छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

ब्रह्मा के थोथे चक्रव्यूह

“मैं गरमी उतारता हूँ इस राणी खाँ के साले की!” आँगन में घुसते हुए बापू ने तीखी और तल्ख़ ज़बान में कहा।  इसके साथ-साथ उसकी क्रोध से भरी घूरती हुई नजरों के तेज़ रफ़्तार तीर सीधे मेरे शरीर की ओर बढ़ रहे थे।  उसने बगैर साँस लिए फिर कहा, “जब तेरे पंतदरों ने पकड़ कर तुझे फेंटा चढ़ाया न, तब माँ तुझे याद आएगी!  गंदी औलाद कहीं की...।”

मैं नहीं जानता था कि बापू आज मुझे क्यूँ गंदा-मंदा बोल रहा है। मैं सहम उठा और मेरी देह बेहरकत हो गई। मैंने वहीं खड़े-खड़े दालान के अन्दर माँ की चारपाई की ओर झाँका, जहाँ वह नव जन्मी मेरी तीसरी बहन के जनेपे के कारण गर्दन तक खेसी ओढ़ कर लेटी हुई थी।  उसने अपने दोनों हाथों की बनाई कंघी पर रखे हुए अपने सिर को ऊपर उठाया।  माथा दुपट्टे में लिपटा दिखाई दिया।

माँ का कमज़ोर-सा चेहरा कुछ दिन पहले पीला जर्द हो गया था, जो बापू के शब्दों से और अधिक फक्क हो उठा। उसकी गालों पर झाइयाँ पहले की भाँति थीं और आँखें अन्दर की ओर धँसी हुई थीं, जिन्हें देखकर मैं घबरा गया।  पता नहीं मुझे फिर क्या सूझा, मैं फुर्ती से माँ की चारपाई के पास रोनी सूरत लेकर जा खड़ा हुआ।

 “ये किसी दिन हमारे सिर फुडवाएगा...हड्ड हरामी!  सारा दिन इल्लतों के अलावा भी कुछ सूझता है इसे?” बापू मेरी ओर बढ़ता हुआ कह रहा था कि माँ ने बीच में टोकते हुए पूछा, “बुझारतें ही ड़ालता रहेगा कि कुछ बताएगा भी...इसके पीछे क्यों इतना हाथ धोकर पड़ गया है?”

   “बुझारतें ले के आ गई?... तूने ही सिर पर चढ़ा रखा है इस तुख़्म की मार को।”

 “फिर वही बात... कुछ बताएगा भी कि अबा-तबा ही बोलता रहेगा।” माँ ने चारपाई पर बैठकर मुझे अपनी छाती से लगाते हुए कहा।

 “ ‘हैकनों’ की कुँई में चोरी-छिपे मूतता है।” बापू ने जब बताया तो माँ मेरी ओर हैरानी से देखने लगी।

 “उसी कुँई में डुबोकर मार देंगे, अगर पता चल गया...- अभी से लग गया बड़ा चौधरी बनने!  वैसे टट्टी करके अभी हाथ धोने नहीं आते।”

 “पड़ोस का मामला है, ऐसा क्यूँ करता है?  ख्वाजा खिजर को दुनिया पीर मानती है और तू...।” माँ ने पहले मेरी ओर, फिर बापू की ओर देखते हुए कहा।

 “कहता है जट्ट हमें कुँओं पर चढ़ने नहीं देते... आ गया बड़ा मुखालफत करने वाला!  जब हमारा अपना कुँआ है तो तूने वहाँ झुनझुना लेने जाना है! बड़ा आया नम्बरदार!” बापू ने लगातार बोलते हुए  मेरी बायीं बाजू को मरोड़ा दिया।  मेरे मोटे-मोटे आँसू यूँ टपकने लग पड़े जैसे बरसात में हमारे घर की सरकंडों, कड़ियों और शहतीरों वाली छत जगह-जगह से टपकने लग पड़ती थी।

