छांग्या-रुक्ख

अपनी खाट और किताबें उठाईं और किसी पनाहगीर की भाँति अस्थायी तौर पर सबसे बड़े ताये के घर की बैठक की बिना पल्लों वाली खुली खिड़की के सामने डेरा लगा लिया। ईंटें चिन-चिनकर उनके ऊपर किताबों की टेक लगा ली और टेबल, लैम्प टिका लिया। खिड़की के शिखर पर पड़े सरिये पर एक चादर पर्दे के रूप में लटका ली।  ‘अपने’ कमरे की दीवारों पर से उखड़े सीमेंट वाली जगहों पर कई तस्वीरें बनती, उभरती नज़र आतीं।  इन तस्वीरों में कई उदास होतीं तो कई खुशी की रौ में नाचते, कूदते स्त्री-पुरुषों की! किसी में से शहीद भगत सिंह का हैट वाला सिर, छोटी, छोटी मूँछों वाला चेहरा तो किसी किसी में लेनिन, मार्क्स की शक्ल, सूरत उभरती दिखाई देती। मन ही मन मुझे महसूस होता कि यह छोटा, सा कमरा मेरे यहाँ आने से निखर उठा है या फिर इसके कारण मैं निखर उठा हूँ।

पाँच, सात दिनों के बाद ही पूर्णता का चाँद मानो अमावस्या के बाद कमान के निशान वाले चाँद में बदल गया हो। ख़्यालों के अंतरिक्ष में उड़ता गुब्बारा हवा निकलने के कारण मानो एकाएक धरती पर आ गिरा हो।

दरअसल, एक रात अचानक तेज़ आँधी, बारिश होने लगी। खिड़की पर पर्दे के रूप में टाँगी हुई चादर तेज़ हवा के झटके से अन्दर की ओर उड़ी तो टेबल, लैम्प खाट के पाये से टकरा गया। मैं हड़बड़ाकर उठा और किताबों को बारिश के पानी से भीगने से बचाने की कोशिश करने लगा। दायें पैर के तलुवे में टूटी चिमनी के शीशे के टुकड़े चुभ गए। सरकंडों की छत अगले दिन भी टपक रही थी जैसे रात में मेरे पैर में से लहू! इसी दौरान मेरे ख़्यालों के घोड़े सरपट दौड़े और मैंने बापू से कहा, “अगर हरी राम की बैठक पढ़ने के लिए मिल जाए तो...”

बापू की अधूरी बात पर ही हरी राम ने बैठक मेरे हवाले कर दी। दूसरे दिन बड़े भाई ने खिड़कियों के लिए फूस की टट्टियाँ बना कर उनमें जड़ दीं।  मुझे लगा जैसे पतझड़ में दरख़्तों की कोंपले बहुत जल्दी में फूट पड़ी हों और उनकी छाँव हमारे पूरे आँगन में फैल गई हो।

इस कमरे के साथ मेरा इतना मोह और लगाव हो गया कि गर्मियों में चाहे मैं गेहूँ काटकर लौटता, चाहे मक्की या ईख की गुड़ाई की दिहाड़ी करके, इस कमरे में एक चक्कर अवश्य लगाता। कुछ देर कोई किताब नितनेम की तरह पढ़ता। मुझे थकान खत्म होती महसूस होती। धीरे, धीरे घर के साथ मेरा वास्ता किसी काम या रोटी खाने तक ही सीमित हो गया। बीच-बीच में और वक़्त, बेवक़्त बापू छापा मारता। पूछता, “पढ़ता भी है या सोया ही रहता है?... एक बात ध्यान से सुन ले- निरी शेरो-शायरी ने पेट नहीं भरना, पहले चौदह पास कर ले; फिर जो मन में आए ये कुत्त-खाना लिखते रहना।”

बापू द्वारा दी गई यह चेतावनी सुनते ही मुझे वह दिन याद हो आया जब जूती खरीदने के लिए बापू से पैसे लेकर गया था और कालेज में पंजाब बुक सेंटर की ओर से लगाई गई पुस्तक प्रदर्शनी में से मार्क्सवादी, लेनिनवादी और रूसी साहित्य की कुछ किताबें खरीद लाया था। ऐसा साहित्य पढ़ने की ऐसी लत लगी कि कोई न कोई बहाना बनाकर या दिहाड़ी करके किताबें खरीद लिया करता।

मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ और तीन खण्डों में उसकी जीवनी ने तो मुझे झिंझोड़कर रख दिया।  मैं इनमें से चुनिंदा बातें अपने माँ, बाप, ताइयों, उनके बेटों और अपने दोस्तों को चाव से पढ़कर सुनाता।  कई बार गला भर आता और कभी हालात से जूझते मनुष्य की कामयाबी के बारे में सोचकर मन खुश हो जाता।

मेरे कालेज के इन दिनों में सोवियत संघ की ओर से विश्व, शांति की लहर को, खास कर तीसरी दुनिया के देशों में बड़े उद्यम और उत्साह से खड़ा करने के प्रयास, वामपंथ की लोकपक्षीय गतिविधियाँ, धरने, मुज़ाहरे, जलसे, जलूसों आदि को देखते हुए मेरा झुकाव कम्युनिस्ट पार्टी की ओर हो गया। कामरेडों से देश, विदेश की भिन्न-भिन्न समस्याओं के बारे में विस्तार से भाषणनुमा घंटों लम्बी बातें सुनता। मेरी दिलचस्पी अधिक जानकारी हासिल करने के लिए गहरी शिद्दत में बदलने लगी।  समाजवादी साहित्य को समझने की कोशिश करता।  और, आख़िर अपनी उम्र के उन्नींसवें, बीसवें साल(१९७४, ७५) में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कारकुन बन गया।

