बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 1

01-04-2021

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 1

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

चार घंटे देरी से जब ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर रुकी तो ग्यारह बज चुके थे। जून की गर्मी अपना रंग दिखा रही थी। ग्यारह बजे ही चिल-चिलाती धूप से आँखें चुँधियाँ रही थीं। ट्रेन की एसी बोगी से बाहर उतरते ही लगा जैसे किसी गर्म भट्टी के सामने उतर रहा हूँ। गर्म हवा के तेज़ थपेड़े उस प्लेटफ़ॉर्म नंबर एक पर भी झुलसा रहे थे। अपना स्ट्रॉली बैग खींचते हुए मैं वी.आई.पी. एक्ज़िट के पास बने इन्क्वारी काउंटर पर पहुँचा यह पता करने कि जौनपुर के लिए कोई ट्रेन है, तो वहाँ से निराशा हाथ लगी। कुछ ट्रेन निकल चुकी थीं। अगले कई घंटे तक वहाँ के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया क्या करूँ? काउंटर से हटकर इधर-उधर देखने लगा। पहुँचना ज़रूरी था और समय भी मेरे पास बहुत कम था। मैं थोड़ी ही दूर पर एक बेंच पर बैठ गया। स्टेशन पर इधर-उधर नज़र जा रही थी। वहाँ की साफ़-सफ़ाई मेंटिनेंस देखकर कहना पड़ा वाक़ई चेंज तो आया है।     

यही स्टेशन कुछ साल पहले तक अव्यवस्था, गंदगी का प्रतीक हुआ करता था। यदि शासक, समाज चाह लें तो कुछ भी हो सकता है। परिवर्तन में समय नहीं लगता। यह परिवर्तन देखते-देखते मैंने बोतल निकालकर कुछ घूँट पानी पिया, फिर यह सोचते हुए बाहर आया कि चलें देखे बाहर कोई बस वग़ैरह मिले तो उसी से चलें। पहुँचना तो हर हाल में है। स्टेशन की अपेक्षा बाहर मुझे परिवर्तन के नाम पर भीड़-भाड़, अस्त-व्यस्तता दिखी।

मेट्रो ट्रेन का काम तेज़ी से चल रहा था। जिसके कारण डिस्टर्बेंस हर तरफ़ दिख रही थी। बाहर बसों की हालत, गर्मी ने मुझे पस्त कर दिया। अंततः जौनपुर के लिए एक टैक्सी बुक की। मैंने सोचा पैसे ज़्यादा लगेंगे लेकिन कम से कम आराम तो रहेगा। पैसे को लेकर मैंने ज़्यादा झिख-झिख नहीं की। ड्राइवर भी इत्तेफ़ाकन पढ़ा-लिखा, समझदार, अच्छे मैनर्स वाला मिल गया। मैंने सोचा चलो रास्ते भर बोरियत से बच जाऊँगा। 

संयोग से वह भी पूर्वांचल का निकला। बलिया ज़िले का। वह इंग्लिश लिट्रेचर, हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएट था। दोनों ही भाषाओं पर उसकी ज़बरदस्त पकड़ देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ लिया. "नौकरी के लिए कभी कोशिश नहीं की क्या?" तो उसने बताया कि "कई प्रतियोगी परीक्षाओं के रिटेन मैंने फ़र्स्ट अटेम्प्ट में ही क्लीयर कर लिए। लेकिन इंटरव्यू में हर जगह फ़ेल होता रहा। जब कि रिटेन की तरह इंटरव्यू भी मेरे ज़बरदस्त होते थे।" आख़िर में उसने जोड़ा कि "राजनीतिक पहुँच या सोर्स के सिरे से नदारद होने, आर्थिक रूप से कमज़ोरी, और इन सबसे ज़्यादा यह कि जनरल कैटेगरी वालों के लिए नौकरी है ही कहाँ?" उम्मीदों का हर तरफ़ से टोटा ऐसा था कि नौकरी पाना, उसे असंभव लगा। 

प्राइवेट स्कूलों में कुछ दिन टीचर की नौकरी की लेकिन वहाँ जी-तोड़ मेहनत करने के बाद मिलने वाले कुछ हज़ार रुपयों ने उसकी उम्मीदों की रही-सही कसर भी निकाल दी। मैंने उसकी सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर गहरी जानकारी, क्लीयर कांसेप्ट को देखकर कहा– "तुम्हारी बातों से लगता है कि शायद तुम नौकरी ना मिलने, अपनी इस हालत के लिए रिज़र्वेशन को ज़िम्मेदार मान रहे हो।"

मेरी इस बात पर वह हँस पड़ा। बोला, "नहीं बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि मैं अपनी बातें आपको ठीक से कम्यूनिकेट नहीं कर पाया। देखिए मैं यह बहुत स्पष्ट मानता हूँ कि मेरे साथ फ़ेयर गेम हुआ होता तो कम से कम तीन-चार जगह मेरा सेलेक्शन हो जाता। लेकिन सिस्टम ही करप्ट है इसलिए यह होने की बात ही नहीं उठती। नौकरी मुझे एकाध जगह तब भी मिल जाती यदि सिस्टम में करप्शन होता। लेकिन सर मैं जब नौकरी पाने के प्रयास में आगे बढ़ा तो पाया कि भई यहाँ सिस्टम में करप्शन नहीं है। यहाँ तो करप्शन में सिस्टम है। हमारे देश में वास्तव में जो सिस्टम डेवलप हुआ वह करप्शन में डेवलप हुआ। 

"आप सोचिए कि जो देश सदियों के बाद आज़ाद हुआ हो, वह अपना भविष्य बनाने के लिए आगे बढ़े और कुछ वर्ष भी ना बीते और एक बड़ा घोटाला हो जाए। फिर आरोपी को सज़ा देने के बजाय केंद्रीय मंत्री बना दिया जाए। तो ऐसे देश के बेहतर भविष्य और आयडल सिस्टम के डेवलप होने की उम्मीद करना ही मूर्खता थी, जो हम देशवासियों ने की। ग़लती तो हमारी ही थी। पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ गए थे। साफ़ दिख रहा था कि करप्शन के दलदल में देश के डेवलपमेंट का बीज हमारे कर्णधार रोप रहे हैं, फिर भी हम अंधे बने रहे। शायद आज़ादी की लड़ाई की थकान उतार रहे थे। लेकिन नहीं, थकान की बात नहीं। बात तो यह थी कि हमलोग यह जो कहते हैं ना कि पानी ऊपर से नीचे की ओर आता है। जहाँ-जहाँ वह पहुँचता है लोग उसे ही इस्तेमाल करते हैं। लोग सोचते हैं कि यह ऊपर से आ रहा है, तो यह साफ़ ही होगा। फिर लोग उसी के आदी होते चले जाते हैं। तो हमारे यहाँ देश में यही हुआ।

