छांग्या-रुक्ख (रचनाकार - सुभाष नीरव)
भूख प्यास न पूछे जातधुँध के बादल दौड़, दौड़कर सूरज को चारों ओर से घेर रहे थे। दोपहर होने वाली थी पर उनके छँटने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। ठंडी बर्फ़ सी हवा के कारण स्कूल के बहुत से बच्चे अभी भी ठिठुर रहे थे। आधी छुट्टी से पहले बजी घंटी सुनकर सभी हक्के-बक्के रह गए। किसी ने कुछ अंदाज़ा लगाया, किसी ने कुछ। मेरे मन में आया कि मोहन लाल अवश्य अपनी ड़ाक-थैली में ऐसी कोई ख़बर लेकर आया होगा जिसके कारण बेवक्त छुट्टी की घंटी बजी है।
पाँचों कक्षाओं के विद्यार्थी पंक्तियाँ बनाकर बैठ गए, मानो सुबह की प्रार्थना सभा जुड़ी हो। हैडमास्टर चेतराम शर्मा हमसे मुखातिब हुए, “बड़े दुःख से बताना पड़ रहा है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का कल (१० जनवरी १९६६) ताशकन्द में हिन्द-पाक समझौते के कुछ देर बाद निधन हो गया है।”
विद्यार्थियों, अध्यापकों के चेहरों पर इस सूचना ने मानो ठंडी धुँध की एक और परत चढ़ा दी हो। वे बेहरकत खड़े बुत के समान लग रहे थे।
हैडमास्टर जी बताने लगे, “जैसा कि तुम्हें पता ही है कि शास्त्री जी बहुत गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वह एक बरस के थे कि उनके पिताजी का देहान्त हो गया। वाराणसी में पढ़ने जाने के लिए कई बार गंगा नदी तैरकर पार करनी पड़ती थी क्योंकि उनके पास नाव से दूसरे किनारे तक जाने के लिए भाड़ा नहीं होता था। वह बहुत गम्भीर और बड़े परिश्रमी स्वभाव के विद्यार्थी थे। उन्होंने चढ़ती जवानी में देश की आज़ादी में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। अहिंसा में यकीन रखने और सादा जीवन व्यतीत करने वाले इन्सान थे। वह कई महकमों के वज़ीर रहे। छोटे कद के शास्त्री जी को उनकी बड़ी उपलब्धियों के कारण हमेशा याद रखा जाएगा। अब मैं उनका दिया हुआ नारा तीन बार दोहराऊँगा, तुम सब पीछे-पीछे जोश के साथ बोलना- जय जवान, जय किसान....श्री लाल बहादुर शास्त्री अमर रहें!”
उपस्थित विद्यार्थियों सहित मास्टर जी और बहन जी ने एक स्वर में ऊँची आवाज़ में नारे लगाते हुए अपने दायें हाथ की मुट्ठी को हवा में ऊपर उठाया। फिर हैडमास्टर जी ने सलाह जैसा हुक्म सुनाया, “अब हम दो मिनट का मौन रखेंगे।”
सभी गर्दन झुकाकर शान्त खड़े थे, ख़ामोशी पसरी हुई थी। मास्टर राम किशन जी के ‘विश्राम’ कहने के बाद हैड मास्टर शर्मा ने दिवंगत प्रधानमंत्री के शोक के लिए दो दिन की छुट्टी की घोषणा की। भरा हुआ स्कूल पल भर में खाली हो गया। विद्यार्थी बस्ते-तख्तियाँ उठाये यूँ दौड़ते जा रहे थे जैसे जेल से छूटे कैदी दौड़ते हैं, जैसे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन पर हुई छुट्टी के समय खुशियाँ मनाते दौड़े थे।
