छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

बिरादरी का मसला

“ले भाई चाचा, हमारा गुड्ड इस बार पूरा हाली हो गया। झोना(धान) लगाने और चुगने के लिए चमिआरी, रास्तगो, सिकन्दरपुर, ढड्डियाँ और सोहलपुर तक जाने लगा है। अपने गाँव में तो पर साल भी ‘बाबों’ के जाता रहा। कमाद(गन्ना), जवार (मक्की) गोड़ने का तरीका भी आ गया।... एक बात है भई, गुड्ड की कमर बेशक शिकारी कुत्ते जैसी है, पर हड्डी पक्की है।” मेरे ताये के बेटे मंगी ने मेरे कंधे पर रखे अँगोछे में लपेटे और पीठ की ओर लटकाये गिलास की ओर देखते हुए एक दोपहर को खुशी भरे लहजे में बापू से बात की।

मैं हल्के-से मुस्कराकर दालान में चला गया। मेरी कमर और गर्दन फट्टे की भाँति अकड़े हुए थे, सारे शरीर में टूटन और दर्द महसूस हो रहा था। कद्दू किए खेत में झोने की पौध लगाते, लगाते मेरे दायें हाथ के अँगूठे के नाखून के आगे का हिस्सा सफेद हो गया था मानो उसमें मवाद पड़ गया हो।  पैरों की उँगलियों के बीच की जगहें पानी के कारण गल गई थीं, जिनके अन्दर बार, बार खाज करने को मन करता।

मैं सोचता- स्कूल की छुट्टियाँ क्या हुईं, मेरे लिए मुसीबतों की बरसात ले आयीं। छुट्टियों की ये कैसी रुत है, सिर पर काटने वाली धूप और पैर गरम पानी में! मेरे संग पढ़ने वाले कई लड़के, लड़कियाँ अपने मामों, मौसियों के गए हुए हैं और मैं अपने बापू और भाई के साथ अभावों, तंगियों की दलदल में फँसा हुआ हूँ। ऐसा सोचते हुए मेरी आँखें नम हो गईं।

जब मुझे कुछ दिन पहले ‘बारियों’ के सोहन के नियाई वाले निचले खेत में झोना लगाने की याद आई तो पानी पर तैरती सूखे गू की लेंडियाँ, बदबू मारता गोबर, घास, फूस और बेरी की छोटी, छोटी सूखी कँटीली टहनियों के काँटों का पैरों में चुभना और एक बड़े प्रश्नचिह्न की तरह अपने शरीर का झुका होना, ये सभी दृश्य मेरी आँखों में साकार हो उठे।  रोष, आक्रोश मन में गरम पानी की तरह उबाल खाने लगते। मैं धड़ाम से चारपाई पर गिर पड़ना चाहता ताकि सो सकूँ।

 “चाचा, चल और दो बरस में गुड्ड आ मिला समझ हमारे साथ!” मंगी ने फिर कहा।

यह सुनते ही मानो आसमानी बिजली बिना बादलों के ही मेरे ऊपर आ गिरी।  कोठे की छत से शाम, सवेरे देखी न समाप्त होने वाली शिवालिक पहाड़ियाँ और हिमालय पर्वत की आसमान को छूती चोटियाँ, अपने सामने लम्बी दिखाई देती ज़िन्दगी की तरह बार, बार आँखों के सामने आने लगीं।  मेरे मन में आया कि मंगी का सिर ईंट, रोड़ा मारकर फोड़ डालूँ और बापू का भी जो ऐसी मायूस कर देने वाली बातें सुने जा रहा है।  उसी पल ख़्याल आया- मेरी बड़ी बुआ के बेटे दिल्ली में सरकारी अफसर हैं, मेरा मामा डी.सी. लगा हुआ है... मैं अनपढ़ रहूँ? सारी बिरादरी की तरह दूसरों की गुलामी और बेगारी करूँ? मेरे से ये नहीं हो सकता।

बापू ने मंगी की बात पर जैसे ध्यान ही नहीं दिया या अनसुना कर दिया।  हुक्के की चिलम में आग डालने के लिए वह रसोई के अन्दर जाते, जाते कहने लगा, “मैं तो इसे कहता हूँ कि स्कूल की बरदी लायक पैसे कर ले या फिर कुरता, पाजामा सिला लेना।”

“पिछले साल भी ऐसा ही कहता था।  बाद में कोठे की छत के लिए लाये कल्लर के दो गड्डों के पैसे दे आया था।” मैंने बीच में टोककर कहा।

 “वो तेरा पतंदर(बाप) बीस तो चक्कर लगा चुका था, उससे पीछा नहीं छुड़ाना था?”

 “और इस बार?”

