छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

कोरे काग़ज़ की गहरी लिखत

  “इस चमारली को डपट के परे हटा तो ज़रा!” गुरुद्वारे की खिड़कियों से चिपके हुए और एक-दूजे के ऊपर से पंजों के बल सींखचों को पकड़ अन्दर झाँकते हुए हम बच्चों की तरफ़ देख कर परसाद बाँटता गाँव का जट्ट ‘भाई’ अपने करीब खड़े किसी व्यक्ति को अक्सर ही संग्रांद या गुरपुर्ब (गुरुपर्व) के मौके पर कहता ।

खिड़कियों से लटके और चिपके हुए हम सब बच्चे पलभर के लिए जूतियों को पैरों तले रौंदते पीछे हट जाते ।  जैसे ही उसका मुख दूसरी ओर होता, हम फिर से उसी खिड़की से चिपक जाते ।

खीझू स्वभाव वाले उस ‘भाई’ ने सिक्खी स्वरूप को दर्शाता कच्छा पहना होता, बदन पर मलेशिये का घिस चुका कुर्ता होता और सिर पर पगड़ी इतनी मैली होती कि ये सब उसकी तेल या पसीने से तर हुई टांगों से मेल खाते दिखाई देते ।  उसके चेहरे पर फैले चेचक के मोटे-मोटे दाग यूँ लगते जैसे उपलों की सलेटी रंग की राख पर बारिश की बूँदें पड़ गई हों । जब वह चबा कर बात करता तो उसकी तिकोनी-सी सफ़ेद दाढ़ी भी हिलती ।  उसकी चुंधी आँखों की हम नकल उतारते ।

“चन्नणा, तेरे काबू में नहीं आने वाली ये चींगरपोट... मैं भगाता हूँ, इन माँ के ...।" वह उछल कर तेज़ी से हमें अधूरी गाली बकता जिसका खाली स्थान हम सबके मन में खुद-ब-खुद भर जाता।

परसाद के लिए सबके बाद में जब हमारी बारी आती तो वह झिड़क कर कहता,  “कमजातो, तुम्हें एक बार नहीं कहा, आराम से बैठ जाओ ।"  पर हम खड़े-खड़े ही एक-दूजे से आगे दोनों हाथों के छोटे-छोटे चुल्लू बनाकर उसकी ओर बढ़ाते ।  वह बिना झुके परसाद बाँटता और हम फ़ुर्ती से उसे ऊपर हवा में से ही लपक लेते।  कभी-कभी जब किसी के हाथों में परसाद न आता और नीचे ज़मीन पर गिर जाता, तो वह रुआँसा हो उठता ।  जब वह ज़मीन पर गिरा परसाद उठाने को होता, तभी ताक में बैठा कुत्ता अपनी जीभ से उसे छक जाता ।  इसी प्रकार एक-दो बार मेरी कटोरी उस वक्त हाथ से छूट कर नीचे गिर पड़ी जब ‘भाई’  जल्दी-जल्दी परसाद को ऊपर हवा में ही छोड़ रहा था कि कहीं उसका हाथ कटोरी या बच्चों के हाथों से छू न जाए ।  ऐसा होने पर मेरे चेहरे पर  छाई खुशी की लहर एकदम से उतर कर कहीं दूर चली जाती, जो फिर जल्दी न लौटती ।

कभी वह किसी से कहता,  “ओए, तूने पहले नहीं लिया ?”

“नहीं बाबा, मैंने नहीं लिया अभी ।" परसाद छुपा कर खाने के बाद कच्छे की पिछाड़ी से हाथ पोंछ कर हम में से कोई एक कहता ।

घरों की ओर लौटती हमारी ढाणी ऐसे खुश होती, मानो हमने बड़ी प्राप्ति कर ली हो ।  हम एक-दूजे को बताते,  “मैंने भी आज तीन बार लिया ।"

“तुझे नही पता, कानी बांट करता है ये मुचरू-सा ।  अन्द बैठे हुए लोगों को तो मुट्ठी भर-भर कर देता है और हमें ले-देकर वही चुटकी-सा...।" पास से गुज़र रहे मस्से के ये शब्द मुझे सुनाई दिए, जिन्हें सुन कर मेरे मन में कुछ तिड़क गया जैसे भूचाल से हमारी कोठरी की गुरुद्वारे की तरफ वाली दीवार में दरार आ गई थी।

जब मैं अकेला होता तो मेरी सोच फिर गुरुद्वारे के बाहर किसी अरदासिये की तरह जा खड़ी होती, जिसकी मूक आवाज़ मेरे सिवाय किसी को सुनाई न देती ।  अन्दर बैठे मेरी उम्र के सजे-संवरे लड़के-लड़कियों र अपन बीच, मुझे अपना नंग ढकने के लिए पहने हुए जांघिये का फ़र्क दिखाई देता या फिर रंगों का ।  सहसा, पाठ करने वाले भाई की ‘कर्मों’ के प्रसंग में की गई लम्बी-चौड़ी व्याख्या गाँव के बड़े से गोरे तालाब की तरह आ खड़ी होती, जिसके गहरे पानी पर तैर कर दूसरी ओर जाने का मुझमें साहस न होता ।  कोठरी की दीवार की दरार बड़ी दरार में बदल जाती और छत गिरने को तत्पर दिखाई देती । बीच-बीच में मेरी आँखों के सामने अपने ननिहाल के गाँव आई मेरी उम्र की उस भोली-सी लड़की का उस समय का चेहरा रह-रह कर साकार होने लगता, जब मेरा परसाद कुत्ता खा गया था और वह रुआँसी हो उठी थी ।  अपने छोटे से चुल्लू में से जब वह लड़की मुझे परसाद देने लगी थी, तभी एक स्त्री उसकी दोनों छोटी-छोटी चोटियाँ पकड़ कर उसे घसीटते हुए ले गई थी और वह ‘मामी-मामी’ कहती पैर घसीटती हुई आगे-आगे चल पड़ी थी ।  इन्हीं विचारों में गुम हुआ मैं आखिर मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लेता–‘अब से गुरुद्वारे के आँगन में पैर नहीं रखना ।  ऐसे परसाद को नहीं लेने से क्या थुरने वाला है!’

इसी दौरान, कई बार हमें ‘वलियों’ के बिक्कर की लाल-सफ़े़द-चितकबरी घोड़ी दिखाई देती ।  हमारी सारी टोली हुड़दंग मचाती उसी ओर हो जाती ।

बिक्कर जब हमारे घरों के पास से गुज़रता तो वह घोड़ी की रास पकड़े उसके आगे-आगे चल रहा होता । घोड़ी अपनी पूंछ बार-बार ऊपर-नीचे और इधर-उधर हिलाती-डुलाती रहती ।  इस प्रकार हम, ‘हैंकनों’, ‘नांगों’और ‘शेखचिल्लियों’ की हवेलियों के सामने से लाँघ कर, ‘घोड़ों’ और ‘मंतरियों’की हवेली तक घोड़ी के पीछे-पीछे चलते रहते ।  मेरा मन घोड़ी की छोटी- सी बछेरी पर उछल कर चढ़ने को करता, जो घोड़ी के कभी आगे और कभी पीछे की टांगों में अपना मुँह घुसा देती थी ।  पर कर्मों का खेल मेरा पीछा न छोड़ता था, वह मुझे बछेरी पर चढ़ कर झूलने के ख़याल को छोड़ देने के लिए प्रेरित करता ।  और, कई बार हम उस समय चीखें मारते हुए पीछे हट जाते, जब घोड़ी खड़ी होकर लीद करने लगती ।  एक बार  ‘नांगों’के पोखर के पास आए तो मेरे साथ के लड़के पोखर के पानी पर मटकों के ठीकरे फेंकने लगे ।  वहीं मेरी निगाह आम के नये उगे पौधों पर पड़ी ।  इनकी नीचे की पत्तियाँ हरी और कोंपलें हल्की भूरी थीं ।  मैंने एक बूटे की चक्कली निकालनी चाही, पर सफलता नहीं मिली, पर फिर भी मैं धीरे-धीरे होशियारी से एक बूटा जड़ सहित ही उखाड़ लाया ।

