छांग्या-रुक्ख

छांग्या-रुक्ख  (रचनाकार - सुभाष नीरव)

मानववादी थप्पड़

“ये हैं मेरे लंगोटिये यार... पिछले तीस, पैंतीस बरसों से अच्छी निभती आ रही है।  बहुत बढ़िया ग़ज़लगो हैं जिनकी ग़ज़लों में से मानववादी नज़रिया साफ़ झलकता है।” पंजाबी की पत्रिका ‘योजना’ के सम्पादक डॉ. गुरचरन सिंह मोहे ने इकहरे शरीर वाले, कलफ़ की हुई दाढ़ी और लाल पगड़ी बाँधे आगन्तुक से दफ़्तर में सरसरी तौर पर परिचय कराते हुए मुझसे कहा।

“कौन से दफ़्तर में हैं आप?” मैंने उस कवि में दिलचस्पी लेते हुए उत्साह में भरकर पूछा।

“हम तो चलते, फिरते रमते हैं, ग़ज़लें कहते हैं, घरवाली नौकरी करती है।”

“इनका दिन सड़कें नापते, ग़ज़ल सोचते गुज़रता है, शाम कॉफी हाऊस में बीतती है और दोपहर चण्डूखाने...।” डॉ. मोहे ने उतावले होते हुए बीच में टोककर गहरी दोस्ती पर फ़ख्र करते हुए उस कवि के बारे में जानकारी दी।

“चण्डूखाना?”

“वही, जहाँ महफ़िलें जुड़ती हैं... तू मेरे साथ चला कर... दूसरे कवियों, लेखकों से परिचय करवा देंगे। यहीं कमरे के अन्दर नहीं बैठे रहते।” डॉ. मोहे ने चाव से आगे बताया, “यह दरियादिल बंदा है... कॉफी होम में किसी दूसरे को पैसे नहीं देने देता।  कवि सम्मेलनों से क्या मिलता है!  घरवाली के सिर पर ऐश करता है... बड़ी नेक औरत है वो!”

ग़ज़लगो हल्के-हल्के मुस्कराता रहा।  मुझे लगा मानो वह कोई परजीवी हो जिसके पास न कोई काम है और न ही कोई और आमदनी का साधन!

“इनकी तारीफ़?” ग़ज़लगो ने पूछा।

“यह मेरे यहाँ सहायक सम्पादक बन कर आए हैं, इनका नाम बलबीर चंद है, पर अपने आप को बलबीर माधोपुरी कहलवाते हैं।” मोहे ने व्यंग्य की तर्ज़ में मेरा परिचय दिया।  इस रोज़ की ज़लालत के कारण मैंने कुछ दिनों के अन्दर ही सरकारी कागज़ों में अपना नाम बदलवाकर बलबीर माधोपुरी रख लिया।

दोपहर की महफ़िलें पार्लियामेंट स्ट्रीट पर पी. टी. आई. बिल्डिंग के बाहर लगा करतीं।  वहाँ साहित्य, संस्कृति संबंधी कोई बात कभी न होती, बल्कि एक-दूजे की पीठ पीछे ईर्ष्या, जलन और ऐसा ही कुछ सुनने को मिलता।  मैं वहाँ जाने से कन्नी काटने लगा।

दिन, महीने बीतते गए। मोहे और उसका एक अन्य सम्पादक साथी कमरे के अन्दर घंटों बैठकर अपनी-अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की उच्च बातें किया करते।  जन्म सँवारने को लेकर वार्तालाप हुआ करता- यह काम, यह पैसा संग नहीं जाना आदि के बहाने उनकी बातों का सिलसिला टूटने का नाम न लेता। मेरे दफ़्तरी काम में विघ्न पड़ता। वे अपने गुरु को ‘सम्पूर्ण सतिगुरु’ कहा करते। मेरे साथ बहस करते।  ‘निगुरे दा नाउ बरा’ जैसी टिप्पणियाँ करके मुझे अपने संग ले जाने के लिए प्रेरित किया करते।  जड़बुद्धि होने का दोष लगाया जाता।  मैं अन्दर ही अन्दर काम पूरा न होने के बोझ के कारण परेशान होता रहता और मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता।