 “खड़ा हो जरा... तुझे लिखकर दूँ, मामा हीर के!” बापू फुर्ती से चूल्हे के आगे से उठते हुए मेरी ओर झपटा तो मैं दौड़कर बाहर बरगद, पीपल के नीचे चला गया।

गाँव के पश्चिमी हिस्से वाले रास्ते पर से जोशभरी एक ज़ोरदार आवाज़ आ रही थी। बोलने वाला ‘हैकनों’ की हवेलियों की ओट में था। आवाज़ और करीब आ रही थी।

 “...बहनो और भाइयो...इस वक्त जो सख़्त ज़रूरत है, वो है विश्व-शान्ति की।”

 “ये तो भूंदियों वाला कामरेड राम किशन है- भोगपुर में नाई की दुकान करता है।” दादी के पास बैठे फुम्मण ने बताया।

वह दायें हाथ में सायकिल का हैंडिल और बाँयें हाथ में भौंपू पकड़े बोलता चला आ रहा था, “अगर अमन, अमान होगा तो हम गरीबी के ख़िलाफ़ और बीड़ा उठा सकते हैं। सरकार पर ज़मीन की हदबन्दी के लिए दबाव डाल सकते ह,  उजरतें तै करा सकते हैं।  उन्हें लागू करा सकते हैं। जिन्सों के भाव बढ़ाने और खादों पर सबसिडी बढ़ाने के लिए धरने, मोर्चे लगा सकते हैं।”

थोड़ा रुककर उसने सायकिल को स्टैण्ड पर खड़ा किया और दायाँ हाथ उलटा कर उसने माथे का पसीना पोंछा और फिर भौंपू में मुँह लगाकर बोलने लगा, “साथियो! अगर सरहदों पर सफेद झण्डे लहरायेंगे तो तरक्की के आसार ज्यादा हो सकते हैं।  मैं बताना चाहता हूँ कि एक टैंक, एक जहाज़ और एक मिसाइल पर जितना खर्च आता है, उससे कई स्कूल, कई अस्पताल और भलाई की अनेक योजनाएँ चलाई जा सकती हैं। हम इन दिनों में विश्व, शान्ति रैली करेंगे, तुम जोश, खरोश से उसमें हिस्सा लेना... दिन और तारीख़....।”

 “इंकलाब- ज़िंदाबाद! इंकलाब- ज़िंदाबाद!!” फुम्मण ने अचानक दायी बाँह हवा में उठाकर और हाथ का मुक्का बनाकर नारे लगाए।

तमाशा देखने वालों की तरह अर्द्ध, गोलाकार घेरा बनाकर खड़े गाँव के बच्चों, बुजुर्गों और लड़कों में एक नयी प्रकार की हरकत आ गयी थी।  नौजवानों के सीने तन गए थे।  बाजुओं की मछलियाँ फड़कने लगी थीं और हाथों की पाँचों उँगलियाँ मुक्कों में बदल गईं थीं।

 “पुरवा हवा बहने लगी है।” किसी ने कहा, “लगता है, कहीं बारिश हुई है। कोह, काफ से पार की हवाएँ कहीं इधर भी आ जाएँ तो लहरें, बहरें हो जाएँ। दरख्तों पर निखार आ जाए।”

एक अन्य बोला, “हमारे कहने से भला जंग रुक जाएगी?”

 “सारे फसाद की जड़ है अमरीका। पाकिस्तान को उठाए फिरता है। साथ ही अपने हथियार बेचे जाता है।” कामरेड अजैब सिंह ने लोगों को बताया, “जब तक रूस हमारे साथ है, किसी की मजाल नहीं जो हमारी ओर आँख उठाकर भी देखे। अगर रूस के साथ और संधि हो जाए तो समझो मुल्क तरक्की की राह पर चलने लगेगा।”

 “अगर मुल्क में से बेईमानी हट जाए या घट जाए, तब भी हमारी हालत सुधर जाए।” मेरे ताये रामे ने कहा।

 “यूँ ही निठल्लों की बातें! लड़ाई तुमसे पूछ कर लगेगी?” मंगी ने कहा।

 “भई बातें तो भूंदियों वाला कामरेड खरी, खरी करता है, यूँ ही क्यों कहें! किसी दिन इसके पास बैठकर और बातें सुनेंगे।” बापू ने दूसरों को सुनाकर कहा।

इतने में इकहरे, फुर्तीले शरीर और तीखी घनी मूँछों वाला कामरेड सायकिल पर पैर रखा और चलता बना। मेरी निगाह कितनी ही देर तक उसकी पीठ का पीछा करती रही।

औरतें अपने, अपने घर लौटने लग। दिहाड़ीदार खेतों की ओर जाने के लिए उठ खड़े हुए। तभी ध्यान ने हाँक लगाई, “गुड्ड, आ अब ...।”