माँ ने चारपाई से नीचे उतरकर बापू से मुझे छुड़ाते हुए कहा, “वैसे नहीं समझा सकता? बच्चों की काँच जैसी हड्डियाँ होती हैं।  अगर बाँह टूट गई तो लेकर घूमते रहना कभी इस गाँव तो कभी उस गाँव।”

 “मुझे इसकी हेकड़ी निकाले दे आज...सबक सिखाता हूँ इसे कि कुँओं में कैसे ....।” बापू क्रोध में बोलते हुए हाँफने लगा।  कुछ देर बाद वह फिर बोला, “हमें नहीं पता जैसे इन बातों का।”

बापू ने तड़ातड़ दो-तीन थप्पड़ मेरी बाँयी कनपटी पर दे मारे।  मैं अपनी आँखें बाँहों से पोंछने लगा।  फिर मैंने उड़ती हुई नज़र से दालान में झाँका।  एक कोने में मेरी दो बहनें सहमी हुई-सी खड़ी थीं।  छोटी धीरे-धीरे सिसक रही थी और उसकी नाक में से पानी बहने लगा था।

 “न, अब सारे गाँव को बताकर ही रुकेगा?  शुकर है कि किसी को कुछ पता नहीं।”  माँ ने मेरा पीछा छोड़ने के लिए दलील दी।

माँ ने मुझे डपटा और समझाया, “आगे से ऐसी हरकत नहीं करनी, ख्वाजा पीर नाराज हो जाएगा...।”

फिर वह मेरी बहनों की ओर बढ़ी और उन्हें चुप कराने लगी।  छोटी बहन की आँखों को दुपट्टे के छोर से साफ किया।  मैंने अपने आँसू उल्टे हाथों से पोंछ लिए।

कुछ देर बाद मैं मन ही मन खुश हुआ कि अब बापू कुटापा नहीं करेगा। उसे मेरी कई हरकतों का पता नहीं है।  फिर असमंजस की स्थिति में पड़े मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैं स्वयं ही बताने लगा, “मैंने अकेले ने ही थोड़े मूता था।  हम बस्ती के लड़के कुँओं में मूतते ही रहते हैं, दोपहर को छुअन-छुआई के बहाने...।”

 “दुर फिट्टे मुँह इस तुख़्म की मार के ...जिन्दों को मारेगा ये तो।” बापू के दायें हाथ का थप्पड़ मेरे मुँह पर लगने ही वाला था कि माँ ने तेज़ी से बापू का उठा हुआ हाथ पकड़ लिया।

तभी, बरगद-पीपल के नीचे से उठकर पानी पीने आई मेरी दादी ने पूछा, “इतनी देर से क्या बड़बड़ लगा रखी है?  ऐसी क्या मुसीबत आ गई?”

दादी को पल में ही सारी घटना का पता चल गया।  वह कहने लगी, “सारी चमारली पल-पल का हगा-मूता जाकर जट्टों को बताती है, अपने ही अपनों के खिलाफ जा के चुगलियाँ लगाते हैं।  अगर उन्हें ये बात खुड़क गई तो समझो खुड़क गई...।”  फिर वह मेरी ओर घूरकर देखते हुए बोली, “अब कैसे होंठ अटेर कर खड़ा है घुन्ना-सा!  जैसे मुँह में जबान ही न हो।” 

“सुना है, इस अफलातून ने गाँव के कई आदमियों-औरतों के बारे में कई टोटके जोड़ रखे हैं।” बापू ने क्रोध में बोलते हुए पूछा, “बता किस-किस के बारे में हैं? बोल फटाफट!  नहीं तो दो और लगाऊँगा कान पर...।”

   मैं स्कूल के सबक की तरह याद की गई काव्य-तुकें सुनाने लग पड़ा-

 

   तेसे उत्ते आरी

   धन्नी सुनिआरी

   तेसे उत्ते आरी

   राम  प्यारी

   नत्था सिंह नाई

   लाभ सिंह भाई

   इन्दर सिंह गंगी दा

   लाभ सिंह रंडी दा

   मालां, मालां, मालां,

   तेरे पैर सोने दीयाँ खड़कालां...