जब मैं अपने आँगन में बूटा लगाने के लिए खुरपी से मिट्टी खोद रहा था, तभी बापू ने मेरे हाथों की खुरपी छीन ली और बोला,  “मामा !  तू जट्टों की बराबरी करता है ।  उनकी तो छह-छह कनालों में हवेलियाँ हैं ।  हमारे पास तो यही कुछ है, बैठने-उठने को ।"

आम के बूटे की तरह मेरे मन ने भी मुरझाना शुरू कर दिया था ।  किसी तूफ़ानी अन्धड़ ने मेरी चाहतों के ‘बौर’ को असमय ही हिला कर झाड़ दिया था ।  मैं फिर भी सोचता, ‘हमारे आँगन में भी कोई पेड़ हो...चिडि़याँ-घुग्गियाँ और तोते आकर उन पर बैठें ।’

मैं अभी इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था कि मेरे हमउम्र पाश ने अचानक सूरज छिपने से थोड़ा पहले आकर मुझे बताया,  “अपने श्मशान के राह में छलेडा रहता है, गुड्ड !”

वह दौड़ कर आया था और तेज़.तेज़ हाँफ रहा था ।  मैं हतप्रभ था ।

“कैसा होता है वह ?”

“कहते हैं इच्छाधारी होता है, कभी आदमी बन जाता है, कभी बकरी, कभी कौडि़यों वाला खड़प्पा साँप और कभी कुछ और।" उसकी घबराई हुई आवाज़ से मैं और भी दहल गया ।

“कइयों ने उसे देखा है, कहते हैं–वो बाबरियों वाला बौना साधु भी बन जाता है और उसने काले कपड़े पहने होते हैं।" पाश की आँखों की पुतलियाँ कभी फ़ैल जातीं और कभी आँखें सिकुड़ जातीं ।  उसके चेहरे पर एक रंग आता,  एक रंग जाता ।

मेरी हैरानकुन आँखों के सामने यह सबकुछ साकार हो उठता । श्मशान भूमि में बिज्जू मरे बच्चों को ज़मीन के नीचे से खोद कर निकालते दिखाई देते, जिनके बारे में मैंने पहले ही अपनी दादी और हमउम्र साथियों से सुन रखा था ।

‘तभी, मोहन लाल डाकिया अपने हाथ में बरछा रखता है ।  इसी कारण उसने लाठी के सिरे पर लगे बरछे के ठीक नीचे घुँघरू बाँध रखे हैं ।  जब वह अपने उतावले-उतावले पैर उठाता है, तो घुँघरू बंधे बरछे वाली लाठी को भी फ़ुर्ती से आगे की ओर ज़मीन पर रखता चलता है ।  घुँघरुओं की छन-छन और लाठी की ठक-ठक से छलेडा डर कर राह में से हट जाता होगा ।’ मैंने सोचा ।  उसके सिर पर रखी, ख़ाकी थैली मुझे सुलेमानी टोपी जैसी लगती, एक ऐसी टोपी जिसकी कल्पना मैंने अपनी दादी से कहानी-किस्से सुनते समय की थी ।  दादी कहा करती, “इस टोपी से सारी आफ़तें रफ़ू-चक्कर हो जाती हैं ।"

उस रात मुझे हल्का-सा ताप चढ़ गया।  छलेडे को लेकर ख़यालों की लड़ी टूटने, खत्म होने पर ही नहीं आ रही थी। मैं सहमते हुए कभी आँखें मूंद लेता, और कभी खोल लेता ।  दालान की मोटी दीवार के आले में जल रहा मिट्टी के तेल का छोटा-सा लोहे का काला हो चुका दीया मेरे अन्दर ख़ौफ के उठते ऊँचे-ऊँचे ज्वारभाटों को धकेलने का यत्न करता ।  जब दीये की लौ काँपती तो छाती में मेरा दिल और अधिक डोलने लग पड़ता ।  मैं सोचता, ‘काश ! सुलेमानी टोपी मुझे भी कहीं से मिल जाए ।’

...और अगले रोज़ मैं गाँव के पश्चिम में ढड्डा-सनौरा गाँव की तरफ जाती राह की ओर न जाकर गोयरां(गाँव के नज़दीक वाले खेत) में ही हग कर जब घर की ओर तेज़ी से लौट रहा था, गली में माई ईशरी से आमने-सामने मेरी टक्कर हो गई थी । हालाँकि वह कुबड़ी होकर चला करती थी, पर शुक्र यह था कि वह गिरते-गिरते दीवार के सहारे से संभल गई थी । वह मुझे पहचान न सकी और मैं उलाहनों से बच गया था ।

“देख तो, गू से कैसे पैर लिबेड़ लाया है ।"  घर की चार-दीवारी के दरवाज़े के पास ईंट-पत्थर  से  बनाये गये खुरे (खुला गुसलखाना) पर मेरे पैर धोती मेरी माँ ने कहा ।  फिर, उसने दालान के पीछे वाली कोठरी में जाकर मुझे हाँक लगाई,  “इधर आ मेरे पुत्त, ये दाने कुरते की झोली में ले जा और रत्ते से चाय-पत्ती ले आ ।"

मैं प्राय: ही गाँव के बीच वाली गली में रत्ते बामण की हट्टी को जाया करता और देखा करता, सवेरे-सवेरे झीरों का किच्छी और पाशू, दोनों जट्टों-बामणों और सुनारों के घरों को पानी से भरे घड़े ले जा रहे होते ।  उन्होंने बाँये कंधे पर घड़े, छोटी मटकी को बड़ी होशियारी से गर्दन का सहारा दिया होता ।  वे अपनी चढ़ती उम्र में ही किसी बूढ़े बुजुर्ग की तरह कमर झुका कर चलते ।  घड़ों के भार तले तेज़-तेज़ चलने के कारण वे हाँफ रहे होते ।  मेरे मन में आता कि ईंट मार कर घड़े फोड़ दूँ ताकि मुझसे पाँच-छह बरस बड़े पाशू को इस बोझ से छुटकारा मिल जाए ।  पानी से भरे छलछलाते इन घड़ों के कारण उसके कपड़े भीगे होते ।  कुछ देर बाद वे स्कूल की ओर दौड़ रहे होते ।  उनका बापू दीवान भी बहंगी में पानी से भरे घड़े ढोता। वह संभल-संभल कर पैर रखता था। बहंगी की रस्सि्यों-तनियों के अन्दर फँसाये हुए घड़े झूलते दिखाई देते ।

कोई स्त्री दरवाजे़ में खड़ी होकर कहती,  “दीवान, आज पानी पहले हमारे घर दे दे, हमने मुकाणे (मातमपुर्सी में) जाना है ।"

“पंचा, बड़ा पसीने-पसीने हुआ पड़ा है सवेरे-सवेरे।" कोई जट्ट दीवान के पसीने से भीगे कपड़ों को देख कर पूछता ।

“कहीं जाना है ।  सोचा जल्दी-जल्दी हल्ला मार लूँ ।" वह अपनी माझे वाली बोली में बताता ।