गाँव की पार्टी ब्राँच और ब्लॉक स्तर की ब्राँच की बाकायदा बैठकें होती थीं- किसानों, मज़दूरों की समस्याओं पर प्रायः भरपूर और कभी न खत्म होने वाली चर्चा होती। मैं इनमें हिस्सा लेता। बातें सारे मसलों अर्थात बेतहाशा बढ़ती आबादी, महँगाई, बेरोज़गारी से होते हुए अचानक ‘तुम्हारे बंदे’, ‘तुम्हारी बिरादरी’, ‘तुम्हारे मुहल्ले’, ‘आदिधर्मी’ आदि शब्दों पर आकर केन्द्रित हो जाती। कोई जमींदार साथी सलाह देता, “यूँ ही बात को न बढ़ाओ... जात को गोली मारो, जमात की बात करो... और जब आर्थिक हालात बराबर हो गए, फिर जात को किसने पूछना है...!”

“... और ज़मीन की हदबन्दी की जो बातें चलती हैं... हमारे वरिष्ठ साथियों को इसकी बाबत सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए ज़ोर देना चाहिए।” एक सर्वहारा साथी बीच में टोकते हुए कहता।

“भई, मैं पार्टी लाइन से सहमत नहीं कि रिजर्वेशन जाति के आधार पर हो। इसका आधार आर्थिकता होना चाहिए। साथ ही, इसे योग्यता से जोड़े जाने की ज़रूरत है।” साथी शर्मा ने जैसे माहौल का रुख बदलते हुए कहा।

“कामरेड, जिन सर्वहारा लोगों के सहारे हम इंकलाब लाने के दावे करते हैं, उनके पास तो मानवीय अधिकार भी नहीं, सामाजिक तौर पर असमानता, आर्थिक बदहाली के सिवा उनके पास है क्या? उनमें से कितने पढ़े, लिखे हैं? कितनों को नौकरियाँ मिल गईं? और सरकार ने नियम बना रखे हैं - कोई उम्मीदवार शर्तें पूरी करे तभी नौकरी मिलती है।  दूसरी बात, कल को वो कहने लगें कि ज़मीन हमें दे दो और नौकरियाँ तुम ले लो, अब दोहरा हाथ मारना बन्द करो, तो तुम क्या करोगे?... और हम समाज की समान तरक्की के बारे में विचार, विमर्श करते रहते हैं।” मैंने दखल दिया और पुनः कहा, “सामाजिक समानता की ख़ातिर अन्तर्जातीय या प्रेम-विवाहों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।”

“भई, पानी मथने का कोई फायदा नहीं। जो संभव नहीं, उस पर वक़्त बर्बाद न करो... ज़मीन जट्ट की जान है। ज़मीन की हदबन्दी के बारे में सोचने का काम हमारे लीडरों का है, हमारा, तुम्हारा का नहीं।” एक और जमींदार बोला।

“अन्तिम बात यह है भई कि बिजली चौबीस घंटे करवाने और खादों पर सब्सिडी बढ़ाने के लिए कल के मुज़ाहरे में तुम अपने कितने लोग ले जाओगे, यह बताओ।” हमारा नेता बात समेटता हुआ बोला।

पार्टी फ़रमानों के अनुसार मैं अपने मुहल्ले के अधिक से अधिक आदमी ले जाने की कोशिश करता। पर जब सोवियत साहित्य जिसके लेखकों में दोस्तोवस्की, शोलोखोव, चेख़व, अकसद मुख़्तार, चंगेज आइतमातोव शामिल थे, के पात्रों -असल में बाल्शेविकों(बहुजनों)-द्वारा  सोवियत लोगों की समान तरक्की, देश की प्रगति के लिए दिन-रात एक करने के ईमानदार और दृढ़ इरादे की तुलना मेरे मन में भारत के भूमिहीन मज़दूरों, धर्म की आड़ के अधीन सामाजिक, आर्थिक समानता से वंचित की गई जातियों से होती, तो मेरी सोच में एक खलबली, सी मचने लगती।  सोचता- सोवियत समाजों में श्रम की महत्ता, पूरे समाज के लिए सहकारिता, सेहत, शिक्षा के लिए सरकारी योजनाएँ है और हमारे यहाँ मेहनत, मज़दूरी और गंद-मंद की सफाई के बदले, गंदे-मंदे नफ़रत भरे शब्द, जाति के उलाहने, अन्याय, अत्याचार, और इन सबके परिणामस्वरूप मेहनतकश ‘कमीन’ लोगों को मनुष्य ही न समझने की बेईमानी को कायम रखने की साज़िशों के अलावा है ही क्या?

इन विचारों ने मेरी कविताओं के सरोकारों को और अधिक प्रचण्ड कर दिया- श्रमिक वर्ग, जाति, भेद, अधिकारों से वंचित लोग, इनमें अधिक स्थान लेने लगे।  सामाजिक व्यवस्था के रोष, विद्रोह के कारण मैंने अपना नाम पहले ही बदल कर बलबीर माधोपुरी रख लिया था।

फिर भी, साहित्य और राजनीति की ओर मेरा झुकाव बड़ी-बड़ी छलाँगें लगाकर बढ़ने लगा। भटिंडा पार्टी कांग्रेस के दिल्ली, चंडीगढ़, पटियाला, जालंधर में आयोजित होने वाले जलसे, जलूसों में साथियों के साथ जाना, समर्थकों को बड़ी गिनती में लेकर जाना, ये सब मन को सुकून देता। लोगों की भीड़ और उनके हाथों में लाल झंडे देखकर मन को हौसला मिलता, प्रेरणा मिलती। हम इन जलसे, जलूसों में जोश के साथ नारे लगाया करते -

