छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

ज़िन्दगी और मौत के बीच

“इस कंजर के पुत्त ने आप तो मरना ही है, साथ में हमें भी मरवाएगा।  इसे चार फेरे दिलाकर बाँध दे कहीं।  खुद-ब-खुद रन्न (बीवी) का पुत्त बन जाएगा।  फिर देखेंगे, हमारा कितना हालचाल पूछने आएगा।”  बापू अपने गुस्सैल स्वभाव के अनुसार मुझ पर भड़क रहा था, पर माँ पत्थर की भाँति चुप और अडिग खड़ी थी।  एक ही साँस में बोलने के कारण बापू का इकहरा शरीर हल्का, सा काँपता प्रतीत हो रहा था।  उसकी आँखें कभी अन्दर और कभी बाहर की ओर फुर्ती से देख रही थीं।

“इस बार मैं अपनी मर्जी से तो नहीं आया, तुम्हारा ... ,।”

“चुप कर जा, कुत्ते के तुख़म (बीज)!  नहीं तो जूतियाँ मार, मारकर खोपड़ी तोड़ दूँगा।” बापू का स्वर इतना ऊँचा था कि मुहल्ले और आस-पड़ोस के घरों के लोग पल भर में आ जुटे।

बारियों (पाक के ‘बार’ इलाके से आए लोग) के गुरमुख ने आते ही पूछा, “हमने तो कदमों की आहट सुनकर सोचा -ये कौन कीचड़ में दौड़ता चला आ रहा है!”

“यार, हद हो गई!  बात तो बताओ।” ताया राम सिंह ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बेसब्री से पूछा।

“होना क्या है?  आतंकवादियों ने घेर लिया इसे।” बापू ने बताया।

“अच्छा! कहाँ?” ताये ने फिर उत्सुकता जतायी।

“ये, पीर की खानगाह के उस तरफ़!”

“हैं! दिन में ही अँधेर! गाँव के बाहर ही! अभी तो आठ भी नहीं बजे। अकेला था तू कि कोई साथ भी था?” ताये ने बड़ी गम्भीरता के साथ सवालों की झड़ी लगा दी।

“ध्यान और मैं थे।” मैंने बताया।

पूछ-पड़ताल जारी थी कि ध्यान भी आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे ‘बाबों’ का साधू।  उसने अपने सदा खुश्क रहने वाले गले को आहिस्ता से खंखारते हुए कहा, “चाँदनी रात में इनकी तरफ़ तानी गई छोटी बन्दूक देखकर मैंने तो बैल पीछे ही रोक लिए, और...।”

मैंने देखा कि ध्यान हाँफ रहा था।  स्त्री-पुरुष सभी हमारे चेहरों की ओर तरस और दया भरी निगाहों से देखते हुए खामोश खड़े थे और सारी वारदात को बड़े ध्यान से सुन रहे थे।

“और मैंने बैलों को खेतों की ओर बढ़ा दिया - वहाँ फ़सल कट चुकी है और गुरमुख की गेहूँ की पूलियाँ गीली मिट्टी में पड़े-पड़े अंकुरित होने लगी हैं!  खेत में पैर धस रहे थे।” बाबा साधू फिर से गला खंखारकर बताने लगा।

“सारी कबीलदारी अभी पड़ी है... , बड़ा खुद टब्बरदार हो गया! हम अब तेरे हाथों की ओर ही देखते हैं!  अभी तो मैं दिहाड़ी मजूरी कर लेता हूँ।” बापू ने अपने भविष्य की चिंता भरी कहानी का सार-संक्षेप पेश किया।  उसके होंठ और चेहरे की खाल फड़कती दिखाई दी।

“ठाकरा, रब का शुकर मना, मुंडे बच गए।  बुल्ला(चक्रवात) आया, निकल गया।” ताये ने दिलासा दिया।

“तुम फिक्र न करो, तसल्ली रखो।” मैंने अपने बापू और माँ को हौसला देने की कोशिश की।  माँ की आँखों में से झाँकता पानी लगता था, किसी भी क्षण किनारे तोड़कर बाहर टपक पड़ेगा।

“मुझे तो लगा भई कि आज हमारा नंबर लग गया, पर...।” ध्यान ताजा घटी घटना को बताने की कोशिश करने लगा, “हम दोनों को उन्होंने अपने सामने दस, पन्द्रह फुट पर बराबर-बराबर खड़े कर लिया। बोले, ‘साले सड़कों पर बीड़ियाँ पीते घूमते हैं।’  इस बाबा ने जब बैलों को खेत की ओर मोड़ा तो उनका ध्यान उधर हो गया।  मैं भी होशियारी से खेत में दौड़ पड़ा।  पर दौड़ा न जाए, पैर कीचड़ में धंसते जाते थे।  मैं फिर भी दौड़ता रहा।  वे कहते रहे, रुक जा, नहीं तो गोली मार देंगे।”

“ध्यान ने मुझे दूसरी ओर दौड़ने के लिए कहा कि कम से कम एक आदमी तो बच जाएगा।  मेरे दायें हाथ की ओर कँटीली तार थी, कूड़े के ढेर थे।  भागकर जाना कहाँ था?” मैंने बताया।

“फिर?”

