छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

थूहरों पर उगे फूल

 “किस निखसमी का है? ठहर तो जरा, चीर के दो फाड़ करूँ।" घर के सामने बरगद-पीपल के नीचे बैठी मेरी दादी आसमानी बिजली की तरह अचानक कड़की। मामला जानने के लिए हमारे कान खड़े हो गए।

“आज पता नहीं किससे भिड़ पड़ी है।" मेरी माँ ने दालान के अन्दर से उठते हुए कहा।  मैं भी मेमने की तरह उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। दादी के निकट जाकर उसने पूछा, “क्या हुआ माँ ?"

“कंजरों की औलाद, जब भी गुजरता है, फब्ती कसके दौड़ जाता है, मेरे बाप का साला! गाँव भर में मेरी उम्र का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग है क्या?  इस मरजाणे को शरम नहीं आती मसखरी करते हुए ।" दादी दुहाई देती हुई जैसे जायज़-नाजायज़ का फ़ैसला कराना चाहती हो।

“कौन था, पता तो चले ?”  माँ ने फिर पूछा।

“मुझसे कौन-सा पहचाना गया कुलबोरनी का! फुड़की पैणे (मर जाने) की जलती जबान ही पहचानती हूँ। जबान खींच लूँगी किसी दिन, हाथ आ जाए एक बार।" दादी के पोपले मुँह के अन्दर जीभ ही हिलती दिखाई देती और आँखें सिकुड़ी हुईं। उसके सिर के चाँदी रँगे बालों की दो लटें कनपटियों पर लटक रही थीं। ऐसा लगता था कि वह सचमुच उस फुड़की पैणे को ढूँढकर कच्चा चबा जाएगी।

दादी ऊँची आवाज़ में बोलती हुई आहिस्ता-आहिस्ता घर के पास से गाँव की भीतरी गली का मोड़ पार कर गई। मैंने सोचा कि उससे पूछूँ कि वह किसके घर उलाहना देने जा रही है?  पर मैं डर के मारे चुप रहा। लेकिन, यह भी साबित हो चुका था कि उसके हाथ के मोटे सोटे और मज़बूत इरादे ने उसकी कमज़ोर निगाह के बावजूद उसकी टाँगों और पैरों को कभी लड़खड़ाने नहीं दिया था। जब कभी और जहाँ कहीं उसे अपने या दूसरों पर अन्याय होता दिखाई देता, वह उसके ख़िलाफ़ बीड़ा उठा लेती–हठी, निडर और हौसला-बुलन्द वीरांगना की तरह मैदान आसानी से न छोड़ती।  उम्र के लिहाज़ से वह हाँफ गई लगती, पर हारी नहीं थी।

दादी को उसका ‘शिकार’ न मिला तो वह जल्द ही उल्टे पाँव लौट आई।

ख़ैर, इतने में दादी के इर्दगिर्द मुहल्ले की मेरी चाचियों, ताइयों और बच्चों का जमघट लग गया। मेरी छोटी बहन ने आकर माँ का हाथ पकड़ लिया। नंग-धड़ंग बच्चों ने अपने मुँह मेरी दादी की ओर उठा रखे थे। उनमें से कइयों की काली-लाल तगड़ियाँ ढीली पड़ चुकी थीं और कोई-कोई उनके काले-लाल मनकों को कभी आगे और कभी पीछे कर रहा था।

“बता तो सही, उसने क्या कहा ?” मेरी एक ताई ने उतावली होते हुए पूछा।  मेरी उत्सुकता और बढ़ गई।  सबके चेहरे ही नहीं, नज़रें भी सवालिया निशान बनी हुई थीं। ऐसा लगता था कि अगर मेरी ताइयों को छानबीन के बाद पता चल जाए तो वे ऊधम मचा देंगी।  उसके घर तक जाने से नहीं हिचकेंगी।

दादी का गोरा झुर्रियों से भरा चेहरा पूरी तरह लाल हो चुका था। उसने अपने सिर का पल्लू सँवारते हुए बताया, “डुब जाणा...जाते-जाते बकता था– तुम्हारी सत्तो के यार, कोई चूहड़ा, कोई चमार। ... मैं कहती हूँ, सत्तो बछेरी होगी तुम्हारी– हराम की औलाद !” साथ ही, दादी ने हाथ में पकड़ा सोटा ज़मीन पर मारा जिससे ‘ठक’की हल्की-सी आवाज़ हुई जो उसके रोष और अणख की गवाही दे रही थी। मुझे लगा कि उसके पास गालियों के नुकीले तीरों का असीमित भण्डार है। ‘शिकार’बेशक आँख से ओझल हो चुका था, पर क्रोध में लाल-पीली होती दादी लगातार तीर छोड़े जा रही थी।  उसकी दलीलों की अहमियत अपनी जगह थी।

दादी का शोर-शराबा सुनकर पास के घरों से ताई तारो और उसकी बड़ी बहन प्रगाशो जो एक ही परिवार में ब्याही गई जट्टियाँ थीं, हमारे करीब आ खड़ी हुईं। आते ही ताई तारो ने पूछा, “हरो, ऐसी भी क्या बात हो गई जो सींगों पर इतनी मिट्टी उठा रखी है।"

