धरती की व्यथा
आनंद त्रिपाठी ‘आतुर’
तपन ये लौ बड़ी गर्मी मेरे तन को जलाती है
सुनाने को व्यथा अपनी हमें धरती बुलाती है
कभी सरिता की ठंडी धार थी इस वक्ष में मेरे
कभी पर्वत पहाड़ी कंदरायें प्रत्यक्ष थीं मेरे
यहाँ के वृक्ष जंगल काट कर बस्ती बना डाली
मनुज सब नष्ट कर देखो मेरी क्या गति बना डाली
बड़े निष्ठुर हैं ये आज भी पछताते नहीं हैं क्यों
कभी दो चार पौधे भूल से लगाते नहीं हैं क्यों
हमें उपकार का अध्याय हरदम ये सिखाती है
सुनाने को व्यथा अपनी हमें धरती बुलाती है,
हमें शीतल हवाएँ चार ऋतुएँ फिर से लौटा दो
वही सावन की काली घन घटाएँ फिर से लौटा दो
मेरी पीड़ा मेरा ये कष्ट मानव तुम मिटा दो न
जो छाया है प्रदूषण हर जगह उसको हटा दो न
करोगे आज से अब से अभी उद्धार तुम मेरा
यहाँ कूकेगी कोयल एक दिन होगा नया सवेरा
यही माँ धरती सबको वेदना अपनी बताती है
सुनाने को व्यथा अपनी हमें धरती बुलाती है॥
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