"ऊपर करप्शन होते गए। ऊपर से नीचे बढ़ता गया। एक के बाद एक घोटालों से देश को छलनी किया जाता रहा। लेकिन हम क्यों कि इसके आदी हो चुके थे। इसे हमने सिस्टम मान लिया, और इस सिस्टम का जो तरीक़ा है काम करने का वह है भ्रष्ट तरीक़े से काम करना और करवाना। उसी को हमने ग्रहण कर लिया। सत्ता के मद में चूर ऊपर लोग पूरा देश चूसते रहे। खोखला करते रहे और हम सोए रहे। साठ-पैंसठ साल तक सोए रहे। जब जागे तो इतनी देर हो गई है कि हर तरफ़ भ्रष्टाचार, गंदगी सड़ांध ही सड़ांध है। इतनी कि नाक फटी जाती है। 

"अब आज की जेनरेशन इससे छुटकारा पाने को तड़प रही है। ऊपर का सिस्टम भी इस चीज़ को समझ गया है। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि जब ऊपर वालों ने देखा कि नई जेनरेशन इतनी परेशान हो चुकी है कि विस्फोट हो सकता है तो उसने भले ही दबाव में या जो भी कहें संड़ाध गंदगी को दूर करना शुरू किया है। लेकिन यह सड़ांध दूर होने में समय लगेगा। हथेली पर सरसों उगाने का कोई रास्ता तो अभी तक नैनो टेक्नोलॉजी भी नहीं ढूँढ़ पायी है। 
साठ-पैंसठ साल की सड़ांध को दूर करने में यदि ईमानदारी से पूरी कोशिश होती रही तो भी मैं मानता हूँ कि आठ-दस साल तो लग ही जाएँगे। और यह भी तब ही हो पाएगा जब हम देशवासी जागते रहें, फिर से सो ना जाएँ। तय यह भी है कि इस बार अगर सोए तो सब कुछ नष्ट होना अवश्यंभावी है। और यह भी कि यदि नई जेनरेशन की आवाज़ को ऊपर वालों ने नज़रंदाज़ किया। पहले वालों की तरह आँखें बंद किए रहे तो देश में ख़ूनी क्रांति भी हो सकती है। और उस स्थिति के लिए मैं यही कहूँगा कि जब किसी देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना ज़रूरी हो जाए, कम समय में ही, तो वहाँ तक पहुँचने का रास्ता ख़ूनी क्रांति से ही होकर गुज़रता है। इतिहास इस बात का गवाह है। हमें इतिहास से सबक़ लेते रहना चाहिए। जो आगे देखने से पहले अतीत पर नज़र नहीं डालते उनको ठोकर लगती ही है।" 

वह नॉन स्टॉप पूरे आवेश में ऐसा बोला कि मैं कुछ देर चुप-चाप सुनता ही रहा। उसकी बातों ने वाक़ई मुझे यह यक़ीन करा दिया कि इस व्यक्ति में बड़ा ज्वालामुखी धधक रहा है। इसी में क्यों बल्कि इसकी उम्र की पूरी पीढ़ी में ही। लेकिन मुझे लगा कि इसने मेरी बात का तो जवाब दिया ही नहीं कि यह अपनी हालत के लिए आरक्षण को ज़िम्मेदार मानता है कि नहीं।

यह सोच कर मैंने उसे फिर कुरेदा तो वह बड़ी बेबाकी से बोला, "नहीं। मैं इसे ज़िम्मेदार नहीं मानता। क्यों कि मैं यह मानता हूँ कि आज़ादी के बाद भी अगर हम समाज में फैली असमानता को दूर नहीं कर पाएँगे तो भी देश का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। यह व्यवस्था असमानता को दूर करने का एक माध्यम है। लेकिन करप्शन में पैदा सिस्टम ने इस व्यवस्था को भी विकृत कर दिया। इसकी भी धुर्रियाँ उड़ा दी हैं। जिसका परिणाम और नकारात्मक निकल रहा है। 

"समाज में सदियों से पीछे छूट गए जिन दलितों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई। इस व्यवस्था को विकृत कर दिए जाने के कारण उन दलितों में भी वर्ग बनते जा रहे हैं। कुछ परसेंट हैं जो इस के चलते आगे निकल गए, वो पुश्त-दर पुश्त उसी का लाभ उठाते रहना चाहते हैं। उनको यह क्रीम मिलती रहे इसके लिए सक्षम बन चुका यह वर्ग जो अब भी पीछे छूटे हुए हैं, उनको आगे आने नहीं दे रहा।

"हर संभव रुकावट डालता है, जिसका परिणाम है कि दलितों में भी परस्पर वैमनस्यता बढ़ रही है। असमानता बढ़ रही है। यह व्यवस्था बनाते वक़्त इसकी जो मूल भावना थी, इसकी जो आत्मा थी उसे ही नष्ट कर दिया गया है। परिणाम यह है कि एक के सामने रखी थाली छीन कर दूसरे को दी जा रही है। दूसरे की तीसरे को। तो जो इक्वेलिटी लाने की बात थी वह तो कहीं है ही नहीं। बल्कि असमानता और बढ़ रही है। विषमता, विभेद चरम छूने को है। इसी का परिणाम है कि अब देश के कोने-कोने में हर वर्ग ही आरक्षण पाने के लिए आंदोलन कर रहा है। लड़ रहा है। कोई इसकी विकृति को सुधारने की बात ही नहीं कर रहा है। 