 

बापू ने एक बार फिर से हाथ ऊपर उठाया तो मैं बोलते-बोलते रुक गया, मानो रट्टा लगाया पाठ बीच में ही भूल गया होऊँ।  कुछ देर बाद मैं बिना पूछे ही बताने लगा, “ये टोटके मैंने नहीं जोड़े, दूसरों से सुने हुए हैं।”

 “और तूने कौन से जोड़े हैं?”

 “वो दूसरों के बारे में हैं।”

 “शाबाश! हराम के जने... चन्न चढ़ाएगा किसी दिन।” बापू ने किसी ज्योतिषी की तरह कहा। उसका क्रोध मुझे पहले से कुछ ढीला पड़ गया लगा।

 “चल, छोड़ अब... बहुत समझा दिया।” माँ ने अपनी चारपाई की ओर छोटे-छोटे कदम रखते हुए कहा जैसे बहुत दिनों से बीमार हो।

बापू मेरे पास से हटकर हुक्के की चिलम में आग रखने के लिए रसोई की ओर चल दिया।  पर हम सबकी नज़रें एकाएक मेरी नवजन्मी बहन की ओर उठ गईं, जो  छोटे-छोटे हाथ-पैर मारती हुई रोने लगी थी।  उसकी छोटी-छोटी आँखों में से पानी निकलता देखकर मैं हैरान रह गया कि इनमें से आँसू कैसे निकले होंगे।

जनेपे के बाद माँ का दुर्बल हो गया शरीर और पीला चेहरा देख कर मुझे तरस-सा आ गया।  कुछ दिन पहले की उसकी हालत मेरी आँखों के सामने आ गई- उसका बड़ा फूला हुआ-सा पेट, चाल में न चुस्ती, न फुर्ती, और आँखों में निरी सुस्ती ही सुस्ती!  चूल्हे के सामने बैठी चूल्हे से मिट्टी की डली तोड़-तोड़कर खाती!  बापू उसे खीझकर डाँटता-डपटता।

मैं हैरान-परेशान होकर रह जाता कि दरम्यानी कद-काठी और लाखे रंग का बापू कैसे माँ पर रौब बनाए रखता है।  वह कभी-कभी कुटापा भी कर देता है, पर वह पलटकर उसके सामने जवाब नहीं देती है।  और न ही उसे ऊँची-लम्बी और सुन्दर होने का गर्व है।  ऐसा सोचते हुए एक ख़्याल मेरे मन में यूँ ही आया, जैसे दिन ढलने पर हमारे घर के दरवाज़े से धूप अन्दर आ गई थी।  मैंने संकोच में माँ के सिरहाने खड़े होकर बताया, “मैंने रत्ते की दीवार पर आदमी-औरत और दो बच्चों की रंगीन तस्वीर बनी देखी है।”

 “फिर?  बता क्या बात बताना चाहता है?” माँ ने मेरी बहन को दूध पिलाने के बाद उसे अपनी छाती से लगाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।

 “वहाँ लिखा हुआ है- बस दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे।”

मैंने बताया तो माँ ने मेरा सिर सहला दिया।  पर पता नहीं क्यों उसकी आँखों में पानी छलक आया।  उसने दायें हाथ में दुपट्टे का एक कोना पकड़कर अपनी आँखों की कोरें साफ कीं।  पता नहीं, फिर वह किन ख़्यालों में गुम हो गई।  उसकी आँखें देखने को खुली हुई थीं।  न वह उन्हें झपक रही थी, न ही इधर-उधर घुमा रही थी।  बस, एकटक मेरी छोटी बहन की ओर देखे जा रही थी।

इतने में बड़ा भाई स्कूल से पढ़कर आ गया।   मैं होशियारी से घर से निकलकर बरगद के नीचे पहले से वहाँ बैठे बापू और दादी के निकट जाकर बैठ गया ताकि वह जान न सके कि बापू ने आज मुझे पीटा है।  मैंने देखा कि अंधा साधू गरीब दास कथा सुनाते हुए कह रहा था, “अच्छा!  जो तुम कहते हो, वही प्रसंग सुना देंगे रात को। “