मैंने फिर अँगोछे के एक सिरे में गिलास बाँधा और पीठ पर लटका कर नम्बरदारों के ‘घड़ल्लों’ वाले खेत में झोना लगाने के लिए चल पड़ा।  टाँगों, बाँहों सहित मेरा शरीर कड़ाकेदार धूप में झुलसकर और भी काला हो गया।  बिलकुल झोटे की चमड़ी, सा। मैं सोचता- जमींदारों के कम उम्र के लड़के, मेड़ों पर टहलते हुए हाथ से काम करने वालों को, डाँटते, फटकारते समय उम्र का लिहाज भी नहीं करते और हमारे लोग उनके सामने मुँह भी नहीं खोलते।  अगर मैं पढ़ न पाया तो पहाड़ सी लम्बी उम्र में ये सब कैसे झेलूँगा।  यह प्रश्न मुझे अन्दर ही अन्दर घुन की तरह खा जाने को उतावला प्रतीत होता। कभी, कभी मुझे लगता मानो मैं शीशम का काला, स्याह लट्ठा होऊँ, घुन जिसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।

 “ओह...!” ढड्डों की हद के पास मेरे बाँयें पैर में लगी ठोकर के कारण मैं कराह उठा। अँगूठे के साथ वाली लम्बी उँगली का नाखून थोड़ा-सा ऊपर उठ गया था और हल्का-सा लहू निकल आया था।

 “मुँह झुकाये चल रहा है, देख कर चल।” ध्यान ने पहले मेरे पैर की ओर और फिर मेरे मुँह की ओर देखते हुए कहा तो मुझे अहसास हुआ कि वह मेरे साथ है।

 “फ़ौरन ज़ख़्म पर मूत दे, अपने आप ठीक हो जाएगा ये।” ध्यान ने सलाह दी तो मैंने तुरन्त उसकी बात पर अमल किया। हम फिर से पहले की तरह अपनी मंज़िल की ओर बढ़ने लगे।

 “देखते ही देखते मौसम बदल गया, पर हमारे दिन न बदले।” एक दिन सहज ही यह ख़्याल मेरे मन में आया। भरे जाड़े में उम्मीदों का जोश गरमाहट का सबब बनने लगा।

 “इन वोट वालों को चैन नहीं पड़ता, चुनाव में अभी पूरा ड़ेढ महीना पड़ा है।” ताये मंहगे ने लोगों से भरे एक टैम्पो को आते देखकर कहा।  आवाज़ आई-

   झंडिये तिन्न रंगिये

   तैनूं वोट किसे नहीं पाउणी

   झंडिये तिन्न रंगिये...

 

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‘पाकिस्तान के ‘बार’ इलाके से आए हुए लोग।

माइक पर तूम्बी के साथ गा रहे हमारे फुम्मण के ये शब्द किसी रोष को प्रकट करते प्रतीत हो रहे थे। वह कभी भाषण देने बैठ जाता- शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और अन्य कई शहीदों के बारे में तो कभी ऊँची और जोशभरी आवाज़ में नारे लगाने लग पड़ता- इंकलाब ज़िंदाबाद!

बीच, बीच में कामरेड राय नारा लगाता- “गली गली से उठी आवाज़...” टैम्पो के अन्दर खड़ी लड़कों की भीड़ तथा अन्य लोग जवाब में बोलते, “दाती सिट्टा(हँसिया,हथौड़ा) कामयाब!”

 “जीतेगा भई जीतेगा” - राय।

 “कामरेड कुलवंत जीतेगा” -लोग।

 “मोहर कहाँ लगानी है?” - राय।

 “दाती,सिट्टे पर...।” - लोग।

 

फुम्मण के साथ मैं भी दो, चार बार टैम्पो में चढ़कर साथ वाले गाँवों में गया।  कई बार जब “रोको, टैम्पू रोको” की आवाज़ें आतीं तो झूटा लेने (सवारी पर थोड़ा घूमने) के लिए चढ़ी बच्चों की मंडली जल्दी, जल्दी नीचे उतर जाती।

हम थक-टूटकर रात को खाने के समय घर में घुसते। बापू ‘बूढ़ों’ के बिगड़े बैल की तरह रस्सा तुड़ाकर मेरी ओर झपटता। कहता, “अगले महीने (मार्च, १९६९) में तेरे आठवीं के इम्तहान है, तू अपनी किताबों को हाथ नहीं लगाता। स्कूल की लैबरेरी में से बाहर के मुल्कों की किताबें ले, लेकर पढ़ने लग गया है तू।  अच्छा तारेगा हमें जो अभी से अफलातून बना फिरता है। ऊपर से कामरेड़ों के पीछे लगने लग पड़ा है, जैसे उन्होंने हमारे नाम ज़मीन लिख देनी है... कुलवंत की तीन सौ किल्ला पैली है, दो-दो किल्ले कम्मियों (निम्न जाति के कामगारों) को दे दे। और नहीं तो अपने सीरी-नौकरों के नाम ही कर दे।”

 “पार्टी वाले कहते थे कि अगर एक जमींदार लोगों को ज़मीन दे भी दे तो क्या फर्क पड़ जाएगा, सारे मुल्क में भूमि-सुधार का बीड़ा उठाना है।  कहते थे, अगर इंकलाब आ गया तो सारे लोग बराबर हो जाएँगे।” कामरेड़ों से सुनी हुई बातें मैंने बताया।

 “बातें तो अच्छी करते हैं पर अमल में...। ज़मीन देनी तो एक ओर रही, इनमें जट्टपना दूसरों से कम है क्या जो इतनी ऊँची हाँकते हैं।”

 “मैंने उन्हें बात करते सुना था कि जब तक कुलवंत काम दे, लेते जाओ, हमारी सोच का प्रचार हो रहा है...पार्टी के पास पैसे ही कहाँ है?”

