छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

मेरी जन्मभूमि–माधोपुर


आत्मकथा के आरंभ में थोड़ा-सा स्पष्ट करना उचित समझता हूँ कि जिस समाज में मैं पैदा हुआ हूँ, उसने कभी जन्मपत्री या कुंडली नहीं बनवाई और न ही उसका ऐसा विश्वास रहा है कि दान-दक्षिणा देने से उनके जीवन में सुधार संभव है ।  सो, स्कूल के काग़ज़ों के अनुसार मेरी जन्मतिथि 24 जुलाई 1955 है जो माँ द्वारा बताये गये मेरे जन्म-दिन मंगलवार से मेल नहीं खाती। दूसरी बात, अपनी अब तक की पीढि़यों में मैं पहला हूँ जिसे थोड़ा पढ़ने-लिखने का अवसर मिला।

            –लेखक

‘सिम सिम पानिया,

 घुग्गी तिहाई (प्यासी) है।...’

मैं और मेरी उम्र के बच्चे बरसात के मौसम में अपनी छोटी-छोटी उँगलियों से ज़मीन में छोटी-छोटी गुच्चियाँ खोदते हुए उपयु‍र्क्त तुक बार-बार दोहराते। देखते ही देखते, ये पानी से भर जाया करतीं।  जब एड़ी के बल गोल घूमते, छोटी-सी गोल गुच्ची पानी से लबालब भर जाती और पानी बाहर की ओर बहने लग पड़ता।

दरअसल, माधोपुर (जि़ला-जालंधर) ब्यास दरिया के मंड (यहाँ कभी दरिया बहता था) में बसे गाँवों में से एक गाँव है। पंज-आब अर्थात पाँच नदियों वाले पंजाब में बहता ब्यास दरिया रोहतांग (कुल्लू) के पास से निकल कर ज़िला-कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) और पंजाब के ज़िला- होशियारपुर का 290 मील का रास्ता तय करके कपूरथला की सीमा-रेखा पर सतलुज दरिया में जा मिलता है।  इन दोनों दरियाओं का जहाँ संगम होता है, उसे ‘हरि का पत्तण’ कहा जाता है।

कहने का तात्पर्य है कि जैसे-जैसे दरिया पश्चिम की ओर भूमि-कटाव करता चला गया, वैसे-वैसे पूर्वी किनारे के मंड में इक्का-दुक्का लोग आकर बसते चले गए। कच्चे-पक्के घर बनते गए और गाँव की शक्ल अख़्तियार करते गए ।  अब हमारे गाँव से ब्यास दरिया लगभग 21 किलोमीटर के फ़ासले पर है।

सतलुज और ब्यास के बीच के इलाके– जालंधर, होशियारपुर, नवां शहर और कपूरथला– को दुआबा कहा जाता है। ज़िला-जालंधर के कुछ गाँवों को ‘सीरोवाल’ का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि यहाँ ज़मीन में से अपने आप ‘सीरां’ यानी पानी की धारें फूटने लगती थीं ।  बारीक धार वाले इन छोटे-छोटे खूबसूरत झरनों का पानी एक छोटी कूह्ल(नदी) का रूप धारण कर लेता ।  गाँव के पश्चिम दिशा वाले रेतीले टीले में से बहुत ही साफ़ और पारदर्शी पानी की हती इस छोटी-सी नदी में हम गर्मी की ऋतु में नहाया करते।  यह अनेक जीव-जन्तुओं, खरगोशों, पशुओं, पंछियों का बगैर किसी बाधा के सहारा बनती ।  इसके किनारे पर शीशम के दरख़्तों की कतारों पर हरियाली सदाबहार थी ।

