे थे।  चलते, चलते बीच, बीच में मुझे कँपकँपी, सी छूट जाती और दिल की धड़कन तेज़ हो उठती।  बाँध पर साँपों की लकीरों को देखकर मैं और भी डर गया।

दोनों बाबाओं के चेहरे उतरे हुए थे।  उनकी निगाह रास्ते की ओर थी।  वे आपस में कम ही बोल रहे थे। अगर बात करते तो बस इतनी कि दोपहर हो चली है, ठाकर अभी भी नहीं आया।

बाऊ बाबा का एक पैर अपने बेटे जीत की चारपाई की ओर और दूसरा बाहर की ओर होता।  उसे जैसे चैन नहीं पड़ रहा था और उसकी नाक में से पानी बह रहा था।

कुछ देर बाद एक सफेद कार आकर रुकी।  बापू के साथ एक ऊँचा, लम्बा, मोटा, गोरा, चिट्टा, घनी दाढ़ी वाला सरदार निकला।  वे सीधा ताये की चारपाई के पास गए।  अब दोनों बाबा भी एक उम्मीद के साथ उनके करीब आ खड़े हुए थे।

“सरदारा सिंह !  पैसे जितने मर्ज़ी लग जाएँ, परवाह नहीं, मुंड़े को बचा लो।” बाबा अरजन सिंह ने याचना भरे स्वर में कहा।

बाऊ बाबा उन सबके मुँह की ओर देख रहा था और बेबसी की झलक उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी।  वह ताये की चारपाई के पास नीचे ज़मीन पर बैठ गया।

डॉक्टर ने ताये की छाती पर बार, बार टूटी लगाई जिसके सिरों को उसने अपने कानों में अपनी सफेद पगड़ी उतार कर ठूँस रखा था।  फिर, उसने ताये को दवाई दी जिससे उसे उल्टियाँ आने लगीं।  बाद में उसने पुड़ियाँ दीं और टीके लगाए।

“सरदार सियाँ, तुम्हारी कार में भोगपुर या जालंधर ले चलते हैं।” बड़े बाबा ने फिर मिन्नत की।

इसी दौरान डॉक्टर ने बापू को एक ओर ले जाकर कुछ कहा।  दोनों बाबों के चेहरे और भी फक्क पड़ गए।  वे अडोल बेजान, से बुत बनकर खड़े थे।  लगता था जैसे उन्हें स्वयं कुछ नहीं सूझ रहा था और डॉक्टर ही उनके लिए रब बन गया था।

“वाहेगुरु पर भरोसा रखो।  मैंने दवाई दे दी है, बाकी उम्र तो ऊपर वाले के हाथ में है।” डॉक्टर ने कमीज के नीचे का अपना ‘गातरा’ ठीक किया और कार की ओर जाते हुए दोनों बुजुर्गों को दिलासा दिया।  पलक झपकते ही कार धूल में गुम हो गई जिसका पीछा मेरी निगाह दूर तक करती रही।  पल भर के लिए ताये की नाजुक बनी हालत जो मेरे ख़्यालों में उभरी थी, ऐसा लगा जैसे वह धूल, मिट्टी में गुम हो गई हो।

उधर, हवेली के साथ वाले जोहड़ के दूसरी ओर घर को जाने वाली गली में दोपहर से पहले की बैठी दादी राओ ने मुझे हाथ से अपने पास आने के लिए इशारा किया।

“क्या कहकर गया है डागदर ?”

“कहता है, उम्र तो ऊपर वाले के हाथ में है।”

दादी आहें भरती तेज़ी से हवेली की ओर बढ़ी।  पर उससे दो कदम भी न उठाए गए मानो टाँगें जवाब दे गई हों।  वह कलेजा थामे वहीं घूमकर बैठ गई।  उसकी आँखों से टप, टप आँसू गिरने लगे।

बाऊ बाबा और मैं फिर ताये द्वारा जगह, जगह की गई टट्टी पर मुट्ठियाँ भर, भरकर मिट्टी डालने लगे।  बाऊ बाबा के हाथ काँप रहे थे। वह धीमे स्वर में जैसे अपने आप को ही सुनाकर कह रहा था, “अन्दर तो सारा कट, फट गया है, अब तो निरी चरबी गिराने लग पड़ा है।”

“ठाकरा ! मुझे बचा ले, मुझसे गलती हो गई।” ताये ने चारपाई पर मरोड़े मारते हुए फिर से अपनी बेबसी ज़ाहिर की तो हमारी नज़रें फिर ताये की चारपाई पर जा टिकीं।  बाऊ बाबा की आँखों में से पानी यूँ बह चला मानो रोक का नाका टूट गया हो और पानी ने जैसे किसी मोटी मेड़ को गलाकर तोड़ दिया हो।

“तेरे पास ही हैं सारे, हौसला रख !” बापू ने जैसे बड़ी हिम्मत इकट्ठी करके कहा हो।  फिर उसने दूसरी ओर मुँह घुमाकर अपनी पगड़ी के एक छोर से आँखें पोंछ ली थीं।

“ठाकरा !  मैं मर जाऊँगा, बचा सकता है तो बचा ले, पर उसे मेरे पास न आने देना।” ताये ने पल भर रुककर फिर कहा, “अगर तू मेरे पास से चला गया तो मैं कुंइया में कूद जाऊँगा।”

“जीत, हौसला रख...।” बापू के पास जैसे ताये से भी अधिक शब्दों का अभाव हो गया था। उसने अन्दर से बाहर आकर बाबा अरजन सिंह को बताया, “मुझसे नहीं देखे जाते ये टूटते हुए रिश्ते !”

नारंगी रंग में रँग चुका सूरज छलाँगें लगाते हुए छिपने की जुगत में था।  परिन्दे अपने घोंसलों की ओर उड़ानें भरने लगे थे।

बापू कुंइया से पानी पीकर लौटा  तो ताया दूसरी चारपाई पर कमर में लपेटी सफेद चादर ओढ़कर पड़ा हुआ था।  उसने पूछा, “जीत, क्या बात है ? इधर पड़ गया ?”