“वो बेहया गालियाँ बकने लगे। एक ने कहा- गोली पार कर और काम खत्म कर।  ज्यादा बातें न कर।”

“अच्छा! फिर?”

“उस ए. के. सैंतालीस वाले के दिल में पता नहीं क्या आया, मुझसे कहने लगा- तू हमारा सिख भाई है, आज तुझे बख़्श दिया।  आज के बाद शराब पी या अंग्रेज़ी बोली तो उड़ा देंगे।”

“इसका मतलब कि गुड्ड, तुझे पगड़ी ने बचा लिया।... और फिर वो चले गए?” ताया राम सिंह ने फिर से प्रश्न किया।

“ताया, उन्होंने साइकिल पर टाँग रखी और चले गए।  बदन पर लोई लपेट रखी थी। मैं तो सीधा दौड़कर जुगिंदर फौजी के घर चला गया कि राइफल निकालकर उनका पीछा करें।”

“फिर?”

“वो बोला- पुलिस ने हथियार थाने में जमा करवा रखे हैं!”

“पुलिस वाले खुद डर के मारे जान बचाते घूमते हैं!” ताया हल्का-सा हँस दिया।

“हम पाँच, सात लोग लाठियाँ, टकुए लेकर गए भी, पर रास्तगो से ही मुड़ आए।” मैंने सबको और जानकारी दी तो सभी की हँसी निकल गई।

बापू ने धीमे से कहा, “उल्लू के पट्ठे! कहाँ लाठियाँ, कहाँ ए. के. सैंतालीस!”

“कई बार शिकार साधारण और रवायती हथियार से भी काबू में आ जाता है।  पक्का इरादा और हौसला होना चाहिए।  ऐसे फसली बटेर हथियारों के सिर पर ही तो शेर हैं... वैसे, धमका दो तो बूटों में पानी भर जाता है।  और फिर हम इतने लोग और वे दो जने थे।” मैंने कहा तो प्रत्युत्तर में किसी ने भी ‘हाँ, हूँ’ नहीं की।

और, इस हालात में भी मुझे वह सड़क अकस्मात याद आ गई, जहाँ से हम पीछे की ओर मुड़े थे।  यह वही सड़क थी जिसे आठ, नौ बरस पहले अपने कालेज की जून, जुलाई की छुट्टियों के दौरान भीषण धूप, गर्मी में मैंने बाँस के झाडू से साफ़ किया था और अन्य मज़दूरों के साथ मिट्टी हटाते हुए उस पर तारकोल डाली थी।  अपने सिर के ऊपर रखे इंडु से दोनों बाँहों को थोड़ा ऊँचा करके बारीक बजरी की टोकरियों को चकरी की भाँति घुमाकर नीचे फेंका था।  सड़क पर पतली, सी परत बिछ जाती थी।  वह नज़ारा एक बार फिर मेरी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ, जिसमें से धूल का छोटा, सा गुबार उठता हुआ दिखाई दिया।  गुबार जो पल भर बाद खत्म हो जाता था।  लेकिन, कड़ाहे के नीचे जलती हुई आग की लपट को और बड़ा करने क लिए लकड़ियाँ लगाते समय, अचानक छोटी, सी बदली में से मोटी-मोटी बूँदें टपकी थीं, जिससे उबल रही तारकोल के छींटे बाहर निकल कर मेरी दायीं बाँह पर पड़ गए थे और मैं तड़पकर रह गया था।

“गुड्ड... कहाँ गुम हो गया?” ताये ने मेरी बाँह को पकड़कर मुझे हिलाया।

“हूँ!... वो बोले- सतिगुरु ने तुझे बख़्श दिया।  अब जो कुछ तेरे पास है, नीचे रख दे और दफ़ा हो जा!  अगर पीछे मुड़ कर देखा या गाँव वालों को बताया तो गोली मार देंगे, भाग यहाँ से भैण के... ,।  फिर, दूसरा बोला- साला रवियों का, अकड़ कर चलते हुए टर्र, टर्र किए जाता है, मार गोली माँ के... , के।” मैंने पूरे विस्तार से बताया।

“ताया, मुझे लगने लगा था कि बस अगली साँस और यह सारा नज़ारा मैं अगले पल देख नहीं सकूँगा। दस-पन्द्रह सेकेण्ड के बाद मेरा हौसला थोड़ा बढ़ गया कि मारना होता तो ये अब तक मार देते।  इतनी बातें और बहस किसलिए करते!”