मुझे पिछले दिनों के प्रसंग की याद हो आई, जब लोग एकाग्र मन से अंधे साधू का प्रवचन सुन रहे थे।  वह बाँये हाथ से इकतारा और दायें हाथ से मंजीरे बजाता और दम मारने के लिए हुक्के के लम्बे-लम्बे घूँट भरता दिखाई दिया।  मैं उतावला हो उठा कि कब रात का खाना-पीना हो और नई-अनोखी बातें सुनने को मिलें।

लोग अन्न-पानी छककर बरगद-पीपल के नीचे खड्डियों वाली जगह पर आ जुटे तो गरीब दास ने पूछा, “हाँ जी, भले लोगो, ब्रह्मा जी का प्रसंग सुनना चाहते थे न, सुनो।”  साथ ही, इकतारे के तार को कसा और दायें हाथ की पहली उँगली पर चढ़ाये मिजराब से तार को हिलाया।

 “भाई, पुराणों में आता है कि ब्रह्मा जी ने सारी सृष्टि को बनाया।  सारे मनुष्यों को पैदा किया, मनु जी महाराज के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने अंगों से ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यं और शूद्रों को जन्म दिया।”  सत गरीबदास ने इस प्रवचन के बाद हुकके की नै के लिए अपने सामने की ख़ला में हाथ मारा।  उसके काले-सफेद बालों की सघन और अन्दर की ओर धंसी हुई दाढ़ी जो हुक्के के धुएँ के कारण धुआँखी हो गई थी, का पोला-सा उभार मधुमक्खी के किसी छोटे छत्ते के समान लग रहा था।

इसी दौरान मुझे हल चलाते किसानों के मुख से सुनी यह बोली याद हो आई-

  

सौंह रब्ब दी झूठ न बोलां,

बकरी नूँ ऊठ(ऊँट) जम्मिया।

 

इसके साथ ही मेरे ज़ेहन में ख़्यालों की जैसे बाढ़-सी आ गई और विचारों की लहरें बरसाती नदी की तरह किनारे से टक्करें मारने लग पड़ीं।  मेरी आँखों के सामने मेरी माँ का गर्भ के दौरान बढ़ा हुआ पेट आ गया और साथ ही, ब्रह्मा जी का भी!  माँ मेरी बहन को दूध पिलाती दिखाई दी।  सोच का यह सिलसिला अंधे साधू की कथा की भाँति लम्बा और भेदभरा हो गया कि ब्रह्मा जी ने एक साथ चार बच्चों को कैसे जन्म दिया होगा?  जनेपे के समय उनकी साफ-सफाई और मदद के लिए दाई गंगो जैसी कौन उनके पास होगी?  उन्होंने अपनी दो छातियों से उन चारों को दूध कैसे पिलाया होगा और अंगों में गर्भ-उभार मेरी माँ के फूले पेट जैसा कैसे हुआ होगा और वे कैसे चलते-फिरते होंगे?

फिर, एकाएक मेरा ख़्याल मेरी चाचियों-ताइयों, मामियों-मौसियों की ओर घूम गया जो साल-दो साल के बाद बच्चे पैदा करती रहती थीं।  लेकिन, एक बार में चार बच्चे कभी नहीं। बार-बार सोचने पर भी मैं यह पता न लगा सका कि किसी आदमी ने भी बच्चा जन्मा होगा।  मेरी सोच में उस समय विघ्न पैदा हुआ जब सिलवटहीन कसी हुई पगड़ी और नए-नकोर कुरते-पायजामे में आकर्षक व्यक्तित्व वाला अधेड व्यक्ति खड़ा होकर पूछने लगा, “महाराज, ब्रह्माजी की जनानी नहीं थी?”

 “थी... उसका नाम... भाई....हाँ-हाँ...आ गया याद... उसका नाम था सावित्री!” अंधे साधू ने बहुत देर तक सोचने के बाद बताया।

 “उसका कोई बेटा-बेटी?”