"अब ऐसे में मैं आरक्षण नहीं इस व्यवस्था की सड़ांध इसकी विकृति को अपनी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मानता हूँ। इसे बनाते समय इसकी संकल्पना करने वालों, इसे बनाने वालों की बातों, उनके विचारों को आधा भी माना जाता तो आज किसी वर्ग को आरक्षण की ज़रूरत ही ना होती। यह व्यवस्था ही अप्रासंगिक हो जाती। ख़त्म हो जाती। असमानता से दूर समाज, देश की प्रगति की वो कहानी लिखता जिसकी दुनिया ने भी कल्पना न की होती। मगर अफ़सोस आज़ादी मिलते ही सत्ता के लोभियों की नज़र हर तरफ़ लग गई। उनकी सत्ता हर वक़्त चलती रहे, बनी रहे इसके लिए वोट की राजनीति चली और चलती ही आ रही है। सारी समस्या को नए ढंग से नया रूप देकर उन्हें बराबर विकराल रूप दिया गया। वह अभी भी जारी है। इसलिए मैं कहता हूँ कि यह कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि हमारे देश में गृहयुद्ध या ख़ूनी क्रांति हो जाए।"

इन बातों को कहते हुए ड्राइवर आदित्य विराट सिंह के चेहरे पर ज़बरदस्त तनाव था। चेहरा लाल हो रहा था। पीछे सीट पर बैठा मैं बैक मिरर में यह सब कुल मिलाकर देख पा रहा था। बैक मिरर भी मुझे लगा कि सही एंगिल पर नहीं था। उसकी बात पूरी हो गई। मैं बड़ी देर तक चुप रहा। मुझे लगा कि शायद वह मेरी वजह से बड़े तनाव में आ गया है। मैं नहीं चाहता था कि वह तनाव में ड्राइविंग करे। मैंने उससे कहा, "आदित्य जी आगे कोई अच्छा सा रेस्टोरेंट वग़ैरह दिखे तो रोकना।" अपने नाम के साथ जी जुड़ा पाकर वह जैसे राहत महसूस कर रहा था। जी कहते समय मैंने उसकी बॉडी लैंग्वेज को रीड करने की भरसक कोशिश की थी।

आगे जब एक रेस्टोरेंट पर उसने गाड़ी रोकी तो मैंने उसकी अनिच्छा के बावजूद उसे अपने साथ ही बैठकर लंच करने के लिए तैयार कर लिया। कई बार कहने पर वह तैयार हुआ था। बातूनी स्वभाव के चलते इस समय भी मैंने उससे ख़ूब बातें की जिससे लंच कुछ ज़्यादा ही लंबा खिंच गया। इस दौरान मैंने पाया कि वह पैसे से ज़्यादा सम्मान का भूखा है। 

उसने बताया कि घर की ज़िम्मेदारियों, फिर शादी के बाद बीवी, बच्चे की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए टीचिंग से मिलने वाली रक़म ऊँट के मुँह में जीरा सी थी। कोई और रास्ता ना देखकर उसने बीवी के गहने आदि बेचकर डाउन पेमेंट करने लायक़ भर की रक़म जुटाई, फिर बैंक से फ़ाइनेंस कराकर यह टैक्सी निकलवाई। उसने बिना संकोच कहा, "ख़ुद चलाता हूँ इस लिए बचत अच्छी कर लेता हूँ। गाड़ी की कुछ किस्तें रह गई हैं। इसके बाद एक और गाड़ी निकलवाऊँगा।"

उसने अपने बच्चों के भविष्य, आगे बढ़ने को लेकर जो भी प्लान कर रखा था उससे मैं बहुत इंप्रेस हुआ, अपनी ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के प्रति उसकी गंभीरता प्रशंसा योग्य थी। इसके लिए मैंने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की। उस वक़्त मैं मन में बड़ी आत्मग्लानि महसूस कर रहा था कि मैंने अपने माँ-बाप के प्रति ज़िम्मेदारियों का निर्वहन संतोषजनक ढंग से भी नहीं किया। मैं बड़ा पछतावा महसूस करने लगा।

मन में उठे इन भावों के साथ ही मैं आदित्य की बातें सुनता रहा। रेस्टोरेंट से जौनपुर की ओर चलने के बाद भी। जब अपने रिश्तेदार के यहाँ ओलंद गंज, जौनपुर पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। इस दौरान आदित्य की बहुत सी बातों में से एक बात मेरे मन को और गहरे मथने लगी। उसने कहा था कि "सर चाहे जैसे भी हो मैं कोशिश कर के कम से कम दो बीघा ज़मीन गाँव में और ख़रीदूँगा। मेरे पापा तो जीवन भर तमाम मुश्किलों के कारण गाँव में एक धूर ज़मीन भी नहीं ख़रीद पाए। लेकिन उन्होंने यह भी किया कि हर मुश्किलें सह लीं लेकिन अपने बाप-दादों की ज़मीन का एक टुकड़ा भी नहीं बेचा। 

"मैं सोचता हूँ कि अगर दो-चार बीघा ज़मीन ले लूँगा तो फ़ादर को ख़ुशी होगी कि वो ना ख़रीद पाए तो क्या उनके बेटे ने तो ख़रीद लिया। बाप-दादों का सम्मान बढ़ा दिया। पूरा गाँव ही तारीफ़ करेगा। उन्हें यह जो ख़ुशी मिलेगी मेरे लिए वह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।"

मैं अपने रिश्तेदार के साथ बैठा चाय-नाश्ता करता रहा लेकिन आदित्य की यह बात दिमाग़ से निकल नहीं रही थी। आदित्य जाते-जाते मुझसे हाथ मिला कर गया था। मुझे इस बात के लिए उसने बहुत-बहुत धन्यवाद कहा था कि मैंने उसे रास्ते भर एक टैक्सी ड्राइवर नहीं एक मित्र की तरह ट्रीट किया। फिर उसने बड़े संकोच के साथ मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया। बोला "सर जब याद आएगी तो आप से बात कर लिया करूँगा।"  