“अच्छे सिखी निभा रहे हैं!  बोल, बाणी, लूट, खसोट और मार-माट के कारनामे तो देखो इन गुरमुखों के!” ताये ने अपने ‘गातरे’ को निकालकर उस पर हाथ फेरने के बाद उसे फिर से छोटी म्यान में डाल लिया।  फिर नसीहत देते हुए बोला, “दिन रहते अन्दर-बाहर हो आया करो, इस आँधी का पता नहीं किसे किधर उड़ा ले जाए।”

“और गुड्ड, तूने फिर दे दिया जो तेरे पास था?” गुरमुख को जैसे अचानक याद आ गया हो।

“बटुआ, घड़ी वगैरह मैंने नीचे ज़मीन पर रख दिए और गाँव की तरफ़ चल पड़ा।”

ताया राम सिंह जाते-जाते कहने लगा, “निर्दोषों, मासूमों को मारकर इन पापियों के पल्ले क्या पड़ेगा? जिन्होंने पाकिस्तान बनता देखा है, वे भूलकर भी खालिस्तान का नाम नहीं ले सकते।”

“सोलह आने सच!” कुछ आवाज़ें सुनाई दीं।  आस-पड़ोस से आए लोग अपने अपने घरों की ओर लौट गए।

हम पूरा परिवार आधी रात तक आँगन में बैठकर बातें करते रहे।  मेरी बहनों के मुँह पर जैसे ताले लगे हों, उनके चेहरे उतरे होने के कारण यूँ लगता था, मानो वे जीते जी पत्थर की मूर्तियों में बदल गई हों।  मुझे महसूस हुआ जैसे वे मन ही मन मेरी लम्बी उम्र की अरदासें कर रही हों।

इसी दौरान, गाँव से दूर ‘ठाँय, ठाँय’ की दो आवाज़ें सुनाई दीं।  सबकी धड़कन एक बार फिर तेज़ हो गई।

“हमें पता है, दिल्ली में तेरा मन नहीं लगता। तेरा तन वहाँ होता है और मन यहाँ।  हम और तेरे यार, दोस्त यहाँ पर हैं, पर...।” माँ ने बात आगे बढ़ाई, “भाटिया अपनी बुआ की जो लड़की बता रहा है, उसे देख आ बुधवार।”

“बुधवार? उस दिन तो मैंने वापस लौटना है।  एक दिन पहले देख लेंगे।” मैंने अपनी दफ्तरी विवशता का संक्षेप में इशारा किया।

“मंगलवार?” माँ ने हैरानी ज़ाहिर की।

“मेरा जन्म मंगलवार का है। जन्म-मरण के लिए तो यह दिन बुरा नहीं।  सूरज तो हर वक़्त रहता है, धरती घूमती है तो दिन-रात बनते हैं।” मैंने समझाने के इरादे से बात को विस्तार दिया।

“हमारी समझ में नहीं आतीं तेरी ये बातें।  अपना टैम देख और लड़की पर एक नज़र डाल आ।” माँ ने अपने मन की इच्छा दोहराई।  मुझे लगा जैसे मेरे माँ, बाप मेरी घर-गृहस्थी को जल्द-से-जल्द बढ़ता-फूलता देखना चाहते हों।

बातें करते-करते तारीख बदल गई।

अब मैं अपने कमरे में अकेला था। मेरे मन में बेशुमार ख़्यालों का ज्वार-भाटा चढ़ता-उतरता रहा।  बापू का छोटा-सा हो उठा मुँह मुझे कई अहम फैसले लेने के लिए मजबूर करता।  उसका कहा मेरे कानों में बार, बार सुनाई देता, “ये आँधी निकल जाने दे, फिर जैसे मर्जी आया-जाया करना। सारी कबीलदारी अभी ...।” ये शब्द मुझे ज़िन्दगी और मौत के बीच के ताज़ा देखे पलों का अहसास कराते।  कुछ ही देर बाद मुझे महसूस हुआ कि जल्द ही दिन निकलने वाला है।

इस प्रकार १२-१३ जून १९८७ के बीच की यह रात, मेरी ज़िन्दगी और मौत के बीच ऐतिहासिक पलों वाली रात बन गई।  मैं नए निखरे दिन की प्रतीक्षा करने लगा।


 

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