 “भाई, जितना मुझे पता है, उसकी कोई औलाद नहीं थीं।  बताते हैं कि बच्चे सिर्फ़ ब्रह्मा जी से ही जन्मे।”

वातावरण में एक छोटा-सा ठहाका गूँजा।  माहौल गोष्ठी चर्चा में बदल गया।

 “इसका मतलब कि वह हिजड़ा था या नामर्द।”

 “नामर्द या हिजड़े न तो बच्चे पैदा कर सकते हैं और न ही उनसे पैदा होते हैं।” एक अन्य पैंट-कमीज वाले लड़के ने तेज़ स्वर में बोलते हुए बातचीत में हिस्सा लेने की मंशा से कहा।

 “मर्दों को बच्चे होते कभी नहीं देखा।”  एक आवाज़ आई।

 “भाई, इतना सुना हुआ मालूम है कि ब्रह्मा जी ने अपनी बेटी के साथ सहवास किया था, सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए।  ग्रन्थों में लिखा हुआ है।”

 “यह तो निरा कुफ़्र है, अपनी बेटी के साथ इतना अनर्थ कौन कर सकता है!  कोई नहीं मान सकता!” मेरे करीब बैठे बापू ने धीमे स्वर में कहा।

 “महाराज, ब्रह्मा जी का मन्दिर कहाँ है?” तनी हुई पगड़ी वाले अधेड पुरुष ने फिर पूछा।

 “मन्दिर तो कहीं नहीं है।” अंधे साधू के मुख से दबी जबान में निकले ये शब्द यूँ लगते थे जैसे उसके इकतारे के ढीले तार में से निकले हों।

 “क्यों बीच में शोर मचा रखा है? प्रसंग आगे सुनने दो।  नहीं अच्छा लगता तो अपने घरों को जाओ।” मस्से ने कहा।   उसने अपनी ढीली बंधी पगड़ी के नीचे सिर पर दायें हाथ से खाज करने के बाद फिर कहा, “चार अक्खर क्या पढ़ लिए, पर लग गए!  तुम्हें इन रहस्यों का क्या पता कि दुनिया कैसे ची।”

 “तुम ही बता दो फिर कि ब्रह्मा के मुँह, धड़, बाँहों और पैरों में गर्भ कैसे ठहरा होगा?  ब्रह्मा के शरीर को किसने कैसे भोगा होगा? औरतों की तरह माहवारी कैसे हुई होगी!  सौ हाथ रस्सा और सिरे पर गाँठ!  कभी आदमियों को भी बच्चे पैदा हुए हैं!  यूँ ही भरम फैला रखा है सारा, लोगों को भरमाने की खातिर इन चालबाजों ने...।” थोड़ा रुककर फिर बोला, “रूस दस साल पहले धरती की गुरुता पार कर गया और अब अमरीका चाँद पर झंडा फहराने की तैयारी कर रहा है और इधर हमारे ये लोग अभी ब्रह्मा की धोखाधड़ी और लूट-खसोट वाले सृजन से बाहर नहीं निकल रहे।”  पक्की उम्र का वह व्यक्ति बगैर किसी झिझक के बोले जा रहा था और मैं मन ही मन खुशी से उछल रहा था।

   मस्सा खीझकर फिर बोला, “कल तुम कहोगे कि रविदास ने पत्थर को कैसे तैराया? परसों कहोगे कि धन्ने ने पत्थर में से रब कैसे पा लिया? इस न्यारे मार्ग पर चलकर तपस्या करके ही कुछ मिलता है, यूँ ही थोड़े दुनिया घरबार छोड़कर जंगलों में तपस्या करने जाती है।  कल के जन्मे, आज अक्ल देने लग पड़े हैं।”

लालटेन के प्रकाश में मैंने देखा।  सुनने वालों के चेहरों से यूँ लगता था जैसे उन्हें दोनों धड़ों की बातें सोलह आने सच लग रही थीं और मनुष्य के अंतरिक्ष में जाने की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था।