“इंदिरा गांधी का देखो खेल!” एक व्यक्ति बोलता।

“खा गई बिजली, पी गई तेल!” पीछे, पीछे बाकी लोग बोलते।

“जित्थे खून मज़दूर दा डुल्लू!” एक साथी नारा लगाता।

“उत्थे लाल हनेरी झुल्लू!” सारे साथी जवाब में बोलते।

कांग्रेस और अकालियों के विरुद्ध हम निचले स्तर के कारकुन तीखे सुर में बातें किया करते। अकालियों को ‘फ़िरकू’ और कांग्रेस को ‘सरमायेदार’ की पार्टी कहकर लम्बी टिप्पणियाँ किया करते। कई लोग हमें ‘सिरफिरे, नास्तिक’ कहा करते। तनाव बढ़ता तो मनमुटाव भी हो जाता। पर हम पार्टी लाइन पर ठोंककर ‘पहरा’ दिया करते। सर्व भारत नौजवान सभा की ओर से बन्त बराड़ और तारा सिंह संधू, जालंधर, भोगपुर में तहसील स्तर पर हमारी स्कूलिंग किया करते।

आपातकाल, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजा, महाराजाओं के भत्तों पर पाबंदी, ज़मीन की हदबंदी कानून, सोवियत यूनियन के साथ और प्रगाढ़ सम्बन्ध, गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन के माध्यम से विश्व, शांति बनाये रखने में भारत की अग्रणी भूमिका आदि जैसे समाजवादी कार्यों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से दिए जाने वाले भरपूर सहयोग और समर्थन को लेकर पार्टी के अन्दर कुछ मतभेद उभर कर सामने आए। पार्टी में ‘जम्हूरियत’ के कारण आलोचना हुई और अपने अन्दर झाँककर देखने की बात चली। पर मैं अपनी धुन में पूँजीवादी देशों के सरदार अमेरिका के खलाफ कविताएँ लिखकर अपनी भड़ास निकालता रहा। जैस-

मैं ज़िन्दगी की फ़िक्रों से लैस हूँ ऐसे

दिआगो गार्सिया जैसे हथियारों से!

 

मेरा तन मन उसके पास है इस तरह

अमेरिका के पास जैसे गिरवी पाकिस्तान।

 

ऐसी कविताएँ ‘नवां ज़माना’ और दूसरे अखबारों में छपतीं।  रूसी साहित्य से पंजाबी में किया गया अनुवाद भी कभी, कभार छप जाता। आई, सेरेबरीआकोव की पुस्तक ‘पंजाबी साहित्य’ और ‘गुरु नानक’ लेख संग्रह (प्रगति प्रकाशन, मास्को) ने मेरे दृष्टिकोण को साफ़ करने में महत्वपूर्ण मदद की।

मेरी साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहन उस वक़्त मिला जब बापू की ओर से मेरी आगे की पढ़ाई को लेकर हाथ खड़े करने के बावजूद मैंने कह-कहा कर लायलपुर खालसा कालेज, जालंधर के पंजाबी विभाग से एम. ए. करने के लिए दाख़िला ले लिया। इसके पीछे मेरा तर्क था कि बख्शी पिछले लगभग तीन सालों से दिल्ली पुलिस में था और हम सब अपनी-अपनी जगह काम करते थे।  खैर, कालेज का वातावरण अत्यन्त साज़गार था, अध्यापक प्रगतिवादी विचारों वाले और मिलनसार थे जैसे टाँडा कालेज के प्रो. दीदार सिंह (१९५४ में लिखी ‘लूणा’ के कवि और काव्य, नाटककार)। वे विद्यार्थियों में साहित्यिक और सांस्कृतिक अभिरुचि को प्रोत्साहन देते और उसे कायम रखने का यत्न करते थे। मुझे, मिसरदीप भाटिया और अन्य विद्यार्थियों को कविता प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए दूसरे कालेजों में भेजा करते।  खालसा कालेज में पढ़ते हुए मेरी ज़िन्दगी का वह ऐतिहासिक दिन बन गया था, जिस दिन ओपन एअर थियेटर में हुए कवि-सम्मेलन में पाश, संतराम उदासी और अन्य नौजवान जुझारू कवियों ने कविताएँ पढ़ीं और विभाग की ओर से मैं भी इसमें शामिल हुआ।

दूसरा, जालंधर शहर साहित्य और राजनीति का गढ़ - और मुझे पूरी तरह रास। कारण- वहाँ पंजाबी, हिंदी, उर्दू में छपते अखबार, पत्रिकाएँ और रेडियो स्टेशन एवं दूरदर्शन की मौजूदगी।  वहाँ रूसी लेखकों और सियासतदानों के प्रतिनिधियों की आमद- कामरेड जगजीत सिंह आनंद द्वारा उनके विचारों का पंजाबी में किया गया तर्जुमा और जोश में लोगों की लम्बी तालियाँ- ये सब देखते-सुनते मन इंकलाब की ख़ातिर सिर हथेली पर रखने को करता।

सर्दियों के एक निखरे दिन की शाम को देश भगत यादगार हाल के हरे-भरे लॉन में सोवियत संघ में भारत के तत्कालीन राजदूत श्री इंदर कुमार गुजराल का लोगों ने घंटों इंतज़ार किया। ताशकंद से अमृतसर जहाज के पहुँचने की देरी का कारण मौसम की खराबी बताया गया। लेनिन कट दाढ़ी वाली प्रभावशाली शख़्शियत को देखकर और सोवियत संघ के बारे में बातें सुनकर हैरानी होती। मज़दूरों की तानाशाही के तहत जम्हूरियत। प्रतिनिधित्व करने आए रूसी लेखकों, चिंतकों के विचार मन को छूते। ऐसा सिलसिला निरन्तर चलता रहता।