देर रात जब मैं खा-पी कर लेटा तो भी उसकी बातें दिमाग़ में चल रहीं थी। मैं अपनी पैतृक प्रॉपर्टी बेचने गया था। इस काम में मेरे यही रिश्तेदार जो चचेरे भाई लगते हैं वही मदद कर रहे थे। मेरा गाँव वहाँ से घंटे भर की ही दूरी पर था। रामगढ़, मछली शहर तहसील। अगले दिन सुबह मैं उन्हीं की जीप से तहसील पहुँचा। उन्होंने ड्राइवर के अलावा दो आदमी और साथ लिए थे। उन्होंने ख़रीददार से सब कुछ तय कर रखा। फ़िफ़्टी पर्सेंट पेमेंट ब्लैक कैश में लेना था, फ़ेयर मनी सीधे बैंक में जमा होनी थी। सब कुछ तय था। बदले में मैं उन्हें भी कुछ देने की अपने मन में सोचे बैठा था। असल में वह एक अच्छे ख़ासे ठेकेदार हैं। सफल ठेकेदार के गुण दबंगई उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। 

तहसील में ही मुझे उनके चार-पाँच आदमी और मिले। सब दूसरी जीप से थे। रिश्तेदार ने उन्हें भी सुरक्षा की दृष्टि से बुलाया था। क्योंकि मामला क़रीब पाँच बीघे का था। और अस्सी लाख रुपए में तय हुआ था। हम साढ़े दस बजे पहुँच गए थे। ख़रीददार कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। रिश्तेदार ने सबसे पहले संबंधित स्टाफ़ का पता किया। संयोगवश सब आए थे। ग्यारह बजे भी ख़रीददार नहीं दिखा तो रिश्तेदार ने उन्हें फोन किया। रिंग जाती रही लेकिन उसने फोन रिसीव नहीं किया। 

इससे मैं थोड़ा परेशान हो उठा। उनके चेहरे पर भी तनाव दिख रहा था। ख़रीददार चार भाई थे और सभी मिलकर ख़रीद रहे थे। दूसरे भाई का नंबर ट्राई किया गया तो स्विच ऑफ़ मिला। बारह बज गए तो रिश्तेदार ने अपने आदमियों को ख़रीददार के गाँव तिलोरे उनके घर भेजा। वहाँ पहुँच कर उन सब ने सूचना दी कि बड़े भाई की दो घंटे पहले ही डेथ हो गई है। वह हार्ट पेशेंट थे। दो बार पहले ही अटैक पड़ चुका था। सुबह आने की तैयारी चल रही थी कि तभी पत्नी से बहस हो गई। पत्नी शुरू से ही भाइयों के साथ इस सौदे के ख़िलाफ़ थी। ऐन ख़रीदने के समय झगड़ा उन्हें अपशगुन लगा। वह एकदम बिगड़ गए थे। और फिर सँभाल ना पाए ख़ुद को और गिर पड़े। उन्हें इतनी तेज़ अटैक पड़ा था कि डॉक्टर के यहाँ ले जाने का अवसर ही नहीं मिला।

यह सूचना मिलते ही रिश्तेदार ने अपना सिर पीटते हुए कहा, "क्या! दो-चार घंटे और नहीं रुक सकते थे।" मुझे लगा जैसे मेरे पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई है। कुछ देर समझ ही नहीं आया कि क्या करूँ? मेरी बोलती बिल्कुल बंद हो गई थी। रिश्तेदार भी हैरान थे। कुछ देर बाद तय हुआ कि जो भी हो उनके यहाँ चलना तो चाहिए ही। उनके अंतिम दर्शन करने। ज़्यादा क़रीबी नहीं तो क्या थोड़ा बहुत परिचय तो था ही। 

वहाँ पहुँचा तो देखा चौपहिया, दुपहिया वाहन सौ से ऊपर थे। दो सौ लोगों से कम लोग नहीं थे। बड़ा भारी पक्का मकान था। वहाँ पता चला कि सारे भाई एक साथ रहते हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा इस परिवार ने बना रखी है। मगर बड़े भाई की पत्नी तभी से अपना रंग दिखा रही थी, जब से उसका बड़ा लड़का इलाहाबाद में एक बैंक में नौकरी पा गया था। और उसकी शादी के लिए लोग आने लगे थे। वह अलग सारी व्यवस्था करना चाहती थी। अपनी बहू वह संयुक्त परिवार में लाना नहीं चाहती थी। इसी बात को लेकर वह आए दिन विवाद पैदा करती थी। 

आज जब साथ में खेत ख़रीदने की बात उसने एकदम फलीभूत होते देखी तो अपना-आपा खो बैठी। यह भी होश ना रख सकी कि हृदय रोगी उसका पति ज़्यादा तनाव झेल नहीं सकता। और अब जब पति चला गया तो ख़ुद भी झेल नहीं पाई। बेहोश पड़ी है। मगर लोग इतने ख़फ़ा हैं कि कोई डॉक्टर तक नहीं बुला रहा। रिश्तेदार ने वहाँ अपनी हाज़िरी बजाई, मातमपुर्सी की और चल दिए। मैं सोचता रहा इतनी दूर से आना बेकार हुआ। सारा काम-धाम छोड़कर आया, कई दिन के काम का नुक़सान हो रहा है। 

गाँव से निकल कर सड़क पर आए तो रिश्तेदार ने कहा, "परिवार के किसी सदस्य की अचानक डेथ से परिवार हिल उठता है। बेचारे खेत ख़रीदने जा रहे थे।" मैंने भी दुख व्यक्त करते हुए कहा "इसीलिए कहते हैं पल की ख़बर नहीं सामान सदियों का।" रिश्तेदार बोले "अरे भाई साहब ये सब पुरानी दक़ियानूसी बातें छोड़िए। आप भी, मैं क्या कह रहा हूँ और आप समझ क्या रहे हैं। मैं कह रहा हूँ कि महिनों से कोशिश की। तब जा कर बात बनीं। आपको इतनी दूर से बुलाया। और ये महोदय कुछ घंटे अपना दिल भी नहीं सँभाल पाए। 

"घर और भाइयों को मैं जितना जानता हूँ उस हिसाब से तो यह सौदा अब होना नहीं। बड़े दक़ियानूसी विचारों वाला परिवार है।" तभी उनका एक साथी बोला "वैसे भी अब साल भर तक तो कोई सवाल नहीं। इतने दिन कोई शुभ काम करेंगे ही नहीं। हाँ अगर बरसी वग़ैरह सब साथ ही निपटा देते हैं तो भले ही उम्मीद की जाए कि दो-चार महिने बाद ख़रीद लेंगे। अभी सब लोक-लाज की बातें करेंगे कि अभी भाई मरा है, खेती-बाड़ी क्या ख़रीदें? दुनिया क्या कहेगी?" 