निचला इलाका होने के कारण हमारे गाँवों के कुओं का ‘पत्तण’ अधिक गहरा नहीं था ।  तड़के से लेकर ोपहर तक लगातार रहट चलता रहता तब कहीं जाकर पानी के बगैर डोलियों की माला तैरती और सफ़ेद-भूरी रेत चमकती दिखलाई देती ।  यह सब कुछ हम स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी आवारागर्दी के दौरान देखा करते ...और नया कुआँ खुदने का नज़ारा तो दिल खींच लेने वाला हुआ करता था ।  अच्छरू बाज़ीगर कई दिन पहले ढोल बजाना शुरू कर देता ।  कुएँ का पाड़ खोने के लए ‘टक’ लगाते समय अरदास हुआ करती, बताशों का परसाद बाँटा जाता ।  पैसे इस तरह हवा में उछाल कर फेंके जाते जैसे बेटी की डोली को विदा करते समय न्यौछावर किए जाते हैं ।  खुशियों से भरा वातावरण उस समय बेहद गम्भीर और उदास-सा हो उठता जब स्त्रियाँ वैराग्यमय स्वर में गाते हुए यह दोहरातीं–

‘परदेसन लकड़ी जी,

दरशन कर लो सारे जी।...’

शाहतूत के दरख़्त से लकड़ी में बदल गए चक्क के प्रति भावुक मोह का प्रकटीकरण मन को हिलाकर रख देता ।  कई आँखें नम हो जातीं क्योंकि 18 इंच चौड़ी गोल आकार की इस लकड़ी के चक्क को अब हमेशा धरती के अन्दर जो रहना था ।  इसके ऊपर 13 इंच की दीवार की चिनाई की जाती ।  चक्क के गोल आकार का व्यास कुएँ या कुइंया के अनुसार रखा जाता । गोताखोर अक्सर झीर बिरादरी के हुआ करते जो कुएँ के पानी के अन्दर उतर कर ‘झाम’ को मिट्टी से भरा करते ।  पानी के अन्दर उनकी लम्बी डुबकी देखकर हमारी साँसें रुकती महसूस होतीं ।  कुआँ खोदने का सारा काम कुछ ही दिनों में पूरा हो जाता और ‘ख़्वाजा-खिज़र’ द्वारा की गई मेहर के लिए दलिया बाँटा जाता ।  मिस्त्री बुड्ढा राम वल्द कूड़ा राम का कुआँ मैंने ऐसे ही तैयार होते देखा था ।  इस मौके पर मैंने अपने से बड़ी उम्र के जट्टों के लड़कों को यह टोटका कहते सुना था जो किसी लड़की को सुना कर कह रहे थे–

खूह दे चक्क वांगूं,

तू मुड़ के नहीं आउणा । ’

जब ज़मीन के पानी का तल नीचे होता चला गया और ‘हरे इन्कलाब’ का नारा लगा तो ट्यूबवैल लगने लगे ।  तब भी ‘कमीनों’ के बच्चों को दलिया लेने की ख़ातिर जागर चौकीदार द्वारा हाँक लगा कर बुलाया जाता ।

मेरे गाँव का सबसे पहला दोहलटा कुआँ ( पूरब की ओर ) सन् 1800 में बाबा संगतिया की ओर से बनवाया गया था ।  इसका प्रमाण एक ईंट पर खुदी इबारत से मिलता है जिसे 1981 में कुएँ की दीवार में से निकाल कर मैंने उसकी फोटो ली और फिर ‘जठेरों’ के एक पक्के चबूतरे पर इसे हमेशा के लिए जड़वा दिया ।  ऊपर बताई गई ऐतिहासिक ईंट पर खुदी इबारत का तर्ज़ुमा इस तरह से है–

‘इस कुएँ को संगतिया ने सन् 1800 में बनवाया जिस पर 419811 ईंटें लगीं ।... ’

और हाँ, इस कुएँ का पानी 5-6 किलोमीटर दूर कुरेशियाँ तक भी ले जाया जाता रहा ।  पूरा गाँव पीने के लिए पानी यहीं से भरा करता था ।