मेरे मन में विचार उठते- सोवियत संघ जैसा राजसी, सरकारी प्रबंध हमारे देश में जल्द से जल्द हो जाए।  आर्थिक समानता किसी जादू की तरह आ जाए और जाति के धब्बे समाज के रूप-स्वरूप से हमेशा-हमेशा के लिए उतर जाएँ। सभी लोग हाथ से काम करें, न कोई किसी का हक मारे और न ही कोई श्रमिकों, निम्न और अछूतों पर अपना दबदबा या धौंस जमाकर रखे। हमारे मुहल्ले में आकर गरजते जमींदारों की सोच और उनके विचारों में परिवर्तन जल्द आ जाए। ‘घड़े की मछली’, ‘दाल बराबर मुर्गी’ और ‘चमारी, जहाँ देखी वहाँ...’ जैसी तुच्छ सामाजिक धारणाओं से पीछा छूट जाए और गरीबों, मेहनतकशों का आदर-सत्कार बढ़े।

मेरी साहित्यिक और राजनीतिक गतिविधियों का दायरा और अधिक व्यापक हो गया जब १९७८ में भारतीय खाद्य निगम(एफ.सी.आई) में मैं भर्ती हो गया और अगले वर्ष ही इसकी यूनियन का जिला सचिव चुन लिया गया। वह भी बहुत अधिक वोटों के अन्तर से। इसके पीछे, कर्मचारियों की यूनियन में पार्टी के कारकुनों और हमदर्दों का होना स्पष्ट दिखाई देता था। मुझे अपनी योग्यता के बारे में कोई भ्रम था ही नहीं।

भुलथ (जिला कपूरथला) में जनता के इस अदारे में बेशुमार तल्ख़ अनुभव हुए। गेहूँ, चावल और धान के भरे हुए ट्रक आते। गोदामों के अन्दर माल उतारते और फिर यहाँ से चले जाते। अनाज के बड़े और ऊँचे चक्कों को सेकिण्डों मे नीचे फेंका जाता और बोरियाँ ‘बनाई’ जातीं।  मुझे अक्सर कहा जाता, “कामरेड, ऐश कर तू, पढ़, लिख ले। काम तो चल ही रहा है।”

‘बनाई’ गईं बोरियाँ शाम को जेबों में पड़ जातीं। बातें चलते-चलते मुझ तक पहुँचती। “कामरेड को किसी तरह काणा करो। पैसे नहीं लेता, शराब नहीं पीता, और नहीं तो किसी बाजीगरनी को पीछे लगा दो।”

शाम के गहराते ही थकान मिटाने के लिए ‘महफ़िल’ जुटती। लतीफ़ेबाजी होती जिसका केन्द्र-बिन्दु औरत होती।  कई उन औरतों का जिक्र होता जो गोदाम में काम करने आती थीं।

मेरे दिल पर छुरी फिरती, जैसे गेहूँ या चावलों का चक्का फेंकने के लिए फेरी जाती थी।  मन में उन औरतों को लेकर कभी शक उठता तो कभी मजबूरी के भाव उभरते।  परिणामस्वरूप, गोदाम के अन्दर काम करने के लिए आने वाली औरतों को मैं समझाता कि इज़्ज़त के साथ रहते हुए कैसे उठना-बैठना चाहिए।

“समझा दिया? अपनी माँओं, बहनों को!” एक दिन चक्के की ओट से निकले एक साथी कर्मचारी ने मुझे व्यंग्य में कहा।

“हाँ, हालात का नाजायज़ फ़ायदा उठाने वालों के खिलाफ़ कुछ करना ही पड़ेगा।”

“न बात बने तो माँ, बहन बना लो।  बल्ले ओए तुम्हारे! बड़े कामरेडो! तुम्हारी यूनियन का जो बड़ा नेता बना घूमता है, उसकी करतूतें किससे छिपी हैं?  ढकी रहने दे, मुझे आँखें लाल करके दिखाने की ज़रूरत नहीं...।” उसने मुँह पर रूमाल फेरने और दाढ़ी सँवारने के बाद फिर कहा, “तू अभी नया, नया है।  और दो सालों में तू खुद ही इस रास्ते चल पड़ेगा।”

अपनी यूनियन के प्रधान के बारे में ऐसा सुनकर मेरी ज़बान को ताला लग गया, जैसे गोदाम का शटर एक फुर्तीले झटके के साथ बन्द कर दिया गया था।  मैं दाँत पीसकर लज्जित, सा होकर रह गया था।

‘महफ़िल’ का दूसरा पड़ाव शुरू होता जब ‘अन्दर गई’ अपना जलवा दिखलाती। दिन के समय के अच्छे-भले बंदों के अन्दर शाम के वक़्त जैसे कोई और ही बंदा बोलने लगता; ‘जट्ट के हाथ नहीं लगे अभी’, ‘जट्ट टूट सकता है, झुक नहीं सकता’, ‘जट्ट से पंगा लिया तो मंहगा पड़ेगा’, ‘जट्ट तुम्हारे जैसी ऐरी-गैरी को क्या समझता है’, ‘यहाँ तो ऐश करने आते हैं, पच्चीस घुमाव खेत हैं जट्ट के।’

इस तरह की रोज़ की शेखियों और फ़िजूल बातों से परेशान होकर एक दिन मैंने कह ही दिया, “साहिब, अगर इन शब्दों की बार-बार रट न लगाओ तो अच्छा है... और फिर आप इतने पढ़े-लिखे हैं।”

“कामरेड, तेरी बात ठीक है, पर जट्ट शब्द मुँह पर चढ़ा हुआ है। और फिर, स्वभाव ही बन गया है ऐसा!” ... , साहिब ने बीच में टोकते हुए कहा।

कुछ ही दिन बाद मुझे मेरी गुस्ताख़ी की सज़ा मिल गई- दूर के तबादले के रूप में। मेरे, आने जाने का सफ़र और बढ़ गया। सायकिल पर पैंतीस किलोमीटर जाना और पैंतीस किलोमीटर आना। घर की ओर हफ़्ते में एक, दो बार ही चक्कर लगता। मेरे लिए इस नये इलाके में न किसी से जान, न पहचान।  चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी फौजी बेला सिंह ही मेरा संगी-साथी।  खर्चा और बढ़ गया। घरवाले सोचते- पता नहीं किस काम में तनख्वाह बहाये जा रहा है!