साथी की बात ने मेरी परेशानी और बढ़ा दी। लेकिन रिश्तेदार ने यह कह कर चैप्टर ही क्लोज़ कर दिया कि "मुझे तो कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये सब यहाँ शगुन-अपशगुन बहुत देखते हैं। अब यही कहेंगे कि इन खेतों का सौदा बहुत अपशगुन रहा। ख़रीदने के पहले ही इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। ख़रीदने के बाद ना जाने और कौन सी विपत्ति आ जाए। अब दूसरा कस्टमर ढूँढ़ना पड़ेगा। यहाँ तो भैंस गई पानी में।" इतना कह कर वो फिर मुख़ातिब हुए मेरी तरफ़ और पूछा "भाई साहब आप क्या कहते हैं। चला जाए वापस। अब तो कोई उम्मीद दिखती नहीं।" 

कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा, "मैं सोच रहा हूँ कि जब आ ही गया हूँ, अभी पूरा दिन पड़ा है तो चलूँ चाचा से मिल लूँ। आगे कभी पता नहीं मिलना होगा भी या नहीं। पता नहीं कितने साल बाद तो आया हूँ। अब यहाँ से थोड़ी ही दूर है घर। पता उन्हें चल ही जाएगा। इस गाँव के लोग भी वहाँ आते-जाते रहते हैं। वैसे भी काम तो कुछ होना नहीं। इतनी दूर आया हूँ तो कम से कम गाँव घर-द्वार भी देख लूँ।

"शहर में तो गाँव की याद जब आती है तो बस मन मसोस कर रह जाता हूँ।" मैंने जब देखा कि रिश्तेदार का मन चलने का नहीं है। वह जौनपुर सिटी अपने काम-धाम से तुरंत लौट जाना चाहते हैं। तो मैंने कहा, "अगर आप को कोई असुविधा ना हो तो ड्राइवर और एक जीप मेरे साथ कर दीजिए। हो सकता है आज चाचा के यहाँ रुकना ही पड़े। इतने दिन बाद जा रहा हूँ, निश्चित ही रुकने को कहेंगे। तब मना करना मेरे लिए बड़ा कठिन होगा। आपका ड्राइवर रहेगा तो मुझे रास्ता वग़ैरह  ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा। पैदल नहीं चलना पड़ेगा।"
 
मेरी बातों, भावों से उनको लगा कि मैं ज़रूर जाऊँगा तो उन्होंने एक जीप मेरे लिए छोड़ी और दूसरी जीप से अपने बाक़ी आदमी लेकर चले गए। ड्राइवर उस एरिया से ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक परिचित था। इस तिलोरे गाँव से मैं अपने गाँव बरांवा पहुँचा खेती-बाड़ी तो ख़ानदान की सब रामगढ़ में है। लेकिन घर और बाग बरांवा में। मैं जब मुख्य सड़क जो वहाँ के रेलवे स्टेशन जंघई जाती है, के पड़ाव (बस स्टेशन) के पास पहुँचा तो मैंने उस छोटे से कमरे के सामने ही गाड़ी रुकवा ली जो स्टेशन था। पड़ाव के सामने ही एक सड़क अंदर गाँव से कुछ दूर और आगे तक जाती है। उस पर कुछ आगे दाहिने मुड़ कर ही गाँव के भीतर पहुँचने का रास्ता था। पड़ाव पर पहुँचते ही सब याद आने लगा। 

पिता के साथ गाँव बहुत बरस पहले तब आया था, जब चचेरी बहन की शादी थी। बस स्टेशन के बग़ल में चाय वाले के यहाँ से चाय लेकर मैं ड्राइवर के साथ ही खड़े-खड़े पीते हुए इधर-उधर देखने लगा। सड़क पक्की थी, मगर गड्ढों से भरी। बचपन में जब आता था तो यह कंकड़ रोड हुआ करती थी। जिसके बारे में सुनता था कि उसे अठारह सौ छियानवे में बनवाया गया था। एक बार जब नौ-दस बरस का रहा होऊँगा तब इसी रोड पर बस का अगला पहिया बर्स्ट हो जाने से बस सड़क से उतर कर गड्ढे में चली गई थी। हम भी उसी बस में थे। सब को चोटें आईं थी। मेरा एक दाँत टूट गया था। तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी। 

लोग आपातकाल की काली छाया से निकल कर एक बार फिर आज़ादी महसूस कर रहे थे। तब भी पड़ाव पर दोपहर में सन्नाटा था। आज इतने बरसों बाद भी पड़ाव उसके आस-पास क़रीब-क़रीब वैसा ही सन्नाटा सा हो रहा था। एक बजने वाला था। तेज़ धूप ने, गर्म हवा ने सबको घरों या छाए में दुबक जाने को मजबूर कर दिया था। जिस दुकान से चाय ली थी उसने आगे तिरपाल बाँध रखी थी। उसी की छाँव में हम ज़रूर थे। मगर पसीने से तर हो रहे थे। चाय वाले से हमने कुछ बात करके गाँव के बारे में जानना चाहा तो वह बड़ा अलसाया सा हाथ वाले पंखे से अपने को हवा करते हुए हाँ हूँ करता बड़ा अनमना सा जवाब दे रहा था। मैं भी थकान महसूस कर रहा था। तो चाय ख़त्म कर चाय वाले को पैसे दिए और कंफर्म करने के लिए अपने चाचा के घर का पता पूछ लिया। 

उसने जैसे ही चाचा का नाम सुना तो थोड़ा सीधा होकर बैठ गया, और पूरा रास्ता बता दिया। चलते समय जब मैंने बताया कि मैं उनका भतीजा हूँ तो वह हाथ जोड़ कर बोला, "अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए। बतावा केतना बड़ी गलती हो गई। तोहे ठीक से चायो-पानी नाहीं पूछ पाए। चच्चा जनिहैं तो रिसियइहीं।" मैंने उसे नमस्कार करते हुए कहा आप परेशान ना होइए। ऐसा कुछ नहीं होगा। बाद में पता चला कि यह महोदय कभी सबसे छोटे चच्चा के कारण थाने से छूट पाए थे। उसी का अहसान निभाते आ रहे हैं। मैं फिर जीप में बैठ कर चल दिया। ड्राइवर शंभू ने रास्ता समझ लिया था। वह गाड़ी धीरे-धीरे चला रहा था। रास्ते अब पहले जैसे ना होकर अंदर ठीक-ठाक थे। गाँव में अंदर इंटरलॉकिंग ईंटों से  खड़ंजे वाली सड़क बन चुकी थी। मुख्य सड़क से अंदर घुसते ही पहले एक स्कूल हुआ करता था। अब वह मुझे दिखाई नहीं दिया।  