बाबा संगतिया जि़ला होशियारपुर के टुटो मजारा के निकट मूगोवाल के रहने वाले थे ।  अंग्रेज़ विद्वान सर तेनसिन चार्ल्स जोल्फ ऐसबस्ट और ई.डी. मैकलैंगन की खोज के अनुसार मूगोवाल से उठ कर संघा गोत्र के जट्ट सकरूली, लंगेरी, नरियालां (और शायद माधोपुर) में जा बसे थे ।

बाबा संगतिया का गाँव पहाड़ी बरसाती नदियों की मार के तले था ।  खेतीबाड़ी के लिए ज़मीन की तलाश के दौरान उसी ने इस हरे-भरे इलाके को देख कर इसे ‘माधो की पुरी’ कहा ।  जब उसने यहाँ स्थायी डेरा जमा लिया तो यह ‘माधोपुर’ के नाम से जाना जाने लगा ।  अंग्रेज़ी सरकार के डाक-तार महकमे की ओर से अपनी सुविधा के लिए इसका नाम ‘माधोपुर सीरोवाल’ कर दिया गया क्योंकि ज़िले में इस नाम का एक अन्य गाँव भी है ।

यहाँ रहते हुए बाबा संगतिया की ओर से कुछ ही वर्षों में पक्के मकानों का निर्माण कर लिया गया ।  परिणामस्वरूप, उसकी अगली पीढ़ी को ‘पक्के वाले’ और जहाँ से मिट्टी खोदी गई, उस जगह को अब तक ‘गोरा छप्पड़ (जोहड़)’ कहा ाता ह ।  पटवारी के काग़ज़ों के अनुसार यह शामिलात है और निम्न जातियों को यहाँ से मिट्टी खोद कर अपने घरों को लीपने-पोतने की छूट है ।  अपने परिवार के सदस्यों के साथ मैं भी हाँ से कई बार मिट्टी खोद कर ले जाता रहा हूँ ।  ख़ैर, गाँव के अन्य जोहड़ों की तरह जट्ट इन्हें पाट कर अपनी जायदाद का हिस्सा बनाते जा रहे हैं ।

बाबा संगतिया ने अपने पैतृक गाँव के पास वाले गाँव पंडोरी में से ‘विरदी’ गोत्र का एक चमार परिवार लाकर बसा लिया था ।  पंजाब सिंह रामदासिया सैनपुर (होशियारपुर) से डेढ़ सदी पहले आकर बस गया था ।  जहाँ वह जूतियाँ बनाने का काम किया करता था, उसे ‘गांढों का छप्पड़’ कहा जाता है ।  5 किलोमीटर दूर स्थित लड़ोये गाँव ( ज़िला जालंधर ) के सरदारों को संगतिया की ओर से की गई विनती पर एक झीर परिवार माधोपुर में आ बसा था ।  इस प्रकार, ब्राह्मण, सुनार, बढ़ई, नाई और एक पूरबिया धोबी परिवार यहाँ आकर बस गए थे ।

गाँव देखने को हालाँकि इकट्ठा है, पर पीने के पानी के लिए कुआँ अपना-अपना है ।  बाद में, कुछ मुसलमान भी गाँव और ज़मीनों के मालिक हो गए ।  वे हिन्दू-सिखों की भाँति निचली जातियों से छुआछूत नहीं करते थे, शायद इसलिए कि उनमें से बहुत से लोगों की पृष्ठभूमि भी अछूतों और कारीगर जातियों वाली थी ।

दूसरी ओर, अगर अछूतों (चमारों-चूहड़ों) का कोई लड़का नहा-धोकर और बाल संवारकर घर से बाहर निकलता तो दरख़्त के नीचे या चबूतरे पर बैठी जट्टों की ढाणी में से कोई एक उठकर उसके सिर में मिट्टी डाल देता ।  अगर वह विरोध करता तो उसकी धुनाई की जाती ।  इसी तरह, अछूत जाति के किसी आदमी द्वारा नये कपड़े पहन कर निकलने पर उसे मारा-पीटा जाता कि तुम लोग हमारी नकल या बराबरी करते हो ।  इस तरह, जट्ट कम्मी(निम्न) लोगों के लिए हौवा थे और पता नहीं होता था कि ऐसी घटना कब और कहाँ घट जाए ।