यह सुनते ही मेरी सारी सोच मकड़जाल बुनने लगी। ताई तारो और दूसरी जट्टियाँ सौ की आयु को छूती मेरी दादी को उसका नाम लेकर पुकारती हैं। मेरे संग पढ़ने वाले लड़के हमारी बिरादरी के लोगों को उनका नाम लेकर बात करते हैं और जवाब में वे उन्हें ‘सरदार जी ’ कहते हैं।  हम गाँव के सभी लोगों को चाची, ताई, चाचा, ताया(ताऊ), बाबा कहकर पुकारते हैं और ये बगैर किसी संकोच के सीधे ही नाम ले लेते हैं।  फिर ख़याल आया कि इस सबके पीछे शायद जाति और ज़मीन का अंहकार बोलता है। मेरी यह विचार-तन्द्रा उस समय टूटी जब दादी पुन: बड़बड़ाने लगी और मुझे लगा जैसे मैं शून्य में से ठोस ज़मीन पर आ गिरा होऊँ।  अब मेरी आँखें देखने और कान सुनने लगे थे।  घट चुकी घटना के प्रति दादी का रोष-प्रदर्शन लोग पूरी तल्लीनता से देख-सुन रहे थे।

“तुझ मक्कार को हर वक्त ठिठोली ही सूझती रहती है।  सोचे-सुने बिना आकर लुतर-लुतर करने बैठ गई है।" दादी ने इतना कहकर जैसे ताई की बोलती बन्द कर दी हो। ताई के भी क्या कहने कि वह दादी का रौब सह लेती थी और उसके सामने कभी अकड़ कर नहीं बोलती थी।  इस बार भी वह चुप रही और बात को आई-गई कर दिया, पर बाकी औरतें मुस्करा पड़ी थीं। हम सारे बच्चे खामोश खड़े थे ।

इतने में फुम्मण हवा के झोंके-सा पता नहीं किधर से आ गया और अपनी आदत के मुताबिक ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा, “एक बार दाढ़ तले आ गया तो कचूमर निकाल दूँगा, इस उल्लू के पट्ठे को फब्ती कसने की आदत है।"

“ओह हो ! पता तो चले भई कौन था?”  ताई तारो ने फिर पूछा।

“तुम्हें जैसे पता नहीं? पहले आग लगा दी, फिर डब्बू गोयरा चले। कभी कहीं कुछ कानाफूसी कर गया, कभी कहीं झगड़े की जड़ छोड़ गया। चार खेत क्या हो गए, चाँद पर थूकने से बाज नहीं आते।" फुम्मण ने क्रोध में दाँत पीसते हुए कहा।  मेरे निर्जीव-से पड़े शरीर में जैसे नये सिरे से ताकत आ गई और हाथ फुर्ती से दादी का सोटा पकड़ने को आतुर हो उठे। मेरा शरीर काँपकर रह गया। पल भर बाद मैं किसी भोले-से लड़के की भाँति दादी के पास खड़ा था। लेकिन, मुझे लगा जैसे ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से मेरा वास्ता शुरू हो चुका है।

“उस दिन की बात भूल गए? जब ‘बाबों’के भगते को घर में घुसाकर आये थे। उस वक्त चें-चें करने बैठ गए थे सारे।" दादी ने एक पिछला वाकया याद किया और कराया।

“क्या हुआ था तब?” मैंने दादी के गुस्से के दौरान डरते-डरते उसका हाथ पकड़कर पूछा।

“यहीं खड्डियों में आकर भगते ने जागर चौकीदार को धौंस देकर कहा कि मेरे साथ पट्ठे कुतरवा। वह जवाब में बोला कि मेरे पास फ़ुर्सत नहीं।  बस, इस बात पर भगते ने उसके सोटे मार दिए।"  दादी ने अपना पकड़ा हुआ हाथ झटके से मुझसे छुड़ाकर पीछे हटा लिया।

      “हैं ! फिर ?” मैंने तुरन्त पूछा।

“फिर क्या? सारी चमारली पीछे पड़ गई।  उस दिन के बाद भगते ने दोबारा इस मुहल्ले में आकर न ऐसी हरकत की और न ही आँख उठाई।... ऐसे ही जबरदस्ती बेगार कराने ले जाते रहते हैं !”  दादी ने दूसरों की और मेरी हैरानी भरी आँखों की ओर देखते हुए बताया। और इसी के साथ मेरी सोच की सुई बेगारी, ऊँच-नीच, छुआछूत के विचारों आकर फँसी रह गई, ठीक वैसे ही जैसे नम्बरदारों के दास की मिन्दो के विवाह पर सुई अटक गई थी ‘लक्क हिल्ले मजाजण जांदी दा’ वाले तवे पर और बार-बार इतना-सा मुखड़ा ‘लक्क हिल्ले’ ‘लक्क हिल्ले’ ही सुनाई देता रहा था। सुई उठा लेने की तरह जब मैं अपने-आप में लौटा तो अहसास हुआ कि इस नये-नये चले तवे पर सुई रुक सकती है तो इन ख़यालों का बार-बार मेरे मन में आना भी स्वाभाविक ही है।  दादी, बापू, ताया और सारी बिरादरी नित्य यही बातें करते हैं। मुझे एकदम सूझा कि इस अय बोझ से छुटकारा पाने के लिए दिन-रात एक कर दूँ । सहज ही, यह ख़याल भी आया कि नया सुनने-समझने के लिए सुई आगे चलनी चाहिए।

मेरी माँ ने फिर कहा,  “चल दफा कर माँ ! बहुत दादे दाढ़ी हग लिया तू भी!”