कई बार ताई सीबो(झीर) और उसका बेटा जीत भी मुझे लोगों के घरों में पानी भरते हुए दिखाई दे जाते ।  साथ ही ‘कर्मों के खेल’ का चक्कर रहट की तरह लगातार चलना शुरू हो जाता ।  पानी से भरी डोलियाँ, ‘भाई’ के प्रवचनों की सच् साखी और खाली वापस आई छेदों वाली पुरानी डोलियाँ, ये सब एक मन-घड़ंत अकथ कथा की गवाही देते प्रतीत होते ।  हट्टी की ओर आते-जाते मेरे कानों में गुरुद्वारे के भाई के पाठ की आवाज़ पड़ती ।  लेकिन, बापू कई बार कहता, “पता नहीं क्यों भाई आज मुँह में ही मिन-मिन किए जा रहा है ।  कल तो मुर्गे की बाँग के साथ ही दुहाई देने लग गया था ।"

“मुँह सम्भाल के बोला कर, कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा ?" माँ ने धीमे स्वर में बापू से कहा ।

मेरा गाँव जो रात के समय घने अँधेरे में गुम हो जाता, दिन निकलने पर उजागर होकर फिर इसी तरह हरकत में आ जाता ।  और बापू हुक्के के लम्बे-लम्बे घूँट भरने के बाद पीतल का गिलास उठाता ।  इतने में मेरे ताये के बेटे भी आ जाते । उनके हाथों में या कई बार जेब में या फिर अंगोछे के एक सिरे में बाटी-गिलास बँधा होता ।  फिर वे दिहाड़ी, आधी दिहाड़ी के लिए घर से निकल पड़ते ।  मेरी आँखें उनकी पीठ का पीछा करती रहतीं ।  वे पीछे देख कर कहते, “जिनके यहाँ जाना है, उनके घर में हमारे लिए भांडों का टोटा ही रहता है, और बता ।"

मुझे शब्द न सूझते और सोचने लगता,  ‘अनपढ़ों से लिखे हुए अक्षर तो पढे़ नहीं जाते,  मुँह पर के अनलिखे को ये कैसे पढ़ लेते हैं !’

लेकिन, मेरा मन छलेडे की कल्पना कर-करके खुद ही मकड़जाल बुनता और खुद ही फँस जाता ।  और इस तरह कितनी-कितनी रात गुज़र जाती ।  इसी दौरान गीदड़ों की आवाज़ें आनी शुरू हो जातीं जो डरावनी और रुआँसी-सी होतीं ।  मेरे दिल की धड़कन मेरे कानों में सुनाई देने लगती ।  जाड़े की रातें खत्म होने का नाम ही न लेतीं । जब इस बड़े इलाके की गन्ने की फ़सल खत्म होती, तो गीदड़ों की आवाज़ें यदा-कदा ही सुनाई पड़तीं ।

उधर, बड़े तड़के नम्बरदारों के दास (गुरदास सिंह) की बेहद ऊँची आवाज़ ‘जै अली, जै अली’ जाड़े की रातों के सन्नाटे को चीरती हुई हमारे कानों में पड़ती ।  बिस्तर की गर्माहट में भी कुछेक पल के लिए मुझे कंपकंपी छूट जाती ।  अपने संग सोये बड़े भाई बिरजू से मैं कस कर लिपट जाता ।  मैं डर कर अदृश्य परमात्मा को मन ही मन स्मरण करने लग पड़ता। कई बार गहरी नींद तड़के ही आती ।

सुबह के समय दास हमारे घर के सामने से निकलता ।  उसके केश खुले और गीले होते ।  उस पर भरी हुई सफ़ेद दाढ़ी फ़बती थी, पर वह कोई दैत्य या जिन्न-भूत जैसा लगता ।  वह ऊँची-सी धोती और निहंगों जैसा कुरता पहने होता ।  उसके दायें हाथ में लोहे की बाल्टी और बायें कंधे पर गन्नों की एक गाँठ होती ।  उसका ऐसा रूप देख कर मैं डर जाता ।  मैं फ़ुर्ती से अपने घर के बाहर वाले दरवाज़े के तख़्ते की ओट में छुप जाता ।

“धरम से, रस की चाटी पी जाता है लंबड़ ! पाँच-सात दिन हुए लड़कों ने कोल्हू पर से रस की चाटी उठाकर पिला दी ।  जब थोड़ा झुका तो कै करने लग पड़ा ।" एक दिन स्वर्णा ने दास को आते देख कर अपने घर के दरवाज़े पर खड़े होकर मेरे बापू से सरसरी लहजे़ में बात चलाई ।

“पता नहीं क्या समस्या है इनके घर ।  कितना ऊँचा-लम्बा जवान है, पर आधी रात को रहट चलाने के लिए पशुओं की जगह खुद जुत जाता है ।" बापू ने बात को विस्तार दिया ।

“मामों ने सारा तकिया घेर रखा है, पीर ने तो सर चढ़के बोलना ही है ।  मुसलमान फकीर आसानी से पीछा नहीं छोड़ते हैं ।" स्वर्णा ने लोगों के मुँह चढ़ी बात को दोहराया ।

“अखंडपाठ तो बहुत कराते हैं, फिर भी...।" बापू ने कहा । इतने में दास करीब आकर खड़ा हो गया ।  मैं तख़्ते की झिर्री में से झाँक-सु रहा था ।

“ठाकरा, मैं शरीर तोड़-तोड़ के फेंकता हूँ, सिर घुमाता हूँ, इतना ऊँचा बोलता हूँ, उस समय कोई सुध-बुध नहीं रहती । पीर कहता है, भई मेरी कब्र क्यूँ उठाई...मेरी ख़ानगाह बनाओ, गुरुवार के गुरुवार चि़राग करो ।  नियाज़ दो ।  पर घर में मेरी चलती हो तब न ।" दास ने हाथ में पकड़ी बाल्टी को ऊपर-नीचे करते हुए अपनी व्यथा संक्षेप में बताई ।

‘पीर की कब् भी नहीं रही, फिर वो रहता कहाँ है, बोलता कैसे है ?   रातों को डराने वाला दिन में किस से डरता है ?’  मैंने मन-ही-मन सोचा ।

पल भर बाद दास कहने लगा,  “स्वर्णे,  चल कुएँ पर, तेरा कोल्हू चल रहा है न ?  जल्दी चल ।"

“सवेर-सवेरे ही बेचैन होने लग गया, लंबड़ा ?”  बापू ने पूछा ।

“धरम से, तड़प रहा हूँ । अन्दर तो ऐसे जैसे आग लगी हो ।"

जब दास और स्वर्णा, दोनो ‘बरगद वालों’ के घर के पास चले गये तो मैं और अन्य बच्चे बाहर राह में खड़े होकर एक आवाज़ में बोले– “जै अली, जै अली !”

स्वर्णे ने तैरती नज़र से पीछे मुड़ कर देखा, पर दास पीछे की ओर ठीक से न देख सका ।

...और इधर बापू रास्ते के साथ ही बरगद-पीपल के नीचे बँधी गाय और भैंस के पास चला गया ।  उसने भैंस की पीठ पर थपकी दी और उसके पुट्ठे पर से चिचड़ियाँ उतारने लग पड़ा ।  इस चिचड़ी-मार सिलसिले के दौरान मैंने देखा कि भैंस आँखें मूंद कर जुगाली करने लग पड़ी थी । 

...और, जाड़ा अपने अन्तिम दिन गिन रहा था ।  मैं और मेरे हमउम्र साथी बरगद-पीपल के पत्तों की फिरकियाँ बनाने-उड़ाने में व्यस्त रहते । पीपल की टहनियों पर से पत्ते झर चुके थे । उन पर नई सुर्ख कोंपलें फूटने को उतावली थीं । इस पतझर(1962) की समाप्ति के साथ ही मेरा स्कूल जाने का सिलसिला शुरू हो गया ।

स्कूल में दाख़िला लेने से पहले भी मैं अनेक बार स्कूल जा चुका था, पर छुपन-छुपाई के लिए ।  मैं, पाश और ध्यान तीनों जोड़ीदार कई बार स्कूल के प्रांगण वाले रहट को चलाते रहते ।  यह इतना हल्का था कि हम अकेले-अकेले भी गाधी का पूरा चक्कर लगा देते ।  पानी से भरी लोहे की छोटी-छोटी डोलियाँ चरखी के शिखर पर पहुँच कर उलटी होकर खाली हो जातीं और पतनाले के पानी की धार से यह बड़ी-सी हौदी मुँह तक लबालब भर जाती ।  मैं घर जाकर उमंग में भर कर यह सब बापू को बतलाता ।

“यह जान मुहम्मद की हवेली हुआ करती थी । उन्होंने बड़े शौक से इसके बरामदे, कमरे और मस्जिद बनवाई थी ।" बापू ने बताया ।  हम पूरा परिवार बड़े गौर से सुनने लगे ।  मैंने देखा, बापू का चेहरा उतर-सा गया था ।

बापू ने कुछ याद करते हुए कहा, “एक दिन ऐसी ही दोपहर के बाद जब मैंने दौड़ते हुए जाकर तकिये पर बैठे मोहकू को बताया कि तुम्हारा जान वो लड़ोये की राह चला आ रहा है तो किसी ने भी मेरी बात का विश्वास नहीं किया ।  उस समय मैं छोटा ही था । मैंने देखा कि अब बापू के चेहरे पर खुशी की एक लहर थी ।

मैंने फिर कहा, भई जा कर देख लो। मोहकू उठ कर खड़ा हुआ और एकदम से दौड़ पड़ा ।  फिर क्या था, उसने जान को बाँहों में कस लिया । बापू यूँ बता रहा था मानो उसने कोई बड़ा काम किया हो ।

“वह कहीं रूठ कर चला गया था ?” मैंने पूछा तो बापू के बारीक दाँतों की मज़बूत पंक्ति पल भर के लिए दिखाई दी ।

“नहीं, वो फौज में था ।  दूसरी बड़ी जंग में बहुत दिनों तक न कोई उसकी चिट्ठी आई और न ही उसकी कोई खबर मिली । सब बेउम्मीद हो चुके थे ।" बापू द्वारा चाव से सुनाई जा रही यह कहानी खत्म होने पर ही नहीं आ रही थी ।

“धरम से, जीवां ने बड़ी खुशी मनाई ।  हमारे घरों में लड्डू बाँटे ।  जिस दिन नियाज़ बाँटी गई, उस दिन सबसे पे मुे घर आकर चावल देने आई, बोली कि तू मेरे बेटे की आमद की ख़बर लेकर आया था । बापू ने स्कूल की इमारत और जान मुहम्मद की हवेली तक जाने के लिए अपनी यादों का घोड़ा पीछे की ओर सरपट दौड़ा रखा था ।

“जान मुहम्मद का छोटा भाई अजीज मुहम्मद मेरा जिगरी दोस्त था ।" बापू की आवाज़ पहले से धीमी और थोड़ी-सी भारी हो गई थी ।  उसके लाखे रंग के गाल ढीले पड़ गए थे । सामने पड़े उसके हाथों के खड्डी पर बुने सिल्की थान की पतली-पतली तहें खुल कर मेरे मन में जैसे बिछने लगी थीं ।

“किस्सा-कोताह यहाँ खत्म होता है कि बेशक कहीं-कहीं मार-काट शुरू हो गई थी, पर वे सारे परिवार यहाँ से सही-सलामत चले गये । जब वे ट्रक में बैठे, सारा गाँव इकट्ठा हो गया था ।  जीवां और मोहकू धरम से, दहाड़ मार कर रो पड़े ।  अजीज मेरे गले लग कर रोता रहा... जन्म-भूमि छोड़नी कोई आसान है !” बापू से इससे आगे बोला न गया ।

कुछ पल रुक कर उसने कहा, “जब ट्रक चलने लगा तो अजीज मेरी ओर एकटक देखता रहा ।  उसका मुँह मुरझाया हुआ लगता था, जैसे बीमार होकर उठा हो ।  धरम से, वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा ।  मैं भी बेबसी में उसे ताकता रहा । मेरी आँखों में भी पानी भर आया और धुंधला-धुंधला दीखने लगा ।... और उस दिन शाम होते ही सारे गाँव में यूँ सन्नाटा छा गया था, जैसे कोई दानव घूमकर गया हो... नावों में पत्थर डाल दिए बेईमान लीडरों ने ।"

रात में सोते समय मुझे मार-काट, गले लग कर रोने और गाँव में पसरी ख़ामोशी के कल्पित दृश्य बार-बार दिखाई देते । स्कूल के प्रांगण में अडोल खड़े जामुन के पत्ते टहनियों से टूट-टूट कर गिरते दिखाई देते और मस्जिद अँधेरे से भरी दिखाई देती ।  सोचता– पहले की तरह बापू ने हुक्के का कश क्यों नहीं भरा ? उसकी आवाज़ क्यों भारी हो गई थी ?  दिमाग पर अधिक ज़ोर डालने पर भी बहुत-सी बातों का मुझे सिरा न मिलता ।  पता नहीं, मुझे फिर कब नींद आती ।  सवेरे मेरी हर सोच यूँ मिटी होती जैसे मैंने अपनी तख़्ती पर ताज़ा पोचा मारा हो ।  पर रात के खाने के वक्त फिर से पूरनों पर लिखे वही अक्षर गहरे होते दिखाई देते ।

मेरे मन पर से भय की मोटी परत पिघलने में ही नहीं आ रही थी ।  मेरी सोच की लम्बी उड़ानों के पंख मानो सिकुड़ कर एक बिन्दु में बदल गये हों। इन्हीं दिनों में मेरी रातें और अधिक लम्बी हो गयीं।

वह घटना सायंकाल की थी जब घास-चारा खोदने के लिए निकली हमारे मुहल्ले की स्त्रियों ने उलटे पैर लौट कर दूसरों को बताया, “नम्बरदारों की हवेली में थाना बैठा है ।"

इसी दौरान मुझे तीन ख़ाकी वर्दीधारी ऊँचे-लम्बे पुलिसिये दिखाई दिए ।  पुलिस मैंने पहली बार देखी थी । उन्होंने निक्करें-कमीजें पहनी हुई थीं और पगड़ियाँ बाँध रखी थीं । उनके हाथों में रूल थे । गर्मी के मौसम में भी उन्होंने गर्म ख़ाकी जुराबें जो टखनों तक मोड़ कर दोहरी की हुई थीं, बूट-सैंडलों सहित पहन रखी थीं।  हमारे घर के आगे वाले पूरे रास्ते में सन्नाटा पसरा था।  न कोई बन्दा और न कोई परिन्दा दिखाई देता था।

हमारे घर के दरवाज़े के पीछे छिप कर खड़ी बूढ़ी औरतों के चेहरे घबराये और बुझे हुए थे। उनके हाथों में खुरपियाँ-दरांतियाँ धीरे-धीरे काँपती-सी प्रतीत हो रही थीं। वे घुसुर-फुसुर कर रही थीं, “ये पनाहगीरों की मिन्दो किसी के साथ भागी थोड़े थी। सुनते हैं कि इन्होंने ही उसके तीन टुकड़े करके, बोरी में डाल कर सिम्बल वाले कुएँ में फेंक दिया था।" मैं उनके पास खड़ा था, मेरी टाँगें मेरा बोझ नहीं सह पा रही थीं।

जब पुलिस वाले चले गये, तब दरवाज़ा खोला गया।

“ये तिलंगा-सा पता नहीं किस कंजर ने भर्ती कर लिया। और वो पिछला साला कैसे मुटिया रहा है, तोंदल-सा, बेगाना माल खा-खा कर।" बापू ने इकहरे और तोंदल सिपाहियों के बारे में दूसरों को सुना कर कहा। सबकी एक साथ छोटी-सी हँसी निकल गई।

बापू ने फिर टिप्पणी की,  “साले अणखों वाले!  हरामजादी को कहीं और दफा कर देते ! ‘बारियों’ (किस्तान के ‘बार’ इलाके से आये जट्ट) का क्या बिगड़ा।  जट्टों को ‘सात बीसी सौ’ यूँ ही तो नहीं कहते हैं। अब काटेंगे साले उमरकै़द!  और इनकी करमी को नहीं रखा  हुआ गुरमुख (बारियों के परिवार से) ने। रक्खे मूजी (करमी का पति) को घर में कौन पूछता है!”

दिन के समय खेले ‘खिद्दो-खूंडी’ खेल की उधड़ी हुई गेंद के रंग-बिरंगे चिथड़ों की तरह उलझी मेरी सोचें मेरे नियंत्रण से बाहर थीं। मरी हुई मिन्दो कभी अपने बापू के लिए भत्ता (रोटी-पानी), कभी चाय-पानी और कभी नंगे पैर चारे की गठरी उठाये जाती हुई दिखाई देती। वह मुझे राह में, गली में कभी किसी से बातें करती दिखाई देती तो कभी किसी से। उसकी अदृश्य लाश के तीन टुकड़े– गर्दन, धड़ और टांगें अलग-अलग दिखाई देते। रात में नींद से पहले सिम्बल वाले कुएँ पर लोगों की इकट्ठा हुई भीड़ दिखाई देती और पनाहगीरों के सारे टब्बर को कुएँ पर ले जाती पुलिस। मैं बड़े भाई से बात करता तो वह कहता, “रब्ब का नाम लिए जा, खुद-ब-खुद नींद आ जाएगी।"

मेरे भीतर ऐसी घटनाओं की टूट-फूट होती रहती। मन ही मन बहुत कुछ गुणा और भाग होता रहता। यह सब कुछ जारी था कि किसी ने बरगद के नीचे खड्डियों में आकर बताया, “दुरगे बामण के रेडियो पर खबर आई है कि चीन ने दगा किया। हिन्दुस्तान और चीन की लड़ाई लग गई है। सरकार ने फौज की भर्ती खोल दी है।"

सभी हक्के-बक्के रह गए और हुक्कों की नलियों की दिशा बदल गई। तनी हुई तानियों में जैसे ोल पड़ गया हो, उन्हें लपेटा जाने लगा। हरनाड़ी किए हुए (जुते हुए) बैल अपनी हवेलियों की ओर लौट रहे थे।

इस उड़ती हुई ख़बर ने मेरे छोटे से तन-मन में बड़ी जंग छेड़ दी। डर और सहम ने मेरे मन में जैसे स्थायी छावनी डाल ली थी। झुटपुटे से लेकर चाँदनी रातों में बरगद-पीपल के नीचे खेली गई ‘भंडा भंडारिया’(बच्चों का एक खेल) जहाँ मुझे याद हो आती, वहीं वह मेरे अन्दर ख़ौफ के बरसते बादलों की व्याख्या करती प्रतीत होती ।

...और एक दिन माँ ने मुझे हाँक लगा कर नहा लेने के लिए बुलाया, पर वाकया कुछ और ही घटित हो गया था ।

“बता मामा, फिर खायेगा मिट्टी?” बापू ने अचानक मेरी कलाई अपने दायें हाथ में पकड़ ली और मुझे कुएँ के अन्दर लटका कर पूछा। निखरे हुए दिन में यह बादल एकाएक पता नहीं कहाँ से गरज पड़ा था। मेरी नीचे की साँस नीचे और ऊपर की साँस ऊपर रह गई। मेरे दिल की धड़कन तेज़ और ऊँची हो गई थी जो मेरे कानों में लुहारों के कारखाने में घन की तरह ठक-ठक बजती सुनाई दे रही थी।

बापू फिर पूछने लगा,  “बता मामा, फिर खाएगा मिट्टी?”

इस आसमानी बिजली की तार मेरे तन-मन में बेरहमी के साथ दौड़ गई।  मुझसे रोया भी नहीं जा रहा था। बस, लम्बी-लम्बी साँसें ले रहा था और कलेजा मुँह के रास्ते बाहर आने को कर रहा था ।

कुएँ की मुंडेर के पास ही ईंटों के फ़र्श पर बैठ कर कपड़े धो रही मेरी माँ, कपड़े धोना बीच में ही छोड़ कर गुस्से में आकर तीखे स्वर में बोली, “तभी निकालेगा इसे जब इसका दम निकल जाएगा?” फिर वह उठ कर खड़ी हो गई,  “अगर तेरे हाथ से लड़के की बाँह छूट गयी तो...।"

“बहुत डांट-फटकार कर देख लिया, इस साले की ऐसे आदत नहीं हटने वाली।" बापू ने भी पलट कर उसी लहजे़ में जवाब दिया।

मैं कभी ऊपर याचनाभरी दृष्टि से बापू की ओर और कभी नीचे पानी की ओर देखता जो मेरे छोटे से कद से मुश्किल से पाँच-छह हाथ नीचे था ।

“लड़का इतने ज़ोर-ज़ोर से रोये जा रहा है और तू फिर भी...” माँ बापू की ओर ऊँची आवाज़ में झपटी। उसने मुझे जल्दी से बाहर निकाला। मेरा शरीर बेजान-सा हो गया था। जाड़े के महीने में ग्यारह-बारह बजे घटित पन्द्रह-बीस सेकेण्डों की इस घटना से मेरा अलफ़ नंगा बदन पसीने से भीग उठा था ।

कुछ देर बाद मुझे अचानक पिछली बरसात का स्मरण हो आया। उस वक्त कुएँ के पानी का स्तर और ज़मीन के पानी का स्तर एक बराबर हो गया था। जब बारिश हल्की हुई तो ज़मीन से करीब दो बालिश्त नीचे तक कुएँ की मुंडेर नंगी हो गई थी। छोटे-बड़े मेंढक कुएँ में तैरते दिखाई दिए। उनके कुएँ में से न निकल सकने की चिंता मुझे लगी रही थी ।  लेकिन, शाम के वक्त कुएँ के बाहर कई मेंढक उछलते-कूदते दिखाई दिए थे और ‘टर्र...टर्र...’  की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। तभी, मुझे अपना ख़याल आता, ‘अगर बापू के हाथ से मेरी बाँह छूट जाती तो क्या मैं मेंढक की तरह तैर सकता था ?’

मैंने मन ही मन बापू को कोसा और उसके ख़िलाफ़ कई मन्सूबे सोच डाले, ‘जब भी दाँव लगेगा, बापू की शराब की बोतल मूत से भर दूँगा। नहीं तो चिलम के अन्दर का जलता हुआ कोयला उसके हाथ पर किसी तरह फेंक दूँगा।’

बापू का यह व्यवहार जब भी मुझे याद आता तो मेरे तन में एक सिहरन-सी दौड़ जाती। मेरा दिल डूबने लगता। लगता जैसे उड़ता हुआ पंछी गुलेल का निशाना बन गया हो।

“शर्म कर कुछ, वो पहले ही जार-जार रोये जा रहा है, ऊपर से फूल बराबर लड़के की कनपटियाँ चपेड़ें मार-मार कर लाल कर दी हैं तूने।" बापू को अबा-तबा बोलती माँ का अपना चेहरा लाल हो गया था। मैं माँ की टांगों से लिपटा हुआ था।

माँ का इतना गुस्सा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बापू की नित्य की गाली-गलौज और धौल-धप्पे का उसने कभी पलट कर जवाब नहीं दिया था। लेकिन, उसके गुस्से का यह न्यारा रूप देख कर मैं भी डर से काँप गया था। फिर, उसने बैठ कर मुझे अपनी बांहों में भर छाती से लगा लिया और फिर से बहती मेरे आँसुओं की धारों को पोंछने लग पड़ी। वह कुछ देर रुक कर बोली, “तुझे अपना नहीं मालूम, राह-गली और खेतों में कोई भुग्गी(ठीकरियाँ जो पुरानी होकर कच्ची-पोली हो जाती हैं) नहीं छोड़ता। देख तो, हुक्के की आदत से मुँह में से कैसे बू आती है। जा, चला जा घर को।"

मेरी माँ की आँखों में लाली और नमी दोनों साथ-साथ दिखाई पड़ रही थीं।  बापू दास की पक्की नांद के साथ-साथ पाँच-सात कदमों की दूरी पर अपने घर की ओर जाते हुए फ़र्श पर जमी हरी काई पर फि़सल गया, पर गिरते-गिरते संभल गया। फिर भी, वह दबी जबान से बोला,  “कमूत की मार, कैसे बड़-बड़ किये जाती है।"

“न, खुद ही तो ले जाता था संग, जब फिरनी (गाँव के इर्दगिर्द का रास्ता) पर लड़ोये वाली राह में मिट्टी डाली जा रही थी। वहाँ खतानों में खेलता-खेलता सीख गया मिट्टी खाना।" माँ ने करीब खड़ी दास की बहू मिन्दो को बताया जो मेरी ओर देख रही थी ।

“मुरब्बेबंदी (चकबन्दी) क्या हुई, हमारे घर तो मुसीबत आ गई। हमें क्या जमीनें मिल गयीं!” फिर रुक कर कहने लगी, “हूँ ! जैसे हमारे वहाँ से गड्डे गुजरेंगे मिल को! अभी तो कमबख़्त कहते थे कि खाली रहते हो, सारी फिरनी पर तुम मिट्टी डालो। ये तो हमारे बन्दों ने लड़-भिड़ कर घर-परती मिट्टी डलवाई कि भई, बेगारों का जमाना गया अब।"  माँ ने गर्दन अकड़ा कर कहा। शायद, वह बताना चाहती थी कि लगातार पन्द्रह-बीस दिन मिट्टी फिरनी पर डालते हुए मैं मिट्टी खाने लग पड़ा था।

तभी, राओ का गोलू मुझे सिसकियाँ भरते को बाँह से पकड़ कर बरगद के नीचे ‘नक्का पूर’ खेलती ढाणी के पास ले जाकर पूछने लगा, “फलातू (अफलातून), बता फिर, तेरी ससुराल कहाँ है?”

मैं चुप रहा ।

“मेरा यार बन के बता, तेरी ससुराल कहाँ है?”

“कंधाले (मेरी ननिहाल का गाँव) और कहाँ!” मेरा उत्तर सुन कर वे ठहाका मार कर हँस पड़े।

गोलू दूसरों के सम्मुख मुझसे अक्सर यही पूछा करता जैसे वह मदारी हो और मैं उसका जमूर। लेकिन, लोगों के हँसने का कारण मेरी समझ में न आता ।

 

सवेरा होते ही बापू मेरे और मेरे बड़े भाई के ऊपर से खेसी या रजाई उतार कर पैताने की ओर फेंक देता। माँ कहती,  “पुत्त, उठ अब। घुटने-घुटने दिन चढ़ आया।" या फिर कहती, “गुड्ड, ‘भगतों’ के यहाँ से गोहरे पर आग ले आ, चाय का पानी चढ़ाऊँ।"

हमारे घरों के चूल्हों में रात को ही सुबह के लिए राख में आग दबा कर रख दी जाती थी। जब कभी ऐसा करना भूल जाते तो आग एक-दूसरे के घर से माँग लाते। दियासिलाई की तीलियों की बचत करते। जाड़े के दिनों की घनी धुंध के दौरान हम चूल्हे के करीब बैठे रहते और सूखे पत्तों के गुच्छे बना-बनाकर आग में डालते रहते या राहों में से गन्नों के इकट्ठा किए हुए छिलके।

दालान और बाहरी दरवाज़े की दीवार के सहारे चार खम्भों पर निर्मित की गई छतड़ी(रसोई) में कोई खिड़की, दरवाज़ा नहीं था। पश्चिम की ओर सरकंडों-नड़ियों का टिट्टा था जो लिपापुता होने के कारण दीवार का भ्रम देता था। सवा डेढ़ खाने की इसकी छत सरकंडों-कड़ियों की थी। धुएँ की जमी हुई मोटी काली परत के कारण सरकंडों की कोई अलग पहचान नहीं रह गई थी। छत से लटकता सरकंडा जब धुएँ से हिलता और उस पर लगी कालिख तभी किसी फाहे की तरह नीचे गिरती जब उससे उसका वज़न उठाया न जाता।

मुझे गिलास में से चाय छान कर कटोरी में डालते देख कर बापू कहता, “पी ले अब! अब कोई बरसात है जो कीड़े तैरते दिखते हैं! इन दिनों में गुड़ में कीड़े नहीं पड़ते।"

इस भरोसे के बाद मैं चाय को पानी की तरह पी जाता, पर बरसात के दिनों के सफ़ेद कीड़े मुझे अभी भी चाय पर तैरते हुए दिखाई देना बन्द न होते, जिन्हें माँ ने अपने सिर के दुपट्टे का पल्लू रख कर छाना होता। काली चाय-पत्ती पर मरे पड़े सफ़ेद कीड़े फूल कर मोटे हो गए दिखते।

सर्दियों में हमारे घर के सामने अलाव जलता। बच्चे-बुज़ुर्ग सब आग तापते।  हममें से जो अपने घर से बालण न लाता, उसे आग न तापने देने के लिए हाथापाई भी हो जाया करती। अलाव की लपटों के आगे हम अपने बर्फ़ सरीखे ठंडे पैर ले जाते और फिर स्कूल की ओर दौड़ पड़ते। हममें से किसी के पैर में भी जूती न होती।  उधर जमींदारों के लड़के-लड़कियों ने दोहरे स्वेटर पहने होते। मैं सोचता, कोई मुझे एक स्वेटर दे दे, मैं भी इसकी गरमाइश लेकर देखूँ। मेरे इन विचारों की लड़ी तभी टूटती जब मैं दूसरे बच्चों के संग ऊँची हेक में कहता–

सूरजा सूरजा फट्टी सुखा,

नहीं सुखानी, घर को जा।

 