गाड़ी आगे जैसे-जैसे बढ़ रही थी मन में बसी गाँव की तस्वीर साफ़ होती जा रही थी। मगर सामने जो दिख रहा था वह बहुत कुछ बदला हुआ दिख रहा था। पहले के ज़्यादातर छप्पर, खपरैल वाले घरों की जगह पक्के घर बन चुके थे। लगभग सारे घरों की छतों पर सेटेलाइट टीवी के एंटीना दिख रहे थे। अब घरों के आगे पहले की तरह गाय-गोरूओं के लिए बनीं नांदें मुझे क़रीब-क़रीब ग़ायब मिलीं। चारा काटने वाली मशीनें जो पहले तमाम घरों में दिखाई देती थी वह इक्का-दुक्का ही दिखीं। जब नांदें, गाय-गोरू ग़ायब थे तो चारे की ज़रूरत ही कहाँ थीं? जब चारा नहीं तो मशीनें किस लिए? खेती में मशीनीकरण ने बैलों आदि चौपाओं को पूरी तरह बेदख़ल ही कर दिया है। 

अब इन जानवरों की अनुपयोगिता के चलते ग्रामीणों ने इनसे छुट्टी पा ली है। हरियाली भी गाँव में पहले जैसी नहीं मिली। हरियाली की जगह उस वक़्त हर तरफ़ तन झुलसाती धूप का एकक्षत्र राज्य था। जीप में एसी के कारण मुझे काफ़ी राहत थी। वह पेड़ भी मुझे क़रीब-क़रीब ग़ायब मिले जो पहले लोगों के घरों के सामने हुआ करते थे। ख़ासतौर से नीम, कनैल के फूल, अमरूद, केला, आदि के। पक्के मकानों के सामने इन पेड़ों की छाँव की ज़रूरत लोगों ने नहीं समझी। मकान आगे तक बढ़ आए थे। और पेड़ ग़ायब थे। घरों के दरवाज़े बंद पड़े थे। मुझे गँवईपन ग़ायब दिख रहा था। कई घरों के आगे जीप, कारें भी दिखीं। लेकिन पहले की तरह घरों के आगे पड़े मड़हे में तखत या खटिया पर हाथ का पंखा लिए कोई न दिखा।

यह हमारे लिए थोड़ा कष्टदायी रहा, क्योंकि कई जगह रास्ता पूछने की ज़रूरत पड़ी लेकिन बताने वाला कोई नहीं दिख रहा था। एक तरफ़ बंसवारी दूर से दिख रही थी। मुझे याद आया कि यह हमारे घर से थोड़ी ही दूर पर पश्चिम में दर्जियाने (दर्जियों का टोला) मुहल्ले में हुआ करती थी। मगर मन में यह संदेह था कि यह पता नहीं मैं जो समझ रहा हूँ वही बंसवारी है या कहीं और तो नहीं पहुँच गया हूँ। 

शंभू को मैंने बंसवारी के पास ही चलने को कहा। वहाँ पहुँच कर पाया कि यह तो वही दर्जियान है जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ। मैं सही हूँ। गाँव का वह हिस्सा जहाँ मुस्लिम समुदाय के दर्जियों, जुलाहों आदि के घर थे। वहीं बीड़ी बनाने वालों, चुड़ियाहिरिनों के भी घर हैं। वहाँ वह कुँआ वैसा ही मिला जैसा बरसों पहले देखा था। हाँ उस की जगत और उसके वह दो पिलर जिस के बीच लोहे की गराड़ी लगी थी, वह बदले हुए मिले। वहीं उतर कर मैं सामने खपरैल वाले मकान के पास पहुँचा। इस मकान का पुराना रूप पूरी तरह नहीं खोया था।

मकान के दलान में कुछ महिलाएँ बीड़ी बनाने में जुटी थीं। एक बुज़ुर्गवार ढेरा (लकड़ी का एक यंत्र ,जो प्लस के आकार होता है। इसमें बीचोबीच एक सीधी गोल लकड़ी क़रीब नौ दस इंच की लगी होती है) से  सन की रस्सी बनाने में लगे थे। बुज़ुर्गवार गोल टोपी लगाए थे। उनकी पतली सी लंबी सफ़ेद दाढ़ी लहरा रही थी। मूँछें साफ़ थीं। बग़ल में नारियल हुक्का था। चश्मा भी नाक पर आगे तक झुका था। सभी के चेहरे पर पसीना चमक रहा था। चेहरे आलस्य से भरे थे। 

ख़ाली चेकदार लुंगी पहने, नंगे बदन बुज़ुर्गवार सन की एक छोटी सी मचिया (स्टूल जैसी लंबाई-चौड़ाई वाली एक माइक्रो खटिया जो मात्र पाँच छः इंच ऊँची होती है) पर बैठे थे। मैं उनके क़रीब पहुँचा, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। और अपने चाचा के घर का रास्ता पूछा। जीप के पहुँचने पर से ही वह बराबर हम पर नज़र रखे हुए थे। 

चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने कहा "बड़के लाला खिंआ जाबा?" हमने कहा "हाँ"। तो उन्होंने फिर पूछा "कहाँ से आए हअ बचवा।" मैंने बताया "जौनपुर से। वो मेरे चाचा हैं।" यह सुनते ही वह बोले "अरे-अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए।" यह कहते हुए उन्होंने रस्सी बनाना बंद कर यंत्र किनारे रखा। दोनों हाथ घुटनों पर रख पूरा ज़ोर देकर खड़े हो गए। दस बारह क़दम बाहर आकर रास्ता बताया। चलते-चलते पापा का नाम पूछ लिया। मैंने बताया तो पापा का घर वाला नाम लेकर बोले "तू उनकर बेटवा हअअ! बहुत दिना बाद आए हऊअ। तू सभे त आपन घरै-दुवार छोड़ि दिअ हअअ। अऊबे नाहीं करतअ। तोहार बबुओ कईयो-कईयो बरिस बाद आवत रहेन। चलअ तू आए बड़ा नीक किहैय।"