ख़ैर, मैं अकेला चलता रहा। शास्त्री जी के पास पैसे न होने के कारण नाव से नदी न पार कर सकने की हक़ीकत ने मुझे बेचैन और परेशान कर दिया। सोचा- क्या हुआ जो संग पढ़ते लड़के जात का ताना मारते हैं, शास्त्री कौन-सा ब्राह्मण था। क्या हुआ अगर मेरे पास और कपड़े नहीं हैं, मेरे साथ मेरा बापू है, शास्त्री के पास तो वह भी नहीं था। अगर शास्त्री अपनी गरीबी में मेहनत और दृढ़-निश्चय के बल पर यहाँ तक पहुँच सकता है तो मुझे पूरी हिम्मत से पढ़ना-लिखना चाहिए।
घर की दहलीज़ पार करते ही मेरे विचारों की मालगाड़ी वहीं की वहीं रुक गई। दो, तीन दिन पहले मिलने के लिए आई मेरी बुआ करमी रो रही थी। उसकी सुर्ख आँखों से लगता था कि वह बहुत देर से आँसू बहाती रही होगी। मेरी माँ और दादी उसके करीब बैठी थीं। बुआ दुपट्टे से आँखें पोंछती हुई बोली, “रब वो दिन किसी वैरी को न दिखाए, माँ के सामने उनके सरू के बूटे जैसे बेटे ार दिए, बेटी-बहनों के स्तन काट दिए गए। लोगों ने अपने हाथों से बेटियों को काटकर कुँओं में फेंक दिया, बहुतों को जहर दे दिया।”
बुआ ने फिर आँखें पोंछी और बताने लगी, “हमारे काफ़िले के कई बंदे राह में मर-खप गए। लाशों के देखे हुए ढेर जब रात में आँखों के सामने आते हैं, तो अभी भी आँखों की नींद उड़ जाती है। पता नहीं बसते, रसते लोगों का लहू दिनों में ही कैसे पानी बन गया जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था। मरजाणा, न पाकस्तान बनता, न लोगों की ऐसी दुर्दशा होती।”
बुआ की बातें सुनकर मेरी माँ ज़ारज़ार रोने लगी और मेरी हिचकियाँ बँध गईं। मुझे लगा कि बुआ के मन पर लगे ज़ख़्म अभी हरे थे। यह दुःख जब उसे याद आता है तो वह सुबकने लग पड़ती है।
माँ ने मुझे अपनी बाँहों में ले लिया और बुआ को दिलासा देते हुए बोली, “बीबी, किसी के बस की बात नहीं। जो किस्मत में लिखा है, वो होकर रहता है।”
“जब भी आती है, यही दुखड़ा लेकर बैठ जाती है। तू शुक्र मना कि तेरा सारा टब्बर सही सलामत पहुँच गया।” दादी ने अपनी चुप तोड़ी।
“मैं रोती हूँ कि हिन्दस्तान, पाकस्तान बन गया, अपने घर राजी, खुशी रहें। लोगों को चैन से बसने दें। एक, दूजे से बदला लेते हैं लड़ाई छेड़कर। पता नहीं कितनी माँओं के बेटे इस जंग की बलि चढ़ गए होंगे। मैं दिनरात दुआएँ करती रही कि मेरा भाई, भतीजा (मेरा ताया दीवान चन्द और बड़े ताये का बेटा मोहन लाल) राजी, खुशी घर लौट आएँ। रब का शुक्र कि लड़ाई (सितम्बर १९६५ की जंग) बन्द हो गई।” बुआ की आँखों से टप, टप बहता पानी पता नहीं कहाँ से आ रहा था। उसकी भारी हो गई आवाज़ के कारण मेरा मन एक बार फिर भर उठा।
इसी दौरान बापू ने थोड़ा झुककर दालान के दरवाज़े में से निकलते हुए आटे का बोरा दोनों हाथों में पकड़कर नीचे रखा, जो राशन कार्ड पर भोगपुर से मिला था।
उसने गट,गट करके लस्सी पीने के बाद खाली गिलास माँ को थमाते हुए कहा, “मर जाना है दुनिया ने लड़, भिड़कर, कुछ हमलों (१९४७ में भारत, पाक विभाजन) में मर गए, कुछ प्लेग से मर गए, कुछ इस लड़ाई में मर गए और बचे, खुचे पर साल पड़े सूखे के कारण भूख से मर जाएँगे। कुँओं के तले सूख गए हैं। फसलों ने क्या झाड़ देना है!”