ज़ैलदार, जागीरदार, सफ़ेदपोश और नंबरदार से सब लोग थर-थर काँपते थे ।  ज़ैलदार के अधीन कई-कई गाँव हुआ करते थे । वह कचहरी लगाता, फ़ैसले सुनाता ।  उसके पास अदालत के जज की तरह अधिकार हुआ करते थे ।  सुनाई गई सज़ा के अनुसार ज़ुर्माना, हर्ज़ाना और अन्य दण्ड भरने पड़ते ।  हालात और सूरत के अनुसार किसी को कोई सज़ा सुनाई जाती तो किसी को कोई और । कहते हैं, किसी ज़ैलदार को पाँच और किसी को सात खून माफ होते, इसलिए लोग उसके सामने गर्दन सीधी करके बात करने का साहस न करते ।  और कमीनों, ख़ासकर अछूतों के प्रति उसका व्यवहार अक्सर डरावना और अत्याचारी हुआ करता। वह खेतीबाड़ी और निर्माण के कामों में बेगार करवाता ।  अगर इन दोनों क्षेत्रों में कोई काम न होता तो वह बेगार के निश्चित दिनों में खेतों में से मिट्टी खुदवाता और गाँवों के बाहर फिंकवाता ।  कहने का अर्थ यह कि निश्चित की हुई बेगार को बख़्शता नहीं था ।  उदाहरण के तौर पर इस हक़ीकत के सबूत उन गाँवों में टीलों की शक्ल में आज भी देखे जा सकते हैं, जिन गाँवों में ज़ैलदार हुआ करते थे ।

जागीरदार अंग्रेजी हुकूमत की मदद के लिए 15 से 30 घोड़े पाला करता, अपने देशवासियों के अन्दर उठते विद्रोह के विरुद्ध अंग्रेज़ों का साथ देकर जागीरें हासिल किया करता । वह भी अछूतों से बेगार करवाता, ईनाम के तौर पर मार-पिटाई और गालियों की बौछार किया करता ।  मतलब यह कि अपना रौब और दबदबा बनाए रखता और अछूतों के अन्दर अपने अधिकारों के लिए उठने वाले विद्रोह को पनपने न देता ।

सफ़ेदपोश दो-चार घोड़े रखा करता, कुछ गाँव उसके अधीन हुआ करते ।  बेगार करने के लिए अछूत हाजि़र रहते । सफ़ेदपोश सरकारी एजेन्ट की तरह काम करता, मुख़बरी करता । अपना इस तरह का रुतबा कायम रखते हुए सरकार से ‘बख़्शीश’ हासिल करता रहता।

नंबरदार गाँव स्तर पर सरकारी मुलाजि़म था ।  वह अपने से ऊपर वालों की सेवा के लिए उतावला रहा करता ।  अछूतों से अपनी इच्छानुसार बगैर मेहनताने के काम करवाता ।  उससे नीच जाति के लोगों सहित बाकी लोग भी बहुत डर कर रहते थे क्योंकि वह थाने में या फिर ज़ैलदार के पास जाकर किसी की भी शिकायत कर सकता था । उसकी बात हर जगह यानी सरकार-दरबार में सुनी जाती ।  उसकी इच्छानुसार फै़सले लिए जाते । वह लोगों को सरकारी पक्ष वाली सोच रखने और सरकारी नीतियों का समर्थन करवाने में अपनी अहम भूमिका निभाता ।  इसीलिए, आम तौर पर इन सभी ओहदेदारों को ‘टोडी’ या सरकार के ‘पिट्ठू’ कहा जाता रहा है ।  इनकी ओर देख कर ही जमींदार अछूतों के साथ शारीरिक अत्याचार करते रहते ।  ऐसे उदाहरण, अनुसूचित जातियों के 65-70 बरस के लोगों से आज भी बहुतायत में पूछे-सुने जा सकते हैं ।