 “जमींदारों को और सरमायेदारों को चौधर चाहिए, बस। जिधर भी मिल जाए। हालाँकि कुलवंत जैसा बन्दा इलाके भर में नहीं, पर इन बात का बतंगड़ बनाने वालों का कोई क्या करे जो ये साबित करने पर सारा ज़ोर लगा देते हैं कि हमारे जैसा सच्चा और ईमानदार कोई नहीं।”

फिर पता नहीं बापू ने उस दिन बोलना कब बन्द किया होगा।  मुझे इतनी गहरी नींद आई कि सुधबुध ही न रही कि करवट भी बदली होगी।

 

   उत्थे अमलां नाल होणगे निबेड़े

   जात किसे पुछणी नहीं।

 

   साढे तिन हत्थ धरती तेरी,

   बाहलियाँ जागीरां आलिया।

 

   रब्ब मिलणा गरीबी दावे,

   दुनिया गुमान करदी।

 

एक दिन तड़के रमते साधू की मन को खींच लेने वाली वैराग्यमयी आवाज़ में ये बोलियाँ सुनकर मेरी आँख खुल गई।  मैंने तुरन्त ‘झूल’ में से मुँह बाहर निकाला।

हाँ, झूल!

दरअसल, यह झूल पिछले तीन जाड़ों से हमारी ‘रजाई’ बना हुआ था, हम दोनों भाइयों की साझी रजाई! बापू जब भोगपुर की शुगर मिल में दिहाड़ी पर शिफ्ट ड्यूटी करके रात में घर लौट रहा था, तब यह झूल राह में मिला था।  बैल पालने के किसी शौकीन जमींदार द्वारा फूल-बूटों वाला यह झूल बड़ी हसरत से नया-नया भरवाया गया लगता था और शायद, पहली बार उसने उस रात अपने बैल को कोहरे और ठं से बचाने के लिए ओढ़ाया होगा।  गन्नों से लदी बैलगाड़ियाँ जब जमींदार मिल की ओर ले जाते तो बैलगाड़ी पर लदे गन्नों के ऊपर से कई बार उनकी चादर, तौलिया या ऐसी कोई अन्य वस्तु नीचे गिर पड़ती जैसे यह झूल!

पल भर को मुझे लगा मानो मैं झूल में छिपा हुआ बछड़ा होऊँ जिसे बैलगाड़ी, हल, पंजाली और आग बरसाती धूप में जुए में निरन्तर जुतना है और फिर जिसकी गर्दन पर ज़ख़्म का गहरा निशान पड़ना ही पड़ना है।  मैं हडबड़ाकर उठा और चारपाई पर बैठ गया। उस साधू के बोल मैं भूल गया। बैठे-बैठे मुझे नींद का एक झोंका आया। साथ में लेटा बड़ा भाई जाग उठा। मुझे झटका-सा लगा मानो कोई सपना टूट गया हो।  रमते साधू के बोल गलियों में फिर गूँजे-

  

उत्थे जात नहीं किसे ने पुछणी

बंदिया तू माण न करीं।

 

नामदेव दी बणाई छप्परी,

धन्ने दीयाँ गउआं चारियाँ।

 

नाम जप ला(ले) निमाणिये जिंदे,

औखे वेले(कठिन समय) कम्म आऊगा।

 

लोकगीतों जैसी ये बोलियाँ पहले भी तड़के से सवेरा होने तक सुन रखी थीं, पर आज वाले साधू के बाजे (हारमोनियम) की सुर के कारण मेरे मन के अन्दर अनेक प्रकार के ख़्याल पनपने लगे। मैं उठा और बाहर वाले दरवाज़े को आहिस्ता से खोलकर ड्योढ़ी में खड़े-खड़े ही सिर बाहर निकालकर इधर-उधर झाँकने लगा। वह हल्की-सी धुँध को चीरता, ठंड में अपने गरमाहट भरे शब्द बोलता, माहौल में सोच को बिखेरता धीरे-धीरे चला आ रहा था।  मेरे बराबर से गुजरते हुए उसने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना दायाँ हाथ हवा में ऊपर उठाया। मैं मन ही मन प्रसन्न हो गया।