घर में बैठे हुए मेरी निगाहें नबिए अराईं के आम वाले कुएँ के अन्दर उतर गई जिसका निथरा हुआ पानी और गोल चक पर की गई भिन्न और चौड़ी चिनाई मुझे दिखाई देने लगी। कम गहरे पानी के अन्दर-बाहर कुछ सूखी टहनियाँ किसी आदमी के पिंजर जैसी लगती थीं जो सेकेण्डों में ही मेरे मन में कल्पित नबिए की याद में बदल गईं।
बापू ने हम सबकी ओर देखते हुए फिर कहा, “शहर में अखबारें पढ़ते लोग बताते थे कि हालात बंगाल के अकाल (१९४३) जैसे बनते जा रहे हैं। उस वक्त परिवार के परिवार मर गए थे, घर के घर खाली हो गए थे। लोगों ने दस-दस किलो आटे के बदले अपने बच्चे बेच दिए थे और अपनी बेटियों की कीमत लगाई थी। बहन, बेटियाँ घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गईं। कई तो शहरों में धंधा करने लग पड़ीं। थोड़ी, बहुत पंजाब आ गईं। ये भाई बलबीर लंगड़ा (हमारे घर के पीछे रहता एक परिवार) नई बंगालिन लाया...।”
बापू की आगे की बात शायद मुझे सुनाई नहीं दी थी। मेरे मन के शीशे पर एक तस्वीर उभरी- ‘भाई राणी’ की, जिसमें वह ताई आतो के कोठे की छत के ऊपर से, नीचे आँगन में झाँककर उससे बातें कर रही थी। वह पक्के रंग की मजबूत और गठीले बदन की ऊँची, लम्बी जवान औरत थी जो एक से एक नया कपड़ा पहनती और सुर्खी,बिन्दी लगाकर रखती। जब वह थोड़ा हिन्दी लहजे में पंजाबी बोलती या हँस, हँसकर बातें करती तो उसके सेद दाँों की मोतियों जैसी पंक्ति आकर्षक लगती। मेरे मन पर से भाई राणी का अक्स उस समय ओझल हुआ, जब बाहर वाले दरवाज़े में से मर्दाना और जनाना आवाज़ सुनाई दी।
मैंने बाहर की ओर झाँका। मेरी माँ, बुआ और दादी के चेहरों के रंग उड़े हुए थे, मानो घर में कोई ताज़ा दुःखद घटना घटी हो। माहौल की गहरी ख़ामोशी से कोई पराया आदमी अंदाज़ा लगा सकता था कि घर में कोई नहीं रहता। बुआ बायें घुटने पर बायीं कुहनी टिकाकर सिर को हाथ का सहारा देकर बैठी सचमुच कोई स्थिर मूर्ति या चित्र प्रतीत होती थी।
पल भर रुककर मैं उस वक्त फुर्ती से बाहर वाले दरवाज़े की ओर बढ़ा, जब याचना भरी आवाज़ पुनः मेरे कानों में पड़ी। एक जवान आदमी ने बूटियों वाली पगड़ी के ढीले से आड़े-तिरछे लपेटे मार रखे थे। बदन पर सफेद कुर्ता और कमर में धोती बाँधी हुई थी। उसकी घरवाली सुन्दर थी और उसका चेहरा लाली लिए हुए था। उसने बहुरंगी साड़ी पहन रखी थी और ऊपर से गरम शॉल ओढ़ रखा था। कमर में चाँदी की तगड़ी थी। बाँहों और पैरों में चाँदी के मोटे कड़े, छल्ले और कंगन थे। उनकी हल्के पीले रंग की देसी जूतियाँ खूबसूरत लग रही थीं। उन दोनों ने एक, एक बच्चा अपनी, अपनी छाती से लगा रखा था।
यह सब देखकर मेरी माँ आ गई। वे दोनों याचना करने लगे, “बीबी, दो, दो रोटियाँ दे दे या दो मुट्ठी आटा दे दे, हम और हमारे ये बच्चे भूखे हैं। सूखा पड़ रहा है, फसल नहीं हो रही। हम माँगने वाले नहीं हैं। बस, दो रोटियाँ या....।”
