छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

दिल्ली के लिए रवानगी

पिछले पाँच, छः बरसों से पाँच पानियों के देश की फिज़ा बहुत खराब हो गई थी।  लगता कि इसने भी सियासी लोगों की तरह दिन, रात अपने मुखौटे बदलने शुरू कर दिए हैं।  कभी महसूस होता कि दरिन्दों जैसे लोगों ने कुदरत पर कब्ज़ा करने का दृढ़ निश्चय कर रखा है।  रात के भोजन के बाद ही लोगों की तरह कुत्ते भी घरों में बन्द होकर शान्त से बैठे रहते जैसे भौंकना उनके स्वभाव में से ही निकल गया हो।  गलियों में पसरे सन्नाटे को जैसे ये समझने लगे हों।  अदृश्य साज़िशी सन्नाटे की चादर को अगर कोई तार, तार करता तो वह ‘ठांय, ठांय’ की आवाज़ होती, रुदन और विलाप की दिल को चीरने वाली आवाज़ होती।  अगर कहीं मातमी धुन के दौरान कंधों के बीच से कोई गर्दन ऊपर उठती दिखाई देती तो अँधेरे के संगी, साथियों की ओर से उसे हमेशा के लिए मिटा दिया जाता-एक पृथक पहचान की ख़ातिर!

नफ़रत की खेतीबाड़ी भड़काऊ पानियों के सहारे सघन और ऊँची होती गई। मालिकों और पालकों को नतीजे की भरपूर उम्मीद दिखाई देने लगी।  कच्ची, कोमल डंठलों को निर्दयता से तोड़ते, मरोड़ते हाथ पाक, पवित्र ठहराये जाने लगे।  अपनों के लहू के बीच पराये प्रवेश कर गए प्रतीत होते जिसके कारण एक पृथक लोच और सोच का सुर उभरता। पवित्र स्थानों से नफ़रत के बारूद से भरी मिसाइलें दागी जातीं।  घरों के अन्दर दीवारें खड़ी होने लगीं।

... और, फ़ुर्सत के क्षणों में मैं पंछियों को आकाश में उड़ते हुए देखा करता।  वे कभी किसी पेड़ पर बैठते तो कभी किसी घर की मुंडेर पर।  हदों, सरहदों से बेखबर और यह सब कुछ उनके लिए अर्थहीन!  जैसे सारी धरती, सारा आकाश उनका अपना घर हो।  मेरी सोच उनकी उड़ानों के पीछे, पीछे उड़ती और बहुत बार महसूस ही न होता कि मैं ज़मीन पर हूँ।

लोग तंग, परेशान कि दिन चढ़ते ही उन्हें कभी इस गाँव में तो कभी उस गाँव में मातम में शरीक होने की तैयारियाँ करनी पड़ती हैं।  जवान, अधेड़ और बुजुर्ग स्त्रियों के सिरों के दुपट्टे सफ्रेद होते और उनके चेहरे पूनी की तरह सफेदी लिए दिखाई देते।  सिरों के लाल दुपट्टों और चेहरों की लाली को जैसे दिशाहीन आँधी अपने संग ही उड़ा ले गई थी।  मुहल्लों में फूहड़ी, सत्थर (मातमपुर्सी के लिए बिछाया गया कपड़ा) का बिछना एक आम, सी घटना हो गई।   एक बुजुर्ग हमारे गुरुद्वारे के पीपल के थड़े पर बैठकर अक्सर बातें किया करता, “मुल्क पर संकट है लोगो, हमलों (१९४७ का बंटवारा) के बाद ऐसा खून, खराबा  देख रहे हैं।”  फिर जैसे लाचारी में कहता, “सतिगुरुओं के स्थानों पर बैठ कर जो साज़िशें, मन्सूबे घड़ते हैं, उनके मनों में सतिगुरु खुद बैठे तभी यह सब खत्म होगा।  धर्म और न्याय के कारण ही धरती, आकाश थमे खड़े हैं।”

रोज, रोज निर्दोषों के गायब हो जाने की तरह, भरी गर्मियों में बिजली के दर्शन नाम मात्र को होने के बावजूद दहशत और कत्लोगारत से डरे हुए जवान लड़के और परिवार के अन्य सदस्य घरों के अन्दर ही सोया करते, ताले लगाकर रखते।  लोग जवान लड़कियों को छिपाकर रखते मानो वे चुरा कर ले जाने वाली वस्तुएँ हों।  रक्षा के लिए उठे हाथ कलम कर दिए जाते। निरा यम, राज!