उन्होंने कई और बातें कहीं। जिनका लब्बो-लुआब यह था कि हमें अपने घर-दुआर से रिश्ता नाता बनाए रखना चाहिए। बुज़ुर्गवार अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं उनको क्या बताता कि मेरे पापा भी इसी सोच के थे। वह तो रिटायरमेंट के बाद गाँव में ही स्थाई रूप से बसने का सपना सँजोए हुए थे। मगर चौथे नंबर के जो चाचा तब यहाँ सर्वेसर्वा बने हुए थे, वह संपत्ति के लालच में ऐसे अंधे हुए थे, कि सारे भाइयों के इकट्ठा होने पर नीचता की हद तक विवाद करते थे। 

शुरू में तो कई बरस बाहर रहने वाले तीनों भाई बरदाश्त करते रहे। और हर शादी-विवाह, बड़े त्योहारों, जाड़ों और गर्मी की छुट्टियों में परिवार के साथ आते रहे। लेकिन आते ही यह चौथे चाचा जो तमाशा करते घर में, बाबा, दादी को भी अपमानित करते, उससे सभी का मन धीरे-धीरे टूट गया। फिर बाबा की डेथ हो गई। दादी को पापा अपने साथ लेते गए। फिर वह आजीवन साथ रहीं। बीच में कुछ दिनों के लिए दूसरे चाचा के पास कानपुर भी गईं।

वह चौथे चाचा की बदतमीज़ियों उनके अपमानजनक उपेक्षापूर्ण व्यवहार से इतना दुखी इतना आहत थीं कि गाँव छोड़ते वक़्त फूट-फूट कर रोई थीं। चौथे चाचा का नाम ले कर कहा था, "अब हम कब्बौ ई देहरी पर क़दम ना रक्खब।" और दादी ने अपना वचन मरकर भी निभाया। वह दुबारा लौट कर जाने को कौन कहे फिर कभी गाँव का नाम तक नहीं लिया। और जब दादी चली आईं तो पापा और बाक़ी दोनों भाइयों ने भी गाँव जाना लगभग बंद कर दिया। 

उन बुज़ुर्गवार को क्या बताता कि चौथे चाचा की बदतमीज़ियों से जब दादी हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली गईं, वह दादी जी जो पहले पापा और दूसरे चाचा के यह कहने पर कि "अम्मा चलो कुछ दिन हम लोगों के साथ रहो।" तो कहती थीं, "नाहीं, चाहे जऊन होई जाए, हम आपन घर दुआर छोड़ि के कतो ना जाब।" ऐसे में यहाँ हम लोगों के आने का कोई स्कोप कहाँ रहा। वही चाचा जो संपत्ति के लिए अंधे हुए थे। भाइयों का हक़ मार-मार कर प्रयाग में और इस गाँव में भी अलग एक और मकान बनवाया था। बाद में उनका जीवन बहुत कष्ट में बीता। सबसे हड़पी संपत्ति पाँच लड़कियों की शादी में चली गई। 

यह पाँच कन्या रत्न उन्हें पुत्र रत्न के लोभ में प्राप्त हुईं थीं। पुत्र रत्न उनकी सातवीं या आठवीं संतान थी। और आख़िरी भी। जिन दो कन्या रत्नों ने शिशुवस्था में ही स्वर्गधाम कूच कर दिया था उनके लिए चाचा-चाची कहते। "हमार ई दोनों बिटिये बड़ी दया कई दिहिन। नाहीं तअ शादी ढूढ़त-ढूढ़त प्राण औऊर जल्दी निकल जाई।" बुज़ुर्गवार के बताए रास्ते पर चल कर मैं अपने सबसे छोटे चाचा पाँच नंबर वाले के घर के सामने रुका। उन्होंने भी अपना अच्छा ख़ासा बड़ा मकान बनवा लिया है। घर के लॉन में मोटर साईकिल खड़ी थी। दरवाज़े खिड़की सब बंद थे। गर्मी ने सबको क़ैद कर रखा था। अब गाँव में यही एक चाचा रह गए हैं। 

जीप से उतर कर मैंने दरवाज़े को कुछ समयांतराल पर खटखटाया। दो बार कुंडी खटखटाते वक़्त बचपन का वह समय याद आया जब बाबा थे। और बड़े से घर में सारे दरवाज़ों में बड़ी-बड़ी भारी सांकलें लगी थीं। बेलन वाली कुंडियाँ नहीं। क़रीब दो मिनट बाद छब्बीस सत्ताइस वर्षीया महिला ने दरवाज़ा खोला। मैं उसे पहली बार देख रहा था। वह शायद सो रही थी।

मेरे कारण असमय ही उसकी नींद टूट गई थी। इसकी खीझ उसके चेहरे पर मैं साफ़ पढ़ रहा था। खीझ उसकी आवाज़ में भी महसूस की जब उसने पूछा, "किससे मिलना है?" मैंने चाचा का नाम बताया तो बोली "वो सो रहे हैं। बाद में आइए।" तो मैंने कहा, "उन्हें उठा दीजिए। मैं जौनपुर से आ रहा हूँ। वो मेरे चाचा हैं।" मैंने उसे परिचय दे देना उचित समझा। चाचा कहने पर वह थोड़ी सतर्क हुई और अंदर जाकर जो भी कहा हो क़रीब पाँच मिनट बाद चाचा का छोटा लड़का बाहर आया। मुझे उसे भी पहचानने में थोड़ा समय लगा। 

उससे मिले भी बहुत समय बीत गया था। इसके पहले मैं उससे तब मिला था जब वह हाईस्कूल में था। दाढ़ी-मूंछें शुरू ही हुईं थीं। अब वह पौने छः फीट का लंबा चौड़ा युवक था। उसने पहचानते ही पैर छुआ और कहा "आइए भइया।" दरवाज़े के अंदर क़दम रखते ही हम ड्रॉइंगरूम में थे। लगभग बीस गुणे पचीस का बड़ा सा कमरा था। जो ड्रॉइंगरूम की तरह मेंटेन था। एक तरफ़ सोफ़ा वग़ैरह पड़ा था। दूसरी तरफ़ तखत पर चाचा सोते दिखाई दिए। बीच में एक दरवाज़ा भीतर की ओर जा रहा था। दरवाज़े पर पड़े पर्दे की बग़ल से जैसी तेज़ लाइट आ रही थी उससे साफ़ था, कि उधर बरामदा या फिर आँगन था। 

