छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

किरायेदारी की लानत

मेरे विवाह पर मेरे सहित ग्यारह बरातियों की बारात मेरे ससुराल वाले गाँव में पहुँची। स्वागत में दूसरे गीतों के साथ-साथ स्त्रियाँ सिट्ठनियाँ (विवाह के अवसर पर वधू पक्ष की स्त्रियों द्वारा वर और उसके सम्बन्धियों के लिए मज़ाकिया लहजे में गाई जाने वाली गालियाँ) गाने लगीं, जिनमें से कुछ के बोल इस प्रकार थे-

‘पैसा पैसा साडे पिंड दे पाओ

लाड़े जोगा तुसीं बाजा मंगाओ

जंज तो सजदी नहीं

निर्लज्जिओ लज्ज तुहानुं नहीं।’

 

‘बरातियाँ नूं बाजा ना जुड़या

ढिड वजाउंदे आए।’

औरतें सुना, सुनाकर कहतीं, “कहते थे मुंडा अफसर लगा है-न वीडियो फिल्म बनाने वाला लाए, न कुछ और; जैसे बस शादी वाली लड़की लेने ही आए हों... कुछ तो रौनक चाहिए ही...।”

“मैंने तो सुना है, कहते हैं दहेज नहीं लेना।” एक अन्य स्त्री ने बात की।

“मुफ़्त का माल किसे बुरा लगता है। अब नहीं तो रात, बिरात पहुँचा देंगे। और फिर लोग तो यूँ ही कहते हैं बहन। बाद में और माँगने बैठ जाते हैं।”

... और, दो, ढाई घंटों के विवाह के बाद एक दुविधा भरी सोच तंग करने लगी, जो पिछले कुछ महीनों से मुझे निरन्तर अन्दर ही अन्दर घुन की तरह खाए जा रही थी। वह थी-मुकलावे वाली रात और ब्याहता ज़िन्दगी। तनाव और गहरा होता चला गया। ऐसा महसूस होता जैसे कोई बला, कोई पहाड़ मेरे सिर पर आ गिरा हो। इस चिंता के कारण मेरा आठ, दस किलो वज़न पहले ही कम हो गया था। कई लोग मज़ाक करते- "पहले ही सूखता जा रहा है। कोई बात नहीं, मोटा हो जाएगा दिनों में ही, कइयों को विवाह देसी घी की तरह लगता है।”

मैं अपनी पत्नी को लेकर पाँचवें दिन दिल्ली आ गया। महीने, डेढ़ महीने में ही मेरा वज़न पहले जैसा हो गया और मन ऊँची हवाओं में उड़ने लगा। पर, ऐसा अधिक दिन न चला और चार, पाँच महीनों में ही हक़ीक़त की ज़मीन पर आ गया। प्रत्यक्ष दीखती चिंता ने मानो मेरे पंख काट दिए हों।

दरअसल, मकानों, दो बहनों और अपने से बड़े भाई के विवाहों ने मुझे आर्थिक तंगियों के समुद्र में फेंक दिया था, जिसमें से बाहर निकलने के लिए मैं हर संभव कोशिश करता रहता। जी. पी. फंड में से बार-बार पैसा निकालने से वेतन दो हज़ार रुपये से भी कम हो गया। इसमें से तीसरा हिस्सा मैं अपने लिए रखकर, शेष माधोपुर और बड़े भाई को गुज़ारे के लिए दे देता।

विवाह के बाद करीब छह सालों के अंदर मैं तीन बच्चों का बाप बन गया। तीसरी बहन का विवाह कर दिया। किस्त बढ़ने लगी। मंहगाई और दूसरे खर्चों में होती वृद्धि ने घर के वातावरण में तनाव पैदा कर दिया। परिणामस्वरूप, एक दिन बड़े भाई ने तल्खी से कहा, “तू हर महीने कहता है, मकान किराये पर देख लूंगा। जाता तो है नहीं। आठ सौ देता है, इससे रोटी चलती है? उस पर तेरे यार, दोस्त कतार बांधकर आए रहते हैं। जब अलग होगा और सिर पर पड़ेगी, तो पता चलेगा कि आटे, दाल का क्या भाव है और घर कैसे चलता है!”