सो, इस तरह की है मेरी जन्मभूमि !... और माधोपुर, ‘मेरा’ गाँव,  इतना बड़ा नहीं है(आबादी 1200 के करीब) और न ही बहुत पुराना; सिर्फ़ 250 बरस का। 1914-15 के बन्दोबस्त के मुताबिक इसा कुल रकबा 505 घुमाव (4044 कनाल और 11 मरले) और 12 कुएँ थे ।  885 रुपये राजस्व दिया जाता था ।  अब यह 154 एकड़ है और राजस्व 1200 रुपये अदा होता है । शामिलात 134 कनाल 9 मरले– इसमें रास्ते और जोहड़ आदि शामिल हैं ।  30 के करीब कुएँ खेतों में थे ।  इस गाँव में हमारी अछूतों की ज़मीन ?  शून्य के बराबर !  इस प्रसंग में कुछ सच्चाइयाँ प्रस्तुत हैं ।  समूचे पंजाब की कुल ज़मीन के तीन बन्दोबस्त(मुरब्बाबन्दी) अंग्रेज सरकार की ओर से करवाए गए ।  पहला 1849-50 में, दूसरा 1880 में और तीसरा 1914- 15 में ।  अन्तिम बन्दोबस्त की कुछ मदें अपने गाँव से संबंधित पढ़ने को मिलीं जो रवाज के तौर पर प्रसिद्ध हैं ।  दस्तूर नम्बर–10 के अनुसार कमीन बिरादरियों के लिए पाबन्दियाँ और उनके जिम्मे लगाए गए काम निम्न प्रकार हैं :–

 

बन्दोबस्त (रवाज), गाँव–माधोपुर, ज़िला–जालंधर 1914-15

 

नाम कमीनकमीनों के काम और उनकी जिम्मेदारी किसान देगा 
बढ़ई घरेलू और खेती बाड़ी के सामान की मरम्मत करना, पर लकड़ी मालिक देगा। हाड़ी/साउणी (रबी/ख़रीफ़) फ़ी हल एक गट्ठर, हाड़ी(रबी) फी हल 15 सेर कच्चा अनाज, लड़की के विवाह पर वेदी बनाते समय 8 आने।  
कुम्हार कुएँ की डोलियाँ और ज़रूरत के अनुसार मिट्टी के बर्तन बनाना(घर की ज़रूरत और विवाह के लिए) रबी/खरीफ़ फ़ी हल एक गट्ठर, बेटी और बेटे की शादी के समय 8 आने।
लुहार घरेलू और खेतीबाड़ी के लोहे के सामान की मरम्मत और कड़ाहे की मरम्मत करना। कपास की आखिरी चुगाई में से 1/2 हिस्सा, बेटी और बेटे की शादी के समय 8 आने। 
नाई हज़ामत करना, बेगार करना, खाना बनाना और शादी–ग़मी के कामों में हाजि़र रहना। रबी/ख़रीफ़ फ़ी हल एक गट्ठर, फ़ी हल 5 सेर कच्चा गुड़, शादी – बेटी 5 आने और बेटा –4 आने ।
चूहड़ा / चमार कार–बेगार करना। बेगार में मुर्दा पशु उठाने के लिए देना।
धोबी कपड़ों के अला बारातियों को खाना खिलाते स उनक नीचे बिछाये जाने वाले कोरे(कपड़े) की धुलाई। रबी/ख़रीफ़ एक गट्ठर, फ़ी हल 5 सेर कच्चा गुड़।
झीवर/कहार बेगार करना, एक घड़ा सवेरे और एक घड़ा शाम पानी देना। शादी–ग़मी के मौके पर काम करना। पानी भराई एक मन कच्चा अनाज फ़ी छमाही, बेटी और बेटे के विवाह के समय 4 आने।