... और, एक शाम विवश होकर मैं उनके संग दिल्ली की एक पॉश कालोनी में रहने वाले उनके गुरु वेद प्रकाश शर्मा के सत्संग में गया।  मोहे के ग़ज़लगो दोस्त ने मुझसे पहले ही वहाँ जाना आरंभ कर दिया था। अध्यात्म सहित वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की चर्चा छिड़ जाती। मुझे माहौल अच्छा लगा। मैं मोहे के संग वहाँ ‘हाज़िरी’ भरने लगा।

एक दिन सत्संग के दौरान डी.डी शर्मा ने प्रश्न किया, “पिताजी, गुरु रविदास की बाणी में ...।”

“गुरु?... वह तो संत भी नहीं था। गुरबाणी में उन्हें भगत कहा गया है।” सतिगुरु शर्मा जिन्हें सभी पिताजी कहकर संबोधित होते थे, ने पूरा प्रश्न सुने बगैर ही, जो पूछा नहीं था, उसकी व्याख्या कर दी।  प्रश्नकर्त्ता ने चुप धार ली कि शायद गुरु से इस समय बहस उचित नहीं।

फिर, सतिगुरु ने अपने मन की मौज में बात शुरू की, “मैं पिछले जन्म में याज्ञवल्क्य ऋषि था और मेरी पत्नी गार्गी थी, जो अब मेरी बेटी शीला के रूप में मेरे साथ है।” सभी सत्संगी एक, दूसरे के मुँह की ओर देखने लगे कि सतिगुरु अगले-पिछले जन्मों और ब्रह्माण्ड का ज्ञाता है।

“पिताजी, हमने तो यह सुन रखा है कि यह जग मीठा, अगला किसी ने न देखा।” मैंने सुनी हुई बात की।

“गुरु की महिमा, गुरु की लीला को कोई नहीं जानता... गुरु कुछ भी करे, उस पर कोई दोष नहीं लगता, वह कमल की तरह पवित्र है।  अगले-पिछले संगी, साथी लेखा लेने के लिए एक-दूजे के साथ-साथ चले आ रहे हैं।” वेद प्रकाश शर्मा ने अगम-अगोचर के बारे में कई प्रवचन किए।

“पिताजी, आप पूर्ण गुरु हो, सभी गरीबों का कल्याण कर दो, जात-पात के भेदभाव को खत्म कर दो, सब बराबर हो जाएँ।” मैंने अपने मन की इच्छा एक पीड़ित व्यक्ति के रूप में प्रकट की।

“देखो!  यह सब कुछ पिछले जन्मों के कारण है, सतिगुरु इसमें दखल नहीं देता बल्कि रज़ा में रहना सिखलाता है।  इसी से मन को शान्ति मिलती है।  तुम खुद ही देखो, हम बार-बार मुँह धोते हैं, बार-बार शीशा देखते है और पैरों की ओर कितना ध्यान देते हैं?”

मुझे शूद्र, अतिशूद्र होने का ज्ञान पूर्ण सतिगुरु के पास बैठे पल में हो गया।  इसके उपरान्त मैंने मोहे से बात की। उन्होंने कहा, “जन्म करम है, अपना बर्तन सीधा रख, तभी अमृत पड़ेगा, उल्टे रखे बर्तन से आस्था, श्रद्धा और वैराग नहीं उपजते।”

सत्संग की समाप्ति पर एक खूबसूरत पहनावे वाले युवक ने दो-चार बार सत्संगियों को बताया कि ये हैं तो मेरे मामा, पर इनकी चालों में मत आओ, ये मुर्गे का सूप पीते हैं और कभी-कभी इसके साथ पैग भी लगा लेते हैं।

उस अजनबी युवक की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

“एक पल को मान लिया कि पिछला जन्म है, पर महाराज उस जन्म की पत्नी आज बेटी के रूप में गार्गी की तरह कैसे स्वीकार हो सकती है?” मैंने मोहे से प्रश्न किया।

“गुरु की निन्दा करना और सुनना गुरमुख व्यक्ति के लिए पाप समान है।” उन्होंने संक्षेप में समझाया।

“पर सच जानने में हर्ज़ क्या है?” मेरी इस बात के उत्तर में उनके बेटे सुखबीर ने कहा, “अगर आप लांछन लगा रहे हैं तो मैं सब पता लगाऊँगा।”