“जो आठ सौ मैं गाँव भेजता हूँ, वो किसी गिनती में नहीं?” मैंने दलील दी, “और पहले तो तुम कहते थे, कोई बात नहीं, फंड में से निकाल ले, मिल, जुलकर गुज़ारा कर लेंगे।”

“तुम यहाँ से जाओ, ज़िन्दगी के चार दिन हम भी आराम से काट लें।” भाभी ने सौ की एक सुनाई।

मुझे लगा, जैसे घर, परिवार को आगे ले जाने के मेरे ख़्यालों की इमारत, पिछले दिनों गिराई गई बाबरी मस्जद की तरह नेस्तनाबूद कर दी गई हो; जिसे बरकरार रखने का मेरा पक्का इरादा था। मुझे लगा, मानो संवाद की जड़ खत्म कर दी गई हो और भविष्य पर विचार ही न किया गया हो। मुझे महसूस हुआ, मानो मैं उनके लिए पैसे बनाने वाली मशीन से बढ़कर कुछ न होऊँ।

उस सवेर मैं अपने मित्र, बिचौलिए और पत्नी के मामा के बेटे मिसरदीप भाटिया के पास गया। दक्खिन, पश्चिम दिल्ली की दूर, पास की बस्तियों में भटकने के बाद हमें मुनीरका में एक कमरा मिल गया। मेरा दफ़्तर और मेरी बड़ी बेटी का स्कूल करीब एक किलोमीटर की दूरी पर था। नये, नये बने मकान में हमने नये बर्तनों में दाल, सब्जी बनाई और रोटी खाई। पांच जनों का हमारा परिवार एक रजाई में बैड पर सोया। न दूसरी चारपाई, न बिस्तर, किताबें मेरे अंग, संग।

यहाँ रहते अभी हमें दो, तीन दिन ही बीते थे कि छोटे भाई जैसा मदन वीरा अपनी पत्नी और जुड़वाँ बच्चों को लेकर मिलने के लिए आ पहुँचा। हम पति, पत्नी एक दूसरे के मुँह की ओर देखने लगे।

“मदन, ये रद्दी एक तरफ़ करें पहले, गंद पड़ा हुआ है।” बहाने से मैं चीनी और बिस्कुट ले आया। वेतन मकान का एडवांस किराया देने और रसोई का छोटा, मोटा सामान लाने में पहले ही खत्म हो गया था।

“पहली बार बच्चे लेकर आई थी, हम से दस रुपये भी न निकल सके उन्हें देने के लिए।” पत्नी ने भरे मन से कहा।

दूसरी ओर मैं अपनी सोच में टूट, फूट रहा था। मैं जब दफ़्तर से लौटता तो मकान मालिक अपनी बैठक के सामने हुक्का पीते हुए अक्सर पूछता, “भाई, नाराज़ मत होना। आप किस जाति से हैं?”

“हम सिख हैं।” मैंने अपनी पगड़ी ठीक करते हुए बताया।

“गुस्सा न करना, मैं एक बार रेलगाड़ी में बैठकर आगरा से दिल्ली आ रहा था। एक सरदार और उसकी बीवी भी पास में बैठे थे। अच्छे कपड़े पहने हुए थे, आदमी पढ़ा, लिखा लगता था। और मैं पंजाब के बारे में कई बातें उससे पूछता रहा, जानता रहा...।”

“अच्छा!”

“... और मैंने उससे उसकी जाति पूछी। तुम्हारी तरह उसने भी अपने आप को सिख बताया। मैंने कहा-सिखों में भी जातियाँ हैं, आप किस जाति के हो? पहले तो वह झिझकता रहा। आख़िर, उसने बताया कि मैं रामदासिया हूँ...।”

“चलो, बातचीत में अच्छा वक़्त कट गया होगा।”

“जब उसने अपने को रामदासिया बता दिया तो उसके आगे मैंने क्या बात करनी थी, मैं दूसरी तरफ़ मुँह करके बैठ गया।” बुजुर्ग गूजर ने गर्व से बताया।

“अगर वो झूठ बोलकर अपने को ऊँची जाति का बता देता तो?”