“माँ, रोटी खा तू ! मैं लेता हूँ खबर इस ठिंगू की जो बिफरा फिरता है।"  फुम्मण दादी को बाँह से पकड़कर हमारे घर की ओर लाते हुए कहने लगा, “जो भी उठता है, पहले जात का ताना मारता है, ढाई-ढाई किल्ले ज़मीन हिस्से नहीं आती, बने फिरते हैं बड़े लाटीकान...।"  

“फुम्मण, क्यों शोर मचा रहा है?  साँप निकल गया, लकीर पर लाठी मारकर क्या मिलेगा?”  ताई तारो ने समझाते हुए कहा।

“कहता था- तुम्हारी सत्तो के यार, कोई चूहड़ा, कोई चमार। तुम्हारी-हमारी लड़कियों में कोई फर्क है?... और चाची तू ही बता, तब तो कुएँ का पानी भ्रष्ट नहीं हुआ था जब मेरे बापू ने कपड़ों समेत कुएँ में कूदकर धन्नी सुनारिन की बेटी को बाहर निकाला था।" फुम्मण क्रोध में हलफि़या बयान दिए जा रहा था। उसके मस्तक का पसीना बूँदों का रूप धारण करके उसके कुर्ते और ज़मीन पर गिरने लगा था।

यह सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। धन्नी की छोटी बेटी मुझे कुएँ में गोते खाती और जान बचाने के लिए हाथ-पैर मारती दिखाई दी और फिर दिखाई दिया मेरा सबसे बड़ा ताया, उसे बचाते हुए। यह सोचते ही मुझे हल्का-सा पसीना आ गया। दिल की धड़कन कुछ पलों के लिए रुक गई-सी लगी। अन्त में, मैंने एक गहरी साँस ली और साथ ही, इस सोच की लड़ी टूट गई।

दरअसल, गाँव की एक बेटी ‘वलियों’ के कुएँ पर पानी से भरे भारी डोल को खींचते हुए खुद ही कुएँ में खिंचती चली गई थी, क्योंकि कसकर पकड़ी रस्सी को छोड़ने का उसे मौका ही नहीं मिला था।  उधर करीब ही गोरे जोहड़ के पास से गुज़र रहे मेरे ताये प्रतापे ने यह सब कुछ देख लिया था। उसने आगा देखा न पीछा, कुएँ में छलाँग लगा दी और लड़की को जिंदा बचा लिया।

इसी दौरान दादी ने अभी बाहर वाले दरवाज़े की देहरी ही पार की थी कि शंख की आवाज़ सुनाई दी।  मैं आसपास झाँकने लगा ।

“लगता है ‘घोड़ों’के बूढ़े का भोग पड़ गया।" ताई तारो ने सरसरी तौर पर दूसरों को सुनाते हुए कहा। वे दोनों बहनें हमारे घर की गली के मोड़ पर अभी भी खड़ी थीं।

“वो भी पड़ गया होगा, पर शंख तो इधर बोलता है। वो देखो, ‘नांगों’ के घर के पास राम-गउओं वाले शंख बजाते आ रहे हैं।" ताई प्रगाशो ने अपना मुँह दक्खिन की ओर घुमाकर दायें हाथ को आगे की ओर फ़ैलाकर बताया।

मैं और दूसरे बच्चे उछलते-कूदते गायों की ओर दौड़ पड़े जिनके सींग आगे से बहुत ही पतले और लम्बे थे, और नीचे तक चमक रहे थे। बिलकुल संगमरमर की तरह ! कई गायों के सींगों के सिरों पर पीतल की फूलदार पत्तियाँ चढ़ाई हुई थीं।  धीरे-धीरे यह झुंड हमारे घरों की ओर बढ़ता चला आ रहा था। ऐसी निराली गायें साल में दो-तीन बार ही देखने में आतीं। पच्चीस-तीस की गिनती तक की इन गायों के रंग सफ़ेद होते।  किसी-किसी का रंग लाखा या काला होता जिसे वे कपिला गऊ कहते। लोग गायों के इस समूह के सामने बाजरे-चरी के सूखे या हरे डंठलों का ढेर डालते या फिर पूरी की पूरी पूलियाँ लाकर रख देते। वे पत्ते खातीं और मकई-बाजरे के डंठलों को छोड़ कर फिर दूसरी जगह मुँह मारने लगतीं। छोटे बछिया-बछड़े अपनी माँओं के थनों में अपना मुँह मारते। कई दूध पी लेने देतीं और कई कूदती-फाँदती आगे बढ़ जातीं। यह ताा देखकर मेरा मन खुशी भरा दरय बनकर बहने लगता।  मैं उत्साहित होकर गायों.बछियों के बारे में अपनी होशियारी बताने की रौ में अपने घर की ओर बढ़ा।

इतने में बापू ने पट्ठों की एक गठरी आँगन के एक कोने में फेंकी जिससे धूल का एक हल्का-सा बादलनुमा गुबार हवा में फैल गया। मैं दौड़कर घर से गउओं-बछड़ों के लिए नये, ताज़े और हरे पट्ठे (चारा) लेने गया। बापू का कुर्ता पसीने से भीगा हुआ था और वह सिर पर से अँगोछा उतारकर मुँह और गर्दन पोंछ रहा था।  मैं गठरी की ओर बढ़ा। बापू मुझे उखड़ी कुल्हाड़ी की तरह पड़ा, “खबरदार जो पट्ठों को हाथ लगाया तो...इस निठल्ले टोले ने तो धंधा ही बना रखा है, बाल चुपड़ लिए, माथे पर गेरुए रंग की खड़ी और पड़ी तीन लकीरें खींच लीं और चल पड़े जालंधर की गऊशाला से गायों का झुंड लेकर।  कोई पूछने वाला भी है कि क्या राम गायें चराता था? उम्र तो उसने जंगलों में गला दी और अन्त में औरत की खातिर लड़ता-भिड़ता रहा।"