उसने तुरन्त स्कूटर में किक मारी और कुछ देर बाद लौट कर मायूसी भरी आवाज़ में बताने लगा, “पिताजी की प्रिंसिपल लड़की से मिलकर और उससे पूछताछ करके आ रहा हूँ।  वह कहती है- अपने पिता के कारण मैं अब न विवाहितों में हूँ और न ही कुँआरियों में।”

इस पुष्टीकरण के बाद ब्रह्माजी के वे श्लोक मेरी आँखों के सम्मुख आ गए जो उन्होंने अपनी पुत्री पद्मा को संभोग के लिए भरमाने की ख़ातिर उच्चरित किए थे कि सन्तान की प्राप्ति के लिए माँ, पुत्री, बहन से सहवास किया जा सकता है। मुझे लगा कि कहीं यही ‘मॉडल’ उस ‘सम्पूर्ण गुरु’ के सामने न हो।

मेरी दुविधा देखकर मोहे ने कहा, “भारतीय मिथ में ऐसा बहुत कुछ बकवास पढ़ा और सुना था, पर यह तो सच हो गया लगता है।”

मेरे मन में से ‘गुरु’ और ‘सत्संग’ संबंधी विचार सेकेण्डों में इस तरह लुप्त हुए जैसे मेरे दफ़्तर के कंप्यूटर की फाइलें करप्ट हो गई थीं और उन्हें वायरस ने खा लिया था और सारे बटन दबा-दबाकर देखने पर भी मानीटर की स्क्रीन पर कुछ नहीं आया था। मेरी ‘मुक्ति’ हो गई।

 

मोहे और उनकी प्रवृत्ति के लोग किसी जाँच कमेटी की भाँति गम्भीरता के साथ मसले की छानबीन करने लगे। ‘तुम्हारी ये दुकान अब बन्द करवाकर ही दम लेंगे’  मोहे की इस बात की भनक ‘घट घट के अन्तर्यामी’ कहलाने वाले उस ‘पूर्ण गुरु’ को हो गई।  

गुरु के ऊपर तांत्रिक होने के आरोप मोहे सहित बहुत से सत्संगी पहले इन्हें रद्द किया करते थे, अब स्वयं लगाने लगे थे।  ‘सत्संग’ के बहाने माया एकत्र करने का धंधा ठप्प हो गया।

गुरु ने अपनी करतूतों को छिपाने के लिए एक नज़दीकी सत्संगी से कहा, “लांछन लगाने वाले सारे शिड्यूल्ड कास्ट इकट्ठे हो रखे हैं।”

‘पिताजी’ कहलाने वाले के मन के अन्दर की विरासती सोच का विस्फोट हो गया।

मोहे आक्रोश और क्रोध में कहते, “हमारे साथ धोखा हुआ है। किसी तरफ़ के नहीं रहे हम। हमारा परिवार पिछले सत्तर, अस्सी साल से राधास्वामी मत से जुडा हुआ था... मेरी कई रातें जागते और रोते हुए गुज़र गईं।”

“और वह लेखक औरत?” मैंने झकझोरा।

“चौदह साल साथ रहकर वह भी आखिर यह कह गई- तुम चमार के चमार ही रहे।”

मोहे उदास हो उठे।  चेहरे का माँस सिकुड़, सा गया।  अपनी सफ़ेद दाढ़ी पर वह इस तरह हाथ फेर रहे थे मानो उसे नोच रहे हों।

उन्हीं दिनों में डॉ. मोहे की तरक्की उप सचिव के पद पर हो गई। वह पाँच-सात दिन बाद मुझसे मिलने आया करते। एक दोपहर आए और कहने लगे, “चल, चण्डूखाने दोस्तों को मिलने चलें।”

“गुरचरन, कितना समय रह गया रिटायरमेंट को?” ग़ज़लगो ने ख़ैर-ख़बर पूछने के बाद डॉ. मोहे से पूछा।

“छह महीने।”

“चल, बाद में इस मोची के पास पालिश की डिब्बियाँ और ब्रश लेकर बैठ जाना।” ग़ज़लगो ने पास बैठे मोची की ओर इशारा करते हुए कहा, “इसी बहाने अपना भी आना-जाना बना रहेगा।”