“तो पाप का अधिकारी होता!” यह कहकर उसने पास में पड़ी रम की बोतल गिलास में उंड़ेली और सूखी ही एक साँस में चढ़ा गया।

मेरे मन में उस अनपढ़ बुजुर्ग के बारे में बुरे विचार आते। मुझे लगा-जलालत का दौर शुरू हो गया है। नित्य की पूछ, पड़ताल से तंग आकर मैं दूसरे मकान की तलाश करने लगा।

एक परिचित परिवार की औरत के पास मैं आर. के. पुरम के सैक्टर-७ में गया। वह छत पर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी।

“तुम पाँच हज़ार एडवांस दे जाओ, यह क्वार्टर हम तुम्हें दे देंगे। आज कल इन क्लास, फोर क्वाटरों का दस, दस हज़ार एडवांस चलता है। अपनी तो घर की बात है।”

हम नए मकान में चाव से रहने लगे। लेकिन, बेटी का सैक्टर-तीन में स्कूल था, वह दूर हो गया। न मेरे पास कोई सायकिल और न ही बस के अलावा और कोई साधन। गर्मियों की शिखर दोपहरों में उसको स्कूल से लेने जाता, घर छोड़कर फिर जल्दी, जल्दी में दफ़्तर लौटता। मन में विचार उठते कि अगर बड़ा भाई स्कूल का सैशन पूरा करवा देता तो क्या पहाड़ टूट जाता? माँ के वे शब्द मुझे बार-बार याद आते, ‘अब तीन घर बन गए, इकट्ठा रहते तो इन दोनों छोटे लड़की, लड़के का विवाह करके जैसे चाहे जुदा रह लेते।’

खैर, इसी हालत में पाँच महीने गुज़र गए। एक दिन एक मोटी औरत साड़ी संभालती अंदर आ घुसी। और ज़ोर, ज़ोर से बोलने लगी, “तुम कौन हो? मेरे क्वाटर में बगैर पूछे कैसे घुस आए हो?”

औरत के रूप में आई इस नई समस्या ने हमारी परेशानियों में और इजाफा कर दिया। वह औरत बैड पर बैठ गई और रौब से बात करने लगी। हम एक, दूसरे की ओर देखने लगे। बच्चे कान के पास मुँह कर के हमसे पूछते, “ये टुनटुन कब जाएगी? हमारे बैड पर कब्जा करके बैठ गई है, हम कहाँ सोएंगे?”

“मेरे पास किराया पहुँचता रहता तो मेरे को क्या एतराज था।” उस ‘मालकिन’ ने चाय, पानी पीने के बाद कहा।

“हमारे से तो वो पाँच हज़ार एडवांस ले गए थे और पाँच सौ रुपया महीने का वसूल कर रहे हैं। उन्होंने हमसे कहा था-बेफिक्र होकर रहो, हमने सारी बात कर रखी है; पांच सौ एडवांस में से कटता रहेगा।” हमने बताया।

“यानी एक हज़ार किराया। खुद तो पाँच सौ देती रही अपने किराये का!” मालकिन ने बताया। बातें सुन, सुनकर हम हैरान होते रहे। उससे थोड़ा वक़्त लेकर जैसे, तैसे हमने उसे पिछला किराया दिया।

दरअसल, हमारे उस पुराने परिचित परिवार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की जानकारी थी। वे जानते थे कि क्वार्टरों को किराये पर देने की जांच, पड़ताल होने वाली है। उन्होंने अवसर का पूरा लाभ उठाया था और स्वयं वहाँ से जाते हुए चाबी हमारे हाथ में थमा गए थे। इस सारी हेरा, फेरी का हमारे पूछने पर उन्होंने झिड़कते हुए उत्तर दिया, “प्रापर्टी डीलर जो किराये के कमरे दिलाते हैं, तीन महीनों का किराया लेते हैं, और तुम हमसे बार-बार पैसे पूछकर हमारा अपमान कर रहे हो। ख़बरदार, जो फिर पैसों के बारे में पूछने आए।”

केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग की ओर से दिन, रात छापे मारे जाने लगे। पता चला कि हमारे वाले क्वार्टर का न किसी ने पिछले दस सालों से बिजली का बिल भरा था और न ही किराया जमा किया था। कारण-’टुनटुन’ कुछ साल पहले विधवा हो गई थी और किराया वसूलने के अलावा उसने और कुछ न सोचा। वैसे भी, क्लास फोर क्वार्टरों का बिजली, पानी नहीं काटा जाता था।

उधर, डॉ. गुरचरन सिंह मोहे मेरे पीछे पड़े हुए थे कि हमारे साथ केरल चल, एल. टी. सी. लेकर। ऊपर से बच्चों की नौमाही परीक्षा। पत्नी के नाराज़ होने का डर। जब दक्षिण से बारह दिन बाद लौटा तो पड़ोसियों ने नीचे ही सीढ़ियों के पास मुझे बताया, “सामान बाहर फेंकने के लिए निर्माण विभाग के आदमी आए थे, हम सबने मिलकर कहा, दो दिन में खाली कर देंगे।”

अगले दिन, हमने एक मित्र के पास अस्थायी तौर पर सामान टिका दिया। हफ्ते भर के अंदर हमें आर. के. पुरम के सैक्टर-आठ में पाँच हजार पेशगी पर सख़्त शर्तों पर कमरा मिल गया।

इस सरकारी मकान की मालकिन एक क्र्रैच चलाती थी। बच्चों को डांट, डपटकर सुला देती। हमारे बच्चों को दिन के समय न तो बाहर निकलने देती और न ही बोलने देती। उसने मज़बूरी व्यक्त कर दी, “भाई साहब, आपके बच्चे बहुत शोर करते हैं, आपका परिवार भी बड़ा है, कपड़े धोने में पानी बहुत लगता है, दो, चार दिन में कमरा खाली कर दो।”

उसके पति का पिछले दिनों कहा वाक्य मुझे स्मरण हो आया, “भाई साहब, आप सारा बाथरूम गीला कर देते हो, ज़रा आगे होकर स्नान किया करो। पढ़े, लिखे हो, ज्यादा कहते हुए भी हम अच्छे नहीं लगते।”

मेरे हौसले को पस्त करने वाला एक नया सिलसिला सामने आ गया। गुस्सा आता-नए स्कूल में बच्चों के दाखले पर हज़ारों रुपए लग गए, अब तीन महीनों बाद फिर घर से बेघर। उधार कहाँ से उठाए जाऊँ? मुझे बापू की याद आती, समस्याओं और विवशताओं के दौरान उसका दृढ़ इरादा, उसके द्वारा उठाये गए उधार-कर्जे और कमाई, कुएं की मिट्टी कुएं में। उसके दमखम और पक्के इरादे से मुझे आगे बढ़ने की शक्ति मिलती कि मुझे तो फिर भी बंधा हुआ वेतन मिलता है।

मैंने मन ही मन तथा पत्नी के साथ सलाह कर निर्णय लिया कि सरकारी मकानों के चक्कर में नहीं पड़ना। मुझे रह, रहकर गुस्सा आता जब लोग कहते-’एस. सी. कोटे में तो झट मकान मिल जाता है।’ मेरी नौकरी को पंद्रह बरस हो चले हैं, हर साल मकान के लिए अर्जी देता हूँ, मिलेगा कब?... जब नौकरी के दो, चार साल शेष रह जाएँगे तब?