“ठाकरा ! अब सब खत्म है।”

“जीत, ऐसा न कह... रब...।”

“मलकीत कौर से मेरी तरफ़ से माफी माँग लेना कि गलती... ,।” ताये ने जैसे अपनी सारी ताकत इन शब्दों में लगा दी हो।  तभी तो बापू का कसकर पकड़ा हाथ खुद-ब-खुद ढीला पड़ कर छूट गया।

समीप खड़ा बाऊ बाबा बुक्का फाड़कर रो पड़ा। 

“इक अलालपुर (अलावलपुर, ज़िला जालंधर) में बैठा है और दूसरा विलैत में... मेरा तो यही था सब कुछ...।” बाऊ बाबा ने रोते हुए अपने बेटों को याद किया। वह गिर-गिर पड़ता था और फिर ताये की चारपाई के पास बैठकर ज़ार-ज़ार रोने लगा।

दोनों बाबाओं का रोना, बिलखना सुनते ही दादी दोनों हाथों से अपनी छाती पीटती दौड़ती आई।  अब उसकी टाँगों में जान पता नहीं कैसे लौट आई थी।  वह विलाप करते हुए ताये को यूँ आवाज़ें लगा रही थी मानो सोये हुए को जगा रही हो।  बिलख, बिलखकर रोती हुई दादी को देखकर मैंने खुद फिर से रोना शुरू कर दिया था।

अब पंछी अपने घोंसलों में जा छिपे थे।  उतर रहा अँधेरा सबको जबरन अपनी चादर में छिपा लेने के लिए उतावला हो रहा था।

इसी दौरान चैन की पीतो और लंबड़नी (नम्बरदारनी) नन्नी ने भी आकर ऊँची आवाज़ में रोना शुरू कर दिया। नांद पर बँधे पशुओं ने अपने मुँह रोने, पीटने की आवाज़ों की ओर उठा रखे थे।  लगता था जैसे उन्हें भी किसी अनहोनी के होनी में तब्दील होने का अहसास हो गया हो।

... और, बापू ने हम दोनों भाइयों को बुलाकर कहा, “तुम गाँव चले जाओ, मैं भी आता हूँ।”

करीब खड़ा बाबा अरजन दास कह रहा था, “ठाकरा, उठकर कठार चला जा, अँधेरे-अँधेरे।  मलकीत कौर को कहना कि ीत बहुत बीमार है, अपने भाई को साथ लेकर आ जाए।  उसके भाई को परदे से समझा देना कि मकाण(मौत की रस्म) में दिन चढ़े आ जाए। जाते हुए अपनी बुआ और बहन-एक परिवार में ब्याही बुआ (प्रीतो) और भतीजी (मीतो) को सलाले में बताते जाना।”

अंत्येष्टि से लौटते हुए मैंने देखा कि छोटे से गाँव का बड़ा-सा रास्ता रिश्तेदारों, सगे-संबंधियों और ताये के दोस्त-यारों से भरा पड़ा था।  यह दुःखद घटना १९६५ की दीवाली से बीस, बाईस दिन पहले की थी।

यद्यपि अब ताये का भोग पड़ चुका था, तब भी हमारे घर में उसकी बातों का अखण्ड प्रवाह जारी था।  बापू गर्व से कहता, “जीत जैसे बन्दे क्या घर, घर में पैदा होते हैं ?... एक बार हम हवेली में खड़े थे तो जीत के मन में पता नहीं क्या सूझा, मुझे बाँह से पकड़कर खुरली के पास ले जाकर बोला- इस वक्त हमारे पास पगड़ियाँ नहीं हैं, आ तू भी गाय के बदन पर हाथ रख ले, आज से हम दोनों भाई बन गए। फिर घर पहुँच कर उत्साहित, सा होकर मलकीत कौर से बच्चों की तरह बोला- ठाकर आज के बाद साइकिल, पैसे या कोई चीज़ माँगे तो ना नहीं करनी, अगर की तो मुझसे बुरा कोई नहीं... अब हम भाई बन गए हैं।”

बापू कुछ पल रुककर फिर बताने लगा, “एक बार हवेली आकर मलकीत कौर ने मुझसे कहा- भाइया जी, पता लगा है कि बरामिये मेंहदू के घर में बैठकर पी रहे हैं।  जरा...।  मैंने फौरन साइकिल उठाई और जाकर हाँक लगाई। जब वह गेट पर आया तो मैंने कहा- लानत है तेरे पर, आज यहाँ बैठकर पी रहा है, कल तेरे घर भी आएँगे ये। फिर क्या था- चुपचाप वहीं से मेरे संग चल पड़ा।”

“और बताऊँ ?” बापू ने और बताने की इच्छा से पूछा।

“एक बार पीते, पीते तोखी शहिबाजपुरिये ने मुझे डाँट मारते हुए उल्टा, सीधा कुछ कह दिया। जीत ने उठकर गले से पकड़ लिया- अगर फालतू बोला तो देख लेना... यह मेरा भाई है।  तूने जाना है तो चला जा। तलवंडी सुच्चे ने भी एक बार चमार, कमीन कहकर कुछ कहा था तो जीत ने उसी समय उसको बुरी तरह बेइज़्ज़त कर दिया था।”

बापू के पास ताये से जुड़ी यादों का एक अच्छा, खासा भंडार था। रात में रोटी खाते समय वह ताये के बारे में कोई न कोई बात शुरू कर देता।

“जब अवतार का ब्याह था तो माणकढेरी वाला बाबा फुलके बनाते, बनाते चाचा अरजन सिंह को कहने लगा- ठाकर चूल्हे के नीचे बालण डाले जा रहा है।  चाचे ने खूब ठोककर जवाब दिया- इसके हाथों वाले बालण से ज़हर चढ़ता है ! इसी तरह ज्ञानू (नाई) कहे कि खाने, पीने वाली सारी चीजों में ठाकर हाथ डाले जा रहा है। फिर दारू (माधोपुर का जट्ट हलवाई ) ने कहा- शरम कर कुछ !  तू है तो हमसे बड़ा... हमें जो बोतल मिलनी है, वो भी नहीं मिलेगी ऐसे तो।  सब कुछ तो ठाकर के हाथ में है।  इस पर ज्ञानू कहे- अच्छा, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।  मैं पूछते, पूछते रह गया कि दो दिन पहले खंड पाठ पर जट्टों, चमारों के घर से लस्सी इकट्ठी करके बाल्टियाँ भरकर हम माधोपुर लाए थे।  उन्हें एतराज नहीं तो तू क्यों बीच में चौधरी बना फिरता है !”