डॉ. मोहे ने इस व्यंग्यमयी टिप्पणी की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया और बात का रुख बदलने की कोशिश की।

“गुरचरन, मैं क्या कह रहा हूँ!  पालिश की डिब्बियाँ और ब्रश लेकर यहाँ मोची के पास बैठ जाना, हमारे बैठने, उठने की जगह बनी रहेगी।” उस ग़ज़लगो ने अपनी बात फिर दोहराई।

“यार, मेरे पास होम्योपैथी के डाक्टर की डिग्री है। दवाइयाँ देकर लोगों का भला करूँगा। अनुभव बहुत है, पंजाबी, अंग्रेज़ी में पत्रकारिता कर सकता हूँ, एम.ए. पास हूँ। दोस्ती में ऐसी बातें नहीं किया करते।” डॉ. मोहे ने कहा।

कुछेक दिन बाद मैं और डॉ. मोहे फिर पुराने मित्रों से मिलने गए। उस ग़ज़लगो ने सरकारी नौकरी की ‘सेवा निवृत्ति’ के बारे में पूछने के बाद कहा, “गुरचरन, मैंने पहले भी कहा था कि पालिश की डिब्बियाँ और ब्रश लेकर इस नीम के नीचे बैठ जाना, हमारे बैठने, उठने का ठीया बना रहेगा।”

इसी दौरान, तुरंत प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानववादी कवि के मुँह पर डॉ. मोहे के हाथों के थप्पड़ पड़ने लगे।  मैंने देखकर अनदेखा करते हुए मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। मैंने तिरछी निगाहों से देखा कि मोहन सिंह बैरी उन दोनों को छुड़ा और समझा रहा था।

हाथापाई की इस घटना के बाद मैंने महसूस किया कि समूची ‘कमीन’ बिरादरियों की मानसिकता के पीछे सदियों का अमानवीय दृष्टिकोण है। जिन अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों को हम परस्पर एक साथ देखना चाहते हैं, मानसिक स्तर पर उनकी फूट उन्हें एक-दूसरे के नज़दीक नहीं आने देती। मंडल कमीशन की रिपोर्ट का पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू करने का मोर्चा अनुसूचित जातियों ने लगाया, पर पिछड़ी जातियाँ सवर्णों के हित में इस्तेमाल हो गईं।  तोड़फोड़ हुई, आगजनी की घटनाएँ हुईं और जानी नुकसान हुआ।

मैं इन्हीं सोच-विचारों की जाँच-परख कर रहा था कि तभी आंध्र प्रदेश का मेरा एक कुलीग एम. के. राव आ पहुँचा।  मैंने उसे ताज़ा घटी घटना का ब्यौरा दिया तो उसने सहज ही बताया, “परेशान होने की ज़रूरत नहीं, हमारे यहाँ ‘महात्मा गाँधी सम्पूर्ण वांङमय’ के एक उच्च अधिकारी ने हमारी एसोसिएशन के चुनाव के समय मेरे अध्यक्ष चुने जाने पर कहा- अब शिड्यूल्ड कास्ट लोगों को अपने बराबर कैसे बिठा सकते हैं! और बताऊँ - मैं एस.एफ.आई. का स्टेट जनरल सेक्रेटरी रहा, जब हम एसेम्बली चुनावों के दौरान तेलंगाना इलाके में अपने गाँव में कामरेड लीडर भाइयों को खाने पर बुलाते थे तो गाँव प्रधान हमारे घरों में खाना खाने के लिए नहीं आता था। वैसे कहने को वह बहुत प्रगतिवादी है।”

मुझे लगा कि जात-पात और छुआछूत का कोढ़ एक ऐसी बीमारी है जिसके कीटाणुओं के मरने की जल्दी कोई संभावना नहीं। स्विच दबाने से एकदम जले बल्ब की रोशनी की तरह ख़्याल आया कि हो सकता है, बराबरी के लिए मोहे-फार्मूला ही अधिक कारगर साबित हो, जैसा कि मैंने उस दिन जातिवाद के मुँह पर उसका करारा मानववादी थप्पड़ लगते देखा था।


 

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