और वह मकान, मालकिन कहने लगी, “जब जाना ही है, सामान भी बंधा हुआ है, फिर क्या देखना। बूंदाबांदी इतनी तो है नहीं, फुहार, सी है। बादल तो ऐसे ही रहने वाले हैं।”

हमने सामान टैम्पो में लादा और पालम गाँव के जैन मुहल्ले में किराये के मकान के सामने जा रोका। बच्चे नालियों में तैरते गू को देखकर नाक चढ़ाने लगे। पत्नी, जिसे काफी बुखार था, बच्चे लेकर अंदर बैठी ही थी कि मालकिन उसके पास आ बैठी।

बारिश जारी थी जब हमने सामान उतारा। पत्नी का चेहरा बुखार से लाल हुआ पड़ा था। वह मालकिन से बातें करते तकलीफ महसूस कर रही थी। उसके जाने के बाद मुझे बताने लगी, “बुढ़िया पूछती है, तुम कौन होते हो, जैसे पंडित और दूसरे लोग होते हैं।”

“तो तुमने क्या कहा?”

“मैंने कहा, हम सरदार होते हैं। हम सलाह कर लें कि जात क्या बतानी है अगर उसने फिर पूछा तो! यह न हो, तुम कुछ और बताओ, मैं कुछ और।”

हम आधी रात तक विचार करते रहे। सोचते-इन लोगों को किराये से मतलब है, हमारी जात से इन्हें क्या लेना! जात के कलंक ने शहर आकर भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा... कहने को तो यहाँ पढ़े, लिखे लोग रहते हैं।

“बातों बातों में क्रैच वाली शेषा जात तो बहुत पूछती रही, पर मैंने पल्ला नहीं पकड़ने दिया था। इस बुढ़िया ने सामान भी नहीं रखने दिया और पूछताछ करने बैठ गयी।” वह थोड़ा रुककर बोली, “अगर शेषा बच्चों का सैशन पूरा करा देती तो क्या फ़र्क पड़ जाता? मीटर बंद किया हुआ था, घास और सब्जी को पानी छोड़े रखती थी। हमारी बारी पर कहने लगती-तुम्हारा परिवार बड़ा है। उसके दो बच्चे और हमारे तीन...।”

“उसे भी कहीं जात की भनक तो नहीं पड़ गयी थी? क्वार्टर के बाहर मोटे बड़े अक्षरों में नेम, प्लेट नहीं देखी थी- गोपाल सिंह गौड़।”

“इसके बारे में मैं क्या कह सकती हूँ, पर पूछती थी कि अगर तुम सरदार हो तो जूड़ी क्यों नहीं रखते?”

“नया स्कूल मील भर दूर है, कमाई क्या करे! सायकिल ले लो, नहीं तो रिक्शा लगवा लो बच्चों के लिए।”

घूम, फिरकर मेरी सोच की सुई बड़े भाई पर टिक, टिक करते हुए रुकती कि वहाँ एक, एक क्वार्टर में पन्द्रह, पंद्रह लोग रहते हैं, माँ, बाप, बहन, भाई और उनके बच्चे। अगर हम वहाँ टिके रहते तो चौथी बहन का विवाह करना आसान हो जाता।

पत्नी मेरी मनोदशा को भांप लेती और कहती, “ज्यादा सोचों में नहीं पड़ा करते, बाप की कबीलदारी बच्चे ही संभाला करते हैं। तंदरुस्ती बनी रहनी चाहिए... सब कुछ ठीक हो जाएगा। आराम से सो जाओ।”

मुझे ढाढस, सा मिलता कि मैं अकेला नहीं, हम दो हैं। एक, एक मिलकर ग्यारह हुआ करते हैं।

पालम के जैन परिवार के किराये वाले मकान पर हमारे संग ‘मरता क्या न करता’ वाली बात हो गयी। मीटर का पुराना बिल हमें भरना पड़ा। हमारे कमरे में जब बिजली न होती, मालिकों के तब भी होती। रोज़ाना की समस्या से तंग आकर एक दिन मैंने कहा, “मच्छर बहुत हैं, आपके प्लग में से तार लगाकर पंखा चला लेते हैं, बच्चे सो जाएंगे।”

“नहीं, हमारा लोड कम हो जाएगा।” मालकिन की बहू ने साफ़ मना कर दिया जबकि उन्होंने खम्भे से सीधी तारें खींच रखी थीं।