“लोग तो मंडी में से लूटकर लौटते हैं और तू...।” एक दिन बापू ने पूछ ही लिया

मैं चुप रहा। उसने फिर बताया, “नडाले बेगोवाल की औरतें नशेड़ी हैं।  आदमियों के लिए खुद शराब-कबाब खरीद कर लाती हैं। जरा सँभल कर रहना...।”

जैसे-तैसे दो महीने मैंने धान मंडी में काटे। फिर भी टिकने नहीं दिया और गोदाम इंचार्ज बनाकर फिर भुलथ से दूर भेज दिया। व्यस्तता इतनी कि पल भर भी फुर्सत न मिलती-सिवाय लडने-झगडने के; जब मुझे धान की कम लाई गई बोरियों का पता चलता। बात जैसे अभी भी खत्म नहीं हुई हो। अब मेरी ड्यूटी अक्सर करतारपुर रेल हैड पर अनाज की लदाई के लिए लगा करती। गाँव से पचास किलोमीटर दूर। ‘नौकरी में नखरा क्या’ को मैंने अपनी ज़िन्दगी में ढाल लिया।

जब कोई गेहूँ, चावल चोरी करके भाग जाता, मैं उसका दो-दो किलोमीटर तक पीछा करता।

“इनका पीछा न किया कर। करना है तो इनका किया कर।” एक दिन मेरे द्वारा पकड़कर लाए गए पल्लेदार को देखकर मेरे एक कर्मचारी साथी ने मुस्करा कर कहा और पटरी के बीच कोयला चुनती एक कुछ अधिक उम्र की औरत की ओर इशारा किया।

“इसमें जान ही नहीं वरना यहाँ तो गंगा बहती है-चाहे रात, दिन डुबकियाँ लगाए।” एक अन्य ने उकसाने के लिए तर्क दिया।

तभी तेज़ तालियों के स्वर के साथ-साथ चीखने-चिल्लाने की आवाज़ों ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया।

“ट्रक में दाने इकट्ठे करती हमारी बिमला को भगाकर ले गया... हमारी बिमला को...।”

दक्षिण भारत से आए हिजड़ों की एक टोली अभी भी दुहाई दिए जा रही थी।  मुझे लगा कि वे ज़िन्दा रहने के लिए पेट की भूख मिटाने की ख़ातिर इतनी दूर से यहाँ आए हैं और ड्राइवर अपनी भूख मिटाने के लिए कैसी घटिया करतूत कर गया है।

मेरे ख़्यालों पर यह विचार हावी होने लगा कि एफ.सी.आई. छोड़ दूँ और किसी अन्य विभाग में नौकरी के लिए कोशिश करूँ।

इन्हीं दिनों में मैंने एम.ए. भाग, दो प्रायवेट परीक्षा देकर पास कर लिया और गाँव के निकट के कस्बे भोगपुर में बदली करवा ली, जहाँ मेरे हमख़्याल साथी थे।

सर्दियों के एक दिन मैं एफ.सी.आई. के अपने दो सुहृदय मित्रों को मिलने के लिए पुनः भुलथ गया। अड्डे पर मेरी मुलाकात एक  २२-२३ वर्षीय अजनबी नौजवान राजेन्द्र यादव से हुई। उसके दोनों कटे हाथों को देखकर मैं दंग रह गया। अपनी विवशता भरी आँखों से मेरी ओर देखते हुए उसने कहा, “भाई, मेरे पास पैसे नहीं हैं, अगर...।”

कुछ पल रुककर उसने फिर बताया, “पिछले दिनों मशीन पर चारा काटते समय मेरे हाथ कट गए हैं। मैंने लोगों को इकट्ठा किया। सरदार ने मेरे को पिछले छह महीनों की मेहनत और हाथों का चार हज़ार रुपया देने की बात मानी, लेकिन बाद में मुकर गया। मेरे को गाँव (तलवंडी हुसैनवाल, ज़िला कपूरथला) से भगा दिया। मेरी बहना इंतजार करती होगी। रक्षा-बंधन से पन्द्रह दिन पहले यह हादसा हुआ...।”

“हम कुछ लोग उसको दुबारा मिलते हैं।”

“कोई फायदा नहीं...।”

इस दुःखद घटना के घटित होने के तुरन्त बाद भइये को अस्पताल न ले जाने की हकीकत ने मेरे ज़ेहन में खलबली मचा दी। मैंने सलाह दी, “मेरे साथ चल, तेरा बिहार जाने का बंदोबस्त करते हैं।”

अगले दिन राजेन्द्र के लिए घर से कपड़ों का झोला भरकर अपने गहरे मित्र, साथी पुरुषोत्तम शर्मा को भइये समेत मिला।  रात में हम उसके घर रुके। भइये से बिहार के बारे में बहुत-सी बातें पूछीं।  रोटी खाकर अपने टुण्डे हाथों को धोने के बाद बैठक में अन्दर आते हुए उसने अंगीठी और दीवार की तस्वीरों की ओर गौर से देखा। पूछा, “क्या आप चमार हैं?”

शर्मा ने अपनी पहचान का धर्म-निरपेक्ष प्रभाव देने के लिए हिंदू देवी-देवताओं, सिख गुरुओं और सन्तों, भक्तों की तस्वीरें शीशों में मढ़ाकर रखी हुई थीं।

“भइया, पहले पूछना था।”

“क्या बात हुई?”

“वो रैदास की तस्वीर है न? शर्मा तो चमार नहीं होते!” भइये ने पूछा। पल भर बाद उसने फिर कहा, “अब तो खाना हो गया...।”

“उल्टी कर दे अगर घिन आती है।” मैंने कहा।

“भगवान की कृपा से दाहिने हाथ का अंगूठा बच गया। इससे रोटी, कुल्ला और बाकी के काम हो जाते हैं।” उसने शर्मिन्दा-सा होकर बात का रुख बदला।

ख़ैर, हमने उसे गाड़ी का टिकट खरीदकर दिया और लोगों से सहायता के तौर पर एकत्र की गई रकम अलग से मनीआर्डर कर दी।

यह ख़्याल मुझे कई दिनों तक परेशान करता रहा कि वह भइया अंगहीन और आर्थिक तौर पर बेसहारा होकर भी जाति, व्यवस्था को मानसिक तौर पर छोड़ने को तैयार नहीं। मज़दूरी करने आए परदेशी भइये की नज़र में भी निम्न जाति के इन्सान की कोई कीमत नहीं।

मैं सोचता- होलटाइमर बन जाऊँ, भूमिहीन मज़दूरों, दबे, कुचले लोगों और गरीबों के लिए काम करूँ, उनके अन्दर अधिकार, चेतना पैदा करने में पूरी शक्ति लगाऊँ।  जब पार्टी के साथियों- जो पार्टी के विचारों को गाँव-गाँव, घर-घर पहुँचाते-के हालात का ख़्याल करता तो काँपकर रह जाता।  उनके पास सायकिल को पंचर लगवाने और अपनी मर्जी से चाय-पानी पीने के लिए पैसे ही नहीं होते थे।  बदलने के लिए ठीकठाक कपड़े न होते। उनकी प्रतिभा और प्रतिबद्धता के बारे में सोचकर मेरे मन में उनके प्रति सम्मान और बढ़ जाता।

... और, खुले आकाश की ओर एक खिड़की मेरे लिए खुली। दिल्ली में रहने वाले मेरी बुआ के बड़े बेटे दौलत राम, जो योजना आयोग में उच्च अधिकारी थे, ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय में नौकरियों के लिए यू. पी. एस. सी. का एक फार्म भेजा और साथ ही हिदायतें भी, जिनके अनुसार मैं अंग्रेजी से पंजाबी और पंजाबी से अंग्रेजी में अनुवाद करने का अभ्यास करने लगा।  जब टैस्ट पास कर लिया तो भाजी(भाई) ने इंटरव्यू की तैयारी कैसे की जाती है, बोर्ड के सामने आत्मविश्वास से कैसे बात करनी है, अगर नहीं मालूम तो कह देना है कि पता नहीं जैसे और कितने ही नुक्ते मुझे समझाए।  इससे मेरी एफ.सी.आई. से जान छूट गई।  जून १९८३ में मैंने भारत सरकार के जालंधर स्थित पत्र सूचना कार्यालय (प्रैस इन्फारमेशन ब्यूरो) में क्लास टू नान-गजटिड अफ़सर के तौर पर ज्वाइन कर लिया। ... आतंकवाद के शिखर के दिन- जनता के लिए काला दौर!

पंजाबी में समाचारों का अनुवाद, खाली समय में ‘नवां ज़माना’ में कामरेड सुरजन जीरवी के पास बैठने से कुछ आत्मविश्वास बढ़ा। वह लतीफ़े सुनाते और तार-डिस्पैच का ढेर मेरी ओर बढ़ाते हुए व्यंग्य में कहते, “ले भई, भोगों (पाठ, भोग की रस्म) की बना ख़बरें!”

इसके साथ-साथ प्रसिद्ध रूसी लेखक एलैक्सांद्र रस्किन की पुस्तक ‘जब डैडी छोटा लड़का था’ का अनुवाद ‘नवां ज़माना’ में हर रविवार को धारावाहिक रूप से छपने लगा।  पाठकों के पत्रों और निजी मुलाकातों के कारण मेरे इस रूझान को प्रोत्साहन मिलता।  वामपंथी विचारधारा, उससे संबंधित पुस्तकें और सोवियत यूनियन के भोगौलिक, सांस्कृतिक, प्रबंधकीय ढांचे, तीसरी जंग(संभावित), वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के भिन्न-भिन्न पहलुओं के बारे में मेरे लेख ‘नवां ज़माना’ और ‘अजीत’ में छपने लगे।  कई लेखकों से परिचय हुआ और कइयों से दोस्ती हुई।  कुछ सोवियत यूनियन का प्रतिनिधि पत्रकार कहकर मेरा मखौल उड़ाते। बीच, बीच में आतंकवाद का विरोध करती कविताएँ और पत्र लिखता, छपवाता रहा।

हर रोज़ कहीं न कहीं कोई बड़ी अमानवीय उग्रवादी वारदात हो जाती।  कोई सरकार को दोषी समझता कि वह बेबसी की हालत क्यों ज़ाहिर कर रही है; उसे सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए।  कोई कहता कि उग्रवाद का पौधा सरकार ने स्वयं ही लगाया है, पानी दे-देकर बड़ा किया है, जिस दिन चाहेगी, जड़ से उखाड़ फेंकेगी। कई नरम-गरम सिख संगठनों की आलोचना करते कि वे निर्दोषों के क़त्लों की निंदा नहीं करते और इस कारण वे बराबर के हस्सेदार हैं।  लोगों में इतनी दहशत कि शाम को आठ बजे ही गाँवों की गलियाँ सूनी हो जातीं। रात में गलियों में पैरों की आहट सुनकर घरों के अन्दर ‘बंदी’ हुए लोग चौकन्ने हो जाते।

वामपंथी धड़े अमन रैलियों में देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखने के लिए अपीलें करते। शहीदों की कतारें लगाने के दावे करते, जिनमें से मायूसी और लाचारी भी प्रत्यक्ष झलकती दिखाई देती। ख़ैर, लोग धर्म, जाति और अन्य रंजिशें भूलकर एक मजबूत एकता का प्रदर्शन करते। ‘सिख एक पृथक कौम’, ‘खालसे का बोलबाला’, ‘खालसा राज’ और ‘एक सिख के हिस्से पैंतीस हिंदू आते हैं’, ‘सिखों का धर्म और सियासत एक है’ के बावजूद क़त्ल ‘स्कोर’ के और ऊँचा होते जाने के बाद भी हिंदू-सिखों के बीच कोई दरार नज़र न आती। इस एकजुटता और एकता के कारण वामपंथी शक्तियों और निरपेक्ष सोच के लोगों का हौसला बुलन्द होता। ‘बंद’ के आह्वान सफल होते।

... और, एक दिन अचानक मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती महसूस हुई जब ग्यारहवीं कक्षा से एम.ए. तक सहपाठी रह चुके मेरे गहरे मित्र ने बड़ी तसल्ली से कहा, “खालिस्तान बन गया तो हमारे जैसे जट्ट लोग डी. सी. , एस. पी. बन जाएँगे। सिखों में कितने लोग पढ़े-लिखे हैं? खालसा राज की स्थापना के लिए हम सबको मदद करनी चाहिए। और यह कोई लालच नहीं, अपनी तो पहले ही खेती बहुत है। बड़ा भाई एम.बी.बी.एस. है, हमारी भरजाई डाक्टर है। हम और बड़े अफ़सर बन जाएँगे।”

इसके बाद मैंने उस मित्र में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं ली, लेकिन एक दिन अपनी ननिहाल से लौटते समय उसके घर के पास से गुज़रते हुए मेरा भावुक मोह जाग उठा और मैंने सायकिल उसके आँगन में जा खड़ी की। मित्र घर में नहीं था, पर उसका भाई मिला। मैंने सहज ही पूछा, “डाक्टर साहब और डाक्टरनी भरजाई आज कहाँ हैं? दिखाई नहीं देते। छुट्टी वाले दिन तो...।”

“डाक्टर? भाजी तो कम्पांउडर हैं और भरजाई मास्टरनी है।” उसने बीच में टोकते हुए सहज भाव सें बताया।

“यार तेरी नौकरी का क्या हुआ?... चल, तुम्हारी ज़मीन बहुत है; नौकरी मिल गई तो और भी बढ़िया।”  मैंने बात बदली और अपनी ज़बान पर पूरा नियंत्रण रखा।

“भाजी, हम बाहतियों (पिछड़ी जातियाँ) की कैसी ज़मीनें?... हम चार भाइयों को चार-चार कनाल भी हिस्से नहीं आती।”

“बाहती?”

“हाँ।  बाहती अपने इधर कम हैं, कंढी इलाके में बहुत हैं।” सच्चाई और स्पष्टता भरे ये निश्छल शब्द सुनकर मैं चकित रह गया और रौशनदान के रास्ते छनकर कमरे में आई धूप की तरह मेरी आँखों के सामने वह दिन आ खड़ा हुआ जब मेरे मित्र ने लायलपुर खालसा कालेज में पढ़ रही हमारी सहपाठिन लड़की को अपने ‘जट्ट’ होने तथा अच्छे-खासे जमींदार होने की लम्बी जानकारी दी थी।

मुझे लगा कि समाज की नज़रों में जन्म, जात से ऊँचा, सुच्चा होने का ढोंग करके मेरा वह मित्र कैसे ‘हीनता’ का बोझ ढो रहा है; दोहरी ज़िन्दगी जीते हुए पल-पल मर रहा है और पल-पल बनावटी ज़िन्दगी जी रहा है। मैं सोचता- पिछड़ी जातियों को अछूत जातियों के साथ मिलकर चलने की ज़रूरत है। सामाजिक परिवर्तन इंकलाब का ही दूसरा नाम है। उन शक्तियों को मिलकर चोट पहुँचाए जाने की आवश्यकता है जो वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और स्थितियों को यथावत रखने के लिए हर प्रकार की कोशिश कर रही हैं।

कुछ देर बाद मुझे पंद्रहवी सदी के प्रसिद्ध विद्वान और समाज सुधारक मार्टिन लूथर का ख़्याल हो आया जिसने पोप पद को सांसारिकता से पूरी तरह ओतप्रोत देखा था। नतीजे के तौर पर उसने पोप और पादरियों के विशेष आध्यात्मिक नेतृत्व और धर्म-ग्रंथ की व्याख्या के अधिकार को ललकारते हुए ९५ नुक्ते पेश करके उसे मुकम्मल तौर पर रदद कर दिया था।

बार-बार ख़्याल आता कि हमारे देश में धर्म और आध्यात्मिकता  के नाम पर बाँटा जा रहा अंधविश्वास, बुद्धि के विकास में लगाए जा रहे बांध, अगले-पिछले जन्मों के परिणामस्वरूप ऊँच-नीच आदि से मुक्ति दिलाने के लिए कौन आगे आएगा। इस तरह मेरी सोच की सुइयाँ दौड़ती-दौड़ती डा. अम्बेडकर और डा. रामास्वामी नाइकर पेरियार पर जा रुकतीं।