 उपयु‍र्क्त सूची से पता चलता है कि चूहड़े/चमारों यानी अछूतों के अधिकारों में केवल बेगार और मुफ्त में कामधंधा करना शामिल था । मानवीय अधिकारों से वंचित इन लोगों को एवज़ में मुर्दा पशु उठाने को दिए जाते, वे भी अहसान के तौर पर कि वे उनके ‘कम्मी–कमीन’ हैं । सामाजिक, आर्थिक असमानता के लम्बे इतिहास को बरकरार रखने की इस सरकारी पैरवी और सामाजिक व्यवस्था के पैरोकारों ने मेरे मन में कई प्रश्न उत्पन्न किए और परेशानी का लम्बा सिलसिला शुरू किया ।

अंग्रेज़ हालाँकि देशों को फ़तह करते रहे, पर उनके बारे में यह धारणा अभी तक प्रचलित है कि वे न्याय-प्रिय और वैज्ञानिक दृष्टि वाले हैं ।  उन्होंने अपनी गुलाम बस्तियों और गुलाम मुल्कों का भरपूर विकास किया । अनेक बड़ी परियोजनाओं को पूरा किया ।  लोगों को शिक्षा के माध्यम से अपनी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास से परिचित करवाया, उनके अन्दर एक नया दृष्टिकोण विकसित किया, पर अछूतों के सन्दर्भ में उनके विचारों पर प्रश्नचिह्न लगते हैं।

पंजाब में अंग्रेज़ भारत के बाकी हिस्सों की अपेक्षा सबसे बाद में आए ।  उन्होंने  यहाँ के अछूतों को समानता, शिक्षा, सम्पत्ति, विचार प्रकट करने के अधिकार क्यों नहीं दिए ?  स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था के कट्टर समर्थकों के साथ उनका गठजोड़ था और वे उनके प्रभाव के अधीन थे ।  पंजाब में अपने लगभग सौ साल के शासन के दौरान ‘इन्तकाले अराज़ी एक्ट’ जिसके तहत अछूत अपने पैसे इकट्ठा करके भी ज़मीन नहीं खरीद सकते थे, लागू रहा ।  मौरूसी (गाँव के जमींदारों की ओर से कम्मियों-कमीनों को रिहायश के लिए दी गई साझी ज़मीन) भी मिलकीयत न बनी ।  अछूत, जागीरदारों और भू-स्वामियों के रहमोकरम पर निर्भर रहते, डर-डर कर समय व्यतीत किया करते।  भू-स्वामी इसी आधार पर उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करते, बलपूर्वक बेगार करवाते ।  ना-नुकर करने पर सरेआम अपमानित करते, मारपीट करते ।  अंग्रेज़ों से आजा़दी की मांग वे लोग करते जो उनके गुलाम थे, पर उन्हें अपने गुलामों की आजा़दी का कभी ख़याल भी नहीं आया, बल्कि अपने धर्मग्रन्थों के नियमों के अनुसार उन्हें गुलाम बनाए रखना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा ।  यही तथ्य समाज और देश के पतन के लिए ज़िम्मेदार रहे ।