पल दो पल के बाद मेरा ख़याल फिर से अपने लकीरों वाले कच्छे और कुर्ते पर चला जाता जो ठंड रोकने की बजाय बहती नाक की रेंट को पौंछने-रोकने के अधिक काम आता। मेरे कपड़े इतवार के इतवार धुला करते। नाँद के पास बैठ कर कच्छे के नेफ़े में से जुएँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर मारने में ही मेरा कितना-कितना समय लग जाता। मेरा मन ऊब जाता और गर्दन दुखने लगती। जब माँ मुझे कुएँ पर नहलाती तो मेरे पैरों पर दाँयें हाथ का अंगूठा ज़ोर से रगड़ कर कहती, “देख तो, मैल की पपड़ियाँ कैसे जमी पड़ी हैं!” पर मुझे टाँगों और मैल जमे पैरों में अधिक फ़र्क नज़र न आता। मैं फिर इन लम्बी सोचों से बाहर निकल आता लेकिन ‘सूरजा सूरजा फट्टी सुखा’ की हेक बहुत मद्धम पड़ जाती।

इस दोहराने के क्रम को बीच में ही छोड़ कर मैं, खुशिया और भीमा या उसके छोटे भाई प्यारी, जिसे गाँव के अधिकतर लोग आशिक कह कर बुलाते थे क्योंकि उसका रंग काला, शरीर दुबला और चाल निराली थी, की ओर देखने लग पड़ता जो किसी कटड़े-बछड़े को उठा कर स्कूल के सामने से ले जा रहे होते। इन दिनो अक्सर कटड़े-बछड़े, गायें और बूढ़े बैल मरते रहते। बूढ़े भैंसों को तो जट्ट पहले ही मंडी में बेच आते थे। उन्होंने मुरदार की चारों टाँगों को खुरों के पास से जोड़ कर इस तरह बाँधा होता कि टाँगों के बीच से बाँस की मोटी कड़ी निकाली होती। कंधों पर रखा मोटा डंडा या बल्ली उनके आगे-पीछे होकर चलने में रुकावट पैदा न करती। उल्टा लटका कटड़ा या बछड़ा झूला झूलता प्रतीत होता। उसकी गर्दन और लटकते कान हिल रहे होते ।

बड़े मुरदार को पाँच-छह लोग घसीट कर ले जाते। वे एक-दूजे से कहते, “प्यारी ठीक से खींच, सारा वजन मेरे पर छोड़े जा रहा है।"

पीठ के बल खिंचे जा रहे मुरदार की अगली-पिछली टाँगों के बीच से निकाली गई मोटी कड़ी कंधों पर रख कर वे इस तरह खींचते कि उनका सिर-धड़ कूल्हे पर से आगे की ओर काफ़ी झुका और तना हु होता। उनका अपना वज़न पंजों पर होता और घुटने आगे की ओर तीखा तिकोन बनाते दिखाई देते। कई बार उनमें से कोई एक बींडी से जुड़ा होता। जब वे दम मारने के लिए रुकते तो अपने माथों पर आए पसीने को कंधे पर रखे अंगोछों से पोंछते जब कि हम ठंड में ठिठुर रहे होते ।

कभी-कभी आधी छुट्टी के समय में हमारी बिरादरी के अन्य बच्चे दौड़ कर भीमा और उसके साथियों के संग जा मिलते। घसीटे जा रहे मुरदार के सींग जब ज़मीन पर रगड़ खाते तो = के निशान की तरह दो लकींरें ज़मीन पर खिंचती चली जातीं। मुरदार की आँखें माथे से थोड़ा बाहर की ओर उभरी और खुली हुई होतीं।  मुँह भी खुला होता और दाँतों का निचला जबड़ा आगे तक दिखाई देता। मैं कई बार मुरदार का उल्टा हुआ सिर ठीक से पकड़े रहता ताि ह इधर-उधर न हो।  सोचता– उसका बदन छिल न जाए। कई बार मरे हुए पशु को छकड़े पर लाद कर ले जाया जाता और हम बच्चे पीछे से धक्का लगा कर उसे धकेलते। बहुत दूर से वापस लौटते समय आसपास के खेतों में से सरसों के पीले फूल तोड़ लेते।

हड़वारा से लौट कर या आम दिनों में जब भी मैं नल से पानी पीता, मेरे बाद पानी पीने वाला जट्टों का लड़का नल को पहले अच्छी तरह धोकर उसे ‘सुच्चा’ करता, तब पानी पीता। मैं सोचा करता कि मेरे हाथों में भला क्या लगा है, ये खुद भी तो उनकी पूँछें मरोड़ते हैं।

मृत पशु को जब हमारी बिरादरी के लोग उठा लेते तो जट्टों की स्त्रियाँ उनके पीछे-पीछे पानी के छींटे मारतीं और ‘सत्तनाम वाहेगुरु’ कह कर हवेली का आँगन पवित्र किया करतीं। मैं सोचा करता कि यह कोई जादू-मंतर होगा। पर यह किसे सुनाया गया?  मुरदार को?  मुरदार उठाने वालों को?  या फिर बोलने वाली ने स्वयं को सुनाया होगा?  मुझे लगता– बापू की उलझी तानी की तरह मेरी सोच में भी गुंझल पड़ गई हों जिन्हें सीधा करने के लिए कोई हल नहीं सूझता।

कई बार मस्सा लम्बे पड़े और मर रहे बैल या गाय के पास बैठ कर ऊँचे स्वर में गीता का पाठ करता। उधर मर रहा पशु तड़प-तड़पकर आगे-पीछे की टाँगें खींच-खींचकर ज़ोर से पटकता। मस्सा कहता,  “बस, अब गति हो गई समझो।"

      “भई मस्से, फ़ायदा भी बहुत दिया इस मीणे (बैल जिसके सींग नीचे की ओर मुड़े होते हैं) ने।" इकबाल सिंह के बापू उधम सिंह ने एक बार अपने बैल का अफ़सोस करते हुए कहा था, पर मस्सा गेहूँ के दानों की गठरी पीठ पर लादकर चल दिया था।

मस्सा खड्डी बुनते जब भी किसी से बात करता तो यूँ लगता मानो उसे गुरुद्वारे के ‘पाठी’ से भी अधिक ज्ञान हो। वह महाभारत और रामायण के हवालों सहित गुरबाणी की तुकों की व्याख्या कर सुनने वाले लोगों को भरमा देता। मुझे पास खड़े को अक्सर वह कहा करता,  “गुड्ड, कली की चिलम में आग तो रख दे।"

उसके बारे में घर में बात चलती तो बापू तुरन्त कह उठता, “यूँ ही मामा अगम की बातें मारता रहता है। ऐसे बाँध बाँध लेता है जैसे रब को अभी ही मिलकर आ रहा हो। कोई पूछे तो इससे कि भलेमानस आज तक रब किसी ने देखा भी है?” यह सब सुनकर कभी मुझे मस्सा सही लगता तो कभी बापू। मैं सोचने लगता–‘क्या सचमुच पाठ करने से पशु जल्दी मर जाता है?  क्या वह पाठ की पंजाबी या हिन्दी समझता होगा?’  ‘गति’के बारे में तेज़ गति से ख़याल मन में उठते, मगर जलेबी-चक्कर की तरह यह भेद हाथ न लगता कि ये कहाँ से शुरू होते हैं और कहाँ खत्म होते हैं। मेरी सोच सुदूर क्षितिज तक जाती और उसी समय खाली हाथ लौट आती।  मुझे लगता कि दिन में ही अँधेरा पसर गया हो।