“बस, दो मुट्ठी उस गाय को डालूँगा जिसके पुट्ठे पर पाँचवी टाँग लगी हुई है।" मैंने बापू के सामने मिन्नत की और साथ ही, उस टाँग को निहारता रहा जो गाय की पीठ पर कभी इधर तो कभी उधर लटक जाती थी।

“इन लोगों ने तो ढोंग रचा रखा है, माँगने-खाने को। अगर ये राम की गायें हैं, तो फिर उसने किसी पर जीभ जैसा लटकता माँस या पाँचवीं टाँग क्यों लगा रखी है?  बताये तो कोई?” बापू मानो कोई बहुत बड़ा रहस्य पेश कर रहा था जिसमें से एक चुनौती भरा सवाल झलकता था।

“सारा मुल्क गाय को माँ की तरह पूजता है और तू इस बालक को उल्टे पहाड़े पढ़ाने बैठा है।" माँ ने दालान में आते ही आटे सने हाथ झाड़ते हुए कहा।  मुझे लगा, आटा सानती माँ ने हमारी सारी बातें सुन ली थीं।

“तू क्या जाने इनकी चोर-चालाकियों को! लाहौरी राम बाली ने भोगपुर-आदमपुर के जलसों में बताया था कि सारे बामण पहले गउओं-बछियों का माँस खाया करते थे। कहते थे कि हिन्दुओं के ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि श्राद्ध में बामणों को गाय का माँस खिलाने से ज्यादा पुण्य मिलता है।" बापू सुनी हुई बातों को सुनाते हुए किसी ज्ञानी से कम नहीं लगता था। उसने थोड़ा हँसकर फिर कहा, “और सुन, कहते थे कि ग्रन्थों में यह लिखा हुआ है कि श्राद्ध में जो आदमी माँस नहीं खाता, वो मरने के बाद इक्कीस जन्मों तक पशु बनता रहता है।"

“तेरी तो अक्ल मारी गई है, कहीं लड़कों की बुद्धि न भ्रष्ट कर देना ! गऊ का दूध तो नियामत है, छत्तीस पदारथ बनते हैं इससे। इसी वजह से तो निहंग टाँडा मंडी में गायों के रस्से काटकर उन्हें भगा देते हैं कि कहीं बुच्चड़ खरीदकर न ले जाएँ।" माँ ने थोड़ा गुस्से में आकर फिर कहा, “क्यों अनर्थ कर रहा है?  पुण्य-पाप से ही ज़मीन-आसमान खड़े हैं।"

“बामणों को दान करके? इस माँगकर खाने वाली कौम ने कभी हाथ से काम नहीं किया। जिनके सिर पर मौज उड़ाते हैं, उन्हें कभी करीब नहीं फटकने दिया।  मैं कब कहता हूँ कि गायें हमारी माँ नहीं, सारा टब्बर इनके सिर पर पलता है।" बापू लगातार बोले जा रहा था। मैं हैरान था कि बापू को बेशुमार बातों का पता है जो उसके दिल में शूलों की भाँति चुभी हुई हैं। इनके कारण उसका मुँह कई बार उतर जाता है।

“हमसे उन्होंने कभी दान-दक्षिणा माँगी है?  अपनी तरफ से ही किस्से जोड़ता रहता है।"

“हमारे पल्ले क्या है?  जूंएँ? और नहीं तो गायों को पट्ठा-दथ्था(चारा) ही चरा ले जाते हैं।"

“यूँ ही न कुफर तौले जा...।   लड़का जिद्द कर रहा है, दो मुट्ठी चारा गायों को डाल देगा तो क्या फर्क पड़ जाएगा?” माँ ने मेरे उतरे हुए मुख की ओर देखते हुए कहा, पर बापू अपनी दलीलबाज़ी से तिल भर भी इधर-उधर नहीं हो रहा था।

“बन्दों को जातियों में बाँट कर कुफ़र ये मक्कार तौलते हैं। भला बन्दों की भी कोई जात होती है। ये पशुओं-पत्थरों को पूजते हैं, हमें इनसे भी गए गुजरे समझते हैं। कहते हैं, परे रहो, भ्रष्ट हो जाएँगे। कोई पूछे कि तुम्हारे क्या हमसे ज्यादा अंग लगे हैं?” बापू का पसीना अभी सूखा नहीं था और न खत्म हुआ था।  उधर, इन बातों से मेरे दिल पर आरी-सी चलने लगी। मन-मस्तिष्क में कई बातें इस तरह समा गईं जैसे गाँव के पश्चिम की ओर टीले की रेत में पानी को जज्ब होते देखा था।

“लगे ही हैं !  गुरदास के यहाँ शीशे में मढ़ाकर रखी मूरतें देख कभी। शिव की चार बांहें, एक माता की चार बांहें, एक की छह बांहें, गणेश के धड़ पर हाथी का सिर है। नरसिंह का भी कुछ है... मैं तो कहती हूँ कि भई, अगर तुझे पता नहीं है तो यूँ ही दूसरे की निन्दा न करा कर।" माँ ने बापू को समझाने के लिए मानो एक और कोशिश की हो।