ऐसी हज़ारों बरसों की अन्याय, भेदभाव और असमानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था की मिसाल पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलती ।  पूरे विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो नफ़रत, अनैतिक रीति-रिवाज़, भेदभाव भरे आदेशों और अमानवीय परम्पराओं का झंडाबरदार हो। श्रमिक वर्ग और स्त्रियों के प्रति ऐसा अत्याचारी, दमनकारी व्यवहार और मनुष्यों को बाँटने का सिलसिला किसी देश में नहीं, पर भारत में इस व्यवस्था पर गर्व किया जाता है कि इसके चलते समूचे भारतीय समाज के अन्दर कभी तनाव और हिंसा नहीं हुई ।  इस विचार के समर्थकों में प्रगतिवादी समझे जाने वाले लोग भी शामिल हैं जो उच्च जातियों से संबंधित हैं औ अब भी अछूतों की वजह से ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठा रहे हैं।  भला ऐसी घोर अन्यायपूर्ण व्यवस्था चल कैसे सकती थी अगर ‘मनु-स्मृति’ जैसी पुस्तक शूद्रों और अतिशूद्रों के विरुद्ध कठोर सामाजिक नियमों को पक्का करने वाली न होती ।  ऐसी ही पुस्तकों के सन्दर्भ में डा. भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है– ‘जिन पुस्तकों को पवित्र ग्रन्थ कहा जाता है, वे ऐसी जालसाजि़यों से भरे पड़े हैं जिनकी प्रवृत्ति राजनीतिक है, जिनकी रचना पक्षपाती है और उनका मनोरथ और प्रयोजन है– कपट और छल !’ इसके साथ ही मुझे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के शब्द याद आते हैं –‘हिन्दू निश्चित तौर पर उदार और सहनशील नहीं हैं ।  हिन्दू से अधिक संकीर्ण व्यक्ति दुनिया में कहीं नहीं है ।’ ार्ल मार्क्स का यह विचार औ नि्चय कभी नहीं भूलता कि दुनियाभर में अगर कहीं भी अन्याय के विरुद्ध और सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए एक हाथ उठता है तो मेरे दोनों हाथ उसके साथ होंगे ।’

इसी तरह की भावना के साथ एक निर्भीक पंजाबी सूरमा सामाजिक न्याय़ के लिए उठा और अजीब इत्तेफ़ाक की बात है कि वह, बाबा संगतिया के गाँव मूगोवाल का ग़दरी बाबा बाबू मंगूराम मूगोवालिया था जिसने अंग्रेज़ों के विरुद्ध देश की आज़ादी की खातिर जेलें काटीं, फाँसी के तख़्ते से फ़रार होकर जंगलों में आदिवासियों के साथ तीन वर्ष का समय गुज़ारा । 1925 के आरंभ में वह मनीला छोड़ कर भारत के दक्षिणी-पश्चिमी इलाकों में सरगर्मी से काम करने के बाद अपने गाँव लौट आया ।  अछूतों की दरिद्रता और दूभर ज़िंदगी को फिर से देखा ।  दोहरी-तिहरी गुलामी के अहसास ने उन्हें  हिलाकर  रख दिया ।  लाला हरदयाल की जवाबी चिट्ठी मिलने पर वे अछूतों के उद्धार के लिए पूरे तन-मन से काम करने लगे और डा. भीमराव अम्बेडकर से सम्पर्क किया ।  11-12 जून, 1926 को अपने गाँव मूगोवाल में अलग-अलग जातियों के लाखों लोगों का एक विशाल सम्मेलन किया और  ‘आदिधर्म मंडल’ की स्थापना की ।  यह एक प्रकार का सांस्कृतिक आन्दोलन था । उन्होंने सामाजिक असमानता के ख़िलाफ़ ‘आदि डंका’ नाम का अख़बार भी आरंभ किया ।  सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संघर्ष के कारण 1944 में अपने सात अन्य साथियों के साथ वह एम.एल.ए. बने ।

यहाँ जो गौरतलब बात है, वह यह है कि मंगू राम मूगोवालिया हमारे गाँव माधोपुर में सन् 1947 से पहले और बाद में आए ।  ऐसा बताया जाता है कि उनका भरपूर स्वागत किया गया और इसमें  समूचा गाँव शामिल था ।  देश की आज़ादी और अछूतों के उद्धार के लिए किए गए उनके संघर्ष को भारत के लोग सदैव याद करते रहेंगे ।

...और चौथा बन्दोबस्त ‘दि ईस्ट पंजाब लैंड ( एंड प्रीवैंशन फ़्रैगमैंटेशन) आफ होल्डिंग एक्ट, 1943 के तहत अंग्रेजों द्वारा  भारत छोड़ कर चले जाने के बाद 1948 में हुआ, जो 1960 तक चलता रहा ।  इसके अनुसार हर ‘कम्मी’ परिवार को दो-दो मरले ज़मीन घरों का ढेर-कूड़ा फेंकने के लिए दी गई ।  इससे पहले भूमिहीन और गैर-काश्तकार लोगों का ढेर-कूड़ा मालिक लोग मालिकी के हिस्से के अनुसार बाँट लेते थे ।  जो गै़र मालिक काश्तकारी किया करते थे–वे अपने खेतों में डाल लेते थे। गै़र मालिक को ढेर-कूड़ा बेचने का हक नहीं था ।