“सारे बच्चे-बुज़ुर्ग खेतों में जाकर पीपा-परात खटखटाओ। टिड्डी-दल आ रहा है, मक्की की फ़सल बचाओ!”  जागर चौकीदार की हाँक से पौ फटने के समय मेरी आँख खुली तो दौड़कर दरवाजे़ से बाहर चला गया। उसने पुराने टूटे और जंग लगे नसवारी रंग में बदल चुके पीपे पर शहतूत की सोटी मार-मारकर उसे पिचका दिया था। वह डौंडी पीटता तेज़ कदमों से गाँव के बीच वाली गली में चला गया था।  लेकिन, उसकी ऊँची आवाज़ ‘मक्की की फ़सल बचाओ, भाइयो!’ अभी भी सुनाई दे रही थी । उस समय मैं दूसरी कक्षा (1963) में आ गया था ।

लोगों के झुंड तेज़ गति से खेतों की ओर दौड़े चले जा रहे थे। हम भी, यानी बापू, बड़ा भाई और मैं, जिसके हाथ जो भी आया लेकर फिरनी के साथ लगते ‘अलबलल्लं’ के खेत में जाकर पीपा-परात और काँसे की थाली बजाने लगे। हमने उनके खेतों में अपने पशुओं का ढेर (गोबर-कूड़ा) डालकर आधे हिस्से पर मक्का बो रखी था। मक्के के कई बूटे मेरी बालिश्त जितने थे और कई उससे बड़े। एकदम हरे नरम-नरम! हमने थोड़े से खेत की एक दिन पूर्व गुड़ाई की थी।  

जहाँ तक आसपास और ऊपर नज़र जाती, टिड्डी-दल का कोई काफि़ला गाँव की दक्खिन दिशा से पहाड़ यानी उत्त दिा की ओर उड़ता जाता दिखाई देता। कुछ देर पहले उे सूरज की किरणें इस सघन टिड्डी दल से छनकर आ रही थीं।  जहाँ-जहाँ यह टिड्डी-दल उतरता, मक्का, चरी, बाजरे, शीशम के पत्तों को चट कर जाता।  टिड्डी-दल  बैठते ही चावलों के दानों जैसे सफ़ेद लम्बे अंडे दे देता। इनसे उठती बू के कारण खाली पेट होने पर भी उल्टी आने को होती। उन्हें देखकर और उन पर पैर पड़ जाने के कारण घिन हो आती।

“तेरी मैं तानें निकलवाता हूँ, मामा हीर के!” बापू ने दूर से ही अपने मुँह के सामने से दायें हाथ से टिड्डियों को हटाते हुए कहा। अब मैं थाली पर एक टहनी के बनाये गए डग्गे को बेहद ज़ोर और फुर्ती से मारने लग पड़ा था। साथ ही मुझे ख़याल आया, ‘टिड्डियाँ तो इतनी तेज़ रफ्तार से उड़ती जाती हैं, फिर जागर चौकीदार को इतना पहले कैसे पता चल गया?’

सूरज अब काफ़ी ऊपर आ गया था। काफि़ले से बिछुड़ी हुई कोई-कोई टिड्डी पीछे रह गई थी जिसे हम होशियारी से मार देते।  तभी, बेशुमार चींटियाँ भी न जाने कहाँ से आ गई थीं, जो टिड्डियों की लाशों को खाने और खींचने लग पड़ी थीं। इस टिड्डी-दल के पंख मुझे आदमपुर के हवाई अड्डे से उड़ते हवाई जहाजों जैसे लगते।  पीले रंग की इन टिड्डियों के लम्बूतरे पेट पर थोड़ी-थोड़ी जगह के फ़ासले पर काली धारियाँ थीं जो बहुत खूबसूरत लगती थीं।

लोग घरों की ओर लौटने लगे। नम्बरदारों की हवेली वाले तिराहे पर आ कर ताये बन्ते ने बात शुरू की, “तुम्हारे चार मन दाने होंगे सरदार जी, तभी तो हमारे घर भी दस सेर आएंगे।"

“रब का शुक्र है, ज्यादा नुकसान नहीं हुआ।" किसी ने कहा।

“शाबाश भई जागर को! जिस वक्त थाने से सिपाही इ​त्तिला देने आया, उसी वक्त वो डौंडी पीटने लग पड़ा।" ताये ने बताया ।

“कहते हैं, थाने में वैरलस आई थी जालंधर से।"

“हमलों(बंटवारा) के बाद (1950 में) जब टिड्डियाँ आईं थीं, तब तो दरख़्तों के पत्ते तक चाट गईं थीं। बिलकुल नंगे कर दिए थे और ये ज्वारें उसके सामने क्या थीं!  कहते हैं, कई जगहों पर तो गाडि़याँ तक रुक गईं थीं।" ताये ने एक लड़ी जोड़ने की कोशिश की। मैं करीब खड़ा उन सबके बेरौनक-से चेहरों की ओर देख रहा था।

आ मेरे बेटे, ये शीशम की सूखी टहनियाँ उठा ला। धूनी लगाएं।"  ताये बन्ते ने बीच में ही बात काटकर मुझे इशारे से कहा। मैंने सोचा– ताये को अपनी जेब में रखी भौंपू जैसी सुल्फ़ी में आग बना कर रखनी होगी शायद।

ताये बन्ते का खुशिया और मैं छोटी-छोटी सूखी टहनियाँ इकट्ठी करके ले आए। इतने में ताये ने राह में से घासफूस इकट्ठा कर लिया था जिसके ऊपर हमारे द्वारा लाया गया बालण रख कर उसने तीली से आग लगा दी। जब लपट धीमी हुई तो उसने अपने अंगोछे के पल्लू में बंधी गाँठ को खोला। इसमें मरी हुई टिड्डियाँ थीं। उसने इन्हें आग पर फेंक दिया । फिर हाथ में पकड़ी टहनी से उन्हें हिलाने लगा और बोला,  “चबा लो, होलकें बन गईं।“

यह सुनकर मैं ताये के मुख की ओर देखता ही रह गया ।

ताये ने भुनी हुई एक टिड्डी खुद मुँह में डालकर एक मुझे पकड़ाते हुए कहा, “चबा जा, चबा जा!  इसमें कौन सी हड्डियाँ हैं।" छोटी-सी हँसी के बाद वह फिर बोला,  “हम तो बड़ी हड्डियाँ चबाते-चूसते रहे हैं।"

मैंने झिझकते हुए भुनी हुई टिड्डी खा ली। बड़ी चटपटी और स्वादिष्ट लगी। फिर, मैं खुद ही आग में टहनी मार कर ‘टिड्डी होलकें’ खाने लगा। खुशिया के हाथ और मुँह काफ़ी तेज़ हरकत में थे।

मेरे टिड्डी खाने की घटना स्कूल में अफ़वाह की तरह फैल गई और बच्चे मुझे ‘टिड्डी खाणा’ या फिर ‘टिड्डी खाणा सप्प (साँप)’ कह कर चिढ़ाने लगे।  ‘साँप’ शब्द उन्होंने मेरे काले-लाखी रंग के कारण जोड़ लिया था। मैं इस श्मिन्दगी के बोझ तले लगातार दबता चला जा रहा था, जिससे यत्न करने पर भी निकल न पाता। कभी अपन टिड्डी होलकें’ खाने की घटना घिनौनी लगती तो कभी सहज। मन में दलील उठती– दीवाली-दशहरे को सभी के घरों में बकरे का माँस पकता है, उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता। लेकिन, पाँच-सात दिन के अन्दर ही यह सम्बोधन टिड्डी दल की तरह दूर उड़ गया था। .... और मेरा मन इस सूक्ष्म असह्य  बोझ से मुक्त हो गया। मैं फिर से हवा में उड़ती तितलियों और रात में टिमटिमाते जुगनुओं के पीछे दौड़ने लगा था।

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