मुझे सोफ़े पर बैठने को कह कर चचेरे भाई, जिसका नाम शिखर है ने अपनी पत्नी को मेरा परिचय बताया। तो उसने भी मेरे पैर छुए। साथ ही उलाहना देना भी ना भूली कि "भाई साहब आप लोग शादी में भी नहीं आए इसीलिए नहीं पहचान पाए।" मेरी इस भयो यानी छोटे भाई की पत्नी ने ही दरवाज़ा खोला था। उसकी शिकायत उसका उलाहना अपनी जगह सही था। उसने जिस तेज़ी से उलाहना दिया उससे मैं आश्चर्य में था। क्योंकि वह उलाहना दे सकती है मैंने यह सोचा भी नहीं था। लेकिन मैं यह भी सोचता हूँ कि मैं भी अपनी जगह सही था। 

उसके ही सगे श्वसुर और मेरे इन्हीं छोटे चाचा ने एक बार रिवॉल्वर निकाल ली थी अपने बड़े भाइयों पर। जब बाहर रहने वाले तीनों भाइयों ने चौथे नंबर वाले चाचा को समझाने का प्रयास करते हुए कहा था कि "हम लोग तो रहते नहीं। तुम दोनों यहाँ जो कुछ है आधा-आधा यूज करते रहो। आगे जब कभी हम लोग आएँगे तब देखा जाएगा। कम से कम रिटायर होने तक तो हम लोग आ नहीं रहे।" 

इस पर चौथे चाचा बिफर पड़े थे कि "मेरा परिवार बड़ा है। सारी प्रॉपर्टी की देखभाल, मुकदमेबाज़ी सब मैं सँभालता हूँ। चाहे कुछ भी हो जाए। धरती इधर से उधर हो जाए लेकिन मैं आधा नहीं दूँगा।" सबने सोचा कुछ हद तक यह सही कह रहे हैं। छोटे चाचा वैसे भी महीने में पाँच-छः दिन ही रहते हैं। बाक़ी दिन तो यह इलाहाबाद में अपनी नौकरी में रहते हैं। तो सबने सलाह दी कि चौथे का कहना सही है। पैंसठ-पैंतीस के रेशियों में बाँट लो तुम दोनों। 

बस इतना कहना था कि यही चाचा बमबमा पड़े थे। बिल्कुल इसी गाँव के बम-बम पाँड़े की तरह। जो अपनी ख़ुराफ़ातों से पूरे गाँव को परेशान किए रहते थे। परिवार को भी। एक होली में भांग में मदार के बीज ना जाने किस झोंक में पीस गए। ज़्यादा मस्ती के चक्कर में ऐसा मस्त हुए कि यह लोक छोड़ कर परलोक चले गए। मगर पीछे क़िस्से बहुत छोड़ गए। इन्हीं की आदतों से इंफ़ेक्टेड यही चाचा तब अपनी पत्नी का नाम लेकर चिल्लाए थे, "निकाल लाव रे हमार रिवॉल्वर, देखित हई अब ई बंटवारा कैइसे होत है। हम छोट हैई त हमके सब जने दबइहैं। लाओ रे जल्दी।"

और मूर्ख चाची ने भी अंदर कमरे से रिवॉल्वर निकाल कर चाचा को थमा दी थी। ये अलग बात है कि ये चाचा उस रिवॉल्वर का कुछ प्रयोग करते उसके पहले ही गश खाकर गिर पड़े। बँटवारे की बात जहाँ शुरू हुई थी। वहीं ख़त्म हो गई। इसके बाद तीनों भाई तभी गाँव पहुँचे जब इन दोनों भाइयों के बच्चों का शादी-ब्याह हुआ या ऐसा ही कोई भूचाल आया। अन्यथा भूल गए अपना गाँव, अपना घर, संपत्ति। फिर इन दोनों ने अपने मन का ख़ूब किया। जो चाहा खाया-पिया, बेचा। जो चाहा अपने नाम कर लिया। 

बाक़ी भाइयों के नाम बस वही खेत, बाग़ बचे रह गए, जो क़ानूनी अड़चनों या भाइयों के हाज़िर होने की अनिवार्यता के कारण बेच या अपने नाम नहीं कर सकते थे। यहाँ तक कि पड़ाव पर की छः दुकानों में से पाँच फ़र्ज़ी लोगों को खड़ा कर बेच ली और पैसे बाँट लिए। जिसका पता दसियों साल बाद चल पाया। और मैं ऐसे ही चाचाओं में से एक सबसे छोटे वाले से मिलने के लिए उन्हीं के ड्रॉइंगरूम में बैठा था।
 
अपने रिवॉल्वर वाले चाचा से। वो सो रहे थे। लड़के ने मेरे मना करने के बावजूद उन्हें जगा दिया। उन्होंने आँख खोली तो उसने मेरे बारे में बताया। सुनकर वह उठ कर बैठ गए। उन्हें उठने में बड़ी मुश्किल हुई थी। दोनों हाथों से सहारा लेते हुए मुश्किल उठ पाए थे। उनके उठने से पहले मैं उनके पास पहुँच गया था। उनके बैठते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने सिर ऊपर उठा कर एक नज़र देखकर कहा "खुश रहो।"

फिर सिरहाने रखे चश्में का बॉक्स उठाया। चश्मा निकाल कर पहना। मैंने देखा वो पैंसठ की उम्र में ही अस्सी के आस-पास दिख रहे थे, बेहद कमज़ोर हो गए थे। मुझे हाथ से बग़ल में बैठने का संकेत करते हुए जब उन्होंने बैठने को कहा, लेकिन मैं संकोच में खड़ा ही रहा तो बोले, "बैइठअ बच्चा।" काँपती आवाज़ में इतना भावुक होकर वह बोले की बिना देर किए मैं बैठ गया।

– क्रमशः

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
बात-चीत
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें