कवि बनने की होड़
आनंद त्रिपाठी ‘आतुर’
बहुत हो चुका मन करता है मैं भी कवि बन जाऊँ
रात-रात भर बिना अर्थ के सबको ग़ज़ल सुनाऊँ
गंजीपुरा से जैकेट ले लूँ काली नीली पीली
हाथ में महँगी घड़ी बाँध लूँ दिखे बहुत चमकीली
फोटो शूट करूँ सब के संग सब का जन्म दिवस मनाऊँ
पूड़ी चाट कचौरी काफ़ी से स्टेटस रोज़ सजाऊँ
दादा हुक्म ग़ुलामी कर के पीछे-पीछे भटकूँ
एक दूजे की कर के बढ़ाई ख़ुद में मैं ही मटकूँ
इतनी सब सच्चाई तुमको मैं कैसे बतलाऊँ
बहुत हो चुका मन करता है मैं भी कवि बन जाऊँ॥
एक दूजे का काव्य चुराऊँ सबसे बढ़के स्वयं लगाऊँ
ख़ुद पैसा न मिलना जुलना बाप का पैसा ख़ूब उड़ाऊँ
ख़ुद ख़र्चे से कवि सम्मेलन पुरस्कार ख़रीदूँ
कुर्ता ग्यारह जोड़ी रख कर मैं भी ख़ूब अब फूलूँ
आता जाता कुछ नहीं है छंद सोरठा चौपाई
स्वर व्यंजन का ज्ञान नहीं है कहाँ लगाएँगे पाई
आज के कवि हैं परे कल्पना के कैसे समझाऊँ
बहुत हो चुका मन करता है मैं भी कवि बन जाऊँ॥
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