“बामणों के रचे प्रपंच पर कौन एतबार करता है? कहते हैं– बालमीक ने कुश को तिनकों से पैदा कर दिया, अंजनि के कान में मारी फूँक से हनुमान पैदा हो गया। अष्टभुजी जनानी अभी तक तो धरती पर हुई नहीं। और अगर चार टाँगों वाली जनानी होती तो मैं फिर मानता कि हनुमान जैसे उस वक्त कान में फूँक मारने से पैदा हो गए होंगे। अब तू मुझे बता कि हमारे गुड्ड और बिरजू कैसे जन्मे थे? सो, कुदरत के खिलाफ़ कोई बन्दा काम नहीं कर सकता। आई समझ?”  मुझे लगा कि बापू पट्ठों की गठरी खोलने के साथ-साथ कई रहस्यों भरी अपनी दलीलों की गठरियों की गाँठें भी खोल रहा हो।

“तेरी ये बहस नहीं खत्म होने वाली! हमें और भी बहुत काम हैं।" माँ ने पिंड छुड़ाने के लिए जैसे इस सबसे पल्ला झाड़ने की कोशिश की।   

“और सुन जा, तसल्ली नहीं हुई हो तो...। और इस बदनीयते को भी समझाया कर जो काम से बचता रहता है। इसके बराबर के बच्चे दौड़-दौड़कर काम करते हैं, और यह मामा, फि़रकी की तरह कभी इधर, कभी उधर घूमता रहता है। घोड़े-सा हो गया, पर ज़रा-सा काम नहीं करता। और पाँच-छह महीनों में चौथी में होने वाला है ये बदमाश। बड़ा(मेरा भाई) देख तो तेरे साथ बक्शो के यहाँ गोबर-कूड़ा करवाने जाता है, बालण लाता है, चारे के लिए जाता है। और ये सारा दिन कान लगाकर कभी किसी की बातें सुनता है, कभी किसी की। मैं पूछता हूँ, ये बातों की कमाई खाया करेगा क्या?” बापू अचानक दाँत पीसते हुए, उछलकर मेरे पीछे पड़ गया। पिछले दिनों चढ़ा कुटापा याद करते हुए मैं डर के मारे काँप उठा।   

“अभी फूल जैसा लड़का है, क्यों इसके पीछे पड़ गया। इस नादान के खेलने के दिन हैं, चार दिन खेल ले, फिर हमारी तरह सारी उम्र यही भाड़ झोंकना है।" माँ के इन शब्दों के साथ मेरा तन-मन खुशी में नाचने लगा। 

बापू के चित्त में पता नहीं रहम आया या बेरहमी उपजी, वह मेरी ओर घूरते हुए कहने लगा, “कर ले पुत्त हमारे सिर पर ऐशें, बकरे की माँ कितने दिन खैर मनाती रहेगी ?”

‘ऐशें’शब्द सुनकर मैं हक्का.बक्का रह गया। मेरे नित्य के कामों की सूची, एक झलक की तरह मेरी आँखों के सामने से गुजर गई। मैंने अपने आप को कभी गाँव के किसी कोने में मैल की बाल्टियाँ ढोते हुए, कभी बालण के लिए सूखे पो, गन्ने के छिलके, शीशम के सूखे पो इकट्ठे करते हुए, कभी मक्की बोते बापू और उसके साथियों के लिए लस्सी, चाय-पानी ले जाते हुए, पशुओं को पानी पिलाते और हट्टी-भट्ठी जाते हुए देखा। लेकिन, सोच का यह सिलसिला शंख की फिर से सुनाई दी आवाज़ से भंग हो गया।

मैं खाली हाथ दूसरे बच्चों के साथ गायों के पीछे-पीछे चल पड़ा जो आगे चलकर ढड्डियाँ वाले रास्ते पर हो गई थीं। जाते-जाते वे इन्दर सिंह के चल रहे रहट के चहबच्चे और आड़ में से पानी पीने लगीं।  पर मुझे इन्दर सिंह का मेरी दादी को मेरे फूफा(गुलजारी लाल) के बारे में दिया गया उलाहना अकस्मात याद हो आया। लेकिन, यह याद अधबीच में ही टूट गई क्योंकि उधर ध्यान मुझे लगातार हाँक लगाये जा रहा था। गऊएँ आगे बढ़ गई थीं। मैं तेज़ कदमों से उनके संग जा मिला।  सुच्चा, ध्यान, रामपाल और मैं बारी-बारी से बिजली के नए लगे खम्भों से कान सटाकर कुछ आवाज़ें सुनते और उन आवाज़ों की नकल उतार हम एक-दूजे को बताते– ‘ब मोटर ऊपर चली गई, अब नीचे आ गई।’

इतने में गायें दूर जाते हुए आँखों से ओझल हो गईं और हम घरों की ओर लौट पड़े। मुझे पिछले दिनों खम्भों को गाड़े जाने का नज़ारा खुद-ब-खुद दिखाई-सुनाई देने लगा। बिजली विभाग के पन्द्रह-बीस कर्मचारी जब खम्भे को डाले गए रस्से को हाथों से कसकर पकड़ कर खींचते थे तो उनके बाज़ुओं में मछलियाँ उभरती थीं जो उनकी शारीरिक मज़बूती को प्रकट करती थीं। एक ओर को रस्सा खींचते बहुत से आदमियों के सिर-धड़ आगे की ओर और टाँगें पीछे की ओर तनी हुई थीं।  उनके पंजे मानो ज़मीन में गड़े हुए हों।  धीरे-धीरे खम्भा ऊपर उठता चला गया और उनका ज़ोर ऐड़ियों पर आ गया। धड़ पीछे की ओर और टाँगें आगे की ओर हो गईं।  उनमें से एक बोली बोलता, बाकी पीछे से ‘हइशा, हइशा’ कहते।  कुछ अधूरी, कुछ पूरी बोलियाँ मुझे फिर से सुनाई देने लगीं–

 

विच्च जलंधर माडल टौन          ...  हइशा !

दो दो गुत्तां, लम्बी धौण            ...  हइशा !

टुट्टी मंजी, बाण पुराणा           ...  हइशा !

सौंण नई देंदा बाल नियाणा        ...  हइशा !

सो जा बच्चिया यार दे जाणा      ...  हइशा !

यार बुलावे भज्जी जावे           ...  हइशा !

खसम बुलावे तीड़ीयां पावे          ...  हइशा !

मर वे खसमाँ तेरे नहीं वसणा       ...  हइशा !

तेरी कमाई दा कुछ नहीं डिट्ठा     ...  हइशा !

यार दी खट्टी दे आए बन्द        ...  हइशा !

बन्दां विच्चों बन्द सुनहरी         ...  हइशा !

गोटियां विच्चों गोटा लहरी         ...  हइशा !

 

इन बोलियों के बार-बार सुनाई देने से मेरे चित्त में कल्पित जालंधर शहर का माडल टाऊन दृश्यमान हो उठा। मुझे वहाँ रत्ते, दुर्गे और नम्बरदारों के चौबारों जैसी बड़ी-बड़ी कोठियाँ, महल-चौबारे और उनमें बसते लोग दिखाई दिए। फिर मुझे लगा कि दो चोटियों वाली लड़कियाँ वहाँ रहने वाले लोगों की प्रगतिशील सांस्कृतिक  सोच का संकेत होंगी जैसा कि मैंने अपने गाँव में कम्युनिस्टों के एक जलसे में भाषणों के दौरान सुना था। फिर मेरा ख़याल ‘टुट्टी मंजी(टूटी चारपाई), बाण पुराणा’ से होकर गरीबी-अमीरी, रहन-सहन, पढ़ाई-लिखाई और अनपढ़ता की ओर चला गया और बाद में औरत की ओर। सभी बोलियाँ औरतों के बारे में !  कभी गरीबी औरत में बदलती दिखाई देती तो कभी औरत गरीबी में !  बहुत.सी बातें मेरी समझ में न आतीं ।  मैं सोचता कि बोली के अन्दर का ‘यार’ बहुत मालदार और गाँव के नम्बरदार जैसा होगा और ‘तेरी कमाई दा कुछ नहीं डिट्ठा’ वाला व्यक्ति मेरे बापू जैसा कोई खेत.मज़दूर या सड़क पर रोड़ी कूटने वाला मज़दूर रहा होगा जिसे उसकी घरवाली ताने मारती होगी।  बापू की पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बावजूद उसकी बेबसी और मजबूरियों के बारे में सोचकर मैं घबरा उठता।

मेरे इन सोच-विचारों के काफि़ले एकाएक ऐसे रुके जैसे रेलगाड़ी सिगनल न मिलने से भोगपुर स्टेशन पर पहुँचने से पहले ही रुक गई हो। ऐसा इसलिए हुआ था कि राह से थोड़ा हटकर हमारी बिरादरी की श्मशान-भूमि में बैंहक अमली(नशेड़ी) अपनी बकरियों के झुण्ड को चराते हुए गाता हुआ सुनाई दे गया था–

दुध बकरी दा चो के,

अमली नूं चाह(चाय) कर दे।

 

बैंहक को कई लोग ‘बोक’ भी कहते थे क्योंकि वह बहुत ऊँचा, जवान और छड़ा-मलंग था। बस, हुक्का ही उसका संगी-साथी था जिसे वह सीने से लाए रता।  उसे य कहकर छेड़ते,  “तू परवाह न कर, जट्ट का एक बेटा ब्याहा जाए तो समझ ले सारे ब्याहे गए। तेरा एक भाई तो ब्याहा हुआ है।" इस पर वह बस मुस्करा देता।

रेवड़ जैसी हमारी बच्चों की टोली बैंहक बकरियों वाले की ओर सरपट दौड़ पड़ी और मैं इससे बिछुड़कर घर पहुँच गया। मैं उत्साह में भरकर बापू को लगाए जा रहे बिजली के खम्भों के बारे में बताने लगा। इस पर वह बोला, “हम तो तब जानेंगे जब हमारे घरों में से अँधेरा खत्म होगा। यह सब कुछ अमीरों के लिए है !  हमारे लिए तो जैसी आज़ादी आई, वैसी अभी न आई। मैं ज्योतिषी नहीं हूँ पर एक बात कहे देता हूँ कि अब अगर तुम पढ़-लिख गए तो घसियारे के बेटे घसियारे नहीं रहेंगे। बस, पढ़ लो जैसे-तैसे, जमींदारों की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी।"

मुझे बापू की कई बातें समझ में आ जातीं और कइयों को मैं बार-बार सोचकर समझने का यत्न करता।

“गुड्ड, बात सुनना !” माँ ने आहिस्ता से आवाज़ लगाई, साथ ही इशारा भी किया। फिर मुझे समझाते हुए कहा, “हमने तेरे बापू को सवेरे वाली बात नहीं बताई, तू भी न बताना, नहीं तो यह पतंगे की तरह फुदकने लगेगा।"