हथियारों से विचारों को बदलने के यत्न किए जाते, ‘तुन्नी, मुन्नी एक बराबर’ (दाढ़ी को काटना और बाँधना दोनों एक जैसे अपराध हैं) के फ़तवे जारी किए जाते। कुछेक लोगों की ऐसी विकलांग मानसिकता को फलते, फूलते देखकर इन्साफ़पसन्द धरतीपुत्र लोगों की एकता के वास्ते दिनरात इस भाई, भाई को मारने वाले संघर्ष के ख़िलाफ़ काफ़िले बनाकर चलते। जन मन के गहरे ज़्ख़्मों पर हमदर्दी से भरे शब्दों की मरहम, पट्टी किया करते, उन्हें अपने संग मिलाते।  शब्दों के सफ़ेद कबूतरों को सरेआम आकाश में उड़ाते।

और, ख़ला ने बेज़ुबानों की ज़बान को अपने अन्दर समाहित कर लिया और वह नित्य घटित होती इन दिल दहला देने वाली वारदातों का गवाह बना और निराश्रय की ओट!  फिर आए वे दिन जब ख़ला खुद दीवार बनकर खड़ा हो गया - एक निरी फ़ौलादी ढाल, जो अपनी खुद मिसाल।  एक आवाज़, जिसने दूसरों की ज़बान को बन्द करना चाहा, को चुप करा दिया गया।  घुटनों से लम्बे लटकते हाथ धरती पर बेहरकत होकर रह गए।  सिफ़्तीं का घर छलनी, छलनी हो गया।

फिज़ा में सरकारी दहशत और बेधड़कन मरियल, सी ज़िदगी मैंने पहली बार देखी।  जालंधर शहर में अंग्रेज़ी हुकूमत के समय एक बार कर्फ़्यू लगा था, ऐसा सुन रखा था।  उसी शहर में दूसरी बार और समूचे पंजाब में पहली बार यह दृश्य देखा गया।  इक्का, दुक्का कुत्तों और पंछियों सहित सड़कों पर फौजी, नीम-फौजी दस्ते घूमते।  कर्फ़्यू लगे शहर में सचमुच की वीरानगी साफ़ दिखाई देती।  जिन गलियों, बाजारों में दो, तीन दिन पहले रौनकें और बच्चों के खेलने, कूदने के नज़ारे देखे गए थे, वहाँ अब सन्नाटा पसरा था।  ऐसा लगता था, शहर में से स्त्री, पुरुष और बच्चे सचमुच जैसे कहीं और चले गए हों।  इस ख़ौफ़ ने मासूम बच्चों के हाथों में से गुब्बारे और छोटों, बड़ों के होठों पर से झरते हँसी के फव्वारे छीन लिए।  दुकान, मकान खंडहरों की डरावनी चुप में तब्दील हो गए।  बीच, बीच में मैं महसूस करता जैसे कोई मेरा पीछा करता आ रहा हो।  मैं मुड़-मुड़कर पीछे की ओर देखता- मेरे अपने ही वहम के अलावा कोई न होता।

जलती हुई बेसिर, पैर की यह आग किसी का लिहाज़ न करती।  और आख़िर, यह आग तख़्त को जा लगी।  राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आवाज़ देश की राजधानी में ही हमेशा के लिए ख़ामोश कर दी गई।  बड़ा दरख़्त गिरा, धरती काँप उठी।  दिन और रात बदला लेने वाले बन गए।  ज़िन्दगी की खैर माँगते मासूम और निर्दोष हाथ, आपस में जुड़े ही रह गए।  घरों में भयभीत और अड़ोस, पड़ोस में पनाह लेकर बैठे लोग आग की बलि चढ़ा दिए गए, जैसे उन्होंने ही गुनाहभरा यह कुकर्म किया हो।  ‘जादू’ सिर चढ़ कर बोला- लाशों पर पेशाब, बेरहम कत्ल, गर्दनों में जलते हुए टायर और कत्लोग़ारत की घटनाएँ इस तरह से घटीं मानो पराये देश के उपद्रवी यह सब कर, करवा रहे हों।  ‘खून का बदला, खून से लेंगे’ के नारे इलेक्ट्रोनिक माध्यमों से सुनाई देते।