मैंने देखा कि उसने अपने बाजे की दोनों ओर की कुंडियों में अँगोछा बाँध कर गले में डाल रखा था और खुद भगवा वस्त्र पहन रखे थे।  इसी दौरान ‘हैकनों’ का कालू(कुत्ता) सामने से दौड़कर आते हुए भौंकने लगा, पर साधू जट्टों की गली के अन्दर अपनी मस्ती में बाजा बजाता और गाता हुआ चलता जा रहा था।  उधर मेरे ज़ेहन में मेरी सोचें रगों में दौड़ते लहू की तरह तेज़ गति से सरपट दौड़ने लगीं - बापू, माँ और उनके बुजुर्ग कई पीढ़ियों से गरीबी, भूख के घोर दलिद्दर, हीन जात की भावना के शिकार हैं, रब उनके रहन-सहन के हालात से परिचित नहीं होगा, नहीं तो ‘धन्ने की छप्परी’ की तरह हमारा भी कारज सँवार देता।  अगर उसके मिलने के लिए गरीबी एक शर्त है तो कम से कम मिलकर हालचाल ही पूछ जाता।  हमारे पास या हमारे संग तो वह सब कुछ है जो उससे मिलने के लिए होना चाहिए, जैसा कि साधू कह रहा है।

इसी दौरान, अचानक मुझे पिछले दिनों हमारे गाँव में हुए जलसे में कामरेड मलकीत चन्द मेहली द्वारा की गई तक़रीर का ख़्याल हो आया- “स्वर्ग का लालच देना, मनुष्य की ओर से मनुष्य को लूटने की एक सोची-समझी चतुराई भरी चाल है। यह आरामपसन्द टोला जिस मेहनतकश समाज के दम पर पलता है, उसे ही कोसता है, मोह-माया से दूर रहने के लिए कहता है और स्वयं गर्दन तक इसमें धँसा हुआ है।  यह सब का सब दम्भ है, पाखंड है। तुम्हारे दुःख, दलिद्दर,गरीबी और भुखमरी का एक ही रास्ता है - इंकलाब!  सारे समाज की बराबरी। तुम साथ दो, इंकलाब हमारी दहलीज़ पर है।” फिर उसने नारे लगाए थे, “दुनिया भर के मजदूरो एक हो जाओ, किसान-मजदूर एकता, ज़िंदाबाद! इंकलाब- ज़िंदाबाद!”

बोलते समय कामरेड मेहली की गर्दन की नसें इस तरह फूल गई थीं मानो उनके अन्दर लहू नहीं, हवा भर गई हो।  काला चेहरा ताम्बई हो गया था और आँखों में लाली दिखाई देने लगी थी। आक्रोश और विद्रोह ने उसके पहले वाले और अब वाले चेहरे में एक बड़ा फर्क ला दिया था। जब वह अपने दायें हाथ को उठा-उठाकर हवा में लहराता तो उसका शरीर भी कभी आगे, कभी पीछे होता जैसे चाबी वाला खिलौना छनकते हुए आगे-पीछे होता है।

स्कूल के बड़े और खुले प्रांगण में बैठे लोगों में जोश और जज़्बा स्पष्ट दिखाई देता था। मैं सोचकर हैरान रह गया कि प्रौढ़ उम्र के उस साधारण से दिख रहे दरम्यानी कद-काठी वाले पक्के रंग के आदमी, जिसके मुँह पर चेचक के गहरे और बड़े दाग हैं, को ये बातें कहाँ से सूझती हैं! रब से कतई भय नहीं खाता।

यह सब सोचते हुए मेरी रगों में एक बार फिर से खून खौलने लगा।  रमते साधू के शब्द गलियों में गूँजते हुए अब हवा में मिल रहे थे।  मैं फिर दालान के अन्दर अपने झूल में जा छिपा।

 “जट्टों, जमींदारों को कहाँ सुनाई देता है! साढ़े तीन हत्थ धरती तेरी, बाहलियाँ (अनेक) जगीरां वालिया!  अगर सुन लिया होता तो हमारे बारे में भी सोचते - हम जैसे लोगों को न दुत्कारते,  बेगार न कराते, कुछ जगह-ठिकाना इन्हें भी देने की सोचते, आखिर बरसों से सेवा करते आ रहे हैं।” बापू ने चारपाई पर से उठते हुए जैसे हमें सुनाकर कहा हो। कुछ पल बाद उसके दिल में जो आया, वह कहने लग पड़ा, “नाम या किस्मतों के खेल ने क्या सँवारना है! बहुत काम करते हैं, दिन-रात सख़्त मेहनत करते-करते खोपड़ी घिस चली, पर कुछ नहीं हुआ।  अगर कोई सच पूछे तो मैं कहता हूँ- भई मन में पक्का भरोसा रखो और अपने बलबूते पर खड़े होओ...।”