इस अजनबी जोड़े की मिन्नत, समाजत देखकर मुझे दया आ गई। छोटे बच्चे ने अपनी माँ की बुक्कल में से हमारी ओर अजनबी नज़रों से देखा और फिर माँ के कंधे से सिर टिका लिया।
हम माँ, बेटे को दालान के अन्दर प्रवेश करते देखकर बापू ने पहले की तरह कहा, “देखो, जोरावर और इज़्ज़तदार राजपूतों को भूख ने कैसे मोहताज बना दिया है! इन्हें हमारी बस्ती-मुहल्ले का पता भी है। इन्होंने हमें कभी अपने पास बैठने नहीं दिया। हम गंगा नगर गेहूँ-चने काटने जाते थे, प्यास लगने पर जब हम इन्हें पानी पिलाने के लिए कहते तो ये पहले हमसे हमारी जात पूछते। अब हमारे दर पर माँगते घूम रहे हैं। भला कोई पूछे कि अब तुम्हारी अकड़, अंहकार और वो दबदबा कहाँ गया? कहते हैं कि भूख, मुसीबत के समय किसी ने अपनी माँ के यार को भी बाप बना लिया था।”
हुक्के के दो-तीन तेज़, तेज़ कश भरने के बाद वह फिर कहने लगा, “हमारी बात समझने का किसी के पास टैम ही नहीं कि जात-पात का सारा ताना-बाना रब ने नहीं, आदमी ने अपने स्वार्थ के लिए घड़ा हुआ है।”
बापू की ओर से लगातार की गई इन बातों को घर के सदस्यों ने ध्यानपूर्वक तो सुना, पर भरपूर हामी किसी ने नहीं भरी। माँ ने मेरी नवजन्मी बहन को दूध पिलाने और सो जाने पर उसे बिस्तर पर लिटाने के बाद कहा, “बात यहाँ खत्म होती है कि लिखे के आगे किसी का ज़ोर नहीं चलता। देखो, अकाल ने कइयों को राजा से रंक बना दिया।”
बुआ ने सिर हिलाकर माँ की बात का समर्थन किया और दादी ने पाँव में जूती डालकर हाथ में सोटी पकड़ ली।
“इसे दूसरों की चिंता है, अपनी नहीं। हम रोज़ फाके काटते हैं, हम पर किसी को दया नहीं आती कि बच्चे बिलखते हैं, मन भर अन्न दे दें, हिसाब आगे, पीछे हो जाएगा। बुरे समय में की गई नेकी को कोई कहाँ भूलता है? कहते हैं- रब का भाणा... साला रब... निरा बखेड़ा! अगर हो तो हमारी फरियाद न सुने? ऐसे ज़ालिम से तो दूर ही भले।” बापू ने मन की भड़ास निकालते हुए अपना दो टूक फैसला सुनाया।
माँ को अकस्मात जैसे कुछ याद आ गया था। उसने मुझे अपनी ओर आने का इशारा किया। फिर उसने सिल्वर की बाल्टी की ओर देखते हुए कहा, “मंतरियों के यहाँ से मैल की बाल्टी भरवा ला, इसकी तो बातें खत्म नहीं होने वाी।”
ऊपर तक भरी बाल्टी लाते समय, जब मैं बाल्टी को दूसरे हाथ में लेने लगा तो मेरे दायें पैर पर गरम मैल छलककर गिर गई। छोटे, छोटे छाले अक्सर ही पड़ते रहते थे। मन अफसोस के गहरे पानियों में डूबता, तैरता रहता, दुःखी होता, शर्मिन्दगी का अहसास उस समय अधिक तीखा और तेज़ हो जाता जब जट्टों के जमाती लड़के कभी सहज रूप से तो कभी तल्ख़ होकर फ़िकरे कसते, “मैल पीने के कारण तुम्हारे रंग मैल जैसे हो गए हैं। मैली पीणी जात फिर भी सांड की तरह अकड़ती फिरती है...इस साल अच्छा दाँव लगा होगा माँस खाने को....बहुत कट्टे, बछड़े मरते हैं इस सूखी ठंड में...क्यों गुड्ड?”