बापू फिर जैसे एक कमी सी महसूस करते हुए कहता, “दिन तो जैसे, तैसे गुज़र जाता है, दिन ढलता है तो ऐसा लगता है जैसे जीत मेरे साथ, साथ हो।  रात में अव्वल तो नींद नहीं आती, अगर आ जाए तो सपनों में जीत, बाँध के साथ वाले कच्चे रास्ते में साइकिल की घंटी को खोलकर एक हाड़ा (पैग) खुद पीता और एक मुझे देता है।  कहता है - चल उठ, बकरे बुलाएँ(मस्ती में होंठो से निकाली जाने वाली तेज़ आवाज़)।  तू घबरा न, मैं जो तेरे साथ हूँ।”

बापू की बातें सुनते समय मेरा मन रात के अँधेरों को चीरकर ताई के घर की ओर उड़ानें भरने लगता।  बिल्लियों जैसा ताई का रुदन सुना नहीं जाता।  छुट्टी वाले दिन मैं गोली की तरह सीधा उसके पास चला जाता।

बड़ी दादी ईसरी (ताई की दादी सास) आँगन में खाट पर लोई या रजाई लेकर बैठी होती। मैं करीब जाकर बैठता तो वह रजाई का पल्ला मेरे ऊपर दे देती, अपना हाथ मेरे सिर और पीठ पर फेरती हई आशीषों की बरखा करते हुए कहती, “ठाकर को पाँच रुपये देकर मैंने तुझे लिया है। मैंने पगड़ियाँ बदली थीं जीत और ठाकर की ! जल्दी, जल्दी तगड़ा हो जा मेरे पुत्त !”

इसी दौरान, मुझे अपने गाँव की दुबली, पक्के रंग वाली और छुहारे की तरह झुर्रियों से भरे मुँह वाली बुजुर्ग नम्बरदारनी भागो की याद हो आती जिसके कपड़े मैले होते, पैरों में पुरानी जूती और हाथ में सोटा होता।  वह हमारे घरों की औरतों, लड़कियों से कुछ दूरी बनाकर अपने कपड़ों को समेटे हुए बात किया करती।  गली, मुहल्ले में खेलते बच्चों में से जब किसी का हाथ उसे छू जाता तो वह झट डंडा मार देती, गालियाँ, उलाहने अलग ! वह भ्रष्ट हो जाती। मैं सोचता, बड़ी दादी को तो कुछ नहीं होता। वह भी तो जट्ट है, मुरब्बा ज़मीन है।  हमारे गाँव वाले तो रड़ा टाहली(सार्वजनिक मैदान) को काही (घास) के लिए बैलगाड़ियाँ लेकर जाते रहते हैं और फिर भी हमारे साथ ऐसा करते हैं।”

बड़ी दादी इतना लाड़ करती कि मेरा दिल अपने गाँव में लौटने को नहीं करता।  फिर ख़्याल आता - हमारे गाँव में भी ऐसा पानी और ऐसी हवा बहती है। सहज ही बापू का जवाब मिलता, “सोहलपुर गाँव पूरा तो अमलियों (नशेड़ियों) का है।  ये खुशिया नहीं अपनी बिरादरी का... उसके घर से जब तब डोडे, मावा(भांग, अफीम) माँग लाते हैं सब।  इनकी एक दूसरे के बगैर गरज पूरी नहीं होती और ये किसी के साथ क्या छुआछूत करेंगे।”

मेरी इस उधेड़बुन के धागे उसी समय खत्म होते जब ताई चाय का गर्म गिलास मेरे हाथ में ला पकड़ाती।

ताई मुझे कभी रोटी के ऊपर गुड़़, राब, शक्कर, मक्खन आदि रखकर देती और दाल, दही या साग अलग से। अचार को मन करता तो मैं रसोई के साथ वाली कोठरी में रखी चाटी में से एक डली निकाल लाता। वह मुझे अपने जूठे बर्तन धोने या माँजने न देती।

ताई मेरे संग पहले से ही बेहद मोह रखती थी।  कई बार वह अपनत्व भरी याचना के साथ मुझे कहा करती, “छुट्टी वाले दिन मेरे पास आ जाया कर, मेरे पुत्त ! मेरा मन लगा रहता है।”

उसकी दुःखती रग का मुझे थोड़ा, थोड़ा पता था।  वह मुझमें अपने मर चुके बेटे और बेटी को तलाशती थी। वह कपड़े धोती तो मैं धीरे, धीरे हैंडपंप चलाता रहता।  गरज कि वह कोई भी काम करती, मुझे अपने संग, संग रखा करती।  मैं भी उसके पीछे, पीछे यूँ चलता रहता जैसे बकरी के पीछे मेमना !

साँझ होने पर घर लौटने लगता तो कहती, “पुत्त, अपनी बीबी से कहना आकर मिल जाए।  तार के ब्याह के बाद बस तेरे ताये के मरने पर ही आई थी, कहना जल्दी चक्कर लगाए।”

अपने गाँव की ओर जाते हुए मेरे पैर जैसे भारी हो उठते। सोचता- हम ताई के घर के पास कोठा डाल लें, माधोपुर से न रोज आएँ और न जाएँ।

मैं घर पहुँचकर बताता कि ताई ने आज क्या, क्या खाने को दिया।  माँ हाथ जोड़कर अरदास करने के लहजे में कहती, “रब तेरी ताई की झोली भी भरे !”

“पहले लड़का हुआ तो उसे जलोदर हो गया। मैं तो अपनी लाल गाय का दूध सवेरे ही पहुँचा आता था, पर ज्यादा उम्र नहीं लिखी थी। लड़की पैदा हुई तो यूँ ही देखते, देखते हाथों में से चली गई।  अब रब निशानी दे तो उम्र लगाकर दे।” बापू ने विस्तार से बयान किया।

“जड़-बीज के लिए रब खुद ही बूटा लगाएगा, करमों की मारी के साथ पहले ही बहुत अन्याय हो गया।”

मैंने बीच में टोककर पूछा, “ताया उस दिन बड़े बाबे के बारे में... , ?”

“उसने चाचे से बोतल के लिए पैसे माँगे थे, किसी के साथ दशहरे पर पीनी थी। चाचे ने झिड़क दिया कि शराबों, कबाबों के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। ये थी बीच की बात।” फिर उसने अचानक कहा, “अगर डाक्टर सरदारा सिंह मेरे साथ तभी चल पड़ता, जब मैं उसके पास पहुँचा था, तो जीत बच गया होता। मामा(व्यंग्य में) नखरे ही करता रहा- बस, ये मरीज देखकर चलते हैं। ऐसे ही बूढ़ी औरतों की तरह बहानेबाजी करते दोपहर कर दी। फिर कहे- उम्र तो ऊपर वाले के हाथ में है।  बना फिरता है बड़ा डाक्टर।”

“बंदे के हाथ में क्या है ?  अब तो सतिगुरु औलाद दे।  मलकीत कौर का दुःख थोड़ा कम हो जाएगा।” माँ के पास दोहराने के लिए यही बात थी।