झूल में हम दोनों भाइयों को खुसुर-फुसुर करते देख बापू बोला, “बिरजू, तू तो काम में बहुत हाथ बँटाता है, पर ये बदनीता (कामचोर) जरा भी काम को हाथ नहीं लगाता। रोटियाँ तोड़ने के लिए है, बस।”

मेरे मन में विचारों की सुई तेज़-तेज़ पीछे की ओर चलने लगी, चार-पाँच किलोमीटर दूर अपने मिडिल स्कूल गीगनवाल पैदल चलकर पढ़ने जाता हूँ, लौटते समय बगल में झोले (बस्ते) के अलावा सोहलपुर से बरसीन, छटाला, सेंजी(पशुओं के चारे की किस्में) और कभी-कभी कड़ब (जवार, बाजरे के सूखे डंठल) के दो-दो गट्ठर सिर पर उठाकर लाता हूँ, कभी बापू या बड़े भाई के साथ गन्ने छीलने जाता हूँ,  ढड्डे-सनौरे से गेहूँ और मक्की का पन्द्रह-बीस किलो आटा पिसवाकर लाता हूँ,  और मैं क्या करूँ?  मैं कई दलीलें सोचने लगता कि और क्या-क्या करूँ जिससे कि बापू उल्टा-सीधा बोलना बन्द कर दे और मारे-पीटे नहीं, न ही फटकारे।

कुछ समय बाद मुझे लगा मानो जाड़े का मौसम, किसी कामरेड के भाषण की तरह और लम्बा होता जा रहा है।  ठंड ने अपना शिकंजा दिन-रात हमारे ऊपर कसा हुआ था।  तन ढकने के लिए आसमानी रंग के मलेशिये के कुरता-पाजामा पहने और पाँव से नंगे मेरे शरीर को चीरती हवा मानो मेरी ज़िंदगी का सत्यानाश करने पर तुली हो।  स्कूल जाते समय दिल धड़कता रहता कि मास्टर किशन चन्द आज फिर न पूछ बैठे!  प्रार्थना के बाद वह अक्सर विद्यार्थियों से मुखातिब होता और पूछता, “जिस-जिस ने वर्दी नहीं पहनी, खड़े हो जाओ।”

मेरे सहित पूरे स्कूल में से गिनती के दस-बारह लड़के-लड़कियाँ खड़े होते।  मन रुआँसा हो उठता।  बगुले जैसी मेरी लम्बी-पतली गर्दन मारे शर्म के और अधिक झुक जाती। ऐसा लगता मानो मैं धरती में गर्क होता जा रहा होऊँ।  ख़्याल आता- ‘शुकर है, ठिठुरते हुए स्कूल पहुँच गया, कहीं राह में ही नहीं गिर पड़ा, जैसे सोहलपुर वाले बुड्ढों का कटड़ा कड़कड़ाते जाड़े की ठंड से त्ड़पकर गिर पड़ा था।’  ज़मीन पर पड़ी उसकी लाश की बाँयीं खुली आँख की याद आते ही मेरा तन-मन कंपकंपा उठा।

 “जिन-जिन के पास घर और स्कूल के लिए यही कपड़े हैं, वे खड़े रहें, बाकी बैठ जाएँ।” उम्र की साँझ की ओर तेज़ी से बढ़ रहे, दरम्याने कद, गोरे रंग, सफेद मूँछों वाले, सिर पर पाधा पगड़ी, कमीज और पाजामा पहने मास्टर किशन चन्द ने अपनी भारी आवाज़ में फिर कहा।

धुँध के उड़ते-जुड़ते बादलों की तरह मेरे मन में ख़्यालों की लड़ियाँ जुड़ने लगीं- मेरे नये स्कूल में मेरी नीची जात, घोर गरीबी के कारण लाचारियों, मजबूरियों का किसी को पता नहीं होगा, पर यह सब ुछ स्कूल के अन्दर पैर रखने के कुछ दिनों के भीतर ही, मास्टरों के नित्य के नये वर्दी-स्यापे के कारण किसी दुर्गन्ध की तरह फैल चुका था। मन के आकाश में तेज़-रफ्तार आँधी चलने लगी थी जिसने मेरे स्वाभिमान की जड़ों को हिलाने, तने और शाखाओं को तोड़ने में अपनी पूरी ताकत लगा दी।  फिर ख़्याल आता- हम सबको जब लड़के, लड़कियों के गाँवों की पत्तियों, जातों का ही नहीं, मास्टरों का भी आगा-पीछा मालूम है, तो फिर मेरे बारे में पता लगना कौन-सी अनहोनी बात है।  इस सच्चाई ने मेरे स्वाभिमान पर छाये बादलों को छितरा दिया। मेरा हौसला फिर से बुलन्द हो गया। मन काफी हद तक हल्का हो गया।

ठंड गुनगुनी धूप में बदल गई। दरख्तों पर पतझर सवार हो गया।  पत्तों के बगैर दरख़्त यूँ लगते जैसे मेरे अपने सगे-सम्बन्धी और भाई-बहन हों।  मेहनतकश लोगों की तरह ये नंगे तन कड़ाकेदार गर्मियाँ-सर्दियाँ झेलते हैं, कठिन समय में छाया बाँटते हैं, बरसातों में ओट देते हैं।  जब वे फैलने लगते हैं तो मालिकों द्वारा बेरहमी से इनके सिर कलम कर दिए जाते हैं। टाँगों-बाँहों जैसी डालियाँ काट दी जाती है।  ऐसा ख़्याल आते ही, तीन चौथाई छाँट दिए गए दरख़्त मेरे बापू, ताये और उसके बेटों में बदल जाते।

डरावना जाड़ा फिर से छलाँगें लगाता आ रहा था। कम्युनिस्ट, सहकारी चीनी मिल, भोगपुर को अपनी सरगर्मियों का केन्द्र बनाने के लिए दाँव-पेंच में लगे हुए थे।  किसान-मजदूर एकता के नारे इस बार और भी ज़ोरदार आवाज़ में गूँजने लगे।  नतीजा- नये बने एम.एल.ए. कामरेड कुलवंत सिंह की अगवाई में पूरी तैयारियों के बाद बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ!

मेरे मन में आता कि मुझे कामरेडों के मुँह पर चढ़ी बातों से भी अधिक विचारों की जानकारी हो।  थोड़ा और बड़ा होकर जोशीले, फर्राटेदार भाषण दिया करूँ और लोगों को कायल कर दूँ। कोई जब रूस के अन्दर सामाजिक समानता और समान प्रगति की बातें करता तो मैं अपने भविष्य की सुखभरी कल्पना करके मन ही मन गर्वित हो उठता।

...और लोग मिल की गिरफ्तारियों की बातें करते, विशेष कर जट्ट लोग बापू आदि लोगों से पूछते, “ईशर, दौलती और मुणसा सिंह छड़े का कौन-सा कमाद (गन्ना) है जो भाव बढ़ाने और बिजली चौबीस घंटे करवाने के लिए जेल में बैठे हैं।... कामरेडी के भड़काए हुए हैं।”

 “आज हमारे लोग तुम्हारा साथ देते हैं... कल तुम लोग हमारे साथ चलोगे।  क्यों?  क्या ख़्याल है?” बापू ने ‘पक्के वालों’ के बुजुर्ग वतन सिंह से पलटकर सवाल किया जब हम उनके खेत में से मूँगफली उखाड़कर घरों की ओर लौट रहे थे।

वतन सिंह अपने शेर जैसे मुख पर जँचती सफेद और लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए हल्के से हँसा, पर मुख से कुछ न बोला। फिर आगे से मुड़ी हुई नोक वाली अपनी धूल भरी जूती को पैने से झाड़ने के बाद किसी गर्व के साथ बम्बी की ओर चल दिया।  ताये के बेटे मंगी,सोहणु ख़ामोश खड़े थे।

बापू ने वतन सिंह की पीठ की ओर देखते हुए टिप्पणी की, “बड़े नाशुकरे हैं ये लोग! किसी के ख़्यालों की बिलकुल भी परवाह नहीं। इनकी खातिर अपनी दिहाड़ी-मजूरी छोड़कर जेल में बैठे हैं और ये ताने मारने से नहीं थकते। यूँ ही तो नहीं कहा करते- जट्ट क्या जाने गुण को, लोहा क्या जाने घुन को।”

हमारी बिरादरी के जेल गए कम्युनिस्ट हमदर्दों के बारे में कई दिनों तक बातें होती रहीं, हालाँकि वे अपने घरों को लौट आए थे।  कोई कहता- यह सब कुछ पार्टी की लीडरी चमकाने के लिए है।  कोई कहता- ये सारे बड़े जमींदारों के कहे में आए हुए हैं।

और जब झोनों (धान की पौध) की रोपाई, तलाई और मक्की की गुड़ाई का समय आया तो बस्ती के सभी कामगार बरगद-पीपल के नीचे एकजुट होकर बैठ गए और उन्होंने एक रुपया दिहाड़ी बढ़ाये जाने का प्रस्ताव पास किया।  इसकी खबर रातोंरात सारे गाँव के घर-घर में पहुँच गई।

सवेरे गाँव में ऐसी हवा चली कि वातावरण ख़ामोश हो उठा। जट्टों-जमींदारों और  हमारे मुहल्ले के कामगारों के बीच हवा ही दीवार बनकर खड़ी हो गई। जट्टों के लड़के मूँछों को ताव देते हुए लाठियाँ लेकर सुबह-शाम गाँव के बाहर वाली सड़क पर चक्कर लगाने लगे ताकि उनके खेतों में निचली जात का कोई भी व्यक्ति हगने न बैठ पाए।  मर्द साथ वाले गाँवों में जंगल-पानी के लिए जाने लगे।  बच्चों और स्त्रियों को इससे बहुत परेशानी हो गई।