पहले से चल रहा विचार फिर से हावी हो उठा।

... और हाँ, दहशतगर्दी के इस ‘भाई-मारू’ दौर में एक और ऐसा हादसा हो गया जिसने मेरी रातों की नींद पर हमला कर दिया।  हमारी एक रिश्तेदार ने आकर बताया, “सरदारनी, जिसके मैं गोबर-कूड़ा करती हूँ, एक दिन बड़ी खुश होकर मुझे कहने लगी- बहन, खालिस्तान अब बना ही समझ।  मौजें लग जाएँगी। हिंदू यहाँ से चले जाएँगे, पर तुम लोग हमारे संग खालिस्तान में ही रहना।”

हम बड़े ध्यान से सुन रहे थे।  हमारी उत्सुकता और प्रश्नों से भरी हुई नज़रें उसे एकटक देख रही थीं। उसने बात का सिरा फिर पकड़ा, “मैंने कहा- सरदारनी, तुमको तो मौजें लग जाएँगी, कोई ज़मीन हमारे नाम भी लग जाएगी? और फिर, हमें क्यों बात-बात में मजबूर करती हो कि खालिस्तान बने तो हम तुम्हारे साथ रहें... हमारे लिए तो हिंदू-सिख एक से ही हैं।  हमसे बहुत प्यार है सरदारनी...!”

“फिर?” हमने उतावले होकर पूछा।

“फिर क्या? कहने लगी- बहन, प्यार है, तभी तो कह रही हूँ, खालिस्तान में हमारा गोबर-कूड़ा कौन उठाएगा?”

मुझे जिन्ना की वह बात स्मरण हो आई जो देश के विभाजन के समय उसने एक मीटिंग में अछूतों की समस्याओं के बारे में बोलते हुए कही थी कि उनकी आबादी को आधा-आधा बाँट लेना चाहिए और इस बात के अर्थ मुझे बहुत देर बाद समझ में आए थे।

दूसरे-चौथे दिन ऐसी बातें सुनते-देखते मैं परेशान होकर रह जाता। पार्टी की अमन रैलियाँ, शहीदों की कतारें लगाने वाले फ़ैसले, बार-बार बंद के आह्वान, जुझारू दस्ते बनाने के लिए किसी को कोई चिंता नहीं, निर्दोषों की सुरक्षा को यकीनी बनाने के लिए सरकार पर निर्भरता जैसे मुद्दों के बारे में साधारण सोच वाले मेरे जैसे साथी विचार किया करते।  पार्टी लीडरशिप, इन संगठनों को फ़िरकापरस्त ताकतों, पूंजीवादी ताकतों की पिछलग्गू और इंकलाब की राह में रुकावट बताया करती।

बुलन्द हौसला, दृढ़ निश्चय होने पर भी मन के अन्दर कभी-कभी निराशा उपजती जिसे हम कभी किसी के सम्मुख प्रकट न करते। पर पंजाब और समूचा भारत, इस ख़ौफनाक और दहशतगर्दी के हालात में से शीघ्र किस तरह निकले, इसके बारे में विचार-विमर्श किया करते। दुनिया के उग्रवादी संगठनों की गतिविधियों और यहाँ की क़त्लोगारत, बहन-बेटियों की इज़्ज़त सुरक्षित न रहने, धर्म पर आधारित राजनीति वाले दलों की ओर से क़त्लों और सामूहिक क़त्लों की निंदा न करना, आदि को लेकर मेरे मन में तुलनात्मक विचार उठते रहते।

गहरे मित्रों और साथियों के क़त्लों ने मुझे आशा-निराशा की सोच के घने जंगलों में धकेल दिया। वामपंथी पार्टियों के काम के तरीके ने बहुत से कारकुनों को पहले ही उदासीन कर दिया था।  कोई साथी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से टूटकर मार्क्सवादी पार्टी में चला जाता और कोई उधर से इधर आ जाता।  रूस में जारशाही के खात्मे के लिए वहाँ की छोटी-छोटी कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से मिलकर किए गए संघर्ष का ख़्याल आता। मैं सोचता- हमारे वामपंथी दल संजीदा और ईमानदार होकर लोगों को दिशा दें, अपने अहं को त्यागकर।

इन अनिश्चित स्थितियों और शशोपंज भरे दिनों में किताबों को उलटते, पलटते हुए निकोलाई ओस्त्रोव्स्की का प्रसिद्ध उपन्यास ‘कबहू न छोड़े खेत’ मेरी नज़र में पड़ा, जिसका अनुवाद डा. करनजीत सिंह ने किया था। स्वजीवनी आधारित इस उपन्यास ने मुझे नए सिरे से दिशा दी।  हर हालात में बुलन्द हौसला, लोगों की ख़ातिर निरंतर जूझना, देश के लिए मर मिटने की भावना और नए विचारों की तलाश ने मेरे अन्दर अथाह ऊर्जा भर दी। उत्साहहीन होते व्यक्ति को फिर से खड़ा करने की ताकत और सामर्थ्य रखने वाली यह रचना मेरी प्रेरणा का बड़ा स्रोत बन गई।

इस उपन्यास के बहुत से विचारों को मैं अपने दोस्तों के संग साझा किया करता। पल्ले से पैसे खर्च करके मैंने इसकी सात, आठ प्रतियाँ खरीदीं और कइयों को पढ़वाया। कामरेड पुरुषोत्तम शर्मा ने अपने नव-जन्मे पुत्र का नाम ‘पवेल’ और बेटी का नाम ‘तोनिया’ रख लिया।  मिसरदीप भाटिया ने अपने पुत्र का नाम पवेल रखा।

जब अकेला होता तो सोचता- दुनिया उम्मीद पर चलती है। कम से कम निकोलाई ओस्त्रोव्स्की की भावना को बरकरार रखने के लिए हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी ज़रूर तैयार होगी।

 

<< पीछे : अपने नाम से नफ़रत आगे : दिल्ली के लिए रवानगी >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में