न्याय, प्रिय और संवेदनशील व्यक्ति अमन, शान्ति की अपीलें करते। बहुत से लोगों की रातों की नींद अँधेरों में ही गुम हो गई।  कई बार बात पूरी ही न होती, बस, होंठ फड़ककर रह जाते।

इस अविश्वास और सन्देहभरे हालात में बापू ने मुझे सलाह दी, “पगड़ी उतारकर और बालों को थोड़ा और छोटा कराकर तू दिल्ली चला जा।  बख्शी समेत सारे रिश्तेदारों को अपनी आँखों से देखकर आ।... अब तो मारकाट रुक गई लगती है।”

दिल्ली बस, अड्डे से बड़े भाई के पास जाते हुए चारों ओर फैले भय को मैंने महसूस किया।  आसपास का वातावरण काट खाने को दौड़ता था।  धुआँखे घरों को देखकर मुझे अपने घर में बिजली के मीटर के पास चिड़िया द्वारा बनाए गए घोंसले का ख़्याल हो आया, जिसे तिनका, तिनका जोड़कर बनाते हुए मैंने देखा था।  पर जब अचानक आँधी, तूफान आया था तो उसका तिनका, तिनका उड़ गया था और मीटर की तारों में से चिंगारियों के निकलने के कारण लगी आग में चिड़िया अपने परिवार सहित पल भर में ही राख का ढेर हो गई थी।  दिल्ली में यह सब देखकर दिल, दिमाग में इतना कुछ भर गया कि अगे दिन ही मैं अपने गाँव लौट आया।  मानवता कहीं लुप्त हो गई लगती थी। कुछ दिनों, महीनों के बाद कविताएँ अपने आप फूट पड़ी थीं...।

और, २४ जुलाई, १९८५- मेरा तीसवाँ जन्मदिन और देश के लिए एक ऐतिहासिक दिन!  ग्यारह सूत्री राजीव, लौंगोवाल समझौता!  लोग अखबारें पढ़ते, ख़बरें सुनते, चंडीगढ़ पंजाब को और बदले में पंजाब के हिन्दी, भाषी इलाके हरियाणा को, रावी, व्यास के पानी का बँटवारा ट्रिब्यूनल के हवाले, कानपुर और बोकारो के नवंबर माह के दंगों की जाँच, आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव सरकारिया कमीशन के सुपुर्द, फौज से भागे फौजियों का पुनर्वास, आदि...।  दिल्ली के सिख, विरोधी दंगों की पड़ताल के लिए पहले ही रंगनाथ मिश्र कमीशन बैठ चुका था।  समझौते में शामिल दलों के नेता रातोरात अमन के मसीहा बन गए। वामपंथी लोगों की इस दिशा में निभाई जा रही भूमिका और योगदान को कोई वज़न ही नहीं दिया गया।

आतंकवाद के ख़िलाफ़ नरम दलों की ओर से भी अब शान्ति और भाईचारे की बातें सुनने को मिलने लगीं।  जगह-जगह पर बातें होतीं, “अगर सही नीयत से समझौता लागू हो जाए तो पंजाब और देश के दुश्मनों को सबक सिखाया जा सकता है।”

पंजाबी-हिन्दी इलाकों के देने-लेने की बात ‘कुन्दूखेड़ा करू निबेड़ा’ पर आकर खत्म हो जाती।  फिर कुछ जुनूनी लोग सरकारी अफ़सरों के सम्मुख पंजाबी में कहते सुने गए, “हमारी माँ-बोली हिन्दी लिखो जी...।” और इस तरह करीब ग्यारह महीने इसी अनिश्चितता में बीत गए।  पंजाब का संताप ज्यों-का-त्यों बना रहा, न हालात बदले, न अमन लौटा।

माहौल उस वक़्त और अधिक भयानक और डरावना हो गया, जब आतंकवादियों ने धर्मयुद्ध मोर्चे के डिक्टेटर संत हरचंद सिंह लौंगोवाल की संगरूर से तीस किलोमीटर दूर उस समय गोलियाँ मारकर हत्या कर दी(२० अगस्त, १९८६) जब वह शेरपुर गाँव के एक गुरुद्वारे में अपना भाषण देकर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के सम्मुख माथा टेक रहे थे। पंजाब में शोक की लहर और अधिक गहरी हो गई।