 “हमसे नहीं सुनी जाती ये कंजर खप्प!” जुगत से बाँधी हुई पगड़ी वाले ने धीरे से कहा और उसका दूसरा साथी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

दरअसल, वे दोनों हमारे गाँव के कामरेडों के मेहमान बनकर आए हुए थे।  उन्हें नाराज होकर बीच में यूँ उठ कर जाते देख कर किसी ने बुरा-भला नहीं कहा।

अपनी पाठ्य पुस्तक में पत्थर की मूर्तियों की पूजा के बारे में कबीर साहब का निम्न दोहा बार-बार मेरी आँखों के सामने आता रहा -

   पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड

   या ते वो चक्की भली, पीस खाये संसार।

 

 “सारा मज़ा किरकिरा करके चल पड़े, बड़ा सुन्दर प्रसंग चल रहा था।”  मस्से ने अपनी आदत के अनुसार अपनी बात नाक में बोलकर लोगों का ध्यान खींचने के लिए दुख प्रकट किया।  वह किसी विजयी पहलवान की तरह प्रभाव डाल कर रूमाली जीतने के यत्न में बोले जा रहा था, पर अब लोग उसकी बातों से बेरुख हो गए थे।

कानाफूसी और नई बहस का अन्त न होता देख कर बापू भरा हुआ दीवान छोड़ने के लिए उतावला हो उठा।  मैं भी उसके पीछे-पीछे घर की ओर चल दिया।  मेरे ताये के बेटे मंगी ने कहा, “भई दलीलें तो लड़कों की दिल पर असर करने वाली थीं।  एक नहीं चलने दी अंधे की।”

 “उन लड़कों की दलीलें सुनकर तो यूँ लगता है कि हम सब अंधे हैं।  जैसे किसी ने कह दिया, वैसे ही मान लिया।” बापू को जैसे कोई बात सूझी हो, “मंगी, एक बात तो दिल को लगती है कि अगर रब है तो उसका भी कोई माई-बाप होगा।  कौन सा बंदा है जिसका माँ-बाप नहीं, कौन सा दरख़्त या बूटा है जिसकी जड़ न हो, बीज न हो।” बापू घर की दहलीज़ तक जाते हुए बोलता रहा।  बीड़ी मुँह में दबाकर जलती तीली को बहती हवा से बचाने के लिए वह दोनों हाथों की ओट बनाकर मुँह तक ले गया।  मुँह में खींचा धुआँ बाहर छोड़ते हुए वह जलती हुई तीली को देखता रहा और धीमे से बोला, “सारी कल्पना ही है, यूँ ही राम-रौला है, सृष्टि को किसने बनते देखा है।  कुदरत की ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि वह कैसे दिनरात हमारे जैसे कामगारों की तरह मेहनत करती रहती है।  पेड़, मनुष्य छोटे से बड़े हो रहे हैं... झड़ते पत्तों की जगह नए पत्ते आ जाते हैं... कमाल हैं कुदरत के करिश्मे भी!”

पहले ही उठकर जा चुके उन दोनों अधेड़ पुरुषों के सवालों-जवाबों की लड़ी मेरे मन में लम्बी होती चली ग।  आँगन मं बान की नंगी चारपाई पर सोते समय मेरी बन्द आँखों में उन दोनों अजनबियों के ठोस ख़्याल, मेरे मन के अंधेरे के आकाश में रोशनी भरने के लिए चमकते जुगनुओं की तरह कभी इधर, कभी उधर छोटी-छोटी उड़ानें भर रहे थे।

आज की सभा और बापू के विचारों ने मेरे ख़्यालों को नई उड़ान दे दी।  मुझे अन्दर ही अन्दर महसूस हुआ कि मेरे ख़्यालों में बहुत कुछ नया-नया सा भरता जा रहा है। दीवान वाली जगह पर अँधेरे में जलती लालटेन मुझे बार-बार दिखाई दे रही थी।  मुझे लगा कि मैं ब्रह्मा के थोथे चक्रव्यूह से बाहर निकल गया होऊँ जैसे धरती के गुरुत्वाकर्षण से मनुष्य!

 

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