पानी की प्रतीक्षा में कभी मैं आधी रात को और कभी तड़के उठता। पानी के कम दबाव के कारण मेरे दो, ढाई घंटे पानी भरने में लग जाते। नींद पूरी न होती। पढ़ाई, लिखाई की इच्छा को जारी रखने की कोशिश का गला घुटता महसूस होता। इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल के निकट मकान लेने का फैसला किया।

अब हमने पालम गाँव के विस्तार की एक कालोनी महावीर एन्क्लेव में बी. ड़ी. शर्मा के घर मकान किराये पर ले लिया। वे पंजाब में आतंकवाद के दिनों में वहाँ से उजड़कर और अपना सब कुछ बेच कर यहाँ आ गए थे। अमृतसर ज़िले के बहुत से व्यापारियों के यहाँ कारोबार हैं। शर्मा की बेटियाँ मेरी पत्नी से बातें करते हुए जात पूछतीं। वह भी किसी अनुभवी व्यक्ति की तरह गोल, मोल बात करती और कहती, “जब तक जात का पता न लगा लें, लगता है लोगों को रोटी नहीं पचती।”

किराये पर रहने की समस्याओं के विषय में एक दिन मैंने अपने एक कुलीग से बात की तो उसने एक जुगत बतायी। बोला, “देख, अब तू पगड़ी तो बांधता नहीं। कमरा किराये पर लेने के लिए नाटक करना पड़ता है। सुन, एक दिन मैं जैनियों के मुहल्ले में छत पर टहल रहा था। तभी, एक आदमी साथ वाली छत पर घूमता हुआ दिखायी दिया। उसने जनेऊ कान पर चढ़ाया हुआ था ताकि दूर से ही उसकी पहचान हो सके। मैंने उसे देखा और पूछा- पुरुषोत्तम, यार तू? मुझे तो तूने बताया था कि कोटे से आया है। इस पर वह बोला- धीमे बोल, लोग मकान देने से पहले सौ बातें पूछते थे, नखरे करते थे। यारों को भी जुगत सूझी, चवन्नी का धागा खरीदा और जनेऊ बनाकर पहन लिया। अब ये सारे जाट, जैनी पंडित जी, पंडित जी कहते आगे, पीछे घूमते हैं।”

“मैं इस तरह की दोहरी, तिहरी ज़िन्दगी नहीं जी सकता। हमें इस बीमारी के विरुद्ध चेतना लानी चाहिए।” मैंने सहज ही कहा, “अधिक किराया देकर शान से रहना मेरे बस की बात नहीं।”

“खा फिर धक्के, हमें क्या।” उसने खीझकर कहा।

बी. डी. शर्मा ने अचानक एक दिन कमरे का किराया एकदम तीन सौ रुपया बढ़ा दिया। दूसरी शर्त यह रखी कि अगर किराया नहीं बढ़ाना तो अपने तीनों बच्चों को हमारे स्कूल में पढ़ने के लिए दाखला दिलाओ। इस तरह, फिर दूसरा मकान किराये पर तलाशते दो हफ्ते लग गए। एक बिहारी औरत ने कहा, “आपका परिवार बहुत बड़ा है।” एक हिमाचली ने मेरे और मेरी नौकरी के बारे में जानने के बाद कहा, “इतने साल हो गए दिल्ली में, अभी ऐसे ही घूम रहे हो?... शराबी, कबाबी या ऐबी तो नहीं हो?”

कई मकान मालिक सारी पूछताछ के बाद किराया इतना बढ़ा, चढ़ाकर बताते कि हम लेने की स्थिति में ही न होते। पत्नी की, पहली कक्षा से बी. ए. तक की एक सहेली कई बार हमें खाली हुए मकानों की सूचना देती। वही हमें अपनी इस कालोनी में लेकर आयी थी। उसके प्रयत्नों से उसके घर की पिछली गली में हमें नीचे का अँधेरे से भरा मकान मिल गया।

दो, चार दिन बाद हरियाणवी मालकिन ने मेरी पत्नी से पूछा, “तुम भी बलजीत(पत्नी की सहेली) की जात के जाट भाई हो? उनकी तो बहुत ज़मीन है।”