नरम और गरम दलों और सरकार के बदलते पैंतरों के कारण आम जनता दहशत और कत्लोगारत की चक्की में निरंतर पिसती नज़र आने लगी।  हर स्थिति में अमन-एकता बनाए रखने और आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने की अपीलें की जाने लगीं।  कुछ अखबारों के प्रतिबद्ध मालिक और कारिन्दे लोगों के साथ खड़े होते और कुछ वक्ती। तौर पर खाड़कुओं की गलत और भद्दी चालों का शिकार होते चले गए।

इस काले दौर के दौरान मेरी नौकरी में प्रोबेशन के बाद मेरी तरक्की हो गई और मैं अफ़सर बन गया।  अपनी खुशी की खबर देने मैं पार्टी दफ़्तर में गया।

“बधाई! अब तू मैनेजमेंट का हिस्सा बन गया।  हम चाहेंगे कि अब तू इधर अधिक न आए और फिर, पिछले सालों से तू कौन-सा कार्ड-होल्डर है!” पार्टी के जिला सचिव ने मुझे दो टूक सलाह देते हुए कहा, “इसी में तेरी भलाई है।”

मुझे अपना बहुत कुछ छिनता हुआ-सा प्रतीत हुआ।  पिछले बारह सालों में कई सयाने साथियों का गहरा प्यार, उनका अपनत्व और निपुण मार्गदर्शन, इन सबसे मैंने खुद को एकदम वंचित होता महसूस किया, जैसे मोर्चे पर पूरी निष्ठा से डटा कोई सिपाही ज़ख्मी होकर अपाहिज हो गया हो!  तन की गतिविधियाँ, मन की गतिविधियों में रूपान्तरित होने लगी थीं।  काले-सफ़ेद शब्दों की गोलियों को बेइन्साफी, सामाजिक असमानता और अमन, भाईचारे में सेंध लगा रहे दुष्टों के विरुद्ध दागने का दृढ़ संकल्प मैंने मन में उस समय कर लिया था, जब मैं बस में अपने गाँव की ओर जा रहा था।

“मेरी बदली दिल्ली की हो गई ...।” मैंने घर के आँगन में पैर रखते हुए बापू और माँ को बताया।

“रब का शुक्र है, जिसने इतने करीब होकर सुना।” माँ ने मेरी अधूरी बात सुनकर बेसब्री से कहा और धरती को नमस्कार किया। अचानक खिल उठा उसका चेहरा मेरे लिए हैरानी का सबब बन गया।  मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसने कहा, “कब जाना है? मैं तो कहती हूँ कि कल की बजाय, आज ही दिल्ली की गाड़ी में चढ़ जा।”

कुछ रुककर उसने अपने दिल की बात बताई, “कामरेड कुलवन्त रास्ते बदल- बदलकर तुझे फिरनी (गाँव का बाहरी कच्चा रास्ता ) पर छोड़कर जाता है, वक़्त-बेवक़्त लौटता है तू... ज़िन्दगी का कोई भरोसा रह गया है?  हर दम जान सूखती रहती है।  दिल्ली में बड़े भाई के पास रहेगा तो हमें चिन्ता तो ना रहेगी।”

“साधु के कुत्तों की तरह जहाँ कहीं भी कामरेड को देखता है, उसके पीछे चल पड़ता है।  हमारे रोकने पर तो तू उनके पीछे जाने से हटा नहीं था, चल अब...।” बापू ने कहा।  उसके चेहरे पर किसी विजेता की भाँति खुशी की लहर दौड़ती दिखाई दी।

“मेरी तरक्की...।” मेरी बात को माँ ने बीच में ही टोककर फिर कहा, “लीड़ा-कपड़ा कब रखना है?”

मैं आगे कुछ कहता, माँ खुद अपने दिल की बात बताने लगी, “इन अभागे दिनों और दुष्ट रातों ने माँओं के सरू के बूटों जैसे बेटे निगलने की ठान रखी है।  इसलिए मैं कहती हूँ बेटा, तू यहाँ से दूर चला जा।” उसने अपनी आँखों से गिर पड़ने को तैयार आँसुओं को अपने दुपट्टे के छोर से पोंछते हुए कहा, “कैसा कलजुग आ गया है... माँएँ बेटों की लम्बी उम्र के लिए उन्हें अपने हाथों घर से दूर भेजकर दुएँ करती हैं और फिर मिलने के लिए तड़पती और रोती रहती हैं।”