बिरादरी के लोग साथ वाले गाँवों में रहने वाले निचली जाति के कामगारों को पक्का कर आए कि वे माधोपुर में दिहाड़ी करने के लिए न आएँ।  हालात तेज़ी से चिन्ताक तो हुए ही, तनाव भरे भी हो उठे। बहुत से परिवार अपनी गाय-भैंसें, कटड़े-बछड़े रिश्तेदारों के यहाँ छोड़ने को विवश हो उठे।  कुछेक के हौसले अभी भी बुलन्द थे और कइयों के मुख मुरझाये से लगते थे।

पाँच-छह दिनों के बाद हमारी बस्ती के लोग फिर से अगली कार्रवाई के लिए सिर जोड़कर विचार-विमर्श करने बैठ गए।  ताये रामे ने बताया, “भई, जमींदारों के यहाँ से संदेसा आया है कि दिहाड़ी बढ़ाने की माँग छोड़ दो, नहीं तो और सख़्त नाकेबन्दी करेंगे।”

 “कितने दिन कर लेंगे?  सामने फसलें नहीं दिखाई देतीं।  खुद आ जाएँगे टिकाने पर, जरा जिगरा रखो।”

 “मेरा विचार है कि कामरेड अजैब सिंह और मीते से बात की जाए।  वे मसला सुलझा सकते हैं और फिर हमारे बंदे भी तो उनके साथ मेलजोल रखते हैं, उनके साथ जेल काटकर आए हैं।” एक ने सलाह दी।

 “मैं उनके पास होकर आया हूँ। वे कहते हैं, हमारी हमदर्दी तुम्हारे साथ है। हम अकेले कैसे दिहाड़ी बढ़ायें? बिरादरी का मसला है, हम उनसे बाहर नहीं हो सकते।  कल को उनसे वोटें भी लेनी हैं सरपंची की, और फिर...।” एक हमदर्द कामरेड ने चक्रवात की तरह आते हुए एक साँस में बताया।

यह सुनते ही उम्मीदों का महल रेत की इमारत की तरह भरभराकर गिर पड़ा।  सभी हैरान रह गए।  हमारे लोग जट्टों के सलूक की बुराई करने लगे, “जट्ट जट्टां दे साले, करदे घाले माले।  खुद चंगा खाते हैं, मंदा बोलते हैं। दारू-शराब निकालते हैं, बेचते हैं, विलायती ख़रीदते हैं और दूसरों पर नशा उतारते हैं, खरमस्तियाँ करते हैं। हमारे सिर पर ऐश लूटते हैं। दिहाड़ी का रुपया बढ़ा देते तो क्या घिस जाता।  महँगाई तो देखें, हर शै को आग लगी है, लीड़ा-कपड़ा तो एक ओर रहा, चायपत्ती भी दूभर है!”

 “उस दिन मेहली कैसे गला फाड़-फाड़कर कहता था, किसान-मजदूर एकता समय की ज़रूरत है, एक-दूजे का साथ दो, सहारा बनो।  जिस दिन आएगा, पूछेंगे - भई तू तो इस एकता, सहारे की गवाही भरता था, खेत मजदूर सभा किस काम के लिए है?” बापू ने दुःखी स्वर में कहा।

 “भाइयो, घबराओ नहीं।  कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकल आएगा।” कामरेड मुणशा सिंह छड़ा अपनी कमर की बाँयीं ओर लटकते गातरे पर हाथ फेरते हुए कहने लगा। चेहरे से यूँ महसूस होता था मानो उसने उम्मीद का पल्ला कसकर थाम रखा हो।  उसने धीरज से कहा, “जट्टपने से भरे दिलों को बदलना कोई आसान है? लड़के आगे पढ़-लिखकर शायद...,।”

मुझे लगा, मुणशा सिंह मानो दाद, खाज के कारण अपने बदन पर पड़े बेढंगे दागों जैसे सामाजिक कलंक के धब्बों को कोस रहा हो जिनसे शरीरिक श्रम बेचने वाले लोग हर वक्त परेशान रहते हैं।  अपने बदन के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की उसकी हरकत और इस नामुराद बीमारी के खिलाफ़ खुजली भरी जद्दोजहद से मुझे यूँ लगा मानो वह सामाजिक, आर्थिक ‘काणी वंड’ (बंदर बाँट) के कोढ़ के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई लड़ने के वास्ते कमर कसने के लिए सबको प्रेरित कर रहा हो।

कुछ देर बाद मुझे लगा कि वीरान, बंजर जमीनों जैसी ज़िन्दगियों में हरियाली के लिए सबको मिलकर निरन्तर और अधिक प्रयास करना है। इसलिए कि हमारी व्यथा-दर-व्यथा युगों पुरानी है जिसे न किसी ने कभी सुना है और न ही महसूस किया है।

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