ताये की मृत्यु के बाद उसके वारिस की ज्यादा बातें हुआ करती थीं, जैसे हम इस भरे जाड़े में गरमाइश की बातें करते थे।  फिर नववर्ष आ गया।

एक दिन (पहली जनवरी १९६६) शाम के समय बापू ने सोहलपुर से आकर बताया, “मलकीत कौर की गोद में लड़की है।”

“रब, बेटा दे देता तो... ,।” माँ ने थोड़ा अटककर कहा, “चलो, रब उमर लम्बी करे।”

इन दिनों में कई दिन तक ताई के पास नहीं गया, जैसे कि मैं अपनी माँ के जनेपे के समय इधर, उधर खेलता रहता था, उसकी खाट के पास अधिक नहीं जाता था।  जिस दिन मैं गया, ताई मुझसे बोली, “ये देख, तेरी बहन आ गई है। और दो महीनों में तू पाँचवी पूरी करके गीगनोआल (सरकारी मिडिल स्कूल, गीगनवाल, जालंधर) पढ़ने लग जाना। साथ ही, देबी को भी खिलाया करना।”

देबी रुई जैसी नरम, हृष्ट, पुष्ट, भोली और मासूम, सी।  मैं उसे गोद में उठाता, वह भी उमंगित, सी खुश होकर हुंकारे भरती।  पास बैठी दादी राओ गर्दन पीछे की ओर घुमाकर नसवार की चुटकी भरकर अपने नथुनों में ठूँसती रहती। मैं चुपके से उसकी बगल वाली जेब में से नसवार की डिब्बी निकाल लेता। दुबारा नसवार सूँघने के लिए वह जेब टटोलती, इतने में मैं छत पर चढ़ जाता। वह ऊँची आवाज़ में बोलती, “दम ले, कमबख्त !  मैं लेती हूँ तेरी खबर... बंदे का पुत्त बनकर डब्बी दे दे !”

इस पर मेरे नाचने, कूदने के अन्दाज को देखकर वह हँसने लगती और उसके पोपले मुँह में सिर्फ़ जीभ ही हिलती दिखाई देती।  उसके चेहरे की झुर्रियाँ उस वक्त और अधिक सघन दिखाई देतीं जब वह आँगन के बीच से पूरब दिशा की ओर मुँह करके आँखों को सिकोड़कर हाथों का बारी, बारी से छप्पर बनाकर ऊपर मेरी ओर देखती।  वह इधर, उधर डंडा तलाशती तो मैं होशियारी से सीढ़ी का एक, एक डंडा उतरकर हवेली की ओर सरपट दौड़ जाता। कुछ देर बाद वह मुझे हाथ से इशारा करती और हाँकें लगाने लगती, “अपने बाबा के लिए चाय ले जा, मेरा पुत्त !”

मैं बम्बी पर बाबा के सामने चाय का डोल रखता जिसकी कौवे जैसी निगाह पहले ही राह की ओर उठी होती।  वह पोस्त पानी में भिगोकर मलता, कपड़े में उसे छानता और फिर आँखें मूँदकर एक साँस में चढ़ा जाता।  फिर, नसवार सूँघने के कारण हल्के सुनहरी रंग की हो गई मूंछों और झड़कर छोटी हो चुकी खुली, खुली, सी चितकबरी मैली, सी दाढ़ी पर हाथ फेरने लगता।  मुझे समझाता, “गुड्ड, आज के बाद मेरे से चाय नहीं माँगना और न ही रास्ते में पीना।  इसमें डोडे(पोस्त) होते हैं।  मैं तो फँसा हुआ हूँ, कहीं तू न...।” फिर चाय के घूँट भरते हुए मुझे नसीहत देता, “मेहनत से सारे काम रास आ जाते हैं।  यूँ ही तो नहीं कहा करते- डटकर काम करो और जी भरकर खाओ।  बेशक, मुझे अमल लगा है, पर मैं टैम बर्बाद नहीं करता, बंदा जितने लायक हो, अपने काम लगा रहे।”

बाऊ के कपड़े अक्सर मैले होते।  छिपकर बैठा वह कच्छे की जूँएँ मारता रहता। उसके सिर के काले, सफेद बाल जटाओं में बदलकर बालिश्त भर रह गए थे जो जूँओं, लीखों से भरे रहते। वह दोनों हाथों से कितनी, कितनी देर तक खाज करता तो ढीली, सी बँधी उसकी पगड़ी ऊपर की ओर उठ जाती, जिसमें से आधी जटायें बाहर की ओर निकली होतीं।  वह छह महीने बाद ही नहाया करता था। वह तन पर पानी पड़ने से ऐसे डरता था जैसे किसी काली घटा को देखकर बकरी काँपने लगती है।

बाऊ से मेरी दोस्ती हो गई थी।  वह, बड़ा भाई और मैं पशुओं के लिए चरी, बाजरा, गाचा, बरसीन, छटाला, सेंजी, लूसण(एक प्रकार की घास) काटते।  चने, मसर, मेथी, लोबिया, सरसों, सौंफ, अलसी, अरहर, खोदते, काटते।  गन्ने छीलते, रस्सी बटते। मिर्च, प्याज की पौध लगाते।  मूली, शलजम के बीज बोते, शकरकन्द की बेलें काट, काटकर लगाते, कमाद (गन्ने) का बीज काटते।  इन सब कामों के दौरान मैं कभी नहीं ऊबता क्योंकि बाऊ बाबा मुझे रामायण और महाभारत की कहानियाँ और गुरुओं की दिलचस्प साखियाँ सुनाता रहता था।  मेरे मन में आता कि मैं इन्हें अपनी कापी पर लिख लूँ।

काम करते, करते बाऊ नसवार की डिबिया खोलकर दायें हाथ के अंगूठे और तर्जनी से चुटकी भरकर नथुनों के अन्दर रख, ज़ोर से साँस अन्दर की ओर खींचता।

अँधेरा होने पर नशे की झोंक में उसकी आँख लग जाती। जब होश आता तो कहता, “मेरा पुत्त, ख़ूब पढ़ा कर, घर का दलिद्दर ख़त्म हो जाएगा।” मुझे लगता बाऊ पर जैसे ‘धुर की बाणी’ उतरी हो। मैं उसकी भूरी आँखों में झाँककर मन ही मन हँसकर रह जाता।

इसी दौरान, कई बार कोई रीढ़ के दर्द का झाड़ा करवाने आ जाता। बाऊ हाथ वाला काम छोड़कर कहता, “गुड्ड, वो बकायन के पत्ते तोड़ ला।”

मैं पत्ते लाकर देता तो वह रोगी की टाँग पर उन पत्तों को लगातार हिलाता और मुँह में बुदबुदाने लगता। बाद में सलाह देता, “एक बार और आकर झाड़ा करवा जाना।  कौन, सा पैसे लगते हैं। रब पर भरोसा रख, ठीक हो जाएगा।  सच, अब आए तो परसाद लेकर आना।”

परसाद बाँटता बाऊ बताता, “हमें तो बख़्शश है और हमारे हाथ में क्या है ? सतिगुरु की कृपा है।”

उधर, बड़े बाबा हाँक लगाते, “गुड्ड, आ जा, झूले ले ले।” मैं दौड़कर सुहागे (पाटा) के ऊपर जा बैठता। वह बैलों को तेज़ दौड़ाने के लिए उनकी नाक से बँधे रस्से को खींचता और पैना ऊपर हवा में उठाकर प्यार से थोड़ा ऊँचे स्वर में कहता, “बेड़ा तर जाए।”

झूले दिलाने के बहाने बड़े बाबा मुझे कई बार अपने संग भैंसागाड़ी पर बिठाकर आटा पिसाने के लिए बहिराम सरिश्ता ले जाते और कभी टायर में पंक्चर लगवाने के लिए।

मैं गड्डे की मंजी पर बैठता जबकि बाबा जूले पर पशुओं के रस्से पकड़ कर बैठता। पर गड्डे को हाँकने से पहले फौजी ऊसूल ज़रूर इस्तेमाल करता और कहता, “गड्डे  की भंडारी की कुंडी अच्छी तरह लगा दे, कोई रस्सा या दरांती न खिसककर गिर जाए।”

बड़ा बाबा कहीं भी जाता, अपनी दूध जैसी सफेद दाढ़ी को सँवारकर बाँधता जो उसके भरे चेहरे पर खूब जंचती।  उसकी हल्की बिल्लौरी आँखें लिश्कारे मारतीं। वह हमेशा ७७७ नंबर की मलमल की बर्फ़ जैसी पगड़ी चिन, चिन कर बाँधता। सफेद कुर्ते, पायजामे से उसके तन, मन की सुन्दरता और सयानापन और भी निखरा, निखरा दिखाई देता।  उसकी चाल, ढाल में फौजी ज़िन्दगी की झलक प्रत्यक्ष दिखाई देती।

बाबा अरजण सिंह का पूरे गाँव में और घर में बहुत मान, सत्कार था।  वह ज्यादा नहीं बोलता था- धैर्य के साथ बात करता।  बेशक वह परिवार के सदस्यों को डपटता, झिड़कता नहीं था, पर उससे सब थर, थर काँपते थे। उसक हुक्मों का बगैर किसी ढील के पालन किया जाता।  मैं भी डरता और उसके सामने शरीफ होने का स्वांग रचता।

जब बाबा मुझे किसी काम से घर की ओर भेजता तो मैं देबी को खिलाने में व्यस्त हो जाता। हालाँकि मैं आठवीं, नवीं में हो गया था, फिर भी मैं कभी आँगन में ‘घोड़ा’ बनकर उसे अपनी पीठ पर चढ़ाकर झूले देता, उसे हँसाता और कभी ‘पागल घोड़ा’ बनकर उसे नीचे गिराकर रुलाता।  इस तमाशे को देखकर ताई दूर से ही कहती, “ और डेढ़, दो साल में गुड्ड टांदे पढ़ने लग जाएगा। फिर कौन इसे खिलाया करेगा ?”

“दीशी (देबी की बुआ की बेटी जो यहीं पर रहती और पढ़ती थी) जो है, ये खुद ही सहेलियाँ बन जाएँगी।”

सोहलपुर से लौटते समय मेरे कंधे पर स्कूल का लटकता झोला और सिर पर ‘कड़ब’ या ‘सेंजी’ या ‘बरसीन’ की पूली होती। देबी और ताई के बारे में लौटते हुए सोचता तो सिर पर उठाया बोझ बिलकुल भी महसूस नहीं होता। मुझे ताई या दोनों बाबों की छोटी, छोटी बातें याद हो आतीं तो मैं मन ही मन खुश होता। पर दादी के शब्द मुझे चुभते जो हवेली से खेतों को जाते समय उसने मुझसे कहे थे, “कंधे पर रखे फावड़े से तू तो निरा जट्ट लगता है।”

और मुझे कई दिनों तक महसूस होता रहा कि दादी राओ ने जैसे गाली दी हो।  मैं मन ही मन उससे नाराज़ हो गया था।

 

टांडा कालेज में पढ़ने लग जाने के कारण मेरा सोहलपुर आना, जाना पहले से कम हो गया। ताई और दोनों बाबा आकर मिलने के लिए सन्देशे भेजा करते पर मैं अपनी ही नई व्यस्तताओं से घिरा रहता- कभी कवि दरबार सुनने तो कभी कालेज की किसी सरगरमी में। जब मेरे साथी मुझे बताते, “एन. एस. एस. के कैम्प में बड़ी मौजें हैं, एक बार चल तो सही।” तो मैं भी बी. ए. भाग-दो के इम्तिहान के बाद मूनकां (गुरुद्वारा टाहली साहिब) में लगे कैम्प में शामिल हो गया। दो, तीन दिन ज़ोरदार बारिश होती रही।

“मैं गाँव होकर आता हूँ ...।” बारिश हल्की हुई तो एक दिन सुबह मेरे गाँव के मित्र ध्यान ने कहा।

वह शाम के वक्त लौट आया। आते ही बताने लगा, “गुड्ड, तेरा बापू मिला था। कहता था- उसे बता देना कि चौथ (२६-६-१९७७ ) को चाचा अरजण सिंह गुज़र गया। कहता था- दिमाग की नस फट गई थी।”

यह सुनते ही बाबा की मुझे याद आने लगी। कभी वह मुझे सुबह के समय छोटे से पीपल के नीचे खाट पर बैठा गुटका खोल कर ‘जपुजी’ और संध्या के समय ‘रहिरास’ का पाठ करते हुए दिखाई देता। कभी वह हमारे गाँव आकर हमारी मजदूरी में मिले हुए गेहूँ के गट्ठरों को गाहने के लिए फल्हा(एक प्रकार का चौखटा, जिससे गेहूँ आदि को गाहने का काम लिया जाता है) डालता हुआ तो कभी किसी ढह गए कच्चे कोठे के लिए मिट्टी के गड्डे भरकर लाता हुआ, पशुओं को हाँकता हुआ, कभी बापू के लिए खेतों में उगाए, दबाये और सुखाए तम्बाकू का गड्डा लाता हुआ और फिर मेरे ताये दीवान की बैठक में रम के गिलास पीता और बातें करता हुआ दिखाई देने लगा, “दबान (दीवान) यह देख, मेरे बायें गि्टे में से गोली निकल गई थी, पर रफल (रायफल) नहीं छोड़ी थी, पनामा नहर पार कर रहे थे उस वक्त, पहली जंग में।”

ताया भी उमंग में भरकर बताता, “हम सी. आर. पी. वाले भी पकड़े गए मिजो बागियों के बड़ी लट्ठ फेरते हैं, पर मजाल है कि वे अपने किसी आदमी का भेद दे दें, फ़िजो बड़ी चीज़ है !”