मैंने सिर हिलाकर ‘ठीक है’ का भरोसा दिलाया।  अब तक माहौल पहले की तरह शांत और सहज हो चुका था। ऐसा लगता था मानो दादी के साथ कोई बात ही न हुई हो। पर मेरे मन के किसी कोने में इस घटना ने एक स्थायी ठिकाना बना लिया था। उड़ते पंछी के सीने में जैसे तीर आर-पार हो गया था और वह पंखहीन होकर गिरने-गिरने को प्रतीत होता था। मेरी इस सोच का प्रवाह ध्यान द्वारा लगाई गई हाँक से टूटा, “गुड्ड, आ जा।  मुरमुरे भुनाने चलें।"

मैंने फुर्ती से अपनी झोली में मक्की के लाल, किरमिची, कच्चे-पीले से रंग वाले दाने डाले और हम बातें करते हुए गली में चल पड़े।

“देख ले, रब एक ही भुट्टे में कितने रंग-बिरंगे दाने लगाता है।"

“जैसे हम? तू गोरा और मैं काला !  कहते हैं बच्चे तो माँ-बाप पर जाते हैं।  देख, मेरा और बिरजू का चेहरा ऐन बापू पर है।" मैंने बात को थोड़ा विस्तार दिया।

“भुट्टे के दानों की किसी-किसी कतार में किसी-किसी दाने का रंग जामुनी या ये रत्ते के चौबारे के रंग जैसा गहरा किरमिची-सा होता है।" ध्यान बोला, “तभी तो ऐसे दानों को बाह्मण कहते हैं।"

“कहने को तो सूखे गू को भी बाहमण कहते हैं।" मैंने कहा तो हम दोनों की छोटी-सी हँसी निकल गई।  साथ ही, मेरे मन में बालों वाली मक्की, परागण प्रक्रिया, दूधिया छल्लियाँ(भुट्टे) और उनमें चोंच मारते तोते, ठूँगा मारते कव्वे दिखाई दे रहे थे।  तोते-कव्वे मुझे गाँव के ज़मींदार या उनके पूत-भतीजे लगे और दूधिया भुट्टे– मेरे मुहल्ले की बहन-बेटियाँ लगीं। सोच फिर उछल कर पहली वाली बात पर आ गई कि भुट्टों के दानों की कतारें ऐन सीधी कैसे बनती हैं। परागण प्रक्रिया से बनते दानों का भेद पता लग गया, पर दिखाई कुछ नहीं देता था। मेरी सोच की तार उस समय टूटी जब ध्यान ने कहा, “वो रत्ते की हट्टी और मालाँ की भट्ठी के बीच मजमा पता नहीं क्यूँ लगा है ?”

हमने लम्बे डग भरे।

“कहता है, मुझसे जूठनें नहीं धोई जातीं... आ गया ये बड़े नवाब का पुत्तर !” दीवान अपने बेटे पाशू के बारे में दूसरों को बताते हुए लाल-पीला हो रहा था। उसकी माझी बोली (अमृतसर-गुरदासपुर के क्षेत्र की बोली) हमसे अलग थी जिसकी हम कई बच्चे नकलें उतारते। वे बटाले से आकर हमारे गाँव में आ बसे थे।

“सवेरे से बरतन माँजने बैठा हूँ।  मेहमान रोटी खा चुके हैं, देखते-देखते दिन का तीसरा पहर हो गया। जब भी रोटी के लिए थाली उठाने लगता हूँ, तभी हुक्म कर देते हैं– ये दो बरतन धो दे, वो फलाना आ गया।  ये तो शाम तक आते रहेंगे।" पाशू के शब्द पटाखों-धमाकों जैसे थे जिनकी ‘ठांय-ठांय’से मुझे डर नहीं बल्कि हौसला मिल रहा था।

“न, कांसे के थाल के दो टुकड़े क्यों कर आया?  मेरी बेइज्ज़ती कराने के लिए?  मेहमान क्या कहते होंगे ?”

“सवेरे से रोटी नसीब नहीं हुई, गुस्से में और क्या करता? घड़ी भर में पीछे से आवाज़ लगा देते हैं– बस, दो बरतन माँज दे।  मैं कहता हूँ– ‘घोड़ों’ का बूढ़ा क्या मरा, भूखा मार दिया।  लोग तो जलेबियाँ-ज़र्दा खा कर चले गए।"

मुझे लगा, पाशू जैसे जलेबियाँ-ज़र्दा जैसे शब्दों को मुँह के अन्दर चबाकर अपने भूखे तन-मन की तृप्ति कर रहा था। पल भर बाद वह फिर कहने लगा, “मैं आज के बाद किसी की जूठनें धोने नहीं जाऊँगा ! क्या कमी आ जाएगी अगर ऐसा काम नहीं करेंगे–एक पीपा दाने हाड़ी (रबी की फ़सल) पर एक साउणी(खरीफ की फ़सल) पर। ... किसी के चार मेहमान आ गए तो हम रोटी बनाएँ-खिलाएँ! इस तरह कभी इसके, कभी उसके खुशी-गमी के मौके पर पकायें-खिलायें ! ऊपर से सारा सौदा सिर पर रख कर भोगपुर से लाएँ।"

“मैं कहता हूँ–क्यों लोगों को तमाशा दिखाने लगा है, हम झीवरों का काम इसी तरह सेवा करना है। अब अक्ल कर कुछ। चल, चलकर रोटी खा।" दीवान ने अपने छोटे बेटे पाशू की खुशामद की। वह अभी तक खाली पेट था।