तभी, दरवाज़े की घंटी बजी। बलजीत के बच्चे ‘मासी जी, मासी जी’ करते हुए आ गए तो मालकिन चुप होकर अपने कमरे में चली गयी।

जाति की पूछताछ का सिलसिला शायद अभी खत्म नहीं हुआ था।

“बलबीर जी, आ जाओ। एक, एक रम का पैग लेंगे।” नए मकान मालिक, जो भूतपूर्व सैनिक था, ने कहा। जब मैं सोफे पर बैठने लगा तो उसने पूछा, “अच्छा तो आपका घर गाँव में है। गाँव के अंदर है या बाहर?”

“गाँव में है... “ पड़ताल की इस नयी जुगत ने मुझे हिलाकर रख दिया। ‘मैं पीता नहीं’ कहकर उठ खड़ा हुआ, नहीं तो न जाने क्या, क्या जवाब देने पड़ते।

इस मकान में दसेक महीने रहकर हमने उन्हे बताया, “बच्चों को सड़क पार करते देखकर डर लगता है, हमने उस तरफ़ प्लाट ले लिया है। बस, अब मकान बनाना शुरू करना है।”

मैंने पत्नी को मुस्कराते हुए देखा, शायद उसने मेरे शब्द सुन लिए थे। अगले दिन हमने अपने नये किराये के मकान की तीसरी मंज़िल पर सामान टिका दिया।

साढ़े चार वर्षों में किराये का यह छठा मकान था और बड़ी लड़की का छठा स्कूल। हर नये स्कूल में पैसे की लूट। मेरे घरवाले संदेशे भेजते, “बच्चे लेकर एक ओर हो गया। मन में आता है तो दो, चार महीने में पाँच, सात सौ भेज देता है, नहीं तो अल्ला, अल्ला, खैर सल्ला!”

मन में उबाल, सा उठता कि अपने इन हालात का दोष किसके सिर धरूँ। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? सोचता- ये सोच की लड़ियाँ कहीं मुझे पढ़ाई, लिखाई से दूर न कर दें। मेरी कविता को मान्यता मिल रही है। कुछ पुरस्कार और सम्मान हासिल हो रहे हैं। इससे मोहभंग नहीं होना चाहिए। इन विचारों और दूसरे घरेलू हालात की पड़ताल करते हुए मैं हिन्दी, अंग्रेज़ी से पंजाबी में अनुवाद के काम को अधिक शिद्दत से करने लगा। मैं मेज, कुर्सी पर पहली बार लिखने, पढ़ने लगा, नहीं तो अब तक इसकी कमी के कारण बैड पर पालथी मारकर ही काम करता रहा था, जिससे कमर और टाँगें दुखने लगती थ।

‘लज्जा’ का आरसी पब्लिशर्ज और ‘एडविना और नेहरू’ का अनुवाद नवयुग पब्लिशर्ज के लिए किया। भापा प्रीतम सिंह जी के चांदनी चौक वाले दफ़्तर का मुझे अकस्मात् स्मरण हो आया, जिनके यहाँ जाते समय लाल किले के सामने भुखमरी के शिकार बच्चों और बड़ों को लोगों की जूठी कूड़े के तौर पर फेंकी पत्तलें चाटते कई बार देखा था। फुटपाथ पर बिना छत के उनके ‘घर’ और उनके नंगे पैरों और गंदे कपड़ों को देखकर मैं कांप गया था।

मुझे इन खयालों ने काफी ऊर्जा दी कि ज़िन्दगी का संघर्ष हर जगह है। टाँगें पसारने के लिए मुझे अपनी चादर बड़ी करने हेतु जी, जान से यत्न करने चाहिएँ। खयाल आता- बेगाने घर में किरायेदारी एक लानत है, अपमान और हेठी करवाने जैसी है और इससे छुटकारा पाने के लिए मैं ऊँचे कंगूरों वाले चौबारों के बराबर होने के लिए प्रयास करने लगा।

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