मैं खीझ उठता। मन जलभुनकर रह जाता जैसे आलू की बेलों या छोटे नरम पौधों को पाला मार जाता है। मन में आता कि कहने वाले का सिर-माथा ईंट, पत्थर मारकर फोड़ दूँ और कहूँ- “हमारी मजबूरी है, कोई शौक तो नहीं? तुमको हमारी भूख का क्या दुख! तुम तो खा, खाकर फटने को फिरते हो और हमारे पेट धँसते जाते हैं, कमज़ोर बैलों की तरह।”
मन में उठे ख़्यालों की लड़ी स्कूल के रहट के चक्कर की तरह खत्म होने में नहीं आ रही थी। सोचता- बस, थोड़ा समय रह गया गाँव में जात के ताने सुनने और झेलने को! जब गीगनवाल स्कूल में पढ़ने लगूँगा तब न कोई मैल पीने और मरे पशुओं के माँस के बारे में ताने मारेगा और न ही रास्तों में से ‘बालण’ के लिए घास, फूस इकट्ठा करते देखेगा।
जब मुझे हैडमास्टर चेतराम शर्मा की ओर से शास्त्री जी की ज़िंदगी के बारे में बताई गई तल्ख़ हक़ीकतों की याद आई तो मेरा हौसला और अधिक बुलन्द हो गया। साथ ही याद हो आई बापू की वह बात कि जहमत, भूख, प्यास न पूछे जात, इन अभावों, तंगियों के कारण हमारे लोग सिर झुकाकर जीते हैं, मैं तो चाहता हूँ, कल हमारी औलाद अपने पैरों पर खड़ी हो, गर्दन उठाकर स्वाभिमान से चले, चार हाथ ज़मीन खरीदे या सरकार से लड़भिड़कर ले।
बापू की इन ख्वाहिशों पर ख़रा उतरने के लिए मैं निरंतर छटपटाता रहता। मुझे लगता कि दिन-ब-दिन मेरी राह रोशन होती जा रही है जिसके कारण मन ही मन मैं अम्बर से तारे तोड़ने के मन्सूबे बाँधते न थकता।
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- मेरी जन्मभूमि–माधोपुर
- कोरे काग़ज़ की गहरी लिखत
- तिड़के शीशे की व्यथा
- थूहरों पर उगे फूल
- कँटीली राहों के राही
- बादलों से झाँकता सूरज
- हमारा घर - मुसीबतों का घर
- ब्रह्मा के थोथे चक्रव्यूह
- भूख प्यास न पूछे जात
- बिरादरी का मसला
- बरसात में सूखा
- मेरी दादी - एक इतिहास
- हमारा, चमारों का बरगद
- रेगिस्तान में बहा दरिया
- अपने नाम से नफ़रत
- साहित्य और राजनीति के संग-संग
- दिल्ली के लिए रवानगी
- ज़िन्दगी और मौत के बीच
- मानववादी थप्पड़
- किरायेदारी की लानत