...और अंग्रेजी सरकार के गुलाम आखिर 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गए ।  उन्हें और अधिक अधिकार प्राप्त हो गए, पर ‘रज्अतनामा’ (जागीरदारी बन्दोबस्त के तहत, सरदारी, चौधराहट को बरकरार रखने वाला कानून) ज्यों-का-त्यों रहा, बेशक 26 जनवरी 1950 को भारत का अपना संविधान लागू हो गया ।  लम्बी जद्दोज़हद और अधिकार-चेतना के कारण 1957 में ‘मौरूसी’ का हक खत्म हो गया, यानी ‘कमीनों’ को इसके स्वामित्व के हक प्राप्त हो गए ।  बसने के लिए अछूतों को दी मौरूसी (विरासत में मिली ज़मीन) के बदले में बेगार करवाने का हक-रज्अतनामा टूट गया ।  अछूतों से बलपूर्वक और मुफ्त में काम करवाए जाने वाले कानून से छुटकारा मिल गया ।  ‘इन्तकाले अराज़ी एक्ट’ पहले ही खत्म हो चुका था और अनुसूचित जातियों को जायदाद खरीदने-बेचने का सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया था ।

अछूतों के मुहल्ले/बस्तियाँ पंजाब और भारत के गाँवों में पश्चिम की ओर निचली जगह पर हैं ।  इसलिए कि ये वर्ग हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अनुसार चारो वर्णों में से किसी एक में भी नहीं आते और इस व्यवस्था के समर्थकों के अनुसार उनकी परछाई भी नहीं पड़नी चाहिए ।  कहने को दलित हिन्दू धर्म  का हिस्सा हैं लेकिन, वास्तव में यह धर्म उन्हें गुलाम बनाने का एक माध्यम भर है ।  इसी कारण, इन लोगों को समाज की मुख्यधारा से अलग रखा गया ।  दूसरी सोच यह थी कि गाँव का गन्दा पानी हमेशा पश्चिम िा यानी निचले हिस्से की र ी बहता है, इसलिए ऐसे लोगों का वास गन्दमन्द में ही उचित है ।  ऐसी घटिया और घिनौनी व्यवस्था का प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी भारत के गाँवों में देखा जा सकता है ।

ख़ैर, 1947 से पहले हमारी बिरादरी के जिस परिवार ने किसी जट्ट के नाम पर ज़मीन खरीदी थी, उस जट्ट ने पूरी ईमानदारी के साथ उस दलित के नाम चढ़वा दी। यह घटना परिवर्तन और क्रान्ति का एक प्रतीक बन गई ।  आज़ादी का अहसास चारों ओर फैलने लगा ।  संवैधानिक दृष्टि से सभी भारतवासी हर क्षेत्र में बराबर समझे जाने लगे।  अछूत अब हरिजनों से अनुसूचित जातियों तक का सफ़र तय कर गए, पर सामाजिक व्यवहार और उच्च जातियों की मानसिकता में उतना बदलाव नहीं आया जितनी तेज़ी से इस वैज्ञानिक युग में आना चाहिए था । बहुत से कानून जिस भावना से बनाए गए, वे वास्तविक अर्थों  में कार्यान्वित नहीं हो सके ।  संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन को, समाज के सभी वर्गों से बहुत सारे प्रयास, साहस और दिलेरी की आवश्यकता है । तर्कवादी दर्शन की बहुत ज़रूरत है ।  दलित समूचे देश को विकसित होते देखना चाहते हैं, ऐसा मैंने पिछले कई वर्षों के दौरान भिन्न-भिन्न दलित बुद्धिजीवियों की बैठकों में अनुभव किया है । 

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