माँ का गला जैसे रुँध गया और उसके कई शब्द उसके मुँह में ही दम तोड़ गए। मैंने ऐसा जताने की कोशिश की जैसे कि मैं बड़े दिल और जिगरे वाला हूँ, पर अन्दर से बर्फ़ के टुकड़े की तरह घुलने लगा था और मैं मन ही मन अपने ताये के फ़ौजी बेटों- नोहणे, फुम्मण और मद्दी से खुद की तुलना करने लगा।  वे जब छुट्टी काटकर जाने लगते, मुहल्ले की आधी लड़कियाँ, बूढ़ी औरतें, बच्चे और बड़े, बुजुर्ग लोग इकट्ठे हो जाते।  बातें हुआ करतीं, “गिनती के दिन चुटकी में बीत जाते हैं, लगता ही नहीं कि नोहणा महीने भर की छुट्टी आया हो...।”

कोई कहता, “नदी नाम संजोगीं मेले... चलो, तन्दरुस्ती बनी रहनी चाहिए, पेट भरने के लिए हीला, वसीला तो करना ही पड़ता है।”

मैं देखता कि मेरी ताइयाँ, उनकी बहू-बेटियाँ, सब की सब सजल नेत्रों से उन्हें विदा किया करतीं।  वातावरण में कुछ देर के लिए जबरन एक चुप पसर जाती।

मेरी स्मृतियों की लड़ी बापू के हुक्के की गुड़-गुड़ से टूटी।

“गुड्ड! बुढ़ापा अब हमारे ऊपर छलांगें लगाता चढ़ता आ रहा है। यह न हो कि तू मुड़कर पीछे देखे ही न!  कहते हैं, जो भी दिल्ली जाता है, वहीं का होकर रह जाता है!  अभी पूरी कबीलदारी ब्याह-शादी के लिए पड़ी है।” बापू की आँखों में विवशताओं और अविश्वास का बहता हुआ दरिया दिखाई दिया, जो किनारे तोड़ने को उतावला था।

“भाइया(बापू), तू फिक्र न कर, मैं तेरे साथ हूँ।” अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मैंने दृढ़ इरादे से भरोसा दिलाया।

“भाइया-भाइया करता है!  इसका मतलब भी जानता है?”  अपने जिस्म की ओर हाथ से इशारा करते हुए उसने कहा, “इस शरीर के बहाने तू पैदा हुआ, इस शरीर का तू हिस्सा है!  सो, हम इस तरीके से दोनों भाई हैं ... भाइया यानी भाई-भाई!  “बापू ने किसी गुणी-ज्ञानी की तरह बात की जिसमें से उलाहना भी साफ़ झलक रहा था।

रात भर मैं अपने ही अदृश्य ख़्यालों के घेरे में घिरा रहा। दोस्तों-मित्रों, जो कदम-कदम पर मेरे अंग-संग रहे, से बिछुड़कर एकदम अचानक चार सौ किलोमीटर दूर के महानगर में जाने की बात सोच-सोचर ही मेरा दिल बोझिल होता जा रहा था।

अगली सुबह (२८ मार्च १९८७) को मेरी माँ और बहनें मुझसे पहले उठ गईं थीं और मेरे जाने की तैयारी से जुड़े सभी काम दौड़-दौड़कर कर रही थीं।  वे कभी दालान में और कभी रसोई में आती-जाती दिखाई देतीं।

“बापू! साइकिल मैं शर्मा की दुकान पर खड़ी कर जाऊँगा।” मैं साइकिल पर चढ़ा और दिल्ली के लिए रवाना हो गया। दो-चार पैडिल मारने के बाद थोड़ा आगे जाकर जब मैंने कैरियर पर रखे बैग को टटोला और साथ ही, पीछे मुड़कर देखा तो बापू मुझे दिखाई न दिया।  माँ, बहनें और छोटा भाई कुलदीप अभी भी वहीं फिरनी पर खड़े मेरी तेज़ दौड़ती साइकिल की ओर एकटक देखे जा रहे थे।  सड़क के दोनों ओर पक रही लहलहाती गेहूँ की फसलें मानों मुझे अपनी जवान और ब्याहयोग्य बहनों का अहसास करवा रही थीं।  मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे सारा परिवार मेरे संग-संग मेरा पीछा करता आ रहा हो।

<< पीछे : साहित्य और राजनीति के संग-संग आगे : ज़िन्दगी और मौत के बीच >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में