“ये कोई जि़न्दगी है, मुसीबत है साली ! गर्मी हो या सर्दी, सवेरे उठकर लोगों के घरों में पानी भरें, फिर स्कूल जाएँ। मैं अब से स्कूल भी नहीं जाऊँगा, एक बार बता दिया। अगर कच्छा मिल गया तो कुरता नहीं मिलता, जूती तो कभी नसीब ही नहीं हुईं । मैं रेहड़ी लगा लूँगा पर जूठन नहीं धोऊँगा।" पाशू मालाँ की भट्ठी के दानों की तरह उछल रहा था। वह बोलते हुए यूँ लग रहा था जैसे विवशताओं के मरुस्थल में कोई लम्बा सफ़र तय कर रहा हो या उसकी तैयारी कर रहा हो। एक खिला हुआ दाना उछल कर भट्टी से बाहर जा गिरा और उधर पाशू तेज़ कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा ।

उसी पल मेरे मन में ख़याल आया कि पाशू को बताऊँ कि मेरे से बड़े भाई बिरजू के पास जूती तो क्या, टायर रबड़ की फ़ीतियों वाली चप्पल भी नहीं है। मेरे पास एक ही कुरता है। आठ दिन बाद धुलता है। जब तक सूखता नहीं, तब तक नंगे बदन ही घूमता रहता हूँ। पर अचानक भट्ठी के बालण की तरह मेरे ये ख़याल उस वक्त जलकर राख हो गए जब मालाँ ने मेरे दाने भूनने के एवज में उनमें से अपना हाथ लम्बा कर एक बड़ा-सा हिस्सा निकाल लिया।  मेरा मुँह मुरझा गया और भट्ठी के सेंक से और अधिक पिचक गया।

घर की ओर लौटते हुए मुझे अपने संग-संग चल रहे ध्यान का अहसास ही न रहा और कुछ दिन पूर्व सोहलपुर वाले ‘बड़े बाबा’ द्वारा लाखे रंग के अनजुते जवान बछड़े को हल में जोतने का दृश्य मेरी आँखों में साकार हो उठा। बापू नथ पकड़ कर उसकी नरम-सी गरदन जुए के नीचे करता, पर वह कभी आगे, कभी पीछे हो जाता।  बाबा उसके तगड़े और मज़बूत बदन पर पैना बरसाता। जब जुए के अन्दर उसकी गर्दन करके अर्गल लगा दी तो बापू ने उसकी नथ पकड़ कर उसके आगे-आगे चलते हुए पूरे खेत के दो-तीन चक्कर लगवाये। जब वह अड़ जाता और आगे न बढ़ता तो बाबा अपने दायें हाथ में पकड़े पैने के आगे वाला सुआ उसके पुट्ठों में घुसेड़ देता। वह एकदम से उछलता और चलने लग पड़ता। बाबा क्रोध भरे लहज़े में कहता, “कोई नहीं बेटा, थोड़े दिनों की बात है। बग्गे(सफ़ेद बैल) की तरह तू भी सीधा होकर चलने लगेगा, गर्दन पर जुए का निशान पड़ने की देर है।"

हम अपने घर के पास आ गए।  रास्ते के किनारे ‘हैकनें’ की नाँद पर बँधा बैल जो चारे के लिए रंभा रहा था, एक पल को मुझे भूखा पाशू नज़र आया। फिर मुझे लगा कि मेरा बड़ा भाई बिरजू अब ‘हाली’ हो चुका है। मैं जैसे अनजुता जवान बछड़ा होऊँ और ज़िम्मेदारियों का जुआ मेरी गर्दन पर ठीक से रखने के लिए बापू मुझे नकेल डालने को उतावला हो। अनजुते बछड़े को ‘हाली’ करने के समय उसको पड़ती पैनों की मार और सुआ चुभाने की घटना के अकस्मात याद आ जाने से मेरा शरीर काँपकर ठंडा-सा पड़ गया।...  मुझे लगा कि मैं अपने गाँव से भोगपुर को जाने वाले रेतीले टीले के रास्ते पर नंगे पैर चला जा रहा हूँ। मेरे ैर मााँ की भट्ठी के दानों तरह भुन रहे हैं। जहाँ कीं घास दिखाई देती है, मैं दौड़-दौड़कर वहाँ खड़ा हो जाता हूँ। मेरी निगाह अचानक राह किनारे उगे सरकंडो, झाड़ों और थूहरों पर पड़ती है। छोटी-बड़ी थूहरों की कतारें पल भर के लिए हमारे मुहल्ले के स्त्री-पुरुषों और बच्चों में बदल गईं। मुझे प्रतीत हुआ जैसे यह वीरान स्थान उनकी वीरान ज़िन्दगी का प्रतीक हो और थूहरों के तीखे-लम्बे मज़बूत शूलों की भरमार उनकी ज़िन्दगी की बेशुमार मुश्किलें ! जब मेरी नज़र थूहरों पर उगे फूलों पर पड़ी तो मुझे महसूस हुआ कि ये पाशू, ध्यान, रामपाल, सुच्चा, मेरा बड़ा भाई बिरजू और मैं हूँ जिन्हें बापू जैसे लोग सदैव खिलता हुआ देखना चाहते हैं। सूखे के इन दिनों में ये ख़याल मेरे मन में बरसात करने लगे।

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