बाबा मुझे कभी किसी के साथ बातें करता हुआ तो कभी खाट पर बैठा सन निकालता हुआ, अलाव सेंकते हुए लोगों से बातें करता, सुनता दिखाई देता, “ये बराम (बहिराम सरिश्ता जो एक बड़े रेगिस्तान पर बसा हुआ है, ज़िला जालंधर का एक भारी आबादी वाला गाँव है) वाले बरगद के साथ ब्यास दरिया की बेड़ी बंधती मेरे बाबा ने देखी है।”

मरा हुआ बाबा मुझे और भी अच्छा लगने लगा जब मेरी आँखों के सामने उसके द्वारा दिया गया लट्ठे का कमीज़, पायजामा आया।  जब मैं आठवीं में पढ़ रहा था, तब ये कपड़े बाबा ने अपनी गुरधाम यात्रा के बाद ख़रीद कर मुझे दिए थे क्योंकि मैं बाऊ बाबा के पास बीस, बाईस रातें लगातार हवेली में सोया था।

मैं कैम्प से लौटा तो बापू ने बताया, “ये घर के सामने वाली एक मरला ज़मीन लेकर दे गया चाचा। गुड्ड की फीस या और पैसों की ज़रूरत पड़ती तो चाचा कहा करता- जितने चाहिएँ इस अल्मारी में से ले ले, बाकी सँभालकर रख देना।”

बापू ने फिर रुककर बताया, “जब मैं चाचा के साथ उसके अहसानों की बात करता तो वह कहता- ठाकरा ! तुमने सीड़ें (ज़मीन को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए पाँच, छह फुट ज़मीन खोदकर नीचे की मिट्टी ऊपर और ऊपर की मिट्टी नीचे करने का एक उपाय) खोदकर हमें खुशहाल बना दिया। पहले हमारे खेतों में बींडे (मेंढक) बोलते थे, खाने योग्य दाना, फक्का मुश्किल से होता था।  अब सौ, सवा सौ बोरी गेहूँ मंडी में फेंकते हैं !  यह तुम्हारा ही प्रताप है। हम जन्मों तक तुम्हारा कर्ज़ नहीं उतार सकते।”

बापू के ये प्रसंग अनंत थे, “चाचा का बाघ जैसा मुँह उस वक्त खुशी से और लाल हो उठता, जब मैं भूसे का ढेर बाँधते हुए पहले गिराये ढेर के भूसे में से मोमजामों में बाँधे हुए सौ, सौ के नोट उसे पकड़ाता था, जिनके बारे में उसे कुछ याद नहीं होता था।  पैसे पकड़ते हुए चाचा कहता- ईमानदारी के कारण ही ज़मीन, आसमान टिके हैं भाई, नहीं तो पहले वाली बातें अब कहाँ रहीं ? तभी तो ठाकरा, मैं कहता हूँ कि भई गरीब दो सेर दाने ज्यादा भी ले जाए तो क्या फ़र्क पड़ता है। तुम कौन, सा हमारा हक मारते हो ? घर की तरह सारा दिन टूट, टूटकर काम करते हो।  तुम्हारे होते हुए हमारी औलाद हमें ज्यादा याद नहीं आती, हमारा दुःख, सुख तो तुम देखते हो।  यूँ ही दुनिया के मोह में फँसे हैं ‘मैं, मेरी’ में।”

इसी दौरान, मेरे ताया के बड़े बेटे कहते, “अच्छा हुआ, बुड्ढा सारी ज़मीन बाऊ के नाम करा गया।  अब खुद ही जैसे मर्ज़ी निपटे। चाचा, भतीजे की अच्छी गुज़र गई, यूँ ही क्यों कहें ?”

“बाऊ भी नदी किनारे का पेड़ है, क्या पता किस वक्त क्या हो जाए।” मेरे ताया के बेटे मंजी ने भविष्य की ओर निगाह दौड़ाई।

“उसकी भी चूलें टूट गयीं सब, देखने को ही चलता, फिरता दिखाई देता है।”  बापू ने अपना अहसास बताया, “हमारी भी अच्छी निभ गई है, न कभी बोली, न उलाहना। देख लो भई, साग, पट्ठा, गन्ने, भुट्टे जैसे मर्ज़ी तोड़ कर ले आएँ।  कभी शादी, ब्याह या बाहर कहीं जाना हो तो पट्ठे(चारा) कतरकर गाँव में रख जाते रहे हैं। गेहूँ काटते समय शाम को कभी हमारे पास नहीं आए- जितना चाहें, बाँधकर ले आएँ।”

बापू ने हुक्के का घूँट भरने के बाद फिर कहा, “तभी तो वहाँ के उनके दूसरे जट्ट खीझते हैं, कहते हैं- ठाकर को मुख़्तार बना रखा है।  बात तो सही है भई, फ़सलबाड़ी का लेन-देन तो मैं करता हूँ- लुहारों, बढ़इयों, झीरों और बाजीगरों को पूलियाँ मैं उठवाता हूँ, मैं मरूंडा छोड़ते वक्त चाहे दो मरले छोड़ दूँ।”

उसने थोड़ा रुककर दुःखी होते हुए फिर कहा, “अगर हमारे पास भी चार खेत होते तो हमारा वक्त भी अच्छा गुज़र जाता। जट्टों की तरह हमारे घर में भी गेहूँ के ढेर आते। नलोइयों और नम्बरदारों जैसे लोग पूछने आया करते- कभी गन्ने छीलने के लिए, कभी चारे के लिए और कभी किसी शै के लिए।”

इन बातों को सुनते हुए मुझे बड़ा बाबा या बाऊ गेहूँ को बम्बी का पानी लगाते हुए दिखलाई देते। मुझे याद आता कि उन्होंने हमें कभी नहीं रोका था जब देबा(ताया अजीत सिंह का भतीजा और लश्कर सिंह पटवारी का बेटा) और मैं ठंडे, ठंडे बरसीन, छटाले पर कुश्ती करते।  देबा मोटा और थुलथुल, सा था पर फिर भी वह मुझे कभी, कभी चित कर खुश हो लेता था।  देबा और मैं एक ही कक्षा में थे और उसका बड़ा भाई बिन्दर और मेरा बड़ा भाई दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे।  यह लड़ी तभी टूटती जब बापू हुक्म देता, “गुड्ड, चिलम में आग धर दे।”

“लो, बताओ। मैंने तो मजाक में सन्देशा भेजा था कि गुड्ड एफ. सी. आई. में लग गया और तूने लड्डू भी नहीं खिलाए !” ताई ने कहा जब मैंने उसके चरण-स्पर्श करके उसे मिठाई का डिब्बा थमाया। फिर कहने लगी, “और तरक्की करो पुत्त !  पिछला वक्त न भुला देना, अपने माँ-बाप का ख़्याल रखना।”

दादी राओ ने अपना सोटा ऊपर उठाते हुए कहा, “दादा मराऊ, आ गई याद अब हमारी ?”

मुझे लगा, जैसे मैं दादी के लिए अभी भी छोटा बच्चा होऊँ। जैसा उसकी नसवार की डिब्बी निकालते, छिपाते समय हुआ करता था।

“क्यों टर्र-टर्र करने लगी हो, पहले चाय-पानी तो पिला ले।” बाऊ बाबा ने कहा।

“मैं आता रहूँगा दादी।”

“अच्छा, मैंने पाँच मस्सयाँ(अमावसें) की सुखना दे रखी है दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे, बिरजू वहीं पर है। मुझे ले चल।”

“दादी, जब मर्ज़ी चली चल।”

बीच में टोकते हुए ताई बोली, “देख तो, देबी कैसे ईंख की तरह बढ़ती जा रही है।” सातवीं में पढ़ रही देबी ने सकुचाकर हँसते हुए नज़रें झुका लीं।

वैसे मैं दो-चार महीनों में एक चक्कर ताई को मिलने के लिए लगा आता था।  हमारी नित्य की बातों में सोहलपुर का यह परिवार ज़रूर शामिल हो जाता।  बापू किसी चिन्ता-सी में बात को आगे बढ़ाता, “पटवारी अब भी आ जाए तो अच्छा। कुछ आसरा हो जाएगा। घर में सारी तो बूढ़ी औरतें हैं, कोई आदमी भी होना चाहिए। वैसे, पटवारिन अमावस, सग्रांद को बसूहों(पूर्वजों के नाम पर बनाया गया गड्ढा, जहाँ पूर्वजों की पूजा की जाती है) में दीया जलाने आने के बहाने हाल-चाल पूछ जाती है। बस रहे हैं अब तो राजी-खुशी, बिन्दर का काम भी वलैत में अच्छा चल रहा है।”

 

हुक्के का घूँट भरकर, उसकी नली एक ओर करते हुए वह फिर बोला, “दीशी, देबी जवान हुई समझो। चलो, जैी किसी की मर्ज़ी, अपना काम तो कहना ही है।”

एक दिन (५. ८. १९८०) मैं भुल्लथ (एफ. सी. आई. का दफ्तर) से तीन-चार दिन के बाद घर लौटा ही था कि बापू ने ख़बर दी, “गुड्ड, बाऊ नहीं रहा।”

“अच्छा ! कैसे ?” इसके साथ ही मेरा एक गहरा निःश्वास निकल गया।

“पानी क्या कम बरसा है ?  बताते हैं कि बाऊ पशुओं वाले बरामदे में सो रहा था। वह गिर पड़ा और नीचे ही पड़ा रहा, दिन चढ़े पता चला।”

“चिता पर गए थे ?”

“ये नदी बहुत चढ़ी हुई थी, कोई बताने ही नहीं आया।”

“भोगपुर वाले पुल की तरफ़ से आ जाते।”

“मैं गया था आज, मलकीत कौर बता रही थी- बापूजी, हमने नम्बरदारों को, चैन के परिवार वालों को बहुत कहा, पर कोई गया ही नहीं।”

बाऊ बाबा की नाक की थोड़ी, सी तिरछी नोक, दाढ़ी को खुजलाते हाथ और मोटे रस्से जैसी लड़ों की पगड़ी समेत उसका चेहरा मेरे सामने आ गया।  कभी वह मुझे लुहारों के कारखाने पर रेडियो पर ख़बरें सुनता दिखाई देता, जब पाकिस्तान से सन् १९७१ में लड़ाई छिड़ने वाली थी और फिर खेतों में बापू से बातें करता, सुनता दिखाई देता, “रूस ने भी अमरीका को धमकी दी है कि अगर पाकिस्तान के बहाने हिन्दुस्तान की ओर मुँह किया तो हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठेंगे।”

बाऊ मुझे गेहूँ, मक्की के बीज बिखेरता हुआ या कभी मेथी, बरसीन, छटाले और सेंजी को बिखेरते हुए दिखाई देता। कभी भैंसों, कौवों, चिड़ियों, टिटहरियों, बगुलों को डराकर उड़ाता और चूहे, छछूँदरों से ईख के खेत को बचाने के लिए उनके बिलों में पत्ती को गुच्छा, मुच्छा करके ठूँसता नज़र आता।  कभी आड़ की मिट्टी को हाथ, पैरों से हल्के-हल्के दबाकर, पानी का बाहर निकलना बन्द करता दिखाई देता।  कभी मुझे नसीहत देता सुनाई देता, “दबाकर मेहनत कर, अपने आप गरीबी खत्म हो जाएगी। आगे से ‘हो’ नहीं, ‘हाँ जी’ कहना।”

बाऊ बाबा कभी मुझे बताते हुए दिखाई देता, “यह काला बटेर है और वो तीतर है, लग गया पता फर्क का ? यह काला-पीला कमादी मुर्गा है। छोटी-बड़ी चिड़ियों में देखा, कितनी फुर्ती है ! उस दिन बाँध के पास देखा ?  साँप और नेवला कैसे लड़ते थे ! सच, आज के बाद सेह को इस तरह फावड़े से नहीं मारना, क्या पता काँटा चुभा दे। चलो, तुम दोनों भाइयों ने मिलकर गोह को मार दिया, पर वो तक्कला मार देती है। आगे से बचकर रहना। ये दुमुँहियाँ ख़ूब निकलती रहती हैं अब।  बहुत सारे जानवर पहाड़ से इधर आ गए हैं- बाँध बनने और नाले खुदने के कारण।” इतने में एक सेह हमारे पास से उठकर दौड़ गया था।

पल भर बाद मुझे महसूस हुआ कि बाऊ मेरे साधारण विज्ञान को बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।

अगले दिन मैं अफ़सोस प्रकट करने के लिए गया तो दादी कहने लगी, “हम सास-बहू रंडियाँ हो गईं पुत्त ! हमारा आसरा अब तुम हो।”

“दादी, हम तुम्हारे पास ही हैं।”

मुझे लगा जैसे मैं झूठ बोल रहा होऊँ क्योंकि मेरा सोहलपुर जाना बहुत कम हो गया था।  पर ताई कहती, “पुत्त, देबी और तुम भाई हो।  ब्याही ई तो जाते रहना।”

ताई के भावुक मोह और अपनत्व के सामने मुझे लगता जैसे मेरे ठोस शरीर ने किसी तरल पदार्थ का रूप धारण कर लिया हो। मेरी आँखें नम हो गईं। मुझे लगा अगर देबी का अपना सगा भाई होता तो ताई मेरे आगे ऐसी याचना न करती।  मैं उस पल सोचकर रह गया कि समाज में लड़के की कितनी ज़रूरत और अहमियत है।

मुझे कुछ देर बाद महसूस हुआ कि ताई को देबी के बड़ी होते जाने की चिन्ता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। इस दौरान, मार्च १९८७  में मेरी बदली दिल्ली में हो गई।

हालाँकि मैं अब अपने गाँव से चार सौ किलोमीटर दूर रहता था, पर मुझे सोहलपुर वाले खेतों की दरारें, बोये हुए गन्ने में फूटती आँखें, फूटते अंकुर, और पूनी कातते मक्की के पौधे, नरमे, कपास के गुलाबी, सफेद फूल और फिर खिली हुई कपास, छोटी और बड़ी छल्लियाँ, खिले हुए गुलाब, नम्बरदारों के कुएँ का दीखता तला और बिजली की तारों से उल्टे लटकते मरे हुए कव्वे, ये सब मुझे सपनों में दिखाई देते।  मुझे फिर भावुक-सा मोह जाग उठता और दिल्ली से मन ऊब जाता।  मैं गाँवों की ओर जाने के लिए उतावला हो उठता।

एक दिन गया तो ताई ने कहा, “अच्छा हुआ तू दिल्ली चला गया।  भाइया जी बताते थे कि तुझे आतंकवादियों ने घेर लिया था। वाहेगुरु ने बचा लिया !”

दादी ने बीच में टोकते हुए कहा, “अच्छा पुत्त, मैं मरने से पहले बंगला साहिब जा के अपनी मन्नत उतारना चाहती हूँ।  मीतो और मैं आ जाएँगी।”

“जब मर्ज़ी आओ, दादी वहाँ भी अपना घर ही जानो।”

करीब दो महीनों के बाद दादी और बुआ हमारे पास दिल्ली आ गईं।  जिस दिन पाँचवी और अन्तिम अमावस नहाकर आयीं तो दादी कहने लगी, “ले पुत्त, अब मैं आराम से मर जाऊँगी, अब जब मर्ज़ी मौत आ जाए।”

“मेरा विवाह देख लेना, फिर बेशक मर जाना।” मेरे मज़ाक से दादी ने फिर हँसकर सोटा उठा लिया।

... और फिर अचानक घर से चिट्ठी आई, “मलकीत कौर कल(२५ जुलाई १९८८) को पूरी हो गई है।”

पढ़ते ही ताई के साथ दो, तीन महीने पहले किया गया इकरार सवालिया निशान बनकर मेरे दिमाग में तेज़ी से घूमने लगा कि मैं अपनी पत्नी समेत आऊँगा।

आँख के सामने एक पल को एक फिल्म, सी चल पड़ी जिस में मुझे कई पुरानी बातों के दृश्य नज़र आने लगे - मैं कभी ताई के साथ उसकी सूसां वाली और कभी गढ़ी वाली बहन के यहाँ देबी को उठाये जाता दिखाई दिया।  कभी ताई झोला मुझे पकड़ाती और देबी को खुद पकड़ती दिखाई दी।  कभी कहती, सुनती- गुड्ड तू और बिरजू इस नये घर की दीवार पर अपने ताये का नाम सुन्दर-सा लिख दो।  कभी कहती- गुड्ड, देबी को धमकाकर जाना, सारा दिन खेलती रहती है, पढ़ती नहीं।  रब की कृपा से अब आठवीं में हो गई है।

मैं गाँव गया तो बापू कहने लगा, “अब वहाँ किसके पास अफसोस के लिए जाना? तूने हमारे पास कर लिया, ठीक है।  बहुत बीमार थोड़े हुई थी।  छोटे-मोटे रोग तो देह को लगते ही रहते हैं।  इतना नहीं पता था कि इतनी जल्दी उसका अन्न-जल खत्म हो जाएगा।”  बापू ने पल भर रुककर कहा, “बताते हैं कि मलकीत कौर ने बहुत ज़ोर लगाया कि बाँध के साथ की कुतर हमें पट्ठे, दत्थे(चारा) के लिए दे दे, पर उसकी चली नहीं।  चलो... मलकीत कौर अच्छा धर्म निभा गई जीत की जगह।”

बापू की सलाह के बावजूद मैं सोहलपुर गया।  जिस घर में बेशुमार रौनकें और लहरें-बहरें होती थीं और जिसके दरवाज़े हमारे लिए हमेशा खुले रहते थे- वहाँ ताला लगा हुआ था।  गली में घास उगी हुई थी।  हवेली की ओर देखा तो उसके कमरे गिरने-गिरने को हो रहे थे।  लेकिन, बाऊ बाबा के हाथों का लगाया गया पीपल काफी बड़ा और मोटा हो गया था। हवेली के आँगन की तरफ़ जाने को बिलकुल ही न नहीं किया क्योंकि वहाँ उगी ऊँची-ऊँची भांग, गाजर बूटी और झुआंखरा दूर से ही दिखाई दे रहे थे और उजाड़ में बदल चुका आँगन भांय-भांय करता सुनाई दे रहा था।

 

 अब जब मेरे रोमों में रचे इस जट्ट परिवार के मोह, प्यार का ख़्याल आता है तो मुझे लगता है कि जैसे वह हमारी ज़िन्दगी के रेगिस्तान में बहा दरिया हो जिसके कारण थोड़ी-थोड़ी हरियाली दिखाई देने लगी हो।

<< पीछे : हमारा, चमारों का बरगद आगे : अपने